प्राच्ोील भारत क्का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक इतिहास (६27००ए ग्यते एज साउ(ठएफ रण दघरएाछएता तिताव ) प्रो. निरजर्नातह 'योगमरि! एम ए (हिन्दी व सस्वूत) रिसर्च पब्लिकेशन्स त्रिपोलिया, जयपुर-2 702८5 #0#8 57707 ] बैदिक साहित्य--उहिताएँ, ब्राह्मण, प्रारण्यक, उपनियद्‌ एवं सूत्-प्रन्थ 20 झक 2 पौराणिक, भ्राधुनिक तथा शास्त्रीय साहित्य 20 भक (क) पौराणिक साहित्य (ख) भ्राघुनिक साहित्य (गे) शास्त्रीय साहित्य--() दाशनिक साहित्य (7) धमशास्त्न (॥) प्रथशास्त्र (7९) भलकारशास्त्र (५) पभायुवेंद (४) वैज्ञामिक साहित्य (शव) ज्योतिष (पा) तन्‍्त्र एवं (४) गणित । 3 प्राचीन भारत का सॉँस्कृतिक इतिहास (0 ऋग्वेद काल से 400 ई पु तक का प्राचीन भारत का साँस्कृतिक इतिहास । (7) भौय काल से 2वी शत्ताब्दी ई तक के ऐत्तिहासिक भ्रवरशेषों का इतिहास । (पा) भारत के झ्लौपनिवेशिक तथा धाँस्कृतिक विश्तार का इतिहास । 20 भक &) एएश-5प्तापरड 4 एाष्ीॉ७ छिडघथरफ्९त ज़5 (06७ एएछछत6९75 एपजाज्ञाध्त एज 8९४८४7८ एप्रछाप्या0०05, 77 908, 387907-2 एजचाठांट0 ४६ 5 ॥, एत॑ट३ उद्राकण ल मूमिका देववाणी सस्दत में प्राचीन भारत गा समा मारित्य मृजित्र टप्ना है। ” साहित्यिक इतिहास बी परिधि 3000 ई पू से प्राज तक व्यापक परस्लु पाचीन भारत का साहित्य 3000 ई पू से 783 ई तय ही सीमित रहा है, एमारा प्राचीन साहित्य वेदिक एवं लोकिक सरउत में भ्रवेपमुयी रहा है । पेंदिक साहित्य ऋग्वेद से प्रारम्भ होता है । ऋग्वेद के पश्चात्‌ यजुरवेद, सामवेद, अ्रधनेवेद ॥रम सहिताप्रो की रचना हुई। सहिता-कात के उपरात्त ब्राह्मण गस्धो का युग भारस्म हुआ । ऋग्वेद के ऐतरेय एवं कौपीनकी, यजुर्वेद के त॑तिरीय तथा शतपय, साम्बेद का छान्दोग्प तथा भ्रयर्वेचेद का गोपथ प्रभुख ब्राह्मण ग्रत्य मान्य है । वेद के एमी क्रम में आरण्यकों की रचना हुई । प्रारण्यक्रों के गरचात्‌ उपतिपद्‌ युग या सूगपात हुआ । इस युग में मुस्यत ब्रह्मविद्या के सकेनफ ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डक्य, ऐनरेय, कौपीनकी, छान्दोग्य, तैतिरोय, श्वेताश्वतर तथा बुहुदारण्यफ नामक बारह उपनिपषदों की रचना हुईं । लौक़िक सम्कृत में रामायण तथा महाभारत को क्रमश प्रथम और हित्तीय स्थान मिला । इन प्रन्यों के पश्चात्‌ सस्‍्कुत साहित्य साहित्यिक विधापरक तथा शास्त्रीय साहित्य के रूपो मे विकसित हुआ । साहित्यिक विधाझो मे नाटक, महाकाव्य, गीतिकाव्य, गद्य-साहित्य, भ्रास्यान साहित्य ग्रादि का विकास हुआ । नाटक के क्षेत्र में भास, अ्रश्वधोप, कालिदास, भवभूति, विशास्ददत्त श्रादि नाटककारो ने महत्त्वपूर्ण रचनाएँ प्रस्तुत वबी। कालिदास का 'प्रभशिज्ञान शाकुन्तलम्‌” विश्व-साहित्य के अनुपम नाटकों मे से एक है । श्रश्वघोय, कालिदास, भारवि, माघ तथा श्रीहर्प जैसे महाकवियों ने क्रमश 'बुद्धचरित्त', 'रघुवश', 'किरातर्जुनीय, 'शिशुपालवधम्‌' तथा 'सैषधचरित' की रचना करके महाकाव्य के जगत का विस्तार किया। भौतिकाव्य के क्षेत्र मे कालिदास ऊे 'मेघदूत' ने पर्माप्त ल्याति प्राप्त की । गद्य साहित्य के क्षेत्र में वाणभट्ट की 'कादस्वरी', सुबन्धु की 'वासवदत्ता! तथा दष्डी का 'दशकुमारचरित' नामक विश्व-विश्वुत्त ग्न्‍न्य लिखे गए। 'पचतन्त्र' श्राप्यान साहित्य का विश्व-विद्यात॒ ग्रन्थ है । सस्कृत का शास्त्रीय साहित्य दशन, धर्मशास्त्र, भ्रधेशास्त्र, अलकार शास्त्र, विज्ञान, ज्योतिष, तनन्‍्त्र तथा मणित प्रभुति के रूप मे भी समादरणीय रहा है। दशन-जगत में साँस्य, थोग, न्याय, वैशेषिक, मीमाँसा तथा वचेदान्त पड्दशेन के रूप में और चार्बाक, बौद्ध तथा जेन नास्तिक दशन के रूप मे स्यात रहे हैं। 'मनुस्मृत्रि” जैसे ग्रन्थ धर्मेशास्त्र के रूप मे तथा कौटिल्य का 'अथेशास्त भ्रभशास्त्र के हूप में प्रसिद्ध) रहा है। भ्रलकार शास्त्र के क्षेत्र मे भरत का 'ताहुयशास्त्र', भामह का 'काब्यालकार', टीपत का “काव्यालकार-सूअ', प्रानन्दवर्धन का “वव्यालोक', अभिनवगुप्त की 'अभिनवभारती', कुन्तक का 'वक़्ोक्ति जीवित', मम्मट का 'काव्यप्रकाश', क्षेमेंन्द्र का भौजित्य-विचार-चर्चा', विश्वनाथ का साहित्य दर्पंण', जगन्नाथ का 'रसगभाधर' दा इत्यादि भ्रन्य प्रसिद्ध रहे हैं । पौराणिक विज्ञान, 'वेदाग ज्योतिष, 'रुद्रयामल तन्‍्त्र', जैंसे ग्रन्थ भी शास्त्रीय साहित्य के गौरव के परिचायक रहे है । प्राचीन भारत का सास्क्ृतिक इतिहास वेदिक युग से भक्ति प्रान्दोलन तक चलता है । वैदिक सस्कृति के परिचायक वेद, ब्राह्मण, प्रारण्यक एवं उपनिपद्‌ जैसा साहित्य रहा । पौराणिक सस्क्ृति या महाकाव्ययुगीन सस्क्ृति के झ्राधार पुराण, रामायण तथा महाभारत नामक ग्रन्थ रहे है। बौद्ध सस्कृति तरिपिटक साहित्य पर तथा जैन सस्कृति प्राचारागसूत्र, जैसे ग्रन्थो के ग्राधार पर जानने योग्य है। भक्तिकालीन सस्क्ृति को जानने के लिए शकराचायें का 'विवेकचूडामणि' एव शारीरिकभाष्य', रामानुज का “श्रीभाष्य'ं तथा वल्लभाचाय का “भ्रणुमाण्य/ नामक ग्रन् उल्लेखनीय हैं। प्राचीन भारत की सस्क्ृृति के इतिहास को स्पष्ट करने का श्रेय 'रुद्रदामन' जेसे शिलालेखो को भी है। भारतीय सस्क्ृति के प्राणभूत ग्रन्थों को विदेशी भाषाओ्रो में अनुदित भी किया गया । ये ग्रत्थ भारतीय सस्क्ृृति के प्रसार के प्रवल प्रमाण रहे हैं । प्रस्तुत पुस्तक मे बंदिक, पौराणिक, शास्त्रीय तथा पब्राघुनिक साहित्य एव साँस्कृतिक इतिहास का तलस्पर्शी ज्ञानाकत करने का प्रयास किया गया है। ऐतिहासिक सन्दर्भो का उल्लेख करते समय निष्कप-स्वरूप तथ्यों के प्रतिपादन पर बल दिया गया है। सस्क्ृत साहित्य के इनिहास की प्रवृत्तियो ग्रथण विशेपताप्रों को यथास्थान उल्लिखित करना प्रस्तुत पुस्तक की एक नई दिशा है। हिन्दी साहित्य में जो प्रवृत्तितत इतिहास लेसन कौ पणाली विकसित हुई, वह परीक्षा की दृष्टि से सस्कृत साहित्य भे भी सदेव वाँछित रही है। प्रस्तुत पुस्तक उसी कमी की प्रतिपूर्ति का एक प्रयास है। विषय का प्रतिपादन करने के लिए प्रामाणिक तथ्यों को यथास्थान देने का प्रयास किया गया है । सॉस्कृतिक इतिहाय को स्पष्ट करने के लिए सस्कृति के इतिहास की पृष्ठभूमि को स्पष्ट करके सॉँस्कृतिक इतिहास का पथ निर्मित कर दिया गया है। विभिन्न विद्वानों द्वारा मतो को परीक्षित करके झावश्यक निष्कर्ष भी प्रस्तुत किए गए है। यद्यपि सस्कृत साहित्य को समस्त विधाधो का विवेचन 'सस्क्ृत साहित्य का इतिहास” शीर्षकीय पुस्तक में ही सम्भव है, तथापि निर्धारित प्रष्यायो को आधार बताकर प्रस्तुत पुस्तक मे भ्रद्यतन साहिन्यिक एवं साँस्कृतिक जानकारियाँ प्रस्तृत की गई हैं । प्रस्तुत पुस्तक के लेखन मे जिन सल्दर्स-प्रन्यो की सहायता ली गई है, मैं उनके लेखको के प्रति हादिक झतज्ञता ज्ञापित करता हें। इस पुस्तक के सशोधन हेतु विद्वानों के सुझाव झ्ामन्त्रित हैं। जो सुझाव यथासमय प्राप्त होगे, उनको यदाविधि स्वीकार किया जाएगा । निरजनसिह अनुक्र्माणका ! भाचौन भारत का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक इतिहास एक परिचय न (ंथ्राए भात एज पाइंतर ण॑ दशा प्रापाए) प्राचीन भारत (3000 ई प्‌ से 783 ई तक (2) साहित्यिक इंतहास (3) वैदिक साहित्य (3) सॉँस्क्ृत्तिक इतिहास (6) साहित्यिक इतिहास 2 चैदिक साहित्य --सहिताएं, ब्राह्मण, झारण्यक, उपनिषद्‌ एव सृत्र प्न्‍् हे (१९४6 श्राप) सहिता (27) ऋग्वेद सहिता (27) यजुर्वेंद सहिता(34) सामवेद सहिता (40) भ्रथवेवेद सहिता (44) वेदों का वर्ण्यं विषय (48) ब्राह्मण प्रत्य (54) ब्राह्मण ग्रन्थो का विवेच्य विषय (56) ब्राह्मण प्रत्थो का महत्त्व (57) प्रारष्यक ग्रन्थ (60) श्रारण्यक का वर्गीकरण (6) प्रारण्यको का वस्मं-विषय (63) झारण्यक प्रल्थों के प्रामाशिक भाष्य (63) ब्राह्मण भौर भारण्यक ग्रन्थों मे प्रन्तर (64) उपनिपद्‌ (65) उपनिषदो का विवेच्य विषय (7) उपनिषदों की शिक्षाएं (74) षड़्-वेदाँग (79) सूत्र ग्र्थ (80 )वेदो के श्राधार पर कल्पसूचो का वर्यीकरण (8 ) कल्पसूत्रों का वर्ण्य विषय (82) सूत्र प्रत्थो का अन्‍य ग्रन्थों पर प्रभाव (83) 3 पोराणिक साहित्य (९९४0० ए९७४ (४४४७४) पुराणों का वर्गीकरण (85) पुराणों के लक्षण (90) पुराणों का महत्त्व (99) पौराणिक महाकाव्य (06) रामायण (06) महाभारत (!] ) महाभारत का रचना काल (500 ई पृ )(2)महामारत का वर्ष्य विषय ((7) 23 ॥४ श्रनुक़मणिका 7 ऐतिहासिक भ्रवशेषो फा इतिहास (सौयंकाल से 2वी शताब्दी तक) 329 (त्राइणालां एच्रा8 ण 882९० 770॥8) मौययूगीन कला एवं ऐतिहासिक प्रवशेष (329) शु गुगीन कला एवं ऐतिहासिक प्रवशेष (333) कृपाणब्रुगीन कला एवं ऐतिहासिक श्रवशेष (336) गुप्तयुगीन कला एवं ऐतिहासिक प्रवशेष (340) पूर्व॑मध्यकालीन कला एवं ऐतिहासिक अवशेष (343) 8 भारत के श्नौपनिवेशिक एव सॉसस्‍्कृतिक विस्तार का इतिहास - « 347 (टणे०णाब् ॥एऐ (प्रॉफणो एडएशाड़ाणा ० [889) लका (349) दक्षिण-पूर्वी एशिया (35]) पश्चिमी एशिया (353) मध्य एशिया (354) चीन (355)तिव्बत झ्लौर तेपाल (356) प्रश्गावली 359 (एरएशजशाए 0ए९४/णा$) प्रचोन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्कृतिझ इतिहास : एक परिचय (आॉभिवाए भाव एजणाएणवग नाध09 ए शक ्षाणशा। ॥#0॥8.. 97 ॥0000॥0ण) किन कक. सो अल«लणनक-नी फल कनननन. भारतीय इतिहास भ्ौौर सस्क्ृति का प्राघार भ्रत्यधिक प्राचीन है। देश की सामाजिक सस्यथाएँ इसी प्राचीनता के योग से पल्‍लवित श्रौर पुष्पित हुई है। इनके विकासक्रम का इतिहास सहस्तो वर्षों का है जिनमे भ्रगेक सामाजिक तत्वों का योग है। वैदिक यूग से ही भारत की सभ्यता शोर संस्कृति उन्नत रही है। भारतीय सस्कृति की प्रक्षृण्शाता बनो हुई है, यश्ञापि इस बीच प्रनेफानेक विदेशियों के प्रभियान हुए जिन्होंने देश को पदाक्तान्त किया झौर भ्रपना शासन स्थापित क्या | विभिन्‍न शत्ताब्दियों मे होने वाले परिवतेन भ्रौर परिवद्धंन हिन्दू सस्कृति के भ्रग वन गए, किन्तु भारतीय समाज झौर सस्क्ृति का भ्र,धार तत्व वही वना रहा जो वैदिक युग मे था। भारतीय सस्कृति का मूल भाधार धामिक प्रवृत्ति है जिससे मनुष्य का सारा जीवन प्रभावित होता रहता है शताब्दियों से भारतवर्ष का इतिहास बहुत भ्रशों तक विभिन्न जातियो भर सम्प्रदायो के पारस्परिक सघर्ण का इतिहास रहा है। पर श्राज भारत में एक राष्ट्रीयता की भावना के उदबोषन भौर पुष्टि के लिए समस्त भारतीय सम्प्रदायों मे एकसूतात्मा के रुप में व्याप्त भारतीय सस्कृति के महत्त्व भौर व्यापकता के साथ-साथ स्वरूप शौर विकास को भी समझता झावश्यक है । भारतीप सस्क्ृति के विकास मे भ्रनेक सॉस्कृतिक उपधाराशों का योग रहने पर भी उसके प्रधात स्वरूप को बनाने मे निसलन्‍्देह वैदिक विचारधारा का प्त्यधिक भाग रहा है। उसमे “यत प्रदृत्तिभूं ताना येन स्वेभिद ततम्‌” के भ्रनुसार सारे दिश्वप्रपच के विभिर्य व्यापारों श्लौर दृष्यो मे एकसूत्रात्पकता को बतलाने चली “तञ्र को मोह के शोक एकल्वमनुपश्यत ” के अनुसार समस्त प्राणियों मे एकात्म- दर्शन करने वाली, भौर “रसोइहमप्सु कौन्तेय प्रभास्सि शशिसूर्ययों ” के भ्रनुसार ! डॉ जपशकर 'मिश्र॒प्राज़ोन भारत का सामाजिक इतिहास, पृष्ठ 2 से 6 77 प्ननुक़मणिका 7 ऐतिहासिक प्रवशेषो का इतिहास (भौर्यकाल पे 2वी शताब्दी तक) (म्राह्नततादा रिणा$ 0 87श/शा ग्रह) मौयेंयूगीन कला एवं ऐतिहासिक भ्रवशेष (329) शु गयुगीन कला एवं ऐतिहासिक प्रवशेष (333) कुपाणयुगीत कला एव ऐतिहासिक श्रवशेप (336) ग्रुप्तमुमीन कला एवं ऐतिहासिक प्रवशेप (340) पुर्वेमध्यकालीन कला एवं ऐतिहासिक अवशेष (343) 8 भारत के भौपनिवेशिक एव सॉस्‍्कृतिक विस्तार का इतिहास (एकागानत 350 007 एचुशाहइा070 ० [808) लका (349) दक्षिण-पूर्वी एशिया (35) पश्चिमी एशिया (353) मध्य एशिया (354) चीन (355)ततिब्बत और नेपाल (356) भ्रश्नावली (एआश्शशाए (76९४07008) 329 347 359 प्राचीन भारत का साहित्यिक एव सास्कृतिक इतिहास एवं परिचय 3 हमारे देश में प्राचीन तथा भ्र्वाचीन ण्वृत्तिमों फिवा विशेषताओं की प्रधानतता दृष्टिगोचर होती रही है, होती है। भरत हमे 784 ई से ग्राधुनिकता का श्रीगशेश मानकर प्राचीन भारत का समय 3 हजार ई पू से लेकर 783 £ तक हो मानना पड़ेगा | साहित्यिक इतिहास का सम्बन्ध साहित्यित कुतियों के सन्दर्भा से रहा काना है। जब कोई साहित्यिक कृति काव्यात्मक सौंदय से सतलित होकर फ्रिसी दिशेष युग का प्रतिनिधित्व करती है, तो उसका साहित्यिक इनिहास स्वयमेद निभित होता हुंभा भी विद्वानों को ब्रन्य कृतियों के साथ तुानात्मक ऐतिहासिक पत्दर्भ प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित किया करता है। प"न्तु जब साहित्यिक कृतियों में विभिन्‍न प्रुगों पी सग्कृति के विकास को "पी प्रस्तुत किया जाता है तो उसे अन्तर साध्य के आधार छे रूप मे गिना जाता है तथा श्रन्य बाह्य उपकरणो--पिलालैण, मिवक्रे आदि के झाधार पर संस्कृति का विश्लेषण किया जाता है। इसीलिए प्राचीन भाग्त के साहित्य के इतिहास को साहित्यिक इतिहास तथा सॉस्कृतिक इतिहास के रूप में विभाजित क्रिया गया है । साहित्यिक इतिहास ससस्‍्कृत हमारी प्राचीन भाषा है । सस्कृत सम्पर्क-भापा होने के साथ-साथ साहित्य की भाषा के रूप मे समादृत रही है। श्रत प्राचीन भारत का साहित्पिक इतिहास प्रमुख्त सस्कृत साहित्य का ही इतिहाम है । संस्कृत भापा चैदिक तथा लोकिक सस्क्ृत के रूप मे प्रचलित रही है। वैदिक संस्कृत मे वैदिक साहित्य का प्रखयन हुआ तथा लोकिक संस्कृत मे पौराणिक, शास्त्रीय तथा काव्य-महाकाव्यादि की रचना हुई। पहाँ मुस्यत प्राचीन भारत के भ्रथवा ससस्‍्कृत के आचीन साहित्य की परम्परा को सूचित करना ही हमारा प्रयोजन है । बेदिक साहित्य बेंदिक मस्कृत मे प्रशीत ईश्वरत्व-प्राप्त ऋषियों के साहित्य को वैदिक साहित्य कहा जाता है। वैदिक साहित्य की समय-सीमा सामान्यत 3000 ई पु से लेकर 000 ई पू तक है। वैदिक साहित्य को मुस्यत चार भागो मे बाँटा जाता है--! सहिता, 2 ब्राह्मण, 3 भ्रारण्यक एव उपतनिषद्‌ तथा 4 तेदाग साहित्य । 4 सहिता--सकलित अथवा सग्रहीत ग्रन्ध को 'सहिता' नाम से जाता जाता है। बेद-मन्‍्त्र विभिन्न ऋषियों की परम्परा मे प्रचलित रहते हुए इधर- उधर बिल्लरे हुए थे | विभिन्न ऋषियों ने यत्र-तत्र विदीरण भन्‍त्रो का सकलन करके सद्दिताप्रों का निर्माण किया। प्रमुक्त सहिताएँ चार है--! ऋग्वेद, 2 यजुवेंद, 3 सामवेद तथा 4 पश्रथर्ववेद जिस सहिता से ऋचाहों भ्र्थात्‌ पद्च या मन्चो का सकलन है, उसे ऋग्वेद के नाम से जाता जाता है। प्राचीनकाल मे ऋग्वेद की पाँच शाखाएँ वी--- ! शाकल, 2 वाष्फल, 3 प्राश्वलायन, 4 शाखायन तथा 5 साण्डूबय । श्रागे चलकर 2 प्राचीत भारत का साहित्यिक एवं साँस्कूतिक इतिहास बाह्य जगत्‌ तथा आम्यन्तर जगत में परस्पर अभ्रविरोधात्मकू अरद्वेत या ऐक्य को दशनने वाली जो आध्यात्मिकता पाई जाती है, या अन्वकार पर प्रकाश की, मृत्यु पर प्रभृत्व की और श्रमत्य पर सत्य की विजय का जो अविचन आशावाद या प्रात्म- विश्वास पाया जाता है और पभ्रन्त में विरुद्ध परिस्थितियों मे भी न टूठनेवाला जो लचीलापन विद्यम,न है, वह सव बहुत कुछ वैदिक विचारबारा की ही देन है! सहस्रो वर्षो के व्यतीत होने पर भी वह आज तक वैदिक सम्कृति के रण मे रगी हुई है। यहाँ तक कि झ्ञाज भी भारतीय भारय॑ (हिन्दू) धर्म मे घामिक कंत्यो भर सस्कारो मे वैदिक्त मन्त्रो का प्रयोग किया जाता है। भ्राज भी विवाह की वही पद्धति है, जो सहस्रो वर्ण पूर्व भारत मे प्रचलित थी । बैदिक धर्म, विशेषकर वेदिक कर्मकाण्ड का प्रधान उपस्तम्भ यजुर्वेद है ।? प्राचीन भारत (3000 ई प्‌ से [783 ई तक) प्राचेन भारत की कालावधि के विपय में उदमित्य कुछ नहीं कहा जा सकता । ऋग्वेद को विश्व का प्राचीनतम साहित्य मानकर प्रद्य-पर्यन्त पर्याप्त विचार- विमर्श हुप्ना है। परन्तु ऋग्वेद का रचना-काल अब भी निश्चयात्मकता के साथ प्रस्तुत नही किया जा सका है। मैक्मसूलर जं॑से विकासवादी सिद्धान्तप्रिय बेद- विचारको ने ऋग्वेद को कम से कम 200 वर्ण ईसा पूर्व रचित प्रवश्य माना है। विभिन्‍न विद्वानों द्वारा प्रतिपादित वेदों के रचना काल का श्रनुशीलन करने पर यह निश्चय हो जाता है कि वेद दो हजार वर्ण ईसा पूर्व में प्रणीत हो चुके थे। प्रत ऋणष्वेद के रचना-काल की पुर्वे सीमा कम से कम तीन हजार वर्ण ई पू मानी जा सकती है । इतिहास मे प्राचीन भारत की समय-सीमा सिन्घुघाटी की सभ्यता से लेकर प्र्थात्‌ 4000 वर्ण ईसा पूर्व से लेकर 0वी शत्ताब्दी पर्यन्त स्वीकार की जाती है । 0वी शताब्दी से लेकर 8वी शताब्दी के मध्यपरयन्त मध्यकाल स्वीकारा गया है। झाघुनिक काल 8वी शताब्दी के मध्य से लेकर श्रद्यपर्यल्त स्वीकार किया जाता है । परन्तु सस्कृत साहित्य के इतिहासकारो ने गणित तथा तन्त्र जैसे शास्त्रीय साहित्य को प्राचीन भारत की देन मानकर तथा 784 ई भे सर विलियम जोन्स की सफल चेष्टाओं से “रायल एशियाटिक सोसाइटी” नामक शिक्षण-सस्था की कलकत्ता मे स्थापना के आधार पर नवजागरण को आधुनिक मानकर प्राचीन भारत को १783 ई पर्यन्त ही स्वीकार किया गया है ।* काल-निर्धारण के लिए भ्रादि, मध्य तथा अ्रन्त नामक काल-ब्रिभेद की मान्यता है । यदि सस्कृत साहित्य के इतिहास को तीन भागों मे विभाजित किया जाए तो 3000 ई प्‌ से 600 ई प्‌ तक श्रादिकाल, 600 ई पू से 783 ई तक मध्य काल तथा 784 ई से श्राज तक आधुनिक काल माना जा सकता है। ] वैदिक साहित्य--यजुर्वेद डॉ मगलदेव शास्त्री, पृष्ठ /6 2 डॉ द्वीरालाल शुक्ल आधुनिक सम्कृत-साहित्य की भूमिका) प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्फृतिक इनिहांग एड परिलिय 3 हमारे देश में प्राचीन तथा ब्र्वाचीन प्रदृत्तियों तिदा विशेषतानों वौ प्रधानता दृष्टिगोचर होती रही हैं, होती है। झ्त हमे 784 ई से ब्राथुनित्ता का लीगणशेण मानकर प्राचीन भारत का सगय 3 हज्गर ई प्‌ से लफर ]783 ६ तक ही मानना पड़ेगा । साहित्यिक इतिहास का सम्बन्ध साहित्यिक कृतियों के सन्दर्भा से रहा प०ना है। जब कोई साहित्यिक कृति काव्यात्मक सौंदर्य से सतलित होकर तभी विशेष युग का प्रतिनिधित्व करती है, तो उसका साहित्यिक इनिहाप स्वयमेद निर्मित होता हुमा भी विद्वानों को भ्न्य कृतियों के साथ तुदनात्मक ऐतिहासिय पन्‍्दर्म प्रस्तुत बरसे के लिए प्रेरित किया करता है । परन्तु जब साहित्यिक कृतियों मे विभिन्‍न युगो की सम्कृति के विकास को भी प्रस्तुन किया जाता है तो उसे अन्त साक्ष्य के आधार के रूप मे गिना जाता है तथा श्रत्य बाहा उपकरणो--णितालेच, सिवफे श्ादि थे प्राधार पर सस्कृत्ति का विश्लेपश किया जाता है। इसीलिए प्राचीन भाग्त के साहित्य के इतिहास को साहित्यिक इतिहास तया सॉम्द्तिक इतिहास के झूप्र में विभाजित जिया गया है । साहित्यिक इतिहास सस्कृत हमारी प्राचीन भाषा है । संस्कृत सम्पर्क-भाषा होने के साथ-पाव साहित्य की भाषा के रूप मे समादृत रही है। परत प्राचीन भारत का साहित्पिक इतिहास प्रमुखतत सस्कृत साहित्य का ही इतिहास है । सस्कृत भापा चैंदिक तथा पोक्षिक सरक्ृत के रूप में प्रचलित रही है। वंदिक सस्कृत में वंदिक साहित्य का प्रणयन हुआ तथा लोकिक सस्कृत मे पौराशिक, शास्त्रीय तथा वाव्य-महाकाव्यादि की रचना हुई। यहाँ मुख्यत प्राचीन भारत के श्रववा संस्कृत के प्राचीन साहिटप की परम्परा को सूचित करना ही हमारा प्रयोजन है। बेदिक साहित्य वैदिक सस्कृत में प्रणीत ईएवरत्व-प्राप्त ऋषियों के साहित्य को बैदिक साहित्य कहा जाता है । वैदिक साहित्म की समय-सीमा सामान्यतत 3000 ई पु से लेकर 000 ई पू तक है। वैदिक साहित्य को मुख्यत चार भागों मे बाँटा जाता है--! सहिता, 2 ब्लाह्मण, 3 भारण्यक एव उपतिषद्‌ तथा 4 वेदाग साहित्य । 4 सहिता--सकतलित श्रथवा सग्रहीत प्रन्‍्थ को 'सहिता' नाम से जाता जाता है। वेद-मन्‍्त्र विभिज्ञ ऋषियों की परम्परा मे प्रचलित रहते हुए इधर- उधर बिल्वरे हुए थे। विभिन्न ऋषियो ते यत्र-तत्र विकीणं भन्‍त्रो का सकलन करके सहिताश्रों का निर्माण किया । प्रमुख मुख सहिताएँ चार हैं--.] ऋग्वेद, 2 यजुर्वेद, 3 सामदेद तथा 4 शअ्रथववेद | न जिस सहिता में ऋचाशो अ्रथ तू पद्य या मन्त्रों का सकलन है, उसे ऋग्वेद के नाम से जाता जाता है। प्राचीनकाल मे ऋग्वेद की पाँच शालाएँ थी--... ! शाक्ल, 2 वाष्फल, 3 झ्राइवलायन, 4 शाखायन तथा 5 माण्डूवय । झागे चलकर जज शीऑन्‍िज+++ 4 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास ऋग्वेद की 27 शाखाएँ विकसित हुई । ऋग्वेद सहिता के रचनाकारों मे जाख्ायन, वाष्कलि, कुपीतक, झाश्वलि प्रभूति ऋषि शिष्य-परम्परा के रुप मे प्रसिद्ध है। इस सहिता में 0 मण्डल, 85 अनुवाक तथा 0589 तक मन्त्र उपलब्ध होते है । इस सहिता का रचना-काल 3000 ई प्‌ के लगभग माना जाता है। गजुर्वेद सहिता में 'यजुप! या गद्य की प्रधानता है । इस सश्ति के कृष्णा तथा 'शुक्ल' नामक दो भाग हैं । कृष्ण यजुर्वेद की 'तेत्तितीय,' 'मैत्रायशी तथा कढ' शाखाएँ प्रसिद्ध हैं । शुक्ल यजुर्वेद मे काण्व' तथा 'वाजसनेय' शात्ाओ को गिना जाता है। प्रस्तुत सहिता मे चालीस श्रध्याय है। चालीसवाँ अध्याय 'ईशावास्थ' उपनिपद्‌ के रूप मे प्रसिद्ध है। 'यजुर्वेद सहिता” के रचनाकारों में कण्व याज्ञवलक्य, वेशम्पायन, श्रात्रेय भ्रादि ऋषि प्रमुख हैं। इस सहिता का रचनाकाल 2500 ईंपूहै। सामवेद सहिता मे 'साम' या गीति-तत्त्व की प्रधानता है। इस सहिता की तीन शाखाएँ--कौथुम, जैमिनीय तथा राणायणीय है | सामवेद सह्दिता के प्रणेताभो में जैमिनि, कुधुमी, राणायरा जैसे ऋषियो का योगदान हैं । इस सहिता का रचना- काल 2500 ई पृ स्वीकार किया जाता है ! सामवेद मे गीतो की प्रधानता है ! झ्रथवंबेद सहिता के प्रधान प्रणोता 'पथवंन्‌' ही थे। श्रथर्वा तथा अगिरस ने इस सहिता को विश्व-विदित बताया | वेद की इस चौथी सहिता में 20 अध्याय है । शायुवेद तथा तन्‍्त्रादि से प्रस्तुत सहितता का प्रगाढ सम्बन्ध है। इस संहिता का निर्माण-काल 2000 ई पू. मान्य है । सहिता-साहित्य कण्ठ-साहित्य के रूप मे विकसित रहा था । परन्तु कालान्तर में भोजपत्र पर लिखने की परम्परा विकसित हुईं तथा विभिन्न सहिताओ का भाषा- तत्त्व तथा वण्यें विपय के श्राधार पर सकलन करके उन्हें चार वेदो--ऋग्वेद, अजुर्वेद, सामवेद तथा अ्रथचवेद का रूप प्रदान किया | समस्त सहिता साहित्य विभिन्न यूगो मे प्रणीत होने के कारए वैदिक मापा के विभिन्न रूपो मे विकसित हुभ्ना। इसीलिए वैदिक सस्कृत के शब्दों के विभिन्‍न रूप मिलते है। सहिता साहित्य भारत वर्ण का ही नही, भ्रपितु विश्व का प्राचीनतम साहित्य है। 2 ब्राह्मए--वैदी की रचना के उपरान्त ब्राह्मण प्रल्थो का प्रशयन प्रारम्भ हुआ । ब्रह्म या विस्तृत भाव को स्वय मे सयोजित करने वाला श्रथवा यज्ञ की प्रधानता से परिपूर्ण वैदिक साहित्य को ब्राह्मण साहित्य के नाम से जाना जाता है। सहिता-साहित्य के यज्ञ-भाग को ब्राह्मणो मे विस्तार दिया गया है। ब्राह्मणों का सम्बन्ध चारो वेदो से रहा है| ब्राह्मण प्रन्थो का प्रणणन 2000 ई प्‌ के लगभग माना जाता है । ऋग्वेद से दो ब्राह्मणों का सम्बन्ध है । प्रथम ब्राह्मण ऐतरेय तथा दूसरा कौपीतकी । 'इतरा ' नामक शद्रा के पुड् महीदास ने ऐतरेय ब्राह्मण की रचना की। कुपीतक नामक ऋषि की शिष्य-परम्परा में 'कौपीतरो' ब्राह्मण की रचना हुई। इन प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्क्रतिक इतिहास एफ परिचय ४ दोनो ब्राह्मयों मे यज्ञ-विधान की चर्चा के अतिरिक्त सूग्हिटस्चना तवा दिहोरग- भूगोल से सम्बद्ध जानकारी भी प्रस्तुत वी गई है! थम यजुर्वेद की कृष्ण शापा से सम्बद्ध 'दैतिगीय' ब्राह्मण हैं तथा शुक्र बजुवद पे सम्बद्ध ब्राह्मण “जुतपथ' है | हैतिरीय का सम्मन्व बशाक्षम घममहंत्त £। बआतुपथ' का सम्बन्ध विभिन्न श्रात्यानों एव उपास्यानों के साथ-साथ यज्ञ-विधान तथा घिमिन्न सामाजिक व्यवम्याप्रों से है । शितरपथ' एक भझभूतपूर इ।हस्ण है । सामवेद की कौयुमीय सहिता या शावरा के पाँच ब्राह्मण है--। तैण्डव, 2 पडुविश, 3 प्रदूयुत, 4 मत्त तथा 5 छान्दौग्य । सामचेद की दूमरी जाला पलैमिनीय' से 'जैमिनीय ब्राह्मरा' तथा 'जैमिनीयम उपनिपद्‌ ब्राह्मण! विकसित हाए । इन ब्राह्मणों का इतिहास नया धमेशाय्त्र की दृष्टि से व्यापक महत्त है। राणाप्णी। सहिना का कोई ब्राह्मण नही है । है भ्रथर्वेवेद से सम्बद्ध एकमात्र ब्राह्मण 'गोपय' है। यह प्राह्मण ग्रन्थ होने पर भी वेदान्त से सम्बद्ध है। इस ब्राह्मण का यज्ञ भौर ब्रह्मविद्या नामक दोनो ही तत्त्तो की दृष्टि से भ्रत्यधिक महत्त्व है। ह (0) भ्रारण्यफ--प्ररण्य या वन में रचित तथा पठित होने की परम्परा क्र कारण वनप्रस्थितयों से सम्बद्ध कर्मों का प्रतिपादित करने वाले ग्रन्थों को भ्रोरण्पक ग्रन्थ कहा गया । जहाँ ब्राह्मशपग्रल्य गृहस्थाश्रम के कर्क्तव्यों का प्रतिपादन करने में व्यस्त रहे, वहाँ भ्ारण्यको ने वनप्रस्थियो के धर्म की चिवेचना की । ऋणतवैद से सम्बद्ध प्रारण्पक 'ऐतरेय! तथा कौषीनकी है । पूर्व वशित इन्हीं नामो वाले ब्राह्मण भ्रन्थो की परम्परा में जो शिष्य-परम्परा कार्य कर रहो थी, उमी परम्परा मे इन भारण्यकों का प्रणयतर हुआ । इन झारण्यकों में सुष्टि के गूढ तत्तत को भी स्पष्ट किया है । यजुर्वेद के भारण्यको मे 'तैत्तिरीय' तथा 'शतपथ' हैं। सामवेद से सम्बद्ध आरण्यक 'जैमिनीयोपनिषद्‌ श्रारण्यक' तथा 'छाम्दोस्यारण्यक' है । इन आरण्यको मे उपनिषद्‌-तत्व की भी पर्याप्त चर्चा है। प्रयवेवेद का कोई आरण्यकर उपलब्ध नही है । झारण्यको का रचना-काल 500 ई प्‌ तक मात्ता जाता है । (7४) उपनिषब्‌ू--भारण्यको मे उपनिषद्-तत्त्व पर्याप्त प्रवेश पा चुका था । इसीलिए झारण्यको श्ौर उपनिपदों को एक दूसरे के निकट पाया जाता है । आध्यात्म-विद्या से पूर्स ग्रन्‍्थों को उपनिपद्‌ कहा जाता है। प्रमुख तथा प्रामारिक उपनिषद्‌ वारह हैं, जिन पर शकराचार्य तथा रामानुआवार्य जंसे वेदास्तविदों के भाष्य उपलब्ध हैं। वारह उपतिषद्रों के वाम इस प्रकार हैं--१« ईसावाश्य, 2 केनोपनिएदू, 3 कठोपनिपद्‌, 4 प्रश्तोतनिषद्‌, 5 मुण्डकोपनिषद्‌, 6. माण्ड्कगोप- निपद्‌, 7 तैत्तिरीयोपनिपद्‌, 8 ऐतरेयोपनिपदु, 9 छान्दोग्योपनिषद्‌, 0 बुहदारण्प- कोपनिषदू, 3! कौपीनकी उपनिषद्‌ तथा 2 श्वेनाश्वतरोपनियद्‌ । 'ऐतरेय' तथा 'कौपीतकी' उपनिषद्‌ ऋग्वेद से सम्बद्ध हैं। यजुर्वेद से जुड़ हुए उपनिपद्‌ बुहृदारण्णकोपतिषद्‌, श्वेताश्वतरोपनियद्‌ तैतिरीगोपनियद्‌, दैशावास्य तथा कठोपनिषद्‌ हैं। 'केनोपनिपद्‌' तथा “छान्दोग्योपनिषद' का सम्बन्ध सामवेद से 4 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉँस्कृतिक इतिहास ऋग्वेद की 27 शाखाएँ विवसित हुईं । ऋग्वेद सहिता के रचनाकारों मे शाखायन, वाष्कलि, कृपीतक, श्राश्वलि प्रभूति ऋषि शिष्य-परम्परा के रूप मे प्रसिद्ध है। इस सहिता मे 0 भण्डल, 85 अ्नुवाक तथा 0589 नक मन्त्र उपलब्ध होते है। इस सहिता का रचता-काल 3000 ई पू के लगभग मानता जाता है। यजुवेद एहिता में 'बजुप” या गद्य की प्रधानता है । इस सरिता के कृपा तथा 'शुक्ल' नामक दो भाग है | कृप्ण यजुर्वेद की 'तेत्तितीय,' 'मैत्रायशी तथा कठ' शाखाएँ प्रसिद्ध हैं। शुक्ल यजुर्वेद मे 'काण्व' तथा 'वाजसनेय” शाखाझ्रो को गिना जाता है। श्रस्तुत सहिता मे चालीस श्रध्याय है। चॉलीसवाँ श्रध्याय 'ईशावास्य' उपनिषद्‌ के रूप मे प्रसिद्ध है | 'यजुर्वेद सहिता” के रचनाकारों मे कण्व बराज्वलक्य, वेशम्पायन, म्रान्रेय भ्रादि ऋषि प्रमुख हैं। इस सहिता का रचनाकाल 2200 ईपूहै। सामवेद संहिता मे साम' या गीति-तत्त्व की प्रधानता है। इस सह्तिता की तीन शाखाएँ--कौयुम, जैमिनीय तथा राणायणीय हैं | सामवेद सद्दिता के प्रणेताग्रो मे जैमिनि, कुयुमी, राणायणा जेसे ऋषियो का योगदान है । इस सहिता का रचरा- काल 2500 ई पु स्वीकार किया जाता है। सामवेद मे गीतो की प्रधानता है! अथवंवेद सहिता के प्रवान प्रणोता 'श्रथवंत्‌' ही थे। प्नथर्वा तथा अ्गिरस ने इस सहिता को विश्व-विदित बनाया । वेद की इस चौथी सहिता में 20 प्रध्याय है ! झायुवेंद तथा तन्‍्त्रादि से प्रस्तुत सहिता का प्रगाढ सम्बन्ध है। इस सहिता का निर्माण-काल 2000 ई पू. मान्य है । सह्दिता-साहित्य कण्ठ-साद्वित्य के रूप मे विकसित रहा था । परन्तु कालान्तर में भोजपत्र पर लिखने की परम्परा विऊसित हुईं तथा विभिन्न सहिताशो का भाषपा- तत्त्व तथा वण्ये विपय के श्राधार पर सकलन करके उन्हें चार वेदो--ऋग्वेद, पजुरवेद, सामवेद तथा भ्रथर्नवेद का रूप प्रदान किया । समस्त सहिता साहित्य विभिन्न यूगो मे प्रणीत होने के कारए वैदिक भाषा के विभिन्न रुपो मे विकसित हुप्ा। इसीलिए वैदिक सस्कृत के शब्दों के विभिन्‍न रूप मिलते है। सहिता साहित्य भारत वर्ण का ही नही, प्रपितु विश्व का प्राचीनतम साहित्य है। 2 ब्राह्मण--वेदो की रचना के उपरान्त ब्राह्मण प्रन्थो का प्रशायन प्रारम्भ हुआ | ब्रह्म या विस्तृत भाव को स्वय मे सयोजित करने वाला अथवा यज्ञ की प्रधानता से परिपूर्ण वैदिक साहित्य को ब्राह्मण साहित्य के नाम से जाना जाता है। सहिता-साहित्य के यज्ञ-भाग को ब्राह्मणों मे विस्तार दिया गया है। ब्राह्मणों का सम्बन्ध चारो वेदो से रहा है । भाह्मण प्रस्थो का प्रणन 2000 ई पू के लगभग माना जाता है । ऋचष्वेद से दो श्राह्मणो का सम्बन्ध है| प्रथम ब्राह्मरा ऐतरेय तथा दुमरा कौ७षीतकी । 'इतरा ' नामक णशूद्रा के पुर महीदास से ऐतरेय ब्राह्मण की रचना की। कुपीतक तामक ऋषि की शिष्प-परम्परा में 'कौपीतकी' ब्राह्मण की रचना हुई । इस प्राचीन भारत का साहित्यिफ एवं सस्क्ृतिक इतिहास एक परिचय 5 दोनो ब्राह्मणों मे यज्ञ-विधान की चर्चा के अतिरिक्त सृप्टि-रचता तवा एइनिहास- भूगोल से सम्बद्ध जानकारी भी प्रस्तुत की गई न ॥ हे हि यजुवेद की कृष्ण शाखा से सम्बद्ध 'तैत्तिरीय' ब्राह्मण है तथा शुकत यशुवद से सम्बद्ध ब्राह्मण 'शत्तपथ' है। 'तैत्तिरीय' का सम्पन्ध वर्णाथम घम में है तथा शतपथ' का सम्बन्ध विभिन्न आस्यानों एवं उपाझयानों के साथ-माव यज्ञ-विधान तथा विभिन्न सामाजिफ व्यवस्थाओं से है । “शपथ एक भ्रभूतपूत ब्राह्मण है । सामचेद की कौयुमीय सहिता या शात्ा के पाँच ब्राह्मण है--! ताण्डपन, 2. पडूविश, 3 श्रदुभुत, 4 मन्त्र तथा 5 छान्दोग्प | सामवेद की दूसरी शाखा जिमितीय' से 'जैमिवीय ध्राह्मण' तथा 'जैमिनीयम उपनिपद्‌ ब्राह्मण” विकसित हुए । इन ब्राह्मणों का इतिहास नया घर्मेशामस्त्र की दृष्टि से व्यापक महत्त्व है। राणायणीप सहिना का कोई ब्राह्मण नही है । भ्रथवेचेद से सम्बद्ध एकमान ब्राह्मण गोपय' है | यह प्राह्मण प्रन्य होने पर भी वेदान्त से सम्बद्ध है। इस ब्राह्मण का यज्ञ भौर ब्रह्मविद्या तामऋ दोनो ही तत्त्वो की दृष्टि से भ्रत्यघिक महत्त्व है । (४) आारण्पक--भरण्य या वन मे रचित तथा पठित होने की परम्परा के कारण वनप्रस्यितयो से सम्बद्ध कर्मों का प्रतिपादित करने वाले ग्रन्थों को प्रारण्पक अन्य कहा गया। जहाँ ब्राह्मणग्रत्य गृहस्थात्रम के करेव्यो का प्रतिषादन करने मे च्यस्त रहे, वहाँ झारण्यको ने बतप्रस्थियो के घ॒म्में की विवेचता की । ऋगेद से सम्बद्ध प्रारण्यक ऐतरेय' तथा कौपीनकी है । पूर्व बशित इन्ही नामो वाले ब्राह्मण प्रन्थो की परम्परा मे जो शिष्य-परम्परा काये कर रही थी, उसी परम्परा मे इन श्रारण्यफो का प्रसयन हुआ । इन आ्ारण्यको मे सृष्टि के गुद तत्त्व को भी स्पष्ट किया है। यजुवेद के झारण्यको में "दैत्तिरीय' तथा गातपय! है । सामवेद से सम्बद्ध झारण्यक 'जैमितीयोपनिपद्‌ श्रारण्यक' &या 'छान्दोग्पा रण्पक' है । इन आरण्यको में उपनिषद्‌-तत््व की भी पर्याप्त चर्चा है। अयर्वश्रेद का कोई झआरण्पक उपलब्ध नही है । झ्रारण्यको का रचना-काल 500 ईं पू तक भाना जाता है । (॥) उपनिषद्‌--झारण्यको मे उपनिषदु-तत्त्व पर्याप्त प्रवेश पा चुका था । इसीलिए झारण्यको शोर उपनिषदो को एक दूसरे के मिकट पाया जाता है ! आध्यात्म-विद्या प्ले पूरों प्रन्थो को उपनिपद्‌ कहा जाता है। प्रमुख तया प्रामाशिक उपनिषद्‌ बारह हैं, जित पर शकराचार्य तथा रामानुजाचायें जेसे वेदास्तविदों के भाष्य उपलब्ध हैं। बारह उपनिषदों के नाम इस प्रकार हैं--) ईयावास्प, 2 केनोपनिणद, 3 कठोमनिपद्‌, 4 भएनोपनिपद्‌, 5 सुण्डकोपनिषद्‌, 6. साषण्डक्योप- नियद्‌, है तैत्तिरोयोपनिपद्‌, [.] शऐतरेयोपनिपव्‌, 9 डॉन्दोग्योपनिपद्‌, 0 बृह्दारण्य- कोपनिपद्‌, ]] कौपीतकी उपनिपद्‌ तथा 2 श्वेवाश्वतरोपनिपद्‌ । 'ऐतरेय' तथा 'कौपीतकी' उपनिपद्‌ ऋग्वेद से सम्बद्ध हैं। यजुवेंद से जुड़े हुए उपनिपद बृहदारण्गकोपनिषद्‌, श्वेताश्वतरोपनिपद्‌ तैत्तिरीय॑ ग्रीपनियद्‌, ईशावास्य तथा कठोपलिपद्‌ हैं; 'केनोपनिपद' तथा “झन्दोग्योपनिपद्‌' का सम्बन्ध सामवेद से 6 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास है। 'प्रश्न', 'मुण्डक' तथा “माण्ड्क््य/ उपनिपद्‌ अथर्ववेद के उमय के साथ सम्पृक्त है । उपनिपद्‌ के प्रणेताश्रों में पूर्व वतित शिप्यन्यरम्परा में भ्रौ” भी अधिक विकाप्त हुआ | उपतिपदो को वेदों के ग्रस्तिम भागों में श्रवम्थित देवने के कारण उन्हें वेदान्त! भी कहा गया है। उपनिपदो को ब्रह्मविद्या का समुद्र माना जाता है । उपनिपदों का रचना-काल 900 वर्ष ई पू स्वीकार दिया जा सकता है । वेदाग साहित्य--वेद के श्रगो को जानने के तिए जिस साहित्य की रचना हुई, उमर वेदाग साहित्य के नाम से जलता जाता है। वेदिफ साहित्य के मम को स्पप्ट करने को श्रेय वेदाँग साहित्य को ही है। वेद के 6 भ्रग है--। शिक्षा, 2 कलाम, 3 व्याकरण, 4 निरक्त 5 छुन्द तवा 6 ज्योतिप | बेदिक साहित्य का महत्त्व वेदों के रहस्त्र को प्रतिपादन करने या समभाने से है। स्वर-ज्ञान को 'शिक्षा' कहते है। 'पाणिनीय शिक्षा स्वर-ज्ञान को सूचित करने वाला ग्रन्थ है। सूत्र ग्रत्थों को 'कल्प' के प्रल्नर्गत रखा गया है! भ्राश्वलायन, शाखायन तथा भ्रापस्तम्ब जैमे सूत्रभन्थ 'कल्ससूतरों' के रूप में प्रमिद्ध हैं। सूत्र प्रन्यो को शह्ासूत्र, शौनसूत्र तथा धर्मेमृत्र नामक रूपो मे विभाजित किया गया है। प्रातिशारूय पग्रत्व वेदिक व्याकरण से सम्बद्ध ग्रन्य है। झाचार्य यास्क का 'निरुक्तम्‌' एक निदक्त ग्रन्थ है । निरक्त के माध्यम से वेदार्थ का ज्ञान कराया जाता है। 'छन्दोष्तुशासन, प्रत्य मे गायती, उष्शिक, जगती जैमे वेदिक छत्दो के लक्षणों एवं स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। वेदाग ज्योत्तिप” मे ज्योतिय-तत््व का वर्णन है । श्राज वेदाँग साहित्य से सम्बद्ध भ्रतेक ग्रन्य उरलब्ध नहीं होते। वेदाय साहित्य मे सूत्रउन्यों का विकास सर्वाधिक हुआ । सूचग्रल्यो का रचता-काल 600 ईसा पूर्व माना गया है। 'कल्प” के अतिरिक्त पन्य वेदागों का विकास मुरबन लौकिक सस्कृत के युग मे ही हुप्ा,। लोकिक साहित्य--जव वेदिक सस्कृत देववाणी या ऋषियों के साहित्य की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी, तब जन-समाज में जिस सस्कतर भाषा को व्यवहृतत किया जा रहा था, उसी को प्रपेक्षाकत शुद्ध रूण मे साहित्य मे प्रयोग करके लौकिक संस्कृत का स्वरूप प्रदाव किया गया। लौकिक सस्कृत में सत्रमे पहले झादि कवि वाल्मीकि ने 'रामायण' की रचना की । रामायण के पश्चात्‌ मड़ाभारत तथा पुराण एव स्मृति-ग्र्यों का प्रशुयनन लौकिक मापा में ही हम्मा। कालान्तर में लौकिक सस्कृत ही साहित्यिक भाषा के रूप मे प्रतिष्ठित रही । छठी उताब्दी ईसा पूर्व झाचार्य पाणिनि ने अध्टाध्यापी! नामक व्याकरणा-प्रन्य लिखकर सम्क्ृत भाषा को सुव्यवस्थित कर दिया धा | लौकिक सस्क्ृत श्रब सस्क्ृत के वाम से जाती जाती है । लौकिक सस्क्ृत साहित्य का इतिहास सुविस्तृत है । 3 पौराणिक महाकाव्य--लौकिऊ सस्कृत में पाणिनि ते पूर्व की रचनाएँ पीराशिक प्रतिमानो को लेकर प्नवतीर्ण हुईं। भाषा भ्ौर पुराण-प्रथित सिद्धान्तो को प्रपनाने के कारण पौराणिक महाकाव्यों का स्वरूप चरित-काव्य के हप मे प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉँस्कृतिक इतिटास एक परिचय 7 विकसित हुआ । इसीलिए “रामायण तथा “महाभारत को पौराणिक महाकाव्यों एे झुप भे जाना जाता है । “रामायण” तथा 'महाभारत' नामक ग्रन्थों को पौराणिक महाकाब्यो के हूप मे सम्मान मिला है। 'रामायणु' के पणेता ब्रादिकत्रि वाल्मीकि थे । भाषा-तत्त के आधार पर रामायण का रचना-काल छठी शताब्दी ईसा पूर्व सिद्ध होता है । रामायण सात मर्गो में एक महाकाव्योचित रामकथा दे लेफ़र री गई है |/इप महाकाञ्य मे भ्रादश पात्रों का निल्‍ूपण, प्रकृति-प्रेम क्रा चित्रण, भारतीय संस्कृति का प्रतिपादव तथा भाषा-शेली का सहज सुन्दर रूप एवं अवाह देखा जाता है ।.» । अह्ाभारत' एक धर्मशास्त्र, प्रथेशाल्त, कामशास्त्र तथा पौराणिक महाकाध्य के ठप में लिखा हुआ एक विशाल ग्रन्व है। इन ग्रत्थ के रचयिता क्ृष्णईपाथन वेद यास माने जाते है । प्रारम्भ में इसे “जप काव्य कहा गया तथा कालात्तर में वैशम्मायन तथा शौनक जैसे ऋषियों के सहयोग से इसे 'महाभारत' का स्वरूप मिला, महाभारत का रचना-काल पचम शताढ्दी ईसा पूर्व हे । इस ग्रन्थ में प्रठारह पर्व हैं। प्रस्तुत ग्रल्य कौरवों तथा पाण्डवी के राज्य-विभाजन को लेकर होते वाले महाबुद्द की कथा का सागोपाग चित्रण प्रस्तुत करता है । 2 पुराए--सगगे, प्रतिसगे, वश, मन्वन्तर तथा वश्यानुचरित नामक लक्षणों से युक्त ग्रल्थो को पुराण! नाम से अ्रभिहित किया है । पुराण-साहित्य के ग्रन्तर्गत शुस्पत्त भ्रष्ठादश पुराणों को गिना जाता है। अठारह पुराणों के नाम इस प्रकार हैं--) ब्रह्म, 2 पदूम, 3 विष्णु, 4 शिव, 5 भागवत, 6 नारद, 7 मार्कण्डेय, 8 प्रग्ति, 9? भविष्य, 0 ब्रह्मव॑वर्त, लिंग, ।2 बराह, 3 ज्कन्द, 4 बामत, 33 कूर्म, 6 मत्स्य, 7 ग्ररड तथा 8 ब्रह्माण्ड। पुराणों के सर्वाधिक प्रसिद्ध रचयिता के रूप में छृष्णुह्व॑पायन वेदव्यास का नाम उल्लेखतीय है । वम्तुत पुराणों की रचता शौनक, सूत, पराशर, नारद, तथा प्रनेफानेक वेदव्यासो के सरक्षण मे हुई है। पुराणों के रचना-काज़ _की.पूर्व सीमा 500६ पू तथा अपर सीमा वारहुदी शताब्दी तक है। पुराझो ने परवर्ती सस्‍्क्ृत साहित्य को नही, अपितु हिंदी” तमिल; बंगाल पब्रादि विशिन्न भापाशों के साहित्य को अनेक प्रकार से प्रभावित किया है । 3 शास्त्रीय साहित्य--प्राचीन भारत मे सस्कृत भाषा मे ही कारिका हवा सूतशैली के साध्यम से शास्त्रीय साहित्य की रचना हुई। शिक्षा विशेष को शास्त्र केँही जाता है। शास्त्रीय साहित्य का विकास विभिन्न रूपो मे हुआ, जिसका यहाँ सक्षिप्त उत्लेक्ष किया जा रह है । द दाशंनिक साहित्य--सहज ज्ञान की विधेचना का नाम दर्शन है | भारतीय पड़दर्शन के भ्रतिरिक्त चार्वाफ, बौद्ध तथा जैन जैसे दशन भी प्रथना-अपना मथेष्ठ महत्त्व रफ़ते है। वेदों का समर्थन करने वाले दर्शन आस्तिक दर्शन कहलाए दथा बेद विरोदी दर्शनो को नास्तिक दर्शन कहा गया। 'श्रास्तिको वेद समर्थक तथा 'नाज्षिकी वेद निन्‍्दक ' सिद्धान्त के श्राघार पर साझुय, थोगे) न्याय) वैशेषिक, 8 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास मीपमासा तथा वेदान्त पड़दर्शन झ्रास्तिक दर्शन के रूप मे प्ररुयात हैं तथा चार्वाक, बौद्ध एव जैन दर्शन वेद-विरोधी दर्शन होने के कारण नास्तिक दर्शन कहलाते हैं । साँख्य' एक प्राचीनतम दश्शन है। साँख्य प्रणंता के रूप में महपि कपिल का नाम भ्रादरणीय है। कपिल का 'साँख्यमृत्र' सौर दर्शन का झाघार है । कपिल के स्थितिकाल के वियय में निश्चयत कुछ नही कहा जा सकता । फिर भी 'साँरुय- सूत्र' पाँचवी शती ईसा पूर्व की रचता अवश्य है। साँख्य दर्शन के विकरासकर्ता के रूप में ईश्वर कृष्ण को पर्याप्त महत्व मिना है । ईश्वर कृष्ण का स्थितिकाल चौथी शताब्दी है। इनका 'सॉँख्यक्रारिका' ग्रत्थ साँल्य दर्शव का बिद्वतापूर्ण ग्रन्थ है । आचाय भाठर की 'माठरवृत्ति' भी साँल्य दर्शन का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । माठराचार्य का समय छठी शताब्दी निश्चित है । पतजलि का “योगयसूत्र' योगदर्शन झा प्रामारिक ग्रन्थ है ! पतजलि का स्थिति- काल ईसा पुत्र द्वितीय शताब्दी मान्य है। योग से सम्बन्धित अनेक प्रन्थों का उल्नेख मिलता है परन्तु वे सभी ग्रन्थ श्राज श्रप्राप्य हैं। साँस्प दर्शन की भाँति योग दर्शन भी स्वभाववादी दर्शन है, परन्तु दोतो की विकास-प्रक्रिया भिन्न है । महपि गौतम द्वारा प्रतिपादित व्याय-सिद्धान्त 'न्यायदर्शन” के रूप मे मान्य है । दूम री शताब्दी में अक्षपाद गौतम ने “त्थायसूत्र” नामक प्रामाणिक प्रन्य की रचता की | न्याय दर्शन के विकास में उद्योततर (7वीं शतरी) का 'ल्यायवानिक! विशेष रूप से प्रसिद्ध है। नवम्‌ शताब्दी में आचार्य धर्मोत्तर ने 'न्यायबिन्दु टीका नामक ग्रन्थ की रचना करके तथा दशम गताब्दी मे झ्राचायं जयलत भट्ट ने ज्याय-मजरी” लिखकर स्थायदर्शन का विकास क्रिया । बौद्ध दार्शनिक दिडनाग तथा बर्मेजीति ने क्रश छठी तया सातवी शनाब्दी मे बौद्ध न्याय के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । बौद्ध दार्शनिको तया नैधायिक्रों की खण्डन-मण्डन परम्परा के कारर न्यायदर्शन का अभृतपूर्व विकास हुआ । महपि कणादु वेशेषिक दर्शन के प्रवर्तेक के रूप में विल्यात हैं। महषि कणाद्‌ का समय चौथी शती ई पू निश्चित है। कराद का 'वेशेपिक सूत्र! वेशेषिक दर्शन का मूल झाधार माना जाता है। प्राचार्य प्रशस्तव्राद ने चौथी शताब्दी में 'पदार्थे-धमे-सग्रह नामक ग्रन्थ की रचना की । इस ग्रन्थ के ऊपर दसवी शताब्दी मे उदयनाचाये ने किरणावली' तथा श्रीपराचार्य ने 'ल्याय-कदली” नामक टीका लिखी वैशेषिक दर्शन परमाणुवादी दर्शन है । मीमासा दर्शन के सूत्रपात का श्रेय झाचार्य जैमिति को हैं । इनके 'मीमामा सूत्र” नामक ग्रन्थ का रचना-काल 550 ई पूर्व है। शबर स्वामी का 'शाबर भाष्प' सीर्माँसा दर्शन का एक पुनरुद्धारक ग्रन्थ है। शाबर भाष्य” पर कुमारिल ने सातवी शताब्दी में प्रामाणिक टीका की। कुमारिल का मत भाद्टमत के नाम से प्रसिद्ध है। शावर भाष्य' के दूसरे टीकाकार प्रभाकर हुए । प्रभाकर का मत गुरुमत नाम से जाना जाता है। मुरारि 'शावर भाष्य' के तीसरे प्रप्तिद्ध टीकाकार हुए । गुरारि के मत को मुरारिमत के रूप मे जाना जाता है । मीमासा दर्शन मे आद्योपान्त कर्मकाण्ड की प्रधानता दृष्टिगोचर होती है । 54 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्क्रृतिक इतिहास एफ परिचय 9 माचार्य वादरायण का 'ब्रह्मस॒त वेदात्त दर्शन के ह॒प में विग्परात है। वादसयण का स्थितिकाल चौती शताब्दी ईसा पूर्व माना जाता है। अनेक विद्वानों ते कृष्णद्वैपायन को ही वादरायण मान लिग्रा है। बारह उपनिपदु; गीता तथा ब्राह्ममृत्र को 'प्रस्थानत्रयी' के नाम से जाना जाता है | प्रस्थानतगी मूल बेदान्त है । शकराचार्य (88-820 ई ) तथा रामानुताचाय (037-]37 ६ ) ने वेदान्त को क्रमश अद्दनवाद तया विशिष्टाह्रतवाद के रूप में विकृतित्त किया । वेदान्त देशेन मे बरह्मविद्या का सर्वाधिक तकेगूर्ण विवेचन मिलता है। रे नास्तिक दर्शनों में चार्वोक दर्शन सर्वाधिक प्राचीन है। चार्वाक दर्गन के प्रादि विचारक प्राचार्य वृहत्यति हुए है। भाचायें बृहस्पति का समय 600 ई पू तो मानना ही पडता है। भौतिक रस-चर्वाक को महत्त्व देने के कारण भौतिवावादी दाशनिको को चार्वाक ताम दिया गया । चार्वाक दर्शन का एक नाम 'लोकाबत' भी है। चार्वाक दर्शन में 'खाम्रो पीपरों मौज करो' सिद्धास्त की अंगुषालता हुईं है। ईसा पूर्व छुठी शताब्दी में गौतम वृद्ध ते बौद्ध दर्शन का सूत्रपात कया । उनके भ्नुयापियों द्वारा लिक्षित 'धम्मपद' बौद्ध दर्शेन का महान्‌ प्रन्य है। बीद्ध दर्शन के चार सम्प्रदाय हैं-। वैभाषिक, 2 सौत्ान्विक, 3 योगाचार तथा 4 कोश, शूल्यवाद या साध्यमिक । ईसा पूर्व तीसरी शत्ारुदी मे भ्राचार्म वसुमित्र ने 'प्रसिषर्श! नामक ग्रन्थ की रचना की | छठी शताब्दी मे योगाचारवादी ग्राचार्य दिदृवाग हुए । झ्राप बौद्ध स्थाय के जनक के रूप मे प्रतिष्ठित है| दूसरी शताब्दी मे नागाजुत ते 'माध्यमिक कारिका' लिखकर शून्यवाद की प्रतिष्ठापना की । बौद्ध दर्शन के भ्रन्य श्रातषार्यों मे श्राचार्य धर्मक्रीति, भ्राचार्य प्रभग, भ्राचार्य स्थिर॒मति प्रभृति उल्लेखनीय हैं। बौद्ध दर्शन क्षणिकवाद तथा दु.छबाद को लेकर विकसित हुआ है । महावीर स्वामी ने छठी शताब्दी ईसा पूर्व मे जैन दर्शन का प्रवर्तत किया । इस दर्शन को विकत्तित करते वाल्ले भ्राचायों मे स्ववम्‌ तथा उमात्वामि का ताम विशेषत उल्लेखनीय है | स्व॒यभु का 'पठमचरिउ' अयवा 'पदुमचरित' नामक प्रत्थ झाठवी शताब्दी की देन है| जैन दर्शन के झागमिक ग्रन्थो के रूप मे 'भाचारागसूत', 'सूजनाँग' तथा 'दृष्टिबाद' भादि महत्वपूर्ण हैं। जैन दर्शन ने जीवात्मा को स्वीकार करके कौतल्य का स्वरूप स्पष्ट किया है ) प्राचीन भारत का दर्शन विश्व दर्शन के क्षेत्र में श्रद्वितीय माता गया है । भारतीय दार्शनिक साहित्य का विकास भौतिकवादी तथा अ्राध्यात्मवादी, ईश्वरवादी तथा प्रनीश्वरवादी, वेदवादी एवं वेद विरोधबादी रूपो से हुआ । धर्मशास्त्र--धर्म के दस लक्षण माने गए है तथा उनसे सम्बद्ध धर्माज्ञा का वर्णनऊर्सा शास्त्र घर्मशास्त्र के नाप से जाना जाता है। भव स्मृति-प्रत्यो को ही धर्मशाह% के रूप में माता जाता है। अठारह स्मृतियों का क्रम इस प्रकार है-- ! मनुस्मृति, 2 याज्ञवक्य स्मृत्ति, 3 श्त्रि स्मृति, 4 विष्णु स्मृति, 3 हारीत स्मृत्ति, 6 उशनस्‌ स्मृति, 7 श्रगिरा स्मृति, 8 यम स्मृति, 9 कात्यायन स्मृत्त, 0 बृहस्पति स्मृति, !! पराशर स्मृति, 2 व्यास स्मृति, 3 दक्ष स्मृति, 0 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्क्ृतिक इतिहास ]4 गौतम स्मृति, 5 वशिष्ठ स्मृति, 6 नारद स्मृति, 7 भृगु स्मृत्ति तथा 8 झापस्तम्व स्मृति । स्मृति ग्रन्यों के नाम पुरातन ऋषि-परम्परा के आधार पर निश्चित हुए है। स्मृति ग्रग्थो का निर्माण-काल दो सौ वर्ष ईसा पूर्व से लेकर कम से कम चौथी शताब्दी तक माना जाता है! घमशास्त्र मे घर्म के विविध लक्षणों तथा रहस्यो का सरल एवं स्पष्ट वर्णन हुआ है । झर्यशास्त्र--अर्थ या घन पर शासन-व्यवस्था को केन्द्रित करने वाले राजनीतिशास्त्र को ही श्रर्थशासत्र नाम दिया गया है। वैदिक काल में शकर ने ववैद्यालाक्ष! नामक श्रथेशास्त्र की रचना की | महाभारत का श्रनुशासन पर्व एक सुव्यवस्थित भ्रथंशास्त्र ही है। 325 ई पृ भे विष्णु ग्रुप्त या कौठिल्य ने 'कौटिल्य अर्थशास्त्र” की रचना की | कौटिल्य चन्द्रगुप्त मौयं का गुरु या। उसे चाणक्य नाम से भी जाना जाता है। दशम्‌ शताब्दी मे श्राचायं सोमदेव ने 'नीतिवाक्यामृत' तामक भ्रन्थ की रचना की | एकादश शत्ती मे घारा नरेश भोज ने “मुक्तिदल्पतर तथा चण्डेश्वर ने 'नीतिरत्नाकर' तथा "ीतिप्रकाशिका' नामक ग्रन्थो की रचना की । द्वादश शती में श्राचायें हेमचन्द्र ने 'लघ्यहंनीति' नामक श्रथंशास्त्रीय कृति प्रस्तुत की । पलकारशास्त्र--फाज्य शास्त्र या साहित्यशास्त्र को श्रलकारशास्त्र कहा गया है। प्राचीन भारत के अ्रलकार शास्त्र मे छ सम्प्रदाय प्रसिद्ध रहे है-- रस सम्प्रदाय, 2 ध्वनि-सम्प्रदाय, 3 अलकार-सम्प्रदाय, 4 रीति-सम्प्रदाय, 5 वक्रोक्ति- सम्प्रदाय तथा 6 ओऔचित्य सम्प्रदाय । आचार्य भरत ने दूसरी शताब्दी में 'भरत नाद्यशास्त्र” नामक ग्रन्थ की रचना करके रस-प्रम्प्रदाय का सूत्रपात किया। रस-सम्प्रदाय के प्रामाणिक विचारकों में दशम्‌ शताब्दी मे भ्राविभूत भ्राचायं अभिनवगुप्त का नाम चिरस्मरणीय है। झाचाय॑ भ्रभिनव ने 'प्रभिनवभारती' नौमक रस-सिद्धान्तपरक ग्रन्थ की रचना की । दशम्‌ शताब्दी मे ही आचार्य घनडञ्जय के “दशरूपक' ग्रन्थ का प्रसायन हुभा । एकादश शताब्दी में आचार्य मस्मट ने 'काव्यप्रकाश” लिखा | बारहवी शताब्दी मे आचारये रामचन्द्र तथा गुराचन्द्र ने नाट्यदपेण” नामक ग्रन्थ की रचना की । 4वी शताब्दी मे आचायें विश्वनाथ ने 'साहित्य दर्पश” नामक रसवादी लक्षण ग्रन्थ को प्रशीत किया । सत्रहवी शती में श्राचार्य ज्गपश्नाथ ने 'रसगगाधघर' नामक ग्रन्थ लिखा | रस ग्यारह माने गए हैं-»उ गार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत, शान्त, भक्ति तथा वात्सल्य | रसवादी अ्रलक्रारशास्त्र मे रपत़ को काव्य की आ्रात्मा माना गया है । तवम्‌ शताब्दी के उत्तराद्धं मे श्राचार्य ध्रानन्दवर्धन ने “घ्वन्यालोक' नामक अन्थ की रचना करके ध्वनि-सम्प्रदाय का प्रवर्तत क्या । दशम्‌ शताब्दी भे श्राचाये अभिनवगुष्त ते 'लोचन' अथवा “घ्वन्यालोकलोचन” नामक ग्रन्थ लिखकर ध्वनि- सम्प्रदाय को विकसित किया । ग्यारहवी शताब्दी मे आचायें मम्मट ने घ्वनिविरोध झ्ाचारयों के मतो का खण्डन करने के लिए घ्वनिवादी ग्रन्थ 'काव्यप्रकाश! की रचना प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास एफ परिचय !] की । 4वी शत्ताव्दी मे कविराज विश्वनाथ ने साहित्य दर्पण” में तथा सनहवी शताब्दी मे आचार्य जगन्नाथ ने “रसंगगाधर' भें घ्वनि-तत्त्व पर प्रकाश डात्ना | घ्वुनिवादियों ने ध्वनि-सस्या का विस्तार 0 हजार 455 ध्यनिन्मेदों के रुप मे किया है । छठी शताब्दी में श्राचाय भामह ने 'काव्यालकार'ं नामक भ्रलकारवादी भ्रन्‍्थ की रचना की । सातवी शत्ती के प्रारम्भ में झ्राचार्य दण्डी ते 'काव्यादय नामक ग्रस्थ प्रणीोत किया । श्राठवी शताब्दी में आचार्य उदभट “काव्यालकार सारसग्रह ग्रन्थ प्रलकारो के वैज्ञानिक विवेचन की दिशा को भ्राविभूत करने वाला सिद्ध हुए। । प्राचाय॑ रुद्वट ने नवम्‌ शती मे अनेक नवीत झलफारो की उद्भावना के सूचक ककाव्यालकार' नामक प्रन्थ प्रणीत किया | 2|दी जताब्दी में अग्निपुराण तामक ग्रस्थ का प्रणयन हुआ । बारहवी शताब्दी मे श्राचायें स्य्यक ने अलकार सर्वस्व' नामक प्रभूतपूर्व भ्रलकारवादी ग्रन्थ लिखा | तेरहवी शताब्दी में आचारये जयदेव ने 'चन्द्रलोक' की रचना की ; सन्नहवी शताब्दी मे श्राचार्य अ्रप्पयदीक्षित ने 'कुवलयानन्द! नामक ग्रन्थ लिखा | भ्रलकारवादी आचारयों ने श्रलफार को काव्य की भ्रात्मा माना है तथा भ्रलकारो के स्वरूप को श्रत्यन्त विस्तृत कर दिया है । झलकार शास्त्र के सभी झाचार्यों ते अल॒कारो का विवेचन किया है । अष्टम शताब्दी में आचायें वामन ने रीति-प्म्प्रदाम का प्रवर्तन किया । इनका सुप्रसिद्धे ग्रेल्थ “ 'काव्यलंकार सूच है। रौीति-तत््व का विवेचर्न प्रलकारवादी शाचाय दण्डी ने भी कियां है । वंर्दभी, गौडी तथा पाँचाली रीतियो को झाचार्य कुन्तक (वी शत्ताव्दी) ने सुकुमार मार्ग, विचित्र मार्ग तथा मध्यममार्ग का रूप देकर रीति तत्त्व को तया रूप प्रदात किया। ]वी शताब्दी भे आदायें भोजराज ने पशु गारप्रकाश” तथा 'सरस्वतीकण्ठाभरणा नामक ग्रन्थों की रचना की। सरस्वत्तीकप्ठाभरण' मे रीति-तत्त्व पर प्रकाश डाला गया है “रीति” पद-रचना का नास है। रीति-सम्प्रदाय मे रीति को काव्य की आत्मा माना गया है। दशम्‌ शताब्दी मे कुन्तकाचार्य ने 'वक़ोक्तिजीवितम्‌! नामक ग्रन्थ लिखकर व्षोक्ति सम्प्रदाय का प्रं्वत्तेत किया । कुन्तक ने वेक्रोक्ति को काव्य की भ्रात्मा सिद्ध करके अलकार शास्त्र को एक भ्रनौद्धी देन दी । कुन्तक से पूर्व छठी शताब्दी मे श्राचार्म मामह ने वक्रोक्ति के महत्त्व पर प्रकाश डाला श्रष्टम शताब्दी मे प्राचार्य चामन ने वकोक्ति के विषग्न मे विचार किया था। दशम्‌ शताब्दी में श्राचार्य प्रभिनव गुप्त ने वक्रोक्ति-तत््व की मीमाँसा की। कुत्तक के पश्चात्‌ 'वक्रोक्ति' केवल एक शब्दालकार के रूप में शेप रही । नलआजनअजि---णभजणः ४ +3०८ न अकीन हमी। न तामक प्रस्थ लिखकर झौचित्य-सम्प्रदाय को प्रवरतित किया। आचार्य भरत ने दुमरी शताब्दी में भोचित्य-तत््त पर विचार किया था। नवम्‌ शताब्दी में श्राचायें आनन्दवर्धन ने रस के परिपाक के लिए भ्रौचित्य-तत्त्व का महत्त्व प्रतिपादित किया 2 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्कृतिक इतिहास था । काव्य के दोधो के परिहार के रूप मे श्रौचित्य-तत््व की चर्चा प्राय सभी ग्राचार्यों ने की है । वैज्ञानिक साहित्य--क्रमबद्ध ज्ञान के साहित्य को वैज्ञानिक साहित्य कहा गया है । 500 ई पृ से लेकर सच्नहवी शताब्दी तक वैज्ञानिक साहित्य का प्ररायन होता रहा । परन्तु श्राजज्ल रत्नपरीक्षा, वास्तुविद्या, भ्रश्वशास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र आदि वैज्ञानिक साहित्य या तो उल्लेख के रूप मे श्रथवा श्रर्वाचीन रूप मे प्राप्त होता है । )वी शताब्दी के ग्रन्थ 'अग्निपुराण” मे तथा अनेक पुराणों मे वैज्ञानिक साहित्य के सकेत भरे पडे हैं । आयुर्वेद--झायुवेंद का श्रीगरोश प्रथववेद के 'भ्रथर्गन्‌” भाग से होता है । वैदिक काल में आचाये घन्वन्तरि के गुरु भास्कर ने आयुर्वेद-सहिता' को रचना की | भ्राचायं धन्वन्तरि ने 'चिकित्सा रसायनशास्त्र” लिखकर श्रायुर्गेद को प्रतिप्ठित रूप प्रदान किया । च्यवन ऋषि ने 'जीवदान” नामक भ्रायुर्वेदिक ग्रन्थ लिखा । ये सभी झाचाये छठी शताब्दी ई पू से पूर्ण के हैं। प्रथम शताब्दी मे चरक-सम्प्रदाय के चरक' नामघारी आचार ने 'चरक-सहिता' की रचना की। चौथी शताब्दी भे आचार नागाजुंन के “रसरत्नाकर', 'पारोग्यमजरी', “रसकच्छपुट' जैसे झायुर्वेदिक ग्रन्थों ते भायुर्गेद को एक सर्गथा नवीन रूप दे डाला । गैदिक तथा पौराणिक काल मे आ्ायुर्वेद के शकर, नारद, भारद्वाज, सुश्रुत श्रादि श्राचाय॑ हुए है, जिनका उल्लेख चरक-सहिता' नामक ग्रन्थ मे किया गया है । ग्यारहवी शताब्दी मे गैथ्वक शास्त्र के कोश के रूप मे सुरेश्वर का शब्द-प्रदीप” सामने आया । तेरहवी शताब्दी मे आचायें नरहरि ने 'राजनिधण्टु! नामक शब्दकोश का प्रणयन किया । भ्रायुर्गेद के क्षेत्र मे 'फ्रषवशास्त्र”, “गजगास्त्र' झ्रादि पशु-चिक्त्सा से सम्बन्धित ग्रन्थ सम्मान्य रहे है । ज्योतिष--नक्षत्न-ग्रह विद्या का नाम ज्योतिष है। चारो वेदो में ज्योतिष- तत्त्व विद्यमान है । आचाये लगभ ने 500 ई पू में 'बेदाँग ज्योतिष” नाम से पहले प्रामाशिक ज्योतिष ग्रन्थ की रचना की। 300 ई प्‌ जैन ज्योतिष के क्षेत्र मे “अन्द्रप्ज्ञप्ति! तथा 'ज्योतिपकरण्डक' नामक ग्रथो की रचना हुईं | पाँचवी शताब्दी में आ्राचार्ये प्रायंमद्ट ने 'भ्रायंभट्टीय' नामक ग्रन्थ का प्रखायन किया । आचार्य कल्याण ने छठी शतब्दी में ज्योतिष के 'सारावली' ग्रन्थ को लिखकर मध्ययुगीन ज्योतिष साहित्य का सूत्रपात किया । श्राचायं वराहुमिहिर ने 'बहज्जातक' नामक ग्रन्थ की रचना पाँचवी शताब्दी मे की थी। इस दृष्टि से वराहमिहिर कल्याणवर्मा के पूर्णवर्ती सिद्ध होते है। ब्रह्मगुप्त का “ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त' छठी शताब्दी की ज्योतिष कृति है। बारहवी शताब्दी में भास्कराचार्य ने 'सिद्धान्त शिरोमणि' अन्य लिखकर आयुर्गेद को विश्वव्यापी बना दिया । ।3वी शताब्दी में पद्मप्रभुसूरि ने 'मुवनदी पक! नामक ज्योतिष ग्रन्थ की रचना की । सोलहवी शताब्दी मे प्राचार्य रगनाथ ने गुढा्थप्रकाशिका' तथा नारायण पण्डित ने “मुह्र्तेमातंण्ड' नामक ग्रन्थ प्रणीत क्या। ]7वी शताब्दी में श्राचा्यं कमलाकर ने 'सिद्धान्त विदेक नामऊ ग्रन्थ का प्रणयन किया | 73] ई में पण्डितराज जगन्नाथ ने 'सिद्धात्त सम्राट! सामक ज्योतिपीय प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्कृतिफ उमिदास एक परिचय 3 अन्य कौ रचना की । 9वी शनाव्दी के उत्तराद्य तथा 20वी शताब्दी के पूर्णई से लोकमान्य तिलक तथा डा. गोरप्रसाद जैमे विद्वानों के प्रयासों मे भारतीय ज्योतिष को आधुनिक रुप मिला तथा भारतीय ज्योतिष साहित्य वो समूचे विध्य मे सम्मान मिला है । तनन्‍त्र साहित्य--ज्ञान विस्तार तथा विघ्न-विनाशक विद्या तो तन्तां के रूप मे जाना जाता है १ तन्त्र का श्रीगशेश भ्रयवंवेद से होता है। पौराणिक काल से 'चराहीतन्त्र! की रचता हुई । पाँचवी शनाव्दी में श्राचार्य झाये भट्ट ने 'तन्तग्रन्थ' की रचना की । तन्तग्रन्थों मे 'रुद्रयामल तन्त्र' महत्त्वपूर्ण हे। दगम्‌ शताब्दी से झाचार्य प्रशिनवगुप्त मे 'ततल्ववातिक' नामक प्रन्य प्रणीद किया। तन्‍न साहित्य मुरग्त शैवागम से सम्बद्ध है । गसित-साहित्य--गरिएत्त-साहित्य का प्रामाणिक श्रीगणेश 500 ई पू में आचार्य लगम के बेद[गज्योतिण' नामक ग्रन्थ से होता है। प्रारम्भ मे गणित ज्योतिष का ही एक भग था। वेद, क्ञाह्मणा रामायण तथा महाभारत मे गणित की बहुत्त कुछ जानकारी के सकेत प्राप्त होते है । पाँचवी शत्ताव्दी में आचायें आार्यभट्ट ने आर्यप्टशत' नामक गरिएतग्रस्थ की रचना की । नवी शताब्दी में श्राचाय महावीर ने 'गरणितसार सगह' नामक गरितीय कृति प्रस्तुत की । ]वी शताउ्दी मे त्राचार्य भास्कर ते 'लीलावती” नामक गरित ग्रन्थ लिखा । प्राचीत भारत के गैदिक काल भें गरशित का पर्याप्त विकास था, ऐसे सकेत पुराणों मे मिलते हैं ॥ गान्धवेशास्त्र--नृत्य एन सगीत शास्त्र को गान्ध॒वेवेद के नाम से जाना जाता है । दूसरी शताब्दी मे भ्राचाये भरत ने 'ताट्यशास्प' की रचना वी। किन्ही छेंद्ध भरत का 'नाट्यवेदागरम' एक गान्धर्णशास्त्रीय ग्रन्थ है | नन्दिकेश्वर ने “भशत्तार्णव” ग्रन्थ लिखा । ताद्यार्णव' ग्रन्थ 'भरतार्णव” का ही श्रश माना जाता है। )2वी शताब्दी मे शाह देव ने 'सगीत रत्तनाकर नामक महत्त्वपूर्ण गान्धर्णशास्त्रीय ग्रन्थ की रचना को ॥ !7वो शत्ताब्दी से झ्राचाये सोमनाम ने 'सगीतदर्णण' नामक ग्रल्य लिखा । व्याफरणशास्त्र--वैदिक युग के प्रातिशाल्य ग्रन्थो के अतिरिक्त आरचायें पाणिनि की अप्टाध्यायी' व्याकरण का प्रथम प्रामाशिक गनन्‍्य है। पाणिनि का स्थिति काल 500 ई पृ माना जाता है। 300 ई पू में भाचाये कात्यायन ते भ्रष्टाध्यायी से सम्बद्ध वातिक लिसा। ईसा पूर्ण प्रथम या द्वितीय शताब्दी में पतजलि ने 'महामाष्य' नामक व्याकरणिक ग्रन्थ की रणना की । सातवी शताब्दी में झआजायें भरत हरि ने वाक्यपदीय' नामक व्याक्रशिक ग्रन्थ लिखा। वारहवी शताव्दी मे भ्राचायं हेमचन्द्र ने 'शब्दनुशासन' नामऊ ग्रन्थ लिखा । 7वी शताब्दी में आचाये वरदराज ने 'सिद्धान्त कौमुदी' नामक ग्रन्य की रचना की ॥ झाज सिटान्त कौमुदी सर्वाधिक प्रचलित व्याकरशिक पन्थ है। 7वी शत्ताव्दी में आचार मार्कण्डेय ने 'प्राकृतसर्भस्वा तथा रामतके बागीश ने 'प्राकृत कल्पतर/ नामक प्रकात व्यूत्तरश दे प्रन्यो का प्रशयन क्या | 4 प्राचीन मारत का साहित्यिक एवं सस्फूतिक इतिहास साहित्यिक विधाओ्रो के प्रन्य सस्कृत साहित्य महाकाव्य, ग्रीति काव्य चम्पू काव्य, ऐतिहासिक काव्य, नाटक, गध साहित्य तवा झ्रास्यान साहित्य के रूप मे भी विशेषतत विकसित हुआ । प्राचीन भारत में श्रनक राजाओं ने साहित्य-सृजन को प्रोत्माहन दिया। प्राचीन भारत के साहित्यिक विधा परक साहित्य का पर्याप्त विस्तार है, जिसे यहाँ सक्षिप्तत प्रस्तुत किया जा रहा है ! सहाकाव्य-सर्गवद्ध विशद्‌ कान्य को महाकाब्य कहा जाता है। प्रथम शत-'दरी में अश्वघोप ने 'वुद्धिचरित्र! तथा 'सौन्दरानन्द' दामक महाकाव्य की रचना थी । चौ- शताब्दी में कालीद,स ने 'रघुवश” तथा 'कुमारसम्नेव नापक सुप्रसिद्ध भहाकाज्यों का प्रदपत किया। सातती शताब्दी के प्रथम चरण में भारविने फिराप/वुनीय” हामक महाकाव्य लिखा। भट्ट का 'रावसश वध” भी सातद्ी शदी से रचा गया | कुम/रदास का 'जानकीहरण” महाकाव्य प्ररवात है। कुमारदास भट्ट के समकालीन ये माघ ने प्राव्वी सती के प्रारम्भ मे शशशुपालबधस्‌' नामक महाकाव्य की रचना की । रत्नाकर ने नवम्‌ शताब्दी मे 'हरविजय' नामक महाकाव्य प्रणीत किया । )वी शताब्दी में आचाय क्षेमेन्द्र ने “दशावतार कअरित्र नामक पौराणिक महाकाव्य की रचना की । श्रीहर्ण का 'नैपध चरित' बारहदी शताब्दी की देन हैं। कनिप्क, विक्रमादित्य तथा विजयपाल जैसे राजाओं ने महादाब्यो का विकाल बराने मे पर्याप्त यागदान दिया | गोतिकाब्य---हृदय की निवल अभिव्यक्ति फाब्य के क्षेत्र मे गीतिकाब्य कहलाती है । पूर्वापर प्रसगमुक्ति ही गीतिकाव्य का आधार है। चौथी शनाव्दी मे कालिदास ने ऋत्तुसहार' मेघदूत' तथा “श्र गारशतक' नामक गीति काव्यो “ रचना की । चौथी शती मे न्॒र्थात्‌ कालिदास के समकालीन 'घटकर्पर! उपाधिसान कवि ते 'घटकपर” गीतिकाब्य प्रणीत्त किया! हाल की “गाथासप्तशती” एक सुन्दर नीतिकाव्य है। हाल का स्थितिकाल प्रथमशती निर्धारित किया गया है | 7वी शताब्दी में श्राचार्य भर्तृ हरि ने 'नीतिशतक', हछ गारशतक' तथा “वैराग्बशतक' तामक गीतिकाव्यत्रय की रचना की! आझ्राठवी शताब्दी में भाचायें अमस्फ ने अमरूकशत्तक' की रचना की । !!वी शनाब्दी के उत्तरारद्ध मे 'विक्रमाँकदेवचरित' महाकाव्य के प्रणेता विल्हुण ने 'चौरपचाशिका' नामक गीतिकाव्य लिखा। घोपी का 'पवलदूत”ः वारहवी शत्ताव्दी की रचना है। घारहवी शनाच्दी में प्राचार्य गोवर्धन ने 'प्रार्यासप्तशती” नामक प्रन्थ लिखा | बारहवी शताब्दी मे ही जयदेव ने 'गीतगोविन्द' नामक भक्तिपरक गीतिकाव्य की रचना की। 7वी शरत्ताब्दी मे पण्डितराज जगन्नाथ ने छू गीतिकाव्य रचे । इनके गीतिकाव्यों के नाम इस भ्रकार है--]! गगालहरी, 2 सुघालहरी,, 3 'अमृतलहरी, 4 'करणालहरी', 5 'लक्ष्मीलहरी', त्तया 6 “भामिनी विलास' । १ [)0789 +७५65, 7९९८ 4909 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्कूतिक इतिहास एक पीचय ।5 चम्पुकाव्य--गद्यपद्यमय काव्य वो चम्पू काव्य कहते है |! जिविका गदूट ने 0वी रातों में 'नलचम्पू' की रचना की। दशम शताब्दी में सोमदेव ने “यशस्तिनकच म्पू” नामक चम्पू काव्य की रचना जी । 'यशस्तिलक चम्पू में अवन्ति के राजा यशोधरा का वर्णत है। दशम जनाव्दी के प्रारम्भ में भ्रवया 970 ६ में हरिश्चन्द्र ने 'जीवनघर चम्पू' दी रचना की । ])वी शत्ताब्जी में घारानरेणश भोज से “रामायण चम्पू! की स्थापना की। सेड्टल ते ।]वी पताव्दी में प्रतिष्ठानपुर (भूत्ती) के राजा मलयवाहन भौर नागराज की वन्या उत्यसु दरी के विवाह को लक्ष्य करके 'उदयसुन्दरी कथा” चम्पू की रचना की। 6वी शताब्दी में रानो तिहमलाम्वा ने 'वरदाम्बिका परिणय चम्पू” की रचना की । ऐतिहासिक क्ाध्य--इतिहास प्रसिद्ध कथा को लेकर लिखे गए काध्य ऐतिहासिक काव्य कहलाते है। सातवी शताब्दी मे प्राचार्य बागभटट ने 'दर्णचरित नामक ऐतिहासिक काव्य की रचता की । कन्नौज नरेश हर्ण का 'हर्णचरित' में काव्यात्मक दत्त प्राप्त होता है। भ्राठवी शताब्दी में वाउपतिनाज मे कम्नौज के राजा यशोवर्मा की विजय से सम्बद्ध 'गौडपही नामक ऐतिहासिक काव्य की रचना को । कइ्मोर निवासी विल्ट्श कवि ने 'विक्रमाँफदेव्चरित” नामक इतिहास तथ्यपूर्णं काव्य लिखा । विक्रमादित्य चालुक्यवशी राजा थे। वारहवी शत्ताव्दी मे कल्हण ने “राजतरगिणी” की रचना की । “राजतरगिणी' मे श्रादिकाल से लेकर 5] ई तक के कश्मीर नरेशों के राज्य का वर्णन किया था। 2वी शतददी में श्राचार्य हेमचन्द्र ने 'कुमारपालचरित” नामक काव्य की रचना की। दिल्‍ली सम्राट पृथ्वीराज के भ्राश्नय मे जयानक कवि ने 'पृथ्वीराजचरित” नामक काव्य प्रशीत किया | इठ ऐतिहासिक काव्यो के भ्रतिरिक्त कुछ पनन्‍्य इतिहासपरक काव्य भी प्रणीत्त किये गये । भाटक--दृश्य काव्य की विशद्‌ विधा को नाटक कहा जाता है। सम्कृत्ि साहित्य मे सबसे पहले नाटककार के रूप मे भाम का नाम उल्लेसनीय है । भास ईसा पूर्व चौथी शताब्दी मे उत्पन्न हुए। उन्होंने रामांयश तथा महाभारत को आधार बनाकर अनेक प्रकार के नाटकों की रचना की | उनके प्रसिद्ध नाटक अभिषेक, 'प्रतिभा,' 'वालचरित', 'चारुदत्त', 'स्वप्नदासवदत्ता 'दूवघटोत्क्चा, 'उरूसग, 'मध्यम व्यायोग', 'पच्रात्र', इत्यादि हैं। तृतीय शताब्दी ईं पू से शूद्क ने 'मृच्छकटिक' त्तामक प्रकरण की रखता की। प्रथम शताब्दी में परवधोप ने “शारिपुत्र प्रकरण' लिखा। चौथी शताब्दी मे फालिदास ने मालविकास्विमित्रस्‌', “विक्रमोदंशीयम्‌! तथा 'अभिज्ञानशाकृन्तलम्‌', नामक तीन नाटफों की रचना की ! भ्रभिज्ञानशाकुन्तलम' सस्छृत साहित्य के सर्वश्रेष्ठ नाटकों की गणना मे झाता है। पाँचवो शत्ताब्दी मे विशाखदत्त ने 'मुद्राराक्षस' नामक नाटक पणीत किया। सातदी शताब्दी के पूर्वाद्ध मे कन्नौज नरेश हपे ने 'प्रियदश्शिका', ) चाहित्य दर्पण, 6/336...'गद्यपद्य मपकाव्य चम्पूरिन्भिधीयते » दृतवावम?, 'कराघार', 6 प्राचीन भारत का साहित्यिक एग सॉँस्कृतिक इतिहास 'रत्नावली', तथा 'ताग्रानन्द' नामक लाटऊत्रयथ कौ रचना की । महाकवि भवशभूत्ति ने 'मालती माबव', महावीर चरित' तथा उत्तररामचरित' नामक नाटकों की रचना की । उत्तर-रामचरित” भवमभूति की कीति का केन्द्र सिद्ध हुआ है । सातवी शतावर्द में नारायशभट्ट का 'वेशीसहार' नाटक भी प्रसिद्ध हुआ । आठवी शताब्दी में मुरारि ने 'अ्नर्घराघव नाटक की रचना की । नवम्‌ शत्ताव्दी मे अनगहष का 'तापसवत्सराज- चरित' नामक नाठऊ प्रणीत हुआ्न | नवी शताब्दी में दामोदरमिश्र ने 'हनुमन्नाटक की रचना की । दशम्‌ शताव्दी मे राजशेखर ने 'वालरामायश तया 'कपू रमज री' नामक नाटको की रचना की । दशम्‌ शताब्दी मे ही क्षेमेश्वर का “चण्डकौशिक नाटक रचा गया । सस्क्ृत के नाठको में निम्नवर्ग के पात्रों की भाषा प्राकृत रही है । गद्य साहित्य--वैदिक युगीन गद्य के उपरान्त नाटकों में गद्य को स्थान मित्रा | परन्तु गद्य-साहित्य के विकास का श्रेव दण्डी, सुबन्धु, वाश जैमे गद्य साहित्यकारों को है। छठी शताब्दी मे दण्डी ने 'दशकुमारचरित” ग्रन्थ की रचना की । छठी शताब्दी में ही सुबन्धु ने 'वासवदत्ता' नामक गद्य-साहित्य की अनुपम कृति प्रस्तुत की । सातवी शताब्दी में बाणभट्ट ने 'कादम्वरी' नामक कथा साहित्य की रचना की । उक्त तीनो ही गद्यकारों ने अपनी कृतियों को कावब्य-तर्व से सुमज्जित किय। है । आएयान-साहित्य--नीतिकथांपरक तथा लोककथापरक साहित्य को 'आरूयान- साहित्य” कहा जाता है। नीत्तिकथापरक ग्रन्थों मे विष्णु शर्मा का 'पचतनन्‍्त्र! 300 ई के श्रास-पास लिखा गया । 'पचनतन्त्र! एक रोचक तथा सुप्रमिद्ध कथाग्रस्थ है । 4वी शताब्दी मे नारायण पण्डित ने 'हितोपदेश' नीतिकवा की रचना की । झाठवी शताब्दी मे नेपाल के बृद्धिस्वामी ने 'बृहत्कथा' नामक लोककथा की रचना की । वी शताब्दी मे क्षेमेन्द्र ने 'बुहत्कथामजरी” नामक शभ्राख्यनन लिखा । ग्यारहवी शताब्दी मे तोमदेव ने 'कथासरित्सागर नामक सुप्रसिद्ध लोकफथासाहित्य लिखा । बारहवी शताब्दी मे शिवदास ने 'वेत्तालणचर्विशतिका! नामक आख्यान-साहित्य प्रस्तुत किया । इसमे न्यायप्रिय विक्रमादित्य की 25 कहानियाँ सम्रहित हैं। बारहवी शताब्दी मे ही 'पिहासनद्वात्रिशतिका' प्राख्यान भ्रन्थ लिक्ता जया । इनके अतिरिक्त कुछ अन्य झ्ाख्यान प्रन्‍्थो की रचना हुई । सॉस्कुतिक इतिहास प्राचीन भारत मे सस्क्ृति के विभिन्न रूप विकसित हुए | विभिन्न परिस्थितियो मे विकसित होने वाले साँस्कृतिक प्रतिमानों को ही सॉँस्कृतिक इतिहास का श्राधार माना जाता है। विभिन्न जातियो तथा विभिन्न विचारघाराञ्रों के टकराव एव समन्वय के फलस्वरूप मस्कृति का इतिहास श्रग्रसर होता है | प्राचीन भारत वैदिक ग्रुग से पूर्व ही पारम्भ हो जाता है, परन्तु यहाँ वैदिक सस्क्ृति से ही सास्क्ृतिक इतिहास का निर्देश करना हमारा प्रयोजन है । फ़िर भी इतना तो कहना ही होगा कि वैदिक सस्क्ृति पर भप्राग्वेदिक सस्क्ृति के निदृत्तिमार्ग का स्पष्ट प्रभाव है। प्राचीन भारत का साहित्यिक एन सॉस्कृतिक इतिहास एक परिचय 7 आऋग्वैदिक ससस्‍्कृति--ऋग्वैदिक ससक्ृृति 3000 ईसा पूवव से प्रचलित हुई। उस युग की सस्क्ृति को जानने का प्रमुख भाघार ऋग्वेद है। ऋग्वदिक सस्कृति मे यज्ञ-सम्पादन की प्रधानता रही । ऋग्वेद के मन्लद्॒ष्टाओ ने इन्द्र, वरुण, रुद्र, विष्णु, सूर्य था सविता, भ्रग्ति, पजन्य आदि देवताओं के स्तवन का प्रमुस झ्राघार बचश्च ही माना । यज्ञ को विस्तृत अर्थ में ग्रहण करके समस्त सृष्टि की रचना का कारण यज्ञ ही चताया गया । ऋग्वैदिक दार्शनिक अनुचिन्तन उस युग की सस्कृति की महानता का द्योतक है| ऋग्व॑दिक सस्क्षति में भ्रद्वेतवाद, बहुदेववाद तथा एकेश्वरवाद जैसी परिष्कृत विचारधाराएँ विद्यमान हैं। ऋग्वेद वा घामिक जीवन न॑तिक मूल्यों से परिपूर्ण है। चूत-क्रीडा को घोर पाप सिद्ध किया गया । विभूतियों या सम्मान्य व्यक्तियों के सम्मान को भ्रत्यधिक महृत्त्व दिया गया है । ऋण्वैदिक समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र नामक चार वर्णों क्रे प्रतिरिक्त एक अन्त्य या दाम वर्ण भी था | तदयुग में ब्रह्मचर्य तथा ग़ृहस्थ नामक शाश्रमो को पर्याप्त सस्मान मिला । वानप्रस्थ तथा सन्‍्यास नामक शक्राश्रमो को मान्यता नहीं मिली थी । ऋग्व॑दिक युग में स्त्रियों को पर्याप्त सम्मान मिला | शहिणी धर की स्वामिनी द्वो जाती भी । स्त्रियों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने तथा स्वतन्त्रत, पति-वरण करने की सुविधाएँ या अधिकार मिले हुए थे | ऋग्वेदिक काल मे सात्विक भोजन को महत्त्व दिया गया, परन्तु भोजन में माँस को भी स्थान दिया गया । सोमरस भार्यों का प्रिय पेय था । उस युग के व्यक्ति सुती वस्तो से परिचित थे तथा मृगचर्मे एव वल्कल वस्त्रो को पहनने की प्रथा प्रचलित थी । ऋग्वंदिक काल की स्तियाँ रकम तथा तिष्क नामक श्रामूषणो को धारण करती थी । श्रामोद-प्रमोद की दृष्टि से दुन्दुभि तथा कर्क शी वाण जंसे वाद्य प्रचलित थे । तत्कालीन समाज में राज-व्यवस्था का भी अस्तित्व था । उस मृत में राष्ट्रीयता की भावना भी विकसित हो चुकी थी । तत्कालीन समाज में कृषि, पशु पालन भझ्ादि कार्यो के साथ-साथ चस्त्र बनाना, अमडें का सामान तैयार करना, स्वर्णामूपण बनाता प्रादि घन्धे भी प्रचालित ९ थे । ऋग्वेदिक समाज चिकित्सा की विशेष सुविधाशो से लाभान्वित था। भौगोलिक ज्ञान की दृष्टि से उसे नदियों, पदेतों तथा समुद्रो का ज्ञान था । ज्योतिष' के क्षेत्र में भी तत्कालीन समाज आगे बढा हुआ्ला था ॥ उस यूग की काव्य-कला का उत्कर्ण त्तो इस रूप में देखा जा सकता है कि 'पुरुष' या चैतन्य तत्त्व को सम्पूर्ण समाज के रूप में मानवीकृत किया यया । पज्ञात तथा रहस्यमय शक्ति के प्रति ऋशेदिक ऋषियों की जिज्ञासापूर्ण घारणा यह सिद्ध कर देती है कि तत्कालीन समाज कोई भावेट युग नहीं था | चह युग हजारो वर्षो की सभ्यता और सस्कृति के विकास को स्पष्टत सूचित करता है। उत्तर बैदिक सस्कृति--ऋणग्वेद के पश्चात्‌ यजुर्वेद, सामवेद, श्रथर्णवेद, ब्राह्मण व झारण्यक ग्रल्य तथा उपनिषदों एवं सूत्रग्रल्थो की रचना हुई । तीन सहस्त ई पू से लेकर 7000 ई तक का काल उत्तर जेदिक सल्छृति से जोड़ा जाता ) ऋन्वेद, ॥0/90|-.-.6 8 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास है। यदि सूत्र ग्रन्थो का रखता काल 600 ई प्‌ तऊ हुम्रा तो यह स्पष्ट है कि उत्तर वैदिक सस्क्ृति की अपर सीमा 600 ई यू तक माननी पडेंगी | उत्तर वेदिक सस्क्ृति पे दाशंनिक अनुचिन्तन और भी विकसित हुझा । सम्पूर्ण समाज को ग्रहस्थ धर्मे के रहत्पों से ग्रवगत कराने के लिए ब्राह्मण ग्रन्थों ने अभूतपूर्व कार्य किया । बच्ञ के क्षेत्र को इनता विस्तार दिया गण कि ईश्यर को भी यज्ञ का ही रूप सिद्ध कर दिया गया । यज्ञ के विवि-विघानों का सर्वाधिक विकास सूत्रकाल की देन है । धारण्यक ग्रन्थों मे वानप्रस्थियों के कर्मों का विवेचन करके ब्रह्मचर्य तथा गृहस्थाश्रम नामक दो ग्राश्नपों के अतिरिक्त वानप्रस्थ ग्राश्नम दी सस्थापना कर दी गई । वानप्रस्थ के सन्दर्म में विचार करते समय यहाँ तक कह दिया गया कि ज्ञान का प्रसार करना वानप्रस्यियो के पर्यटन का मूत्र विपय है। उपनिपदो के युग मे ब्रह्म चिन्तन चरमोत्कर्ण पर पहुँच गया । सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड को ईश्वर का ही रूप माना जाने लगा । इस युग में सत्यास श्राश्षम को भी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई | झत ऋग्वेदिक युग के पश्चात्‌ चारो आ्राश्रमो को स्थान मिला | उत्तर वेदिक यूग मे सस्कृति इतनी विकसित हुईं कि “वसुधेव कटुम्बक्म्‌' की धारणा साहित्य पर भ्राच्छादित हो गई | पठन-पाठन को इतना महत्त्व दिया गया कि गुरु तथा शिष्य के सम्बन्धों को पवित्र करने के साथ-साथ गुर को ईश्वरीय ज्ञान का साक्षात्‌ केन्द्र सिद्ध कर दिया। 'प्रधिकारीवाद' की परम्परा भी इस समय विकसित हो चुकी थी | प्रमरता की भावना का चरम विकास भी इसी युग फ्री देन है । उत्तर जैदिक युग मे देवताओो के स्वरूप में भी विकास हुप्ना ! विष्णु को सूर्य देवता का रूप न मानकर एक स्वतन्त्र देव माना जाने लगा तथा रुद्र को शिव का साक्षात्‌ स्वरूप स्वीकार क्रिया जाने लगा। उत्तर जैदिक युग में गैवाहिक म्थिति भी परिवर्तित हुई । वहु-विवाह की प्रथा प्रचलित हो चुकी थी। महर्षि याज्वलक्य की मैद्रेणी तथा कात्यायती नामक दो पत्तियाँ थी । मनु की अ्रनेक पत्लियाँ थी। उत्तर गैदिक सस्क्ृति में शिक्षा की दृष्टि से कुछ उदारता झपनाई गई । बेद पढने के अधिकारी गूद्र भी माने गए तथा स्त्रियाँ भी । गाय को अ्वष्य माना गया तथा परहिसा पर वल दिया गया । उत्तर गैदिक सस्क्ृति में जहाँ एक झोर कममफ़ाण्ड का बोलवाला हुप्रा वहाँ दूसरी ओर आध्यात्म-चिन्तन भी विकसित हुआ । चैदिक युगोत्तर सस्कृति--उत्तर गैदिक साहित्य का युग कम से कम 600 ई- प्‌ तक जलता रहा | उसी समय रामायण नामक महाकाव्य का भी उदय हुआ । सूत्र अ्न्‍्थों मे महाभारत का उल्लेख है, भ्रत जय” काव्य के रूप मे ही नही, प्रपितु महाभारत के रूप में भी 'महामारत' नामक पौराणिक महाकाव्य 400 ई पू में ही उदित हो चुका था । पुराणो का प्राथमिक रूप भी उत्तर बेदिक बृग में ही उदित हो गया था | अ्रत वेदिक युगोत्तर सस्कृति का एक पक्ष महाकाव्यकालीन तथा प्रथम पौराणिक युगीन सस्क्ृति के रूप में है । गैदिक युगोत्तर सम्हृनि में ईसा पूर्ग छठी शताब्दी से ही बौद्ध तया जैन सस्कृतियों का भी उदय हुआ । इसलिए प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास एक परिचय !9 गैदिक युगोत्तर सस्कृति दो रूपो में विकसित हुई। प्रथम को महाक्राब्य ढया पौराणिक सस्कृति के रुप में तथा द्वितीय को वौद्ध तया जैन सस्क्षनि के स्प में जाना जाता है। उक्त दोनो सस्कृति-भेदो का मुल रुप ईसा पूर्ण 600 से लेकर ईसा पूर्ज 400 तक स्वीकार किया जाता है । भहाकाव्यकालीन एवं पौराणिक युगीन सत्कृति--रामाबण तथा महाभाग्त त्तामक पौराणिक भह्याफाब्य क़मश 600 ईसा पूर्ण ततरा 400 ईसा पूर्व तक बृहदाकारता को प्राप्त कर चुके ये | इसी भ्रवधि में पुराणों का भी विकास होते लगा था| तत्कालीन समाज का सॉास्कृतिक इतिहास विभिन्न उपो में विकसित हुआ, जिसे यहाँ सक्षिप्तत प्रस्तुत किया जा रहा है । रामायण काल में गैदिक सस्कृति के विकास के लिए एक सुदृढ़ राजनीतिक घ्यवस्था की गई। केन्द्रीय शक्ति के निर्माण के लिए राजसूध तथा प्रश्वमेघ यज्ञ किए जाते थे । श्रार्ये तथा राक्षस सस्कृति के टकराव के कारण केन्द्रीय शक्ति के तिर्माण की महती प्लावश्यकता पर वल दिया गया । कर्म, भक्ति तथा ज्ञान मार्ग तीनो ही प्रधानता पा चुके थे । अवतारवाद की भावना भी विकसित हो चुकी थी। रामायण काल में भ्ादरशे भ्रातृत्व को पारिवारिक तथ्रा सामाजिक स्तर पर प्रतिष्ठित करते का प्रबल प्रयास किया गया । एक सारी ब्रत की प्रथा भी वहु-पत्नी रखने या बहु-विवाह प्रथा के विरोब में आदशंता प्राप्त कर चुकी थी। शाम का सीता के प्रति प्रेम एक पत्नी व्रत का ही उदाहरण है। वर्खाश्रम धर्म तो जोरो पे लागू रखने का भी समर्थ किया गया । तत्कालीत समाज में प्राथिक, धामिक एथ राजनीतिक दृष्टियो से भी श्रादर्शता को प्रधानता दी गई । मुनत रामायण युगीन ससकृति का प्राण चर्म था । महाभारत काल में सस्क्ृति का प्राण धर्म न रहकर राष्ट्र कमें वत गया। महाभारतकाल के चरित्र नायक श्री छुष्ण राष्ट्र कर्म की भावना से ओ्रोत-्प्रोत होकर ही तानाशाही के विरोध में सघर्धरत रहे । राजा लोग 'बहुं-विंवाह को राजनीतिक महत्त्व देते रहे । केन्द्रीय शक्ति के निर्माण के लिए राजसूय यज्ञ की परम्परा पूर्णवत्‌ विकसित रही । स्त्रियो के प्रति किचित्‌ उदार दृष्टिकोण होने पर भी स्त्रियों का शोपण होता रहा । झाध्यात्म विद्या प्राप्त करने का भ्रधिफ्ार स्त्रियों तथा शाद्दो को भी था। महाभारत काल में श्रवतारवाद की भावता प्रबलता प्राप्त करती चली गद्दे। वर्ण-घर्म को सुविस्तृत रूप देने तथा प्राश्मम-धर्म को भ्तिशय नियमबद्ध करने का श्रेय भी महाभारत यूग को ही है। 400 ईसा पूर्ण के महाभारत में नास्तिकता को प्लाडे हाथो लेकर आस्तिकता का पूर्ण समरथेन किया गया। भठारह पुराणों का मूल रूप 400 ईसा पूर्ण मे ही बन चुका था। पुराणों में भ्रवतारवाद को इतना प्रदल स्वरूप प्रदान किया गया कि भक्ति सार्ग को कर्म तथा ज्ञान भार्ग की भपेक्षा श्रधिक व्यावहारिक एग लोकप्रिय स्वरूप प्रदान किया गया । वर्ण-व्यवस्था तथा आज्मम-व्यवस्था का पुरजोर समर्थन किया गया । भक्ति योग को इधना व्यापक वना दिया गया कि ज्ञानमार्गी शकर तथा कमेयीगी विष्णु को आदिशक्ति 20 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्कृतिक इतिहास का स्वरूप देकर शैव एवं वैष्णव सम्प्रदायों का प्रचतन हो गया । पुराण-प्रभावित समाज में सस्कृति को मुस्यत पुरुष जो दृष्टिगत रखकर ही प्रस्तुत किया गया । स्‍त्री को पराधीन रखने की परम्परा का सूत्रपात पुराण-युग मे ही हुआ । पोराशिक युग में बेदिक युगीन गृढ़ तत्वों का लौकिक घरातल पर इतना विस्तार हुग्रा कि यम्पूरें समाज को कमकाण्ड तथा भक्ति-प्रपत में बाँध दिया गया। सास्क्ृतिक विकास के लिए राजनीतिक केन्द्रीयकरण तथा आर्थिक उत्थान को ग्रत्यन्त झ्ापश्यक माना गया । राजकुलों में विवाह-प्रथा स्वयवर पर झाधारित रही | पुराशो के वश्यानुचरित से यह स्पष्ट है कि पुराण-युग मे ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्गों की ही प्रधघानता रही । मूति-यूजा के विक्रास का श्रेत्र मी पौराणिक युग को है । यथार्थंत रामायण तभा महाभारतकाल म्रे जो साँस्कृतिक विक्रास हुआ, उस पर भी पौराणिक सस्क्ृति की स्पष्ट छाया भझकित रही । इसीलिए रामायण तथा महाभारत को पौराणिक साहित्य के अन्तर्गत परिप्रणित किय्रा गया है। महाकराव्य- युगीन तथा पौराणिक-युगीन सस्कृति एक सुदीर्घे परम्परा में विकसित होने के कारण विविध मुखी है । पौराणिक युगीन तया महाक व्यकालीन सस्कृति के विकास में काव्यात्मक कल्पनाओ का जो योगदान रहा, उन्हीं के फलस्वरूप ईरवर के असाधारण रूपो का विकास हुआ । बौद्ध तथा जैन य्रुगीन सस्कृत्ति--ईसा पूर्व छठी शताब्दी में त्राह्मणवाद के विरोध मे गौतम बुद्ध तपा महावीर स्वामी के सरक्षण में क्रमश बौद्ध तथा जैन नामक अनीश्वरवादी सस्कृतियों का विकास हुआ | ईश्वरवादिता को ग्राधार ववाकर अनेक झाडम्बरों का विक्राम हो चला था तथा जाति-पाँति के वन्धन अत्यधिक जटिल बन चुके थे । श्रत सिद्धार्थ तथा वर्धमान ने राजघरानो का त्याग करके वोधि' एवं किवल ज्ञान को प्राप्त करके क्रमश बौद्ध तथा जैन सस्क्ृति एवं धर्म का सू्रपात किया । तरकालीन राजाओं के सरक्षण मे बौद्ध एवं जैन धर्म पर्याप्त विकसित हुए । ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर 400 ईसा पूर्व तक बौद्ध तथा जैन सस्कृतियाँ भारतवर्ष मे अपने पैर पूरी तरह से जमा चुकी थी । बौद्ध सस्क्ृति के विकास में बौद्ध धर्म के साहित्व का विशिष्ट महत्त्व है । चौद्ध धर्म का प्रतिष्ठित ग्रन्थ 'घम्प्पद' बौद्ध सस्कृति के नैत्तिक मूल्यों को उजागर करने हेतु एक अद्वितीय झ्राघार है। गौतम बुद्ध ने चार भ्ञार्य सत्यो को प्रतिपादित किया--! दुख है, 2 दुख का कारण है, 3 दुख से मुक्ति सम्भव है तया 4 दुख से मुक्ति के उपाय हैं। दुंख की सिद्धि के लिए पाँच उपादान--विज्ञान, रूप, वेदना, सज्ञा तया सस्कार को प्रतियादित किया गया है | दुख का मूल तृष्णा को बताया गया । दुख से भुक्ति की सम्भावना तृष्णा-त्याग के रूप मे की गई । चौथे आयें सत्य को साकार करने के लिए अष्टौगिक योग मार्ग को प्रतिपादित किया गया । अष्ठौग योग में सम्यक्‌ दृष्टि, सम्यक्‌ सर्प, सम्यक्‌ वचन, सम्थक्‌ कमे, सम्यक जीविका, सम्यक्‌ अयत्न, सम्यक्‌ स्मृति तथा सम्यक््‌ समाधि को स्थान दिया गया | बौद्ध सस्क्ृति मे जीव को विज्ञान-प्रवृतियों का सम्रह बतामा गया तथा ससार प्राचीन भारत का साहित्मिक एव सॉस्कूतिक इतिहास एक पीचय 2। को स्वभाव या प्रकृति की रचता । इसी कारण से किसी स्थिर तत्त्व को स्वीकार न करके क्षणिकवाद को महत्त्व देऊर दु ख, त्याग तथा वैराग्य नामक तत्तोों को सारक्ृतिक इतिद्वास मे उजागर कर दिया । बौद्ध वम व दर्शन म विर्वाण' यो व्यक्ति यी मुक्ति का स्वरुप स्वीकार किया गया | सभी जीववारियों के पति करुणा या सहानुभूति ही बौद्ध सस्कृति की महत्त्वपूर्ण देन है । जन ससस्‍्कृति छठी शताब्दी ईसा पूर्व से प्रारम्भ होती है। महावीर या बर्धमान तथा झन्प तीर्थफ़रो फी विचारधारा को श्राचाराँग सूज' जैसे धर्म ग्रन्थों में प्रस्तुत किया गया है | जैन सम्कृति में बौद्ध सस्‍्क्ृति की भौति प्रतीश्चरवाद फो माता गया है। परन्तु जैन दर्शन जीवात्मा के म्रहितित्य को स्वीकार करके कीवल्थ यी स्थिति में उसकी मुक्ति मानकर भी उमदी समाण्ति को स्त्रीकार नहीं करता | जैन सम्कृति मे जीव फो चतुर्देश गुणों से विभूषित बताया गया है । सम्पर्‌ ज्ञान, सम्प्‌ दर्शन तया सम्यक्‌ चरित्र को 'तिरत्न” के नाम से पुबारा गया है। श्रहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचय तथा अ्रपरिग्रह को 'पच भ्रणुक्रत' क नाम से भ्रभित्ित किया गया है | दिशाप्रो मे सर्मादागत अमण, प्रयोजनहीन या पाप-उत्पादक वस्तुप्रों का परित्याग तया भोग्य पदार्थों की मात्रा को सीमित करना तामक तीन ब्रतो को पत्रिणुण बता नाम दिया गया। पौराणिक धर्म लक्षणों के समान्तर दश धर्म लक्षणों को भी स्त्रीफार किया यया । उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम मार्जव, उत्तम शौच उत्तम सत्य, उत्तम सयम, उत्तम तप, उत्तम झ्राक्चिन, उत्तम ब्रह्मचय तथा उत्तम त्याग नामक दश घर्मे-लमण है। प्रहिंसा को प्रबलतम रूप मे प्रस्तुत करना जैन सस्कृति की विश्व को महानतम देन है । वौद्ध तथा जैन सस्क्ृति कर्मकराण्ड का विरोव करने के लिए विकसित हुईं । जाति-पाँति के भेदभाव को दुर करने के लिए सम्पूर्ण मानव समाज को मानव-जाति का ही प्रसार बताया गया । रहस्पपूर्ण ईएवर जैमे तत्त्व का निषेध करके प्रस्पक्ष सम्पक्‌ कर्मवादी दृष्टिकोण का प्रसार करके भारतीय संस्कृति मे भनेकाल्तवाद- स्मादबाद नामक एक नया भ्रष्याय जोडा गया । , भारत का प्रौपनिवेशिक एवं सॉँस्कृतिक विस्तार--झारतवर्ष की जो राजनीतिक शक्तिप्ाँ भारत से वाहर शासन _ स्थापित कर सकी तथा अपनी शासा विशेषो को बाहर ही राज्य करने दिया, उमी स्थिति एव प्रवृत्ति को उपनिवेशवाद' कहा गया | प्रकृति प्रेमी तथा पर्यदन प्रिय आर्यों को भ्रपती संस्कृति का प्रसार करने का राजनीतिक महत्त्व भी जान पडा । इसलिए वेदिक युग मे जहाँ तक पृथ्वी तथा झुतोक का विस्तार है, वटी तक राभी प्राणियों के हित की कामना की गईं । इसी सॉस्क्ृतिक उदारतः ने प्रनुकुल परिल्यिति प कर भारतीय सल्कृति को विश्व-व्यापक चना दिया । ऋषग्यैदिक सस्क्ृति देव, झाये तथा श्रार्येत्तर जातिभो की सस्कृति ऊा समा झूप है । निरन्तर संबेनरंत-रहनेवाले- आर्योंते विरन्ति का अनुरुंव किया तथा उत्तर देदिक युग से सम्पूर्ण विश्च क्षे वातावरण को शान्तिपूर्ण देखने की कामना 22 प्राचीन भारत का साहित्यिक एव सॉस्क्ृतिक इतिहास की ।? सम्कृति के प्रचार-प्रमार की प्रवुलि वेदिक युग से ही विकसित थी, दसलिए वैदिक संस्कृति का सर्वाधिक विक्नास हुआ। प्रचार की इसी प्रवृत्ति को वौद्धों तथा जनो ने भी भ्रपनाया ! लका में बौद्ध सस्कृति को प्रचारित करने का सर्वाधिक श्रेय तीसरी शताब्दी ई पू में सम्राट प्रशोक् के पुत्र महेन्द्र तता उसफ्री पुत्री सघमिनरा को है। जावा, सुमात्रा, वोनियो श्रादि हिन्द एशिया क देशों में घ्रजोह के जासन-काल से ही सस्कूति का प्रचार प्रारम्भ हो गया। शाारि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने मालवा, गुजरात तथा सौराष्ट्र पर अभ्रधिफार करके वहाँ के ऊबीलो और मुखियों को हिल्द एपिया के द्वीप-समूहों मे बसने के जिए बाध्य करके भारतीय सस्कृति के प्रसार में सहापता प्रदान की । बौद्ध भिक्षुप्रो ने दुगम यात्राएँ करके चीन, तिव्वत तथा नेपाल में वौद्ध सस्कूति का प्रचार किया । शिव नामक देवता की पुजा पश्चिमी एशिया के देशो मे ही नही, अपितु अफ्रीका महाहीप तक में होती रही है, ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं। प्राचीनकाल मे खुरासान, ईरान, ईराक, मासुल तथा सीरिया की सीमा तक बौद्ध धर्म का प्रचार था । प्राचीन युग मे अफगानिस्तान को गन्धवंदेश, वर्मा को ब्रह्म देश, जावा को यवद्वीप, सुमात्रा को सुवर्ण दीप कहने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय ससस्‍्कृति वृहत्तर भारत नामक राष्ट्र के स्वरूप को उजागर करके प्रतिष्ठित थी । सीरिया मे 7 से 22 फीट ऊँची देव मूर्तियों की प्रतिष्ठायना यही,सिद्ध करती है कि पश्चिमी एशिया में भारतीय सस्कृति प्रचलित थी । मच्य एशिया में भारत के प्रमुलत उपनिवेश काशगर, यारकन्द, खुत्तन श्रादि मे विद्यमान थे। प्राचीन भारत के साहित्य की चीती, ग्ररवी, फारसी आदि भाषाश्रों में सनुदित करके विदेशों मे भारतीय सस्कृति को भ्रपनाया गया । भारतीय सस्कृति के प्रचार और प्रसार के प्रमाण भारतीय कला के भवशेषों के रूप भे विदेशों मे चिच्यमान हैं। मध्य एशिया मे भारतीय मुर्तिकला तथा वास्तु- कला के उदाहरण फरात्त के ऊपरी भाग मे घडी-बडी देवधूर्तियों तथा देव मन्दिरो के रूप मे प्राप्त हुए है। भारतीय सस्कृति का समन्‍्वयवादी दृष्टिकोण संस्कृति के प्रचार-प्रसार मे विशेष सहायक हुआ । यहाँ यह भी ध्यान देने योन्य है कि भारतीय सस्‍्लृति पर विशेष सस्कृतियों का भी बहुत कुछ प्रभाव पडा है, जिसके फलस्वरूप समन्यवादी घारणा और भी व्यापक बनी । विदेशी आक्रमणों के फलस्वरूप यूनानी, हूण, शक, तुर्क झादि जातियो की ससस्‍्कृति का थोडा-बहुत प्रभाव भारतीय सस्कृति के ऊपर अवश्यमेव पडा है । ] यजुबेंद, 36/8 5) नैदिक साहित्य (५४४४० ।.०7४७॥४) क-+-+क-क-क-क-७-१-क-क-%-क-क-३-क-+-९-%-%-७-९-९-क-७-३-७-+-.६-७-७-७-७-७-७-६-७-३५-३-६-३-६-+-+-०-७-३-७-३-६७-+ वेद सस्तार का प्राचीनतम्र साहित्य है। वेद! शब्द ज्ञानार्थक 'विद घातु मे 'घम्म, प्रत्यय के योग से निष्पज्न हुप्ना है। महपि दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेदभाष्य की भूमिका मे वेद! शब्द का स्पष्टीकरण निम्त रूप से किया है-- 'बन्‍न्दन्ति जानन्ति, विद्यन्त भवन्ति, विन्दन्ति भ्रथवा विदन्ते, लभन्‍्ते विन्दन्ति विचारयन्ति, सवें मनुष्य सत्यविश्वा मैर्येषु वा तथा विद्वासञ्च भवन्ति ते वेदा ।॥” भ्रत चेद का मूल रूप निम्न है--- ] क्ेद सत्मविद्या है, 2 वेद ज्ञानियों का विपय है तथा 3 बेद सभी मनुष्यों के लिए उपयोगी हैं । उपयु क्त तीनो तथ्य जिस साहित्य मे परिपक्व रूप मे प्राप्त किए गए, पुराने आचार्यों ने उसी साहित्य को वेदिक साहित्य के नाम से श्रभिहित क्रिया । हमे यहाँ यह विस्पृत पही करना चाहिए कि वैदिक साहित्य मे वैदिक सस्कृत भाषा ही दृष्टव्य है। प्रत इन्ही कतिपय गिने-चुने भ्राधारो को लेकर वैदिक साहित्य को भ्रधो लिखित रूपो से विकसित किया गया है-- ] सहिता-साहित्य, 2 ब्राह्मण साहित्य, 3 झारण्यक साहित्य, 4 उपनिपद्‌ साहित्य । देदों का रचना-काल--वैदिक साहित्य के विवेचन से पूत्र उसके रचना-काल के सन्दर्भ मे जान लेना झ्ावश्यक है । ग्यपि वेदो के प्रशयन के विषय मे इदमित्थम्‌ कुछ नहीं कहा जा सकता, तथापि कुछ मान्यताझों पर प्रकाश डालकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है। वेदो के रचना-काल को निर्धारित करने के लिए प्रमुफत भत निम्त हैं-- बेदो का श्रपोरषेयत्व--भारतीय मत के झ्राधार पर बेद ईश्वरीय कृति हैं-- ईश्वरशृत है। ऋग्वेद के पुरुप-सूक्त मे भो इसी मत की पुष्टि दृष्ठब्य है... तस्माद्तात्सर्गट्त ऋच सामानि जज्ञिरे। श की जज्षिरे तम्माथजुस्तस्मादजायत ॥ ऋग्वेद, 0/90/9 मनुस्मृति मे ईश्वर द्वारा वेदों का ज्ञान भग्ति, वाय, सूर्य तथा दिए जाने वा बणुन है-- 22800 208 24 प्राचीन भारत का साहित्यिक एव साँस्क्तिक इतिहात अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रय ब्रह्म सनातनम्‌ | दुदोह यज्ञसिद्धयर्थभृग्यजु सामलक्षणम्‌ | मनुस्मृति, /23 प्रध्यापपामास पितृक शिशुराड्धिरस कतरि ॥ वही 2/5 महपि दयानन्द न वदो को ईश्वरक्ृत मानकर उन्हें उतना ही प्राचीन सिर्ध किया है, जितनी दि यह सृष्टि प्राचीन है। उनके अनुसार ईश्यर ते मनुष्यों के कल्याणार्थ वेद वो ऋषियो के हृदय में प्रकाशित तिया था । 'सत्यार्थ प्रकाश में इसका युक्तियृक्त प्रतिपदन किया ग्रया है | मंक्‍्समूलर का मत--मैकक्‍्समूलर का सिद्धान्त विकासवादी है | उसने वैदिक साह्त्यि को चार भागो-छन्द, मन्त्र, ब्राह्मरा भ्ोर सूत्र में वर्गीकृत किया है| वे झपतर मत को सिद्ध करने के लिए यह मान कर चले है कि गौतम बुद्ध के उद्भव के समय वेदिक साहित्य विखा जा चुका था। भ्रन वेदिक साहित्य 600 ई पू प्रणीत हो चुका था । यदि सुत्रो की रचना 600 ई पृ स्वीकार क्रिया जाए तो उससे 200 व पूर्व ब्राह्मण प्रन्यो की रचना हो चुकी होगी । श्रत ब्राह्मण, भ्ारण्यको तथा उपनिपदों का रचना-काल 800 ई प्‌ निर्वारित किया जा सकता है। मेक्समूलर ने वेदो को मन्त्र तथा छन्द नामक दो भागो मे विभाजित करके दोनों के विकास के लिए क़मश दो-दो सौ वर्षों का समय देकर यह ॒पिद्ध किया है कि वैदो का रचना-काल 200 ई प्‌ से लेकर 000 ई पृ तक स्वीकार किया है। मंक्समूलर का मत्त केवल प्रनुमान पर झाधघारित है । छुछ प्न्‍्य सत--मैक्डोनल ते भाषा-विज्ञान के भ्राधार पर बेदो की रचनावधि !300 ई पू स्वीकार की है | डॉ भार जी भण्डारकर ने यजुर्बेद के 40वें भ्रव्याय मे प्रयुक्त 'असुर्याँ शब्द को लेकर वेदों का सम्बन्ध असीरिया (मैसोपोटामिया) से जोडा है। इतिहास के प्रनुमार भ्रसीरिया के असुर 2500 ई पू भारत मे झाए थे। भ्रत यजुनद से पूर्व रचित तथा विकसित ऋग्वेद का रचनाकाल 6000 ई पृ रहा होगा | जर्मनी के विद्वान्‌ ज॑कोत्री तथा भारतीय विद्वान लोकमान्य वालगगावर तिलक ने ऋग्वेद का रचना-काल क्रमश 4500 ई प्‌ तथा 6500 ६ पू सिद्ध किया है। उक्त दोतो बिद्दानों के मतों का श्राधार ज्योतिपी गराना है। नारायणराव भवनराव पारगी ने भुगर्भशास्त्र के झ्ाधार पर ऋग्वेद का रचना-काल 9000 ई पू स्वीकार किया है। कुछ सनातनी विद्वानों ने वेदों का रचना काल लाखो वर्ष पुराना माना है । वस्तुत वेद सभी मानवो के कल्यारा हेतु रचे गए है । जिस व्यक्ति का हृदय समस्त समाज के कल्याण के लिए चितन मनन करके ज्ञान की श्रभिव्यक्ति करता है, वही वेद-रचना है । गीता में कहा गया है कि सिद्ध पुरुष के हृदय मे सम्पूर्ण मानव-समाज प्रतिविम्बित हो जाता है तथा समस्त मानव-समाज में वह सिद्ध पुरुष चरिश्रत॒प्रतिबिम्बिन द्वाने लगता है । भ्तत वह सिद्ध पुरुष सर्वत्र समदर्थी होने के कारण ईश्वरत्व को प्राप्त कर लेता है-- बेदिक साहित्य 25 सर्वेभूतस्थमात्मान सर्वेभूतानि चात्मति । ईक्षते योगयुक्तार्मा सर्ववसमदर्शेन ॥ गीता, 6/29 ऐसा ईश्वर-स्वरूप व्यक्ति जब अपने प्रनुभूत ज्ञान की श्रभिव्यक्ति करता हूं तो वह ज्ञान-रचना सर्वजीवहिताय होती है । हमारे यहाँ उसीलिए बेदी को ईएवरकृत कहा गया है । ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त मे 'पुरुप' शब्द चेतता वा वाचक है। ज्ञान का सम्बन्ध पन्‍्तश्चेतना से ही दे । भ्रत ऋषियों मन्त्रद्रष्टार ' जैदी उक्तियी के झ्ाधार पर यह स्वत सिद्ध हो जाता है कि वेद ऋषियो की अन्तश्चेतना से व्यक्त हुए हैं। इसलिए उन्हे 'बरह्मविद्‌ ब्रह्म॑व भवति'-अर्थात्‌ ईश्वर वा ज्ञाता ईश्वर ही हो जाता है, जैसे सिद्धान्तो के आधार पर वेद पुरुषों की रचना न होकर प्रपौरुषेयत्व प्राप्त सिद्ध पुरुषों किचा ऋषियों की रचना है । वेदों के भ्वलोकन से भी यही बात सुस्पप्ट है । वेदों का प्रनुणीलत करने पर बेद के प्रणंताशों के निर्धारण हेतु निम्नलिखित तथ्य ध्यान देने योग्य हैं-- । चेदो की सुक्त-विभाजन विभिन्न ऋषियों के नामो की स्पष्ट सूचना देता है। वेदो मे तशिष्ट, विश्वामिन्न, जमदग्नि जैसे मन्त्रदृष्टाश्ों का स्पप्ट उल्लेख है । 2 वेदों की भाषा वैदिक सस्‍्कृत है । वैदिक सस्कृत मे शब्दों के रूप झनेक प्रकार के पाए जाते हैं। इसका ज्वनन्त प्रमाण यास्क्रीय निदक्त है जो यह सिद्ध कर देता है कि वेद विभिन्न युगो के भ्रनेक ऋषियों हवारा रचित हैँ । 3 वेदों के भ्रन्तिम भाग वेदाल्त या उपनिषद्‌ के रूप मे प्रसिद्ध है। उ+निपदो में निवृत्तिमार्ग की प्रधानता है तथा वेदो मे प्रवृत्तिमार्ग की । प्रत निइचि- । भार्गी दविडों तथा भ्रदतत्तिमार्गी झायों के योग से ही वेदों की रचना हुईं है। इस आधार पर विभिन्न सस्कूनियो के विभिन्न ऋषियों की सूचना स्वव॒ मिल जाती है 4 वेदों की हूपक शैली” भी यह स्पष्ट करती है कि वेदों में इन्द्र एक प्रतापशाली देवता भी है तथा वहू एक राजा भी है। 'इन्द्र एक उपाधि* है। अत ऐसे राजबशो मे प्रनेक राजकवियों का होना स्वत सिद्ध है। भरत वेदो के प्रणेता अनेक यूगो के अनेक कवि ही हैं । $ देदों की रचनावधि प्रागतिहासिक ही मानी गई है । इतिहास पूर्व काल वेदिक सस्कृत भाषा का ही युग था। झ्त उस समय के क्रान्तदर्शी विद्वानो-अच' कवियों ने समसामयिक भाषा में ही कांव्य-रचता की । प्रत्येक कवि अपने समय की भाषा में ही साहित्य-सर्जन करता है । इसलिए वेद भी तत्कालीन कवियों द्वारा वैदिक सस्कृत मे ही रचे गए, भरत वे इन सिद्ध कवियों के ही उद्गार हैं । 6 सत्य-विद्या सहज ज्ञान का विषय होने के कारण ईशवरकत ही मानी जाती है। इसीलिए तो 'वेद' को ब्रह्म वाक्य, 'होली बाइबिल” को वर्डसू श्रॉफ गॉड ] देणिए, भाषा दसदेव उपाध्यायक्षत पुराण विभर्श को भूमिका 2 बाचसति गैऱाला सस्क॒त साहित्य का इतिहास, पृ 229 के भ्राधार पर. 24 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्ट्रोतिक इतिहाध प्ग्निवायु रविभ्यस्तु त्रय ब्रह्म सनातनम्‌ | दुदोह यज्नसिद्धयर्थमृग्यजु सामलक्षणम्‌ ॥ मनुस्मृति, /23 प्रष्यापतामास पितुक शिशुराड्धिरस कवि ॥ बढ़ी 2/5 मर्टहाप दयानन्द ने वेदों को ईश्वरक्त मानकर उन्हे उतना ही प्राचीन सिद्ध किप्रा है, जितनी कि यह सृप्टि प्राचीन ह। उनके अनलुत्तार ईश्वर ने मनुष्यों के कल्याणाथ बेद को क्षियों के हुदय मे प्रकाशित तविया था। 'सत्यार्द प्रकाश' में इसका युक्तियृक्त प्रतिपादन किया गया है । सैक्समूलर का मत--मैक्समूलर का सिद्धान्त विकासवादी है । उसने वंदिक साह्त्यि वो चार भागो-छन्द, मन्त्र, ब्राह्मण और सूत्र में वर्गीकृत किया है। वे अपन मत्त को सिद्ध करने के लिए यह मात कर चले है कि गौतम बुद्ध के उद्भव के समय बंदिक साहित्य जिखा जा चुफा था। ब्रत वैदिक साहित्य 600 ई पू प्रणीत हो चुका था । यदि सुत्रो की रचना 600 ई पृ स्वीकार जिया जाए तो उससे 200 व पूर्व ब्राह्मण ग्रन्यो की रचना हो चुकी होगी । श्रत ब्राह्मण, भ्रारण्यको तथा उपनिपदों का रचना-काल 800 ई पू निर्वारित किया जा सकता है। मेक्‍्समूलर ने वेदो को मन्त्र तथा छन्द नामक दो भागो मे विभाजित करके दोनों के विकास के लिए क्रमश दो-दो सौ वर्षों का समय देकर यह॒पिद्ध किया है कि वेदों का रचना-काल 200 ई प्‌ से लेकर 000 ई पृ तक स्वीकार किया है। मंक्सघुलर का मत केवल प्रनुमान पर भ्राघारित् है । छुछ भनन्‍्य मत--मेकडोनतल ने भाषा-विज्ञान के आझाधार पर वेदों की रचनावधि !300 ई पू स्वीकार की है । डॉ झार जी भण्डारकर ने यजुर्वेद के 40वें श्रष्याय मे प्रयुक्त असूर्या शब्द को लेकर वेदों का सम्बन्ध अ्सीरिया (मेसोपोटामिया) से जोडा है। इतिहास के अनुसार झ्सीरिया के झ्रसुर 2500 ई पृ भारत मे झ्राए थे। भरत यजुर्देंद से पूर्व रचित तथा विकसित ऋग्वेद का रचनाकाल 6000 ई पू रहा होगा। जमनी के विद्वान्‌ जँकोत्री तथा भारतीय बविद्वानू लोकमान्य वालगगाघर तिलक ने ऋग्वेद का रचना-काल क्रमश 4500 ई पू तथा 6500 ई थू सिद्ध किया है। उक्त दोनो विद्वानों के मतो का प्राधार ज्योतिपी गरता है । नारायणराव भवनराव पारगी ने भूगर्भशास्त्र के आधार पर ऋग्वेद का रचना-काल 9000 ई प्‌ स्वीकार किया है। कुछ सनातनी विद्वानों मे वेदों का रचना काल लाखो वर्ष पुराना माना है । वस्तुत वेद सभी मानवो के कल्याण हेतु रचे गए है । जिस व्यक्ति का हृदय समस्त समाज के कल्याण के लिए चिन्तन मनन करके ज्ञान की अभिव्यक्ति करता है, वही वेल-रचना है | गीना मे कहा गया है कि सिद्ध पुरुष के हृदय मे सम्पूर्ण मानव-समाज प्रतिविम्बित हो जाता है तथा समस्त मानव-समाज में वह सिद्ध पुरुष चस्त्रित प्रतिबिम्बित हाने लगता है। अत वह सिद्ध पुरुष सर्वत्र समदर्द्ी होने के कारण ईश्वरत्व को प्राप्त कर लेता है-- बदिक ग।हित्य 25 सर्वेभूतस्थमात्मान सर्देभुतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वनक्षमदर्णन ॥ गीता, 6/29 ऐसा ईश्वर-स्वरूप व्यक्ति जब अपने झनुभूत ज्ञान वी प्रनिव्यक्ति करता हं तो वह ज्ञाल-रचना सर्वेजीवहित्ताय होती है । हमारे यहाँ इनीजिए वेदों को ईश्वरकृून कहा गया है । ऋणग्वेद के पुरुप-सूक्त मे 'पुरुष” शब्द चेतना वा वाचक हैं। ज्ञान का सम्पत्प प्रन्तश्चेतना से ही है । भ्रत “ऋषियो मन्नद्रष्ठार ' जैदी उक्तिय। के प्राधार पर यह स्वत सिद्ध हो जाता है कि वेद ऋषियों की चन्तश्चेतता स व्यक्त हुए हैं। इसलिए उन्हे 'बरह्मविद्‌ ब्रह्मत भवति'-श्रर्थात्‌ ईश्वर का ज्ञाता ईश्वर ही हो जाता है, जैसे छिटान्तो के भ्राधार पर बेद पृरपो की रचना न होकर भ्रपौरुषेयत्व प्राप्त सिद्ध पुरुषो किया ऋषियों की रचना है । देदो के श्वलोकन से भी यही बात सृस्पष्ट है । बैदो का भ्रनुशीलन करने पर बेद के प्रसेताप्रो के निर्धारण हेतु निम्नलिखित तथ्य ध्यान देते योग्य हैं---- । चेदों की सूक्त-विभाजन विभिन्न ऋषियों के नामों कौ स्पष्ट सूचना देता है। वेदो मे वशिष्ट, विश्वामित्र, जमदरिन जैसे सन्त्रदृष्टाप्रो का स्पष्ट उत्लेज़ है। 2 चेदो की भाषा बेदिक सस्कृत है । व॑दिक सस्कृत भे शब्दों के रूप भनेक प्रकार के पाए जाते हैं। इसका ज्वलन्त प्रमाण यास्कीय सक्रीय निरक्त है जो यह सिद्ध कर देता है कि वेद विभिन्न यूगो के भ्रभेक ऋषियों द्वारा रचित है । 3 वेदों के अ्रन्तिम भाग वेदान्त या उपनिषद्‌ के रूप मे प्रसिद्ध है। उ<निपदो मे निदृत्तिमार्ग की प्रधानता है तथा देदो मे प्रद्ृत्तिमारें को । भन निवृत्ति- सार्गी द्रविडो तथा प्रदृत्तिमार्गी श्रार्योंके योग से ह्दी बेदो की रचना हुई है। इस ' भाघार पर विभिन्न सस्कूनियों के विभिन्न ऋषियों की सूचना स्वत मिल जाती है। 4 वेदों की रूपक शैली! भी यह स्पष्ट करती है कि वेदों भे इन्द्र एक प्रतापशाली देवता भी है तथा वह एक राजा भी है। 'इन्द्र एक उपाधिः है। भरत ऐसे राजबशो मे प्रनेक राजकवियों का होना स्वत भिद्ध । भ्रत्त वेदों के प्रणंता अनेक यूगो के अनेक कवि ही है । $ वेदों की रचनावधि प्रागैतिहासिक ही मानी गई है । इतिहास पर्व काम चेंदिक सस्कृत भाषा का ही युग था। भ्रत उस समय के फान्तदर्शी विद्वातो-अर्याद कवियों ने समसामयिक भाषा में ही काव्य-रचना की। अस्येक कवि अपने समय है भाषा में ही साहित्य-सर्जन करता है । इसलिए बेद भी तत्कालीन कवियों की बेदिक सस्कृत मे ही रचे गए, भरत वे इन सिद्ध कवियों के ही उद्गार ह। द्वारा ९ सत्य-वैद्या सहज ज्ञान का विषय होने के रण हश्वरकृत हो भानी जाती है । इसीलिए तो 'वेद' को ब्रह्म वाक्य, 'होलो बाइबिल' को बर्ंशू भाड बाय | देखिए, भाषार्य बलदेव उपाष्यायकृत | 2 चाचस्यति गैरला सस्‍्कृत साहित्य के हक ही भावार पर 26 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास तथा 'कुरान शरीफ” को कलामुल्लाह माना जाता है। सत्य और अनन्त ज्ञान ही ब्रह्म है--- सत्य ज्ञान प्नन्‍्त ब्रह्म (तैतिरीयोपनिपद्‌) । अत जब प्रथम शताब्दी पूरे तथा छठी शताब्दी में प्रचलित क्रश ईराई एवं इस्लाम धर्मों के मूल धर्म ग्रन्थ ईएवरकृत कहे जा सकते है तो 'वेद' को ब्रह्मकृत कहना स्वाभाविक और तर्क नगत है । परन्तु इससे यह स्पष्ट हो जाता दवै कि धर्म ग्रन्थ महापुरुपो द्वारा विभिन्न परिवेशो को वृष्टिगत रखकर ही प्रणीत किए गए है| उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ठ हो जाता है कि विद भ्रनेक क्रान्तदर्शी विद्वानों की ईश्वरीय प्रतिभा की श्रभिव्यक्ति हैं। ये विद्वान्‌ विभिन्न युगो मे अपने ताम की- यश की परवाह किए बिना जन-फल्याणार्थ सहज ज्ञान को वेद के रूप में अ्रभिव्यक्त करते रहे । वस्तुत 'वेद' सहज ज्ञानया सत्य विद्या के रूप मे होकर भी रस-साहित्य है भर रस अभिव्यक्ति होने के कारण पझनिर्वचनीय श्र ब्रह्मानन्द सहोदर होता है- सत्वोद्रेकादवण्ड स्वप्रकाशानन्दचिन्मय । वेदान्तरस्पश भून्यो ब्रह्मानन्द सहोदर ॥॥ -+साहित्य दर्षण झत अ्रब बेंद' की अ्रभिव्यक्ति का ईरवरकृत कहने का मर्म मनोवेज्ञानिक सन्दर्भ मे स्वत स्पष्ट हो गया | भ्रब हम वेदो की रचनावधि की सक्षिप्त समीक्षा प्रस्तुत करते हैं । बैदिक साहित्य के मर्मजञ वेदों का रचना-काल गौतम बुद्ध के जन्म से पूर्व ही स्वीकार करते है। वस्तुत आधुनिक खोजो के झ्राघार पर पृथ्वी कौ रचना का इतिहास श्ररबो वर्ण पुराना सिद्ध किया जा रहा है झौर साथ ही साथ ज्योतिष के झ्राधार पर जैकोबी तथा लोकमान्य तिलक जैसे विद्वानों ने वेद! का रचना-काल 4500 ई पू तथा 6500 ई प्‌ तक सिद्ध किया है, तो ऐसा अनुमान करना स्वाभाविक हो जाता है कि श्रार्यों भ्ौर द्रविडो के समन्वय के उपरान्त वेदों को समृहीत करके सहिताशो के रूप मे प्रस्तुत किया गया होगा । श्रायों झौर द्रविडो का समन्वय एशिया माइनर में प्राप्त 4400 ई प्‌ के शिलालेखो से स्पष्ट है। यथार्थत्त यह समन्‍्वय-साघन तथा बेद भनन्‍त्रो का सपग्रहण किसी अल्पावधि की देन नहीं कहा जा सकता । झत वेद सहिताओ का प्रणयन-काल कम-से-्कम 2000 ई पृ समभना चाहिए । 'सिन्धु' शब्द का भाषा वैज्ञानिक विवेचन करने पर पता चलता है कि यह शब्द वंदिक सस्कृत मे द्रविड अथवा ऑ्रस्ट्रिक जातियों के भाषा-भाषी लोगो की भाषा का है ।* तब तो हमे यह स्वीकार करना ही चाहिए कि प्रवृत्ति से निद्तत्ति की ओर अग्रसर होने वाले द्वविड वेदिक सस्कृत के पूर्व काल मे भी सहज ज्ञान से सम्बद्ध विद! को अपनी भाषा मे व्यक्त करते होगे ।प्रत वेद रचता कब से भारम्भ हुई, इसका निर्धारण उसी भाँति अनिर्वेचनीय है, जिस प्रकार कि प्रथम सृष्टि का निर्धारण श्रकथ्य झौर झनिवंचनीय है 0) ] डॉ भोलानाय तिवाडो हिंदी भाषा, हिंदी की ब्युसत्ति (प्रकरण) बैदिक साहित्य 27 सहिता (9॥87॥/7 ) बेद की चार सहिताएँ विश्व-विदित है। ऋग्वेद सहिता वेद की प्राचीनतम सहिता स्वीकार की गई है । भ्रन्य॒ तीन सहिताएँ--पजुर्वेद, समावेद तथा श्रवववेद है। उक्त सहिताप्ो पर विचार करने से पूर्व हमे 'सहिता' शब्द पर निचार कर लेना चाहिए । झाचाये पाणिनि ने सहिता के सन्‍्दर्म में लिसा है--पर सन्तिरर्ण सहिता ।7---प्रथात्‌ जिसमे पदो के भ्रन्त का दूसरे पदों के झ्रादि से मिलान किया जाता है, उस्ते सहिता कहते हैं। कुछ विद्वान्‌ पदों की मूल प्रकृति? को ही 'सहिता' के नाम से पुकारने हैं। वस्तुत विभिन्न मस्त्रो जा युक्ति-युक्त संग्रह ही सहिता है । यूक्तो, भ्रध्यायों, काण्डो अथवा वर्गों में विभाजित मन्‍्त्रों का सकलन ही संहिता है। पहले लेशन-पद्धति का विकास न होने के कारण विभिन्न सूक्त या मन्न-समूह बिखर हुए ही थे । कालान्तर मे ऐसे मन्त्रों को ग्रधाक्रम संग्रहीत किग्रा गया तथा सगह करने के कारण उन्हें महिता नाम दिया गया । 2 3, ऋग्वेद-सहिता ऋतु! का धर्य है--पद्म प्रयवा मत्त्र । व्यूत्पत्ति के श्राधार पर ऋतु! स्तवन का सतनीयकरणु--है भाधार है--ऋच्चते स्तुयते अनया इति ऋच । झत फू मन्त्र का पर्याय है। 'मस्त' णब्द 'मन्‌” घातु मे 'प्ट्रन” प्रत्यय के योग से व्युत्पन्न हुपा है| मन्त्र! शब्द के स्पष्टीकरणर्थ महवि दयानन्द ने लिखा है-- भन्‍्यते (विचायते) ईश्वरावेशो येन स मन्त्र भ्र्थात्‌ जिसके माध्यम से ईशाज्ञा का ज्ञान होता है; वही मन्त्र है। मन्त्र. का भर्थ है गुह्मय या रहस्यमय कथन । सामान्यत किसी देवता की स्तुति या प्रशता मे प्रयुक्त होने वाले श्र का स्मरण कराने वाले पद्यमम वाक्य को मनन कहते हैं। ऋग्वेद-सहिता भन्‍त्रो या ऋतचाझों का सग्रह है। यह समस्त देदिक साहित्य विषद का प्राचीनतम साहित्य है भौर ऋच-सहिता भथवा ऋग्वेद इस साहित्य का सबसे प्राचीन, विशाल एवं सर्वमान्य ग्रन्थ । भारतीय सभ्यता और सस्क्ृति की सम्पूर्ण प्रेरणा इसी से मिलती है। भारतीय प्ायों ने अपने जीवन के प्रभाव मे किस प्रकार समाज का विकास किया, धर्म, दर्शन, ज्ञात, विज्ञान, कला भौर साहित्य की क्या प्रगति की शौर उसके द्वारा मानव-हित मे क्या योगदान दिया, इन सबका मूल स्लोत एकमात्र यही पुस्तक है । इसमे न केवल हमार समाज की सॉरकृतिक निधि सुरक्षित है, अपितु मानवता के विकास के इतिहास में भी इसका स्थान महत्त्वपूर्ण है। इस प्राचीनतम ग्रत्थ मे सहस्तरों वर्षों का जो इतिहास मरा पडा है भौर ज्ञान की जो प्रतप्ड ज्योति जयमगा रही है वह मामनवमात्र को कल्याणु-पथ पर भ्रग्नतर करने के लिए श्राज भी भ्रावश्यक है । इसी से मेबसमूलर ने इसके सम्बन्ध मे कहा था-- ] शध्रष्धाध्यायी, ||4|09 2. 'पदप्रदधि धहिता' ---ऋषप्रातिशार्य 28 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास याचत्‌ स्थास्पन्ति गिरय सरितश्च महीतले । तावदृग्नेदमहिमा लोकेपु प्रचरिष्यति ॥ भ्र्थात्‌ जब तक इस भूतल पर नदियाँ और पर्वत रहेगे, तव तक लोगो मे ऋषर्गेद की महिमा बनी रहेगी ॥7 ऋम्वेद की ऋचाग्मो मे प्रधानत देवताओं की स्तुतियाँ सम्रहीत हैं। पातजल- महाभाष्य के अनुसार, किसी समय इस वेद की 2! शाखाएँ थी-- 'एकविशातिघाबाहवृच्यम्‌' । परन्तु ऋग्वेद की याँच शाखाएँ प्रमुख माती जाती है-- एतेषा शाखा पच॒ विधा भवन्ति | ये पाँचो शाखाएँ--शाकला , वाष्कला , आोश्वलायना , शाँखायना औ” माण्ड्केया हैं | इन पाँचो शाखाओं का पामकरण विभिक्ञ ऋषियों के शिष्य--सम्प्रदाय की परम्परा के फलस्वरूप हुआ है। भ्रध्ययन- प्रष्यापत की दृष्टि से अ्रथवा व्यास्यानों के प्रकम के कारण ऋग्वेद की विभिन्न गाल्ाएँ प्रचलित रही हैं, जिनकी सस्या 27 तक गिनायी गयी हैं--- ! मुद्गल शाखा, 2 यालव शाखा, 3 शालीय शाखा, 4 वात्स्य शाखा, 3 रीशिरि शाखा, 6 बोध्य शाखा, 7 श्रग्निमाठर शाखा, 8 पराशर शाखा, 9 जातू कण्ये शाखा, 0 ग्राश्वलायन शाखा, 3! शखायन शाखा, 2 कौपीतिकी शाखा, 33 महाकौपीतिकी शाखा, 4 शाम्व्य शाखा, 5 माण्ड्केय शाखा, 6 ब्रहइच शाखा, 7 पैद्भय शाखा, 8 उद्दालक शाखा, 9 शतवलाक्ष शाखा, ?0 गज शाखा, 2!, 22 व 23 बाण्कलि भारद्वाज की णासाएँ, 24 ऐतरेय शाखा, 25 वशिष्ठ शाखा, 26 सुलुभ शाखा तथा 27 शौनक शाखा । वस्तुत ऋग्वेद की पाँच शाखाश्रो को भी इन 27 शास्राशो में स्थान मिला है, परन्तु वर्तमान में विवेक्रय सहिता के रूप मे शावल सहिता ही उपलब्ध है। ऋग्वेद की उपलब्ध शाकल शाखा का विभाजन दो रूपो मे मिलता है। एक विभाग के अनुसार, समस्त ग्रन्थ मे 8 प्रष्टक, 64 अध्याय और 2,006 वर्ण तथा बालखिल्य सुक्तो के वर्ग मिलाकर 2,024 वर्ण हैं। प्रत्येक ्रध्याय मे कई वर्ग हैं झौर एक वर्ग में सामान्यत 5 मन्‍्त्र होते हैं। दूसरे विभाग के अनुसार, जिसका प्रचलन अधिक है, समूचे ग्रल्य मे ।0 मण्डल, 85 अनुवाक और प्रत्येक अनुवाक मे कई सूक्तो का सम्रह है । सूक्तो की कुल सख्या ,07 और बाचखिल्य के ] सूक्तो को मिलाकर ,028 है। यूक्त मे एक से लेकर 85 तक झौर सामान्यत 0 मन्त्र होते हैं। मन्‍्त्रों की सख्या 0,472 और शौनक ऋषि की प्रनुक्रमणी के अनुसार 0,528 हैं, यद्यपि ऋग्वेद के दशम मण्डल के 4॑वें सूक्त के हैवें मन्त्र मे इस बैद के मन्त्रो की सख्या 75,000 कही गयी है---“सहस्त्वा पचदशान्युक्या यावद्‌ थ्ायापृथिवी तावदित तत्‌ ।””* वेदज्ञों के अनुसार प्रस्तुत सहिता मे भन्‍त्रों की सख्या 0,467 से लेकर 0,589 तक मिलती है। मन्त्रो की रचना छन्दों में है । ये ]-2 वैदिक साहित्य ऋग्ेद डॉ रामधन शर्मा शास्त्री, पृ 5-6 बेदिक साहित्य 29 सभी छुन्द गैदिक हैं और प्राय 60 के लगभग हैं, किन्तु इनमें से गायनी, उध्णिक्‌, त्रिष्दुप) झनुष्टप बृहती, पक्ति भ्रौर जगती विशेष प्रत्तिद्व है। शेप छन्द इन्ही के भेद- प्रभेद हैं। मन्त्री के द्वण्टा ऋषि, ऋषिपुत्र, ऋषिक या स्वयभू है, जिनती सरया 300 के लगभग हैं। किन्तु इनमे सृत्समद, विश्वमित्न, वामदेव, अति, भरदर/ज वक्तिष्ठ, कण्द और अगिरस अ्रधिक प्रमिद्ध हैं। प्रथम, सातवें और दसथे मण्उल में से प्रत्येक के मन्त्रद्रष्टा ऋषि एक से अधिक है | द्वितीय मण्डल के गृत्ममद, तृतीय के विश्वामित्र, चतुर्थ के वामदेव, पचम के भ्रत्रि, छुठे के भरद्वाज, सप्तम के वत्तिप्ठ और उन्तका परिवार तथा श्रप्टम के अण्व भ्रौर उनके वशज हैं। ये ऋषि बहुधा ब्राह्मण होते थे, किस्तु कुछ राजपि भी हुए हैं यथा कवप, आदण गेनहन्य, सास्धाता, यावनाश्व, सुदास्‌ पेजवन आ्रादि । कहा जाता है कि दसको मण्डल के 46वे युक्त के दृष्टा वत्सप्रिभालन्दन जैश्य थे और उसी मण्डल के १75अे सूत्र के दृष्ठा ऊर्ष्णप्रावा शूद्र थे। कुछ मन्त्रो की द्रष्ठा स्त्रियाँ भी है--यया जुहू, शची, घोषा, लोगग्रक लोपामुद्रा, विश्वावारा, श्रादि ॥7 शाकल सहिता के सन्दर्भ मे यह प्रसिद्ध है कि पजाव के मद्र राज्य या क्षेत्र की राजधानी शाक्‍्ल नगरी थी । यही णाकल्य या देवमित्र नामक वेदविद्‌ का प्ादुर्भाव हुआ । शाकल्य ने 'शाकल सहिता' का सृत्रपात्‌ किया भौर तदनन्तर उनकी शिष्य-परम्परा मे उक्त सहिता 'शाकल सहिताएँ” नाम से विज्यात हुईं। ऋग्वेद का मूल विषय दिव्य शक्ति की स्तुति करना है। परन्तु हमे यहाँ यह न भूलना चाहिए कि चह दिव्य शक्ति मूलत एक ही शक्ति के विभिन्न रूपो मे दृष्टिगोचर होती है। ऋग्वेद मे मुस्यत भ्रधोलिखित दिव्य शक्तियो का स्तवन किया गया है-- ) इन्द्र, 2. हिरण्यग्र्म, 3 वरुण, 4 रुद्र, 5 मरुतू 6. अग्नि, ? पृथ्वी, 8 उपस्‌, 9 पुरुष 0 पितछु, !] रात्रि, !2 यमन, 3 पर्जन्य, 4 सौम, 5 श्रश्विनौ, 6 विष्णु !7 नदी इत्यादि । गैदिक साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित डॉ रासघन शर्मा शास्त्री से ऋग्ेद के देव-वशॉन को सक्षेप मे निम्तानुसार व्यक्त किया है-- ऋग्वेद मे देवताओं की स्तृतियाँ सगृहीत है । यास्क के अनुसार, देवता का अर्थ है” लोको मे भ्रमण करने वाला, प्रकाशित होने वाला अथवा भोज्य भ्रादि सारे पदार्थों को देने वाला--देवो दानाद धोतनाद्‌ दीपनाद वा। वैदिक क्रार्यों का विश्वास था कि इन्द्र, भ्रग्नि, सूर्य, झ्रादि प्राकृतिक तत्त्वो मे भ्रदभुत्त शक्ति, ऐश्वर्य धौर प्रभुता है और उन्हीं के द्वारा सृष्टि का समस्त क्रियाकलाप सचालित होता है । भत उन्होने प्रकृति के इन तत्वों को चेनन शक्तिमय देवता मानकर इसकी उपासना की । बृह देवता भर यास्क के निरक्त, झादि ग्रन्थों मे देवताओं के स्वरूप के सम्बन्ध में विशेष रूप से विचाय किया गया है । यास्‍्क ने तीन प्रकार के देवता माने हैं--- पृथ्वीस्थानीय, अन्तरिक्षस्थानीय और युस्थानीय । पृथ्वीस्थानीय प्रधान देवता भ्रश्ति देदिद साहित्य ऋग्वेद डॉ रामघर शर्मा शास्ती, पृ 5-6 30 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास है, अ्रन्तरिक्षस्यानीय चायु तथा इन्द्र है और द्युस्थानीय सूर्य है। गेदो में इन्टी की अनेक रूपो भौर नामों से स्तुति की गय्री है। ऋग्गेद के एक मन्त्र से पता चलता है कि पृथ्वी स्थानीय ], अन्तरिक्षस्थानीय 4! और दुस्थानीय 8, सव मिलाकर 33 देवता हैं-- ये देवासो दिव्येकादशस्थ पृथिव्यामध्येर्ादरस्थ । अप्सु क्षितों महिनेकादशस्थ ते देवासो यज्ञमिम जुपघध्वम्‌ ॥ । 39 ]] ] ऋण्गेद के भ्रन्य कई स्थानो, यजुर्गेंद की तैत्तिरीय सहिता और शतपन्र तथा ऐतरेश् ब्राह्मणों में भी 33 देगे का उच्लेत है। किलू ऋग्गेद में दो स्थान पर 3,339 देवताशी का कथन है-- त्रीणि शता जीमहस्त्राण्यग्ति निजच्छ देवा नव चासपर्यन्‌ । 399 तथा 0 52 6 इस विपय में सायश का कहना है कि देवता तो 33 हो हैं परन्तु देवो की विशाल महिमा बनलाने के लिए 3,339 देवो का उल्लेख किया गया है। पृथ्वीस्थानीय देवताग्रो मे श्रग्नि, सोम, पृथ्वी, नदी, समुद्र झादि, ग्रन्तरिक्ष- स्थानीय देवताओं मे इन्द्र, वरुण, रुद्र मढत्‌, और शुस्थानीय देवताओो मे थौ, सूर्य, पूषा, विष्णु, अश्विन! उपस्‌ तथा चन्द्र प्रधान है । इनके अ्रतिरिक्त कुछ ऐसे पदार्थों का भी देवता-रूप से वसन किया गया है, जिनका प्रकृति के नियम अथवा सूर्तिमान पदार्थों से साक्षात्‌ सम्बन्ध नही है, जैसे श्रद्धा, मन्यु, घातृ श्रदिति, श्रादि | यास्क के अनुसार, कई पदाथ ऐसे भी है, जो देवता नही है, किन्तु देवतानमों के समान उनकी स्तुति की गयी है, यथा ऋमु, भ्रप्सरा, गन्षर्ग, गो, झौपधि, आदि | इस प्रकार, ऋर्ेद मे कुल मिलाकर 79 देवताझ्ो की स्तुति और प्रार्थनाएँ हैं। जिस सूक्त के ऊपर जिस देवता का नाम लिखा रहना है, उस सूक्त मे उसी देग्ता का प्रतिपादन झौर स्तबत्त है। किन्तु जहाँ जल, झौषधि, भ्रादि की स्तुति की गयी है, वहाँ जल, भ्रादि बरशंनीय है शोर उनके प्रधिष्ठाता देवता स्तवनीय हैं । भायें लोग प्रत्येक जद पदार्य का एक अधिण्ठाता देवता मानते थे। इसीलिए उन्होने जड की स्तृति चेतन की भाँति की है । देवो मे इन्र श्लौर श्रर्ति प्रधान देवता है | केवल इन दोनो के सम्बध मे जितने मन्त्र हैं, उतने भअ्रन्य किसी के सम्बन्ध मे नही हैं । इन्द्र श्रन्तरिक्ष का देवता है और वह जैदिक युग का जातीय देवता माना गया है। इसके लिए 250 के लगभग सूक्त हैं । इसका सम्बन्ध वर्षा से है । वर्षा से ही अन्न झौर घन-धान्य की वृद्धि होती है, इसीलिए श्रनेक प्रकार से इन्द्र की स्तुति की गयी है । मन्त्रो मे उसे परमात्मा, झात्मा, वीर, विद्युत, झादि, कहा गया है । वह अत्यन्त शक्तिशाली, मेघो का सचालक, वज्ञधारी और प्रसुरसहारक है। दछूत्र नामक असुर के साथ इन्द्र के हन्द्रयुद्धो का वडा ही सुन्दर झौर विशुद्ध वर्णोन किया गया है। इस सम्बन्ध मे विहानो ने नाना प्रकार की कल्पनाएँ की है । यास्क के अनुसार, बत्र, का अभिष्राय बैदिक मात्ति 3] मेष से है भौर इन्द्र इन मेधों को प्रेरित कर वर्षा बरता है। पाएचात्य विद्ान्‌ दा को अवर्धण का (भर्थात्‌ वर्षा को रोकने वाल) देवता मानते है गौर इन्द्र को भेघस्थ विद्युत, जो इत्र को मार कर जल प्रवाहित करता है। भरिन की बडी महिमा गाई गई है । उसे “ज्योतिरमुत मत्येयु' भ्र्वात्‌ मरण घमंवाले प्राणियों मे प्रकाश कहा गया हे । वह विश्व में पुष्प शक्ति, घनविजयी, ज्ञानोत्पादक, शरीररक्षक, रोहिंताश्व, सुवर्णवी्य, सप्तपि भौर से देवो त्रा मुप है । उसी के सहारे मज्ञ में अन्य देवो को बुलाया जाता है भौर उन्हें हवि पहुँचाई जाती है। भरिन के कई रूप माने गए हू ! गाहपत्य, प्राहववीयथ भौर दक्षिण ।रिनि तो प्रसिद्ध है ही। इन्द्र और भरिन के अनन्तर सोम के सम्बन्ध भें सबसे अधिक मन्त्र हैं, नवम्‌ मण्डल मे केवल सोम की हो रतुति है न्रत रखना को दृष्टि पे उसमे एकता है। प्रार्य लोग सोम के प्रत्वन्त अनुरामी थे। श्रत उसकी स्तुति झौर प्रशसा में उन्होंने श्रवेक मस्त्री की रचना की है। सोम वो भौपचीश, चन्द्र, भ्रमृत, पदमान, भादि कहा गया है। थी कदाचित्‌ देवताश्रो में सबसे प्राचोन है। इससे अभिप्राय प्रन्तरिक्ष भर पृथ्वी से है। कई मन्‍तो में इंत दोतो को विश्व का मात्ता- पता कंहां गया हैं। सुंये आकाश का देवता है। कर्म भेद से इसके पाँच रूप है-- मित्र, सूर्य, सवितू, घन झौर विष्णु | यह भ्रन्धकार का नाशक, प्रकाश का दाता, अन्न की वृद्धि करते वाला, प्रारियों में जीवन-शक्ति का सचार करने वाला भौर बुद्धि को प्रेरित करने वाला है। उपा इसकी श्रप्नगामिनी है। यह्‌ प्रात काल की देवी है भौर वँदिक देवताश्ो में प्रधान स्त्री देवता है। वरुण भौतिक श्रौर आध्यात्मिक जगत्‌ू का नियामक देवता है, भरत उसका भी बडा महत्त्व है। उसी के शासत से पृथ्वी और अन्तरिक्ष पृथक-पृथक्‌ अवस्थित है। उसी के प्रताप से सूर्य और चन्द्रमा प्रकाश पाते हैं। यही श्वासवायु है। इसी से वर्षा होती है, नदियाँ बहती हैं भौर समुद्रो में नदियों के हारा जल भरे जाने पर भी वह सीमा का भ्रतिक्रमणु नही करता । ऋग्वेद में प्रनेक देवताप्रो की पृथक्‌ू-पृथक्‌ स्तुति शौर प्रशसा देख कर कुछ विचारको का भद्द है कि तत्कालीन ऋषियो को परमात्मा का ज्ञान नही था। उनकी पहुँच देवों तक ही थी, प्राकृतिक शक्तियों में श्रद्मुत शक्ति देख कर वे उन्हे ही चेतन शक्ति-वाले देवता समझते थे। किन्तू यह घारणा निराधार है। यह देवता-रहस्य न समझने का परिणाम है। ऋग्गेद के एक मन्त्र मे उल्लेख है--- 'मह॒द्ेवानामसुरत्वभेकम्‌' । आर्थात्‌ देवो की शक्ति एक ही है, दो नही | ऋषियो ने जिन प्राकृतिक शक्तियो वी स्तुति व प्रशसा की है, उनके स्थूल रूप की नहीं की है, प्रत्युतु उन्‍्सों शासिका या भ्रविष्ठाभी चेतन शक्ति को है। इस चेतन शक्ति को 'चे परमात्मों से पृथक्‌ या रवत्तन्त्र नही मानते थे--परमात्मरूप ही मानते थे। भिन्न- भिश्ष देवताओं के रूप से उसी परमात्मा की विविध शक्तियों ध्ौर गुझो का वर्णन हैं। जो लोग देवताओं की अनेकता मे विश्वास नही करते, णे तो इन सब नामो का श्र्य परब्रह्मयाचक हो लगाते है, किलू प्रनेक देवताझों को मानने वाले भी 32 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉँस्क्रृतिक इतिद्ास इन सब को परमात्मपरक ही समभतते है और कहते है कि ये सभी देवता और समस्त सृष्टि परमात्मा की ही विभूति है। यास्कर ने इमी वात को कितनी सुन्दरता से कहा है-- महाभाग्याद देवतायाँ एक एव प्रात्मा बहुधा स्तूयते । एकस्यात्मनोड्न्थे देवा प्रत्यद्धानि भवन्ति ।। भ्र्थात्‌ इस ब्रद्माण्ठ की जड में एक ही देवशक्ति विद्यमान है, जिसे परमात्मा कहते हैं । उसी एक फ्री नाना रूपों में स्तुति की गई है | नियन्ता एक है, इसी मूल सत्ता के विक्राम सारे देव है। ऋग्वेद मे इस वात के अ्रनेकानेक प्रम"ण मिलेंगे | ऋग्वेद मे कूछ कथानकीय सकेत और ऋग्वेद का महत्त्व यद्यपि ऋग्वेद दिव्य शक्तियों के स्तवन का केन्द्र है, परन्तु इसमे रहस्य को खोजने की अनुपम जिजासा भी देखते ही वनती है। पुरुष” तथा 'नासदीय!” सूक्त रहस्पात्मकता के भ्रवाघ॒ समुद्र कहे जा सकते है । इसके “विष्णु' सूक्त मे सूर्य को त्रिविक्रम सिद्ध करके वामनावतार की ओर स्पप्ट सकेन कर दिया गया है। जिस प्रफार से सूर्य तीन पहर में समस्त ब्रह्माण्ड को अपनी किरणों के माध्यम से माप देता है--पार कर लेता है, उसी प्रकार ईशाबतार वामन ने ब्रह्माण्ड को तीन अगो में ही नाप लिया था| ऋग्वेद के 'रूद्र' सृक्त में रुद्र को नित्य युवक, मेसजविद प्रधोर कोपनशील, अतिस्तुत्य देव झ्रादि के रूप मे चित्रित करके पौराणिक शकर--- महादेव के व्यक्तित्व के विकास हेतु मार्ग प्रशत्त कर दिया गया है। देवराज इन्द्र के भव्य व्यक्तित्व को उजागर करने के लिए उसे वृत्रहन्ता, शम्बर नाशक अपनी माता की माँग के सिन्दूर को घोने वाला सिद्ध किया गया हैं| पुरुखा-उवंशी, मनु- इडो आदि नाम भी विशद्‌ कथानकीय सकेतो के स्पष्ट परिचायक है डॉ रामधन शर्मा शास्त्री ने लिखा है ऋषियों ने अपने चारों ओर जो-कुछ देखा, उसक्रे प्रति उन्होने अपने विचार इन मन्त्रो मे व्यक्त किए हैं । प्रकृति की प्राय सभी वस्तुएँ उनकी काव्यमयी प्रतिभा का विषय बन सवी है। देवस्तुति के साथ-साथ व्याज-रूप से सृष्टि के भ्रनेक रहस्यो और तत्वों का उद्घाटन उनमें किया गग्मा है । सृष्टि विज्ञान के विषय में नासदीय सूक्त अत्यन्त प्रसिद्ध है। लोकमान्य तिलक का कहना है कि नासदीय सूक्त मे इन ऋषियों की जितनी स्वाबीन और उच्चतम चिन्ता है, उतनी झ्राज तक मनुष्य-जाति नही कर सकी | इसमे कहा गया है कि सृष्टि के आरम्भ में सूक्ष्म अथवा स्थल, व्यक्त या अन्यक्त कुछ भी नही था, मृत्यु या अमृत्यु मे कोई भेद नही था ) एक अकेलः शुद्ध सनातन ब्रह्म था, जो बिना प्राणवायु के ही अपनी शक्ति से श्वास लेता था। उसी की सकल्प-शक्ति से पीछे समस्त सृष्टि की उत्पत्ति हुई | पुरुष-सूक्त मे ईश्वर और उसकी महिमा का वरुेन किया गया है । व्याख्याकारों ने विषय की दृष्टि से ऋग्वेद के मन्त्रो का तीन काण्डो में विभाजन किया हैं--कर्ग, उपासना झौर ज्ञान । चाहे किसी भी विपय के मन्त्र हो, प्राय बैदिक साहित्य 33 सभी को इन्ही तीगो में से किप्ती एक के अ्तर्गत साना गया है ॥कर्मकाण्ड के मन्त्रो का सम्बन्ध यज्ञों से है भौर उन्हीं के प्नुसार उनकी व्यास्या की गई है । उपासना काण्ड में देवताशों की स्तुतियाँ झ्ौर प्रार्थना के मनन भ्ाते हैं और ज्ञान- काण्ड में सष्टिकम का विशद तथा रहस्पमय वर्णन हैं। के, उपाराना झौर ज्ञान के इन्ही तत्त्वो को लेकर परवर्ती प्राचायों भौर धर्मोपदेष्टाओ ने भनेक ग्रन्थों का निर्माए किया ./ है साँस्क्ृतिक दृष्टि से भी ऋग्वेद का बडा महत्व है | उसमें प्राय अ्रमेक ऐसे विपयो की चर्चा है, जिनका सानव-जीवन के साथ साक्ष'त्‌ सम्बन्ध है भौर जिनसे उस समप्र के लोगो के प्राचार-विचार, रहन सहन, नीति, सदानार तथा सामाजिक परम्परा का अच्छा परिचय मिलता है। दगम भण्डल के प्रसिद्ध पुरप-सूक्त मे ब्राद्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चार वर्खो का उल्लेख है। इससे पता चलता है कि हमारे देश की प्रसिद्ध सामाजिक वरसण-व्यवस्था उतनी ही प्राचीन है, जितना ऋग्वेद किन्तु उस समय वर्णभेद का श्राघार गुण-कर्म था, न कि जन्म | उस समय समाज मे भाज-जैसी कट्टरतता और भेदभाव भी न था। बवर्ण-परिवतंन के उदाहरण यत्रन्तन्न पाए जाते हैं और भझन्तर्जातीय विवाह त्तथा भोज के भी पर्याप्त उल्लेख मिलते हैं। साधारण मनुष्य का जीवन पग्रह्मचयें, गृहस्थ, वानप्रस्थ भ्ौर सन्यास, इन चार भ्राश्रमो से विभक्त था और प्राचार-विचार, धर्म, उपासना, नीति, सदाचार, श्रादि के नियम सबके लिए प्राय समान थे । « ऊऋ्वेद से हमे श्रायं जीवन भौर सस्कृति के बारे मे प्रामाणिक जानकारी प्राप्त होती है । हमे पता चलता है कि शासन-व्यवस्था का भी विकास हो गया था प्लौर वह पर्याप्त समुन्नत थी । राष्ट्र की रक्षा और सगठन में सारी प्रजा सहयोग देती भी। उस समय चार प्रकार की सश्थाएँ थी “समिति, सभा, सैना झोर विदथ। राज्य का रूप जनतन्त्र था। राष्ट्रपति या प्रधान शासक का प्रजा-द्वारा निर्वाचन हीता था और झन्यायी शासक को प्रजा पदच्युत कर सकती थी । प्रजा मे राष्ट्र के उदय, सगठत भौर समुत्थान की चेतना प्रनुद्ध थी ।“मतेमहि स्वराज्ये'--प्राप्नो हम स्वराज्य के लिए प्रयत्त करें, 'उपसर्पे मातर-भूमि---मातृभूमि की सेवा करें, न ऋते श्रान्तस्प सस्याय देवा -विना स्वय परिश्रम किए देवो की मैत्री प्राप्त नही हो सकती, भ्रादि वेदवाक्यों भें हमे प्रारम्भिक राष्ट्ररजागरण की प्रभाती सुनाई पडती है ७ डॉ रामधन शर्मा शास्त्री के ही शब्दों मे, ऋग्वेद मे स्वगे-तरक, ससार धर युद्ध मे प्रवृत्ति, ऋषियों की प्रततिद्वन्द्रिता, का दान, विधाह-काल मे वर-वधू का वेष, पर गृह्मयक्र्मों का उल्लेख है। सूयंग्रहण, सोर झोर चन्द्र सवत्सर, नदियों का भौगोलिक विवरण, देश-भ्रमण, प्रादि झनेक वैज्ञातिक विपयो की भी घर्चा है । उस भरकार, झ्ार्यों के समस्त प्राधिभोतिक, भ्राधिदेषिक और प्राघ्यात्मिक भझभ्युत्य पा जान हम ऋग्वेद मे मिलता है । दृष्टादृष्ट सभी विपयो का प्रतिपादन करने में पाप-पुण्य, केन्यादान के साथ वस्तालकार अन्त्येष्टि-क्रिया, श्रादि धनेक धामिक ् 34 प्राचीन मारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास ऋण्वेद को ही प्रभाण माना जता है। वेदिक ऋषियों की सबसे बडी विशेषता उनका घामित और सदाचारमभय जीवन था । उनका आदर्ण उच्च और महान्‌ था । उनका कहना था--सुगा ऋतस्प पन्‍था ' 8-3]- 3--श्रर्थात्‌ धर्म का मार्गे सुर से गमन करने योग्प्र है, 'सत्यस्य नाव सुकृतमपीपरन्‌”! 9-73-]--श्र्थात्‌ सत्य की नाव ही घर्मात्मा को पार लगाती है। श्रार्यों का विश्वास था कि देवता हमारे मचरण वी देख-भाल करते हैं भौर कत्तव्य से च्यूत होने पर हमे दण्द देते है तथा सन्‍्माग पर चलने मे हम री सहायता करते है। इन्ही विचारों और सस्फारो के कारण वे जीवन मे नैतिकता और सदाचार पर विजेष वल देते थे । साहित्यिक दृष्टि से भी ऋग्वेद का वडा महत्त्व है। इसमे उच्च कोटि का काव्य पाया जना है धौर कात्य के सभी रूपो का बीज मिचता है। वैदिक ऋषिगों की काव्यासिरुचि का इसी से पता चलता है कि उन्होंने वांणी की घक्ति को वडा महत्त्व दिया था। झनेक मन्‍नो में वाणी झी महिमा का वर्णोन है । सक्षेप मे, यह गन्थ-रत्त सभी विद्याप्नो का मूल है। इसलिए राजशेखर ने झपनी काव्यमीमाँसा में कहा है नमोस्तु तस्ये श्रुतय यो दुहन्ति पदे पदे । ऋषपय शास्त्रकाराश्च कवयश्च यथामति ॥। भर्थात्‌ उस श्रुति देवी या वेद-विद्या को नमस्कार है, जिसे पद-पद पर ऋषि श्रौर शास्त्रप्रणेता झ्राचाय॑ तथा कविगण अपनी-पभ्रपनी इच्छा और रुचि के अनुसार दृहते है । 2 यजुर्वेद सहिता समस्त वेदिक साहित्य मे यजुर्वेद अ्रपना विशिष्ट स्थान रखता है। मनुष्य- जीवन के तिकास की ज्ञान, कर्म और उपासना, ये तीन सीढियाँ है। इसमे कर्म की सीढी या कर्मेकाण्ड का प्रतिपादन विशेषत यजुर्वेद ही करता है। वद्यपि वेदिक कर्मेकाण्ड मे झ्न्‍्य लेद भी अपना-प्रपना स्थान रखते हैं, तथापि उसका श्रधान ग्राधार यजुर्भेद ही कहा ज" सकता है। 'यजुप' शब्द का भ्र्थ है--पूजा एव यज्ञ । यजुर्भेद में कर्मेकाण्ड की प्रधानता है ) सुप्रसिद्ध गैदिक ग्रन्य निरुक्त मे ऋग्गेद आदिसे सम्बन्ध रखने वाले ऋत्विजों का वर्णेत करते हुए कहा है यज्ञस्यथ मात्रा विमिमीत एक । अध्वर्यू, । अ्रध्वर्युरध्वरयु ) प्रष्वर युनक्ति | भ्रध्वरस्थ नेता | इसका पश्रभिप्राय यही है कि यज्ञ की सही इतिकत्तेंव्यता को यजुर्वेद ही बतताता है। इसीलिए यजुर्वेद से सम्बन्ध रखने वाले ऋत्विक श्रष्वयू, को ही यज्ञ को चलाने वाला या नेता कहा जाता है । यजुर्वेद के दो भाग यजुर्णेद के दो भाग हैं-कृष्ण एवं जुक्ल । कृष्ण भाग में छन्‍्दोबद्ध मन्‍तो तथा गद्यात्यक विनियोगो के दर्शन होते 'हैं । शुक्ल यजुर्चेद मे उक्त दोनो ही तत्वों का प्रभाव है । यहाँ हमे यजुर्गेद की शाखाप्ों या सहिताझो पर विचार कर लेना चाहिए। (4) कृष्ण यज्ुवेंद--इसकी तीन सहिताएँ प्रसिद्ध है-- () दैत्तिरीय, (2) मैत्रायणी, झौर (3) करठ चैदिक साहित्य 35 (0) तैत्तिरीय शाज्वा--सैत्तिरीय सहिता के विपय में यह प्रसिद्ध है कि बैशम्पायन ऋषि ने एक वार रुष्ट होकर अपने शिष्य याज्ञवलक्य से कहा कि शिप्प, तुम गुरु से भ्रघीत विद्या का वमन कर दो । आ्राज्ञाकारी शिष्प याजवलवप ने चेद विद्या वमत कर दिया | गुरुजी की झ्राज्ञा पाकर कुछ श्रन्य शिष्यो ने उस छोद धिचा को तिक्तिर बनकर चुग लिरा । इसीलिए उस जेद विद्या को "तैत्तिगीय सहिता' के ताम से पुकारा गया । वस्तुत यह एक रूपक है। बला, जेद विद्या भी वन का विपय हो सकती है ? कदापि नही । वस्तुन गैशम्पाधन ने याज्ञवलक्य की प्रन्तमु सी दृत्ति से ऋ्ुढ होकर उन्हे उभयमुसी रूप मे तरण-तारण रूप में चारित्रिक उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए कहा । याज्ञवलक््य ने उस बेद विद्या का प्रसार किया, वही शह्दीत ज्ञान का घमन है तथा नैशम्पायन के अन्य शिष्प्ों ने उस विद्या को संगृहीत झौर सम्पादित करके तित्त्रि-वृत्ति का परिचय दिया। इसीलिए उसे 'तैत्तिगीय सहिता' ताम से भ्रभिहित किया गया । यह शास्ा प्राचार की प्रवानता से परिपूर्ण है। (7) नेत्रायणी शाज्षा--इस शाखा का सम्बन्ध अ्रध्यात्म विद्या के शूदतम तरवो से है। इसकी सात उपशाखाएँ भी स्वीकार की यई है--मानव, दुन्दूग,-आंजेय, वाराह, हरिद्रभेपष, एयाम और शामानयीय । (गा) कठ शाद्ध---कठ लोगो या मनीषियो की शाखा को 'काठक सहिता' नाम भी दिया गगा है। यह सहिता भपनिषदिक तत्त्वी से परिपूर्ण दिखलाई पडती है । इस शासख्रा का सम्वन्ध कठोपनिषद्‌ से जोडा जाता है। (2) शुक्ल यजुर्वेद--शुक्त यजुर्तेइ मे गद्य की प्रधानता है । इसकी दो सहिताएँ प्रसिद्ध हैं--काण्य त्या चाजसनेय | इन दोनो शाख्ाश्नो या सहिताओो में वाजसुनेय शास्ता ही भ्रधिक प्रसिद्ध है। इस शाखा का नामकरण वाजसेनी के पुत्र (याजशवलक्य ) के नाम पर ही हुआ है । सूर्य के द्वारा याज्ञवलक्य ऋषि को दिन में ज्ञान प्रोप्त होने के फलस्वरूप प्रस्तुत यजुर्गेद को शुक्ल यजुर्भद कहा गया । बस्तुत शुक्र यजुर्णेद पे राष्ट्र को घवलित करने के लिए जिस झ्ाचार-प्रहिता का विघान दिखनाई पढता है, उसी के कारण इसे शुक्ल थजुर्गेद नाम से पुकारा गया है । ” कण्व ऋषि की शिष्ध-परम्परा मे जिस शाखा का भअ्रस्युदय और अम्युत्यान हुआ, उसे “काण्व सहिता' नाम से पभ्रभिहित किया गया है । प्राधुनिक यजुर्भेद से चालीस अ्रध्याय हैं । इन भ्रध्यायो मे अधिकाँश भ्रष्यायो का सम्बन्ध कर्मेकाण्ड से है । यजुर्गेद का चालीसर्वाँ अध्याय ईशावास्योपनिषद्‌ के रूप भे प्राप्त होता है । यजूवेंद सहिता पर डॉ मगलदेव शास्त्री का विवेचन । यजुदेंद का प्रतिपाद्य विषय--जैदिक मन्‍्त्रो की व्य।रुपा के तीन परम्परागत सम्प्रदाय प्रसिद्ध हैं। निदक्त, भ्रादि प्राचीन गैदिक ग्रस्थो के झाघार पर ऐसा कहा जाता है कि प्राय प्रत्मेक मन्त्र की व्याल्या आधिभौतिक, झ्राधियेदिक (या प्रधियज्ञ ) और भ्राध्यात्मिक दृष्टि से की ज सकती है । वास्तव से, मनुष्य के मानसिक विकास के साथ-साथ कृति के भ्रत्येक व्यापार मे उपयुक्त तीनो दृष्टिपो का ऋमश धाविर्भाव होना स्वाभाविक है । 36 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास ऐसा होने पर भी यजुवेद की व्याख्या प्राय अ्धिपज्ञ की ही दृष्टि से प्राचीन भाष्यकारों ने की है । 'यजु'--इस शब्द पर विचार करने से भी इसी बात की पुष्टि होती है । 'यजु ' भ्ौर 'यज्ञ", इत दोनो का सम्बन्ध एक ही 'यज्‌' घातु से है। 4जुर्वेद क मन्‍्त्रो का श्रावात्तर-क्रम भी अधिकतर याज्ञिक परम्परा के भाधार पर दर्शपुर्शमासेष्टि, पिण्ड-पित्रयज्ञ, प्रग्तावेय, आदि याज्ञिय कर्मो के क्रम के भ्रनुसार ही रखा गया है। केवल दो-तीन भ्रष्यायो का, विशेष कर धन्तिम 40वें ऋष्याय का, सम्बन्ध साक्षात कर्मेकाण्ड से न होकर उपनिपत्काण्ड था आत्म ज्ञान से है ।/ शतपथक्नाह्मण, उवट, आदि प्राचीत टीकाकारो का भी यही मत है। इन सत्र कारणों से यही कहना युक्तिपुक्त प्रतीत होता हैं कि यजुर्वेद का मुख्य प्रतिपाद्य विषय अ्रधियज्ञ ही है, भर अन्त मे अधियज्ञ-दृष्टि के ही द्वारा परमात्मदर्शन या परमपद की प्राप्ति का वह प्रतिपादन करता है। श्रधियज्ञ-दष्टि का स्वरुप सौर विकास--अप्रवियज्ञ (या याज्ञिक था झाधिवंदिक ) दृष्टि को ठीक-ठाक समभने के लिए वैदिक, कर्मकाण्ड के विकास को समभने की श्रावश्यकता है। जैसा ऊपर कहा है, 'यश्ञ' श्र 'यजु ' दोनो शब्दों का विकास 'यज्‌ देवपूजा सगतिकरर दानेपु'--इस धातु से हुआ है। वास्तव मे, देखा जाए, तो देवपूजा, सगतिकरण झौर दान, इन तीन भ्रर्थों मे याशिक दृष्टि या वैदिक कर्मकाण्ड के विकास का पूरा इतिहास झ्रा जाता है-- * तदेवास्निस्तदादित्यस्तद्वागुस्तदु चन्द्रमा ॥ ! तदेव शुक्र तद्‌ ब्रह्म ताउप्माप स प्रजापति ॥| (यजु 32 ) भर्थात्‌ भ्रग्ति, प्रादित्य, वायु, आदि विभिन्न देवता उसी एक परमात्मतत्व की विभुतियाँ हैं--इत्यादि वचनों के अनुसार समस्त विश्व-प्रपच के सचालक परमात्मा की ही विभिन्न विभूतियो को चैदिक धर्म की परिभाषा में ततु-तद्‌ देवता के नाम से पुकारा जाता था | भ्रग्नि, आदित्य, इन्द्र, वरुण झ्रादि देवताझो की पूजा, स्तुति या गुणगात्र ही यज्ञ या वेदिक कर्मकाण्ड का प्रारम्भिक स्वरूप था । उन्ही देवताओं के साथ 'सगतिकरण? या सान्निष्य की भावना से, श्रन्य कर्मकाण्ो के समाल ही, याश्िक कर्मकाण्ड के विकास का प्रारम्भ हुप्ना । सनुष्य पपने भाराध्य देवता की केवल स्तुति से ही सन्तुष्ट न होकर, प्न्य इष्ट मित्रादि के समान ही, स्वमावत उसका 'भ्रावाहन” सान्निष्य बा साक्षात्कार भी चाहता है। पभ्रावाहन के झनन्‍्तर अपने आराध्य का विभिन्न पदार्थों के द्वारा सत्कार किया जाता है । यही 'दान है, यही 'इदमग्नैये दद त मस” की भावना का मूल है। इसी भावना के झाघार पर अधियज-दृष्टि या याज्षिक कमक्राण्ड का पूर्ण विकास हुआ था । ” बेदिक देवताओो के कल्याश्योन्मुख्ल उल्दृष्ट आदर्श स्वरूप को ध्यान मे रख कर ही स्वभावत मरणधघर्मा, झनृत और अज्ञान से प्रभिभूत, लघु स्वार्थों और झापात-रमणीय ऐन्द्रिक भप्रदृत्तियो से प्रेरित हौकर पारस्परिक सघर् के भावों से * बैदिक साहित्य 37 पराभूत दुर्बेल मनुष्य, भ्पने को देवी सम्पत्ति से समन्दवित करने की पभिलापा से, मानो अपने को देवतुल्य बनाने के लिए, या आधुनिक परिभाषा में, समप्टि के साथ सामन्‍्जस्य की स्थापना के द्वारा भ्रपने व्यक्तित्व के पूर्ण विक/स के उद्देश्य से ही बेदिक धर्माचरण मे प्रवृत्त होता था ॥/ व इसी मलिक उद्देश्य के आधार पर स्वभाव से इन्द्रियपरायण, भ्रश/न्त भौर चचल-बित्त मनुष्य को उदास, शा त, सयत भौर दृढब्रती बनाने की दृष्टि से प्रत्यन्त कठिन अनुशासन, सथम झ्लौर नियमन के भावों से झोतप्रोत बैंदिक कर्मकाण्ड की नींव हमारे पूवेजोी ने डाली थी । वैदिक घ॒र्मो के लिए जीवन का लक्ष्य यही है कि बह उन्नति-विरोधिनी आवनाझो शौर शक्तियों पर विजय प्राप्त करता हुआ आत्मा का उत्तरोत्तर विकास करे-- उद्धव तमसस्परि स्व पश्यन्त उत्तरम्‌ । देव देवता सूममगन्‍्म ज्योतिरत्तममम्‌ || (यजु 202) भ्र्थात्‌ भ्ज्ञान से प्रकाश की भोर बढते हुए हम अपने की उत्तगेत्तर समुन्तत करें--भ्रादि वैदिक वचनो का रपष्टत यही अ्रभिप्राय है। इस तरह उत्तरोत्तर समुन्नति करते हुए भात्मा के पशुविश्वास का लक्ष्य ही, वास्तव मे स्वर्ग है, यद्ी “स्वराज्य! थी 'अभृतत्व' है। इसी को वेदिक मन्त्रों में 'ज्योतिर्माय जोक! कहा गया है । इसीलिए, वेदिक धर्माचररश के लक्ष्य को हृदयगम करने के लिए निम्नलिखित मौलिक तथ्यो को मानना प्रावश्यक हो जाता है-- () मतुष्य स्वभाव से ही अप्‌ शे, दुवलचित्त और नघु स्वभाव से ग्रस्त है। (2) देवी शक्तियों या देवताग्नों का स्वरूप इससे विपरीत है । (3) मनुष्य के जीवन का लक्ष्य यह होना चाहिए कि वह अपनी स्वाभाविक दुर्बंलताश्ो पर विजय प्राप्त करता हुआ देवी सम्पत्ति के सम्पादनार्थ या अपने प्‌रों विकास के लिए निरन्तर प्रयत्तशील रहे । (4) सारे विश्व-प्रपच की सचालक उस महाशक्ति या महात्मा की, जिसकी विभूत्तियाँ ही विभिन्न देवता हैं, लीला का एकमात्र भ्रभमिप्राय प्रासिमात्र श्ौर विशेषत मनुष्य के पूर्ण विकास में हैं श्रौर इसीलिए बाह्य और पम्यन्तर (मौतिक भौर झाध्यात्मिक) सृष्टि के मूल मे ऋत भौर सत्य का साम्राज्य है । वेदिक उदातत भावताएं--वैदिक धर्माचरण के उपयुक्त मौलिक भ्राघारो के कारण ही अन्य वेदो के समान यजुर्वेद भी, जिसका स्पष्ठत चैंदिक फर्मकाण्ड से घनिष्ठ सम्बन्ध हैं, ऐसी उदात्त भावनाओञ्रो से श्रोत-प्रोत है, जो ससार के किसी भी अन्य वाइमय या सस्क्ृति की दृष्टि से भ्रत्यन्त अभूतपूर्व है । ससार के नीरसप्राय भन्य कर्मेकाण्डो मे तो ऐसे उदात्त विचार प्राय देखते को भी नही मिलेंगे | यहाँ हम उन्ही उदास भादानाप्नो का कुछ दिग्दशेन कराना चाहते हैं । 40 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सास्क्रतिक इतिहास का रहस्य उतमे निहित है। आशा है, हम भारतवासी अपने इस अमूल्य दाय के विशाल महत्व को समझ कर उम्तके कत्तेव्य का पालन करेंगे । झो सा मा सत्योक्ति परिपातु विश्वत । 3. सामवेद सहिता साम सुन्दर और सुखकर वचन का नाम है। “सत्य वदेत प्रिय वदेत' सिद्धान्त सामवेद मे पूरी तरह से देखा जा सकता है । 'साम' के माध्यम से देवताओो को प्रसन्‍त किया जाता है तथा विध्नों का विनाश किया जाता है--समयति सन्‍्ती- पयति देवान्‌ श्रनेन इति सामन्‌ ग्रयवर स्थति नाणयति विध्न इति सामन्‌ । 'सामवेद' गीति काव्य का अन्यत्तम ठदाहरण है । कहा जाता है क्रि जब नाठक की रचना की गई तो ईरर ने--ईश-तुल्प ऋषियों के नाटक को रोचक वनाने के लिए सामवेद से ही गीतो को सग्मुहित करने की प्रेरणा ली--सामम्प्रों गीतमेव च । डा विजयेन्द्र स्नातक ने लिखा है--चारो वेदों मे यो तो प्रत्येक वेद का प्रपना-अपना विशिष्ट स्थान है, किन्तु सामबेद का महत्त्व एक ऐप्त विशिष्ट कारण से भी है, जो भ्रन्य वेदो मे उपलब्ध नही होता। “सामवेद की ऋचाएँ अ्रपनी गैयात्मकता के कारण एक ही रूप में अनेकात्मक होकर विविध स्वछूपवाली बन जाती है । गीतिशैली मे प्रस्तुत किए जाने के कारण सामवेद का प्रभाव जितना क्षित्र धौर प्रखर होता है, उतना ही भ्राह्न/|दक भर झ्ाकर्णक भी । कहते हैं कि जैमिनि ऋषि ने सामवेद की सहिताग्रो को वर्तमान रूप मे सकलित क्रिया--सामगो जैमिनि मुनि । महाभारत मे वेदव्यास को वेदों का सकलनकर्त्ता ठहराया गया है--“वदान्‌ विव्यास यस्‍स्मात्‌ स वेदव्याय इतीरित । किन्तु सामवेद के सकलनकर्ता का पृथक ताम से कोई उल्लेस नहीं किया गया ।” 4 सामवेद सहिता मे गेय. ऋचाएँ तथा गेय यजुप-समूह की प्रधानता है । सामवेद के ऋचा-समूह को 'प्राचिक' तथा थजुप-पुञ्ज को 'स्तोक'ं कहा जाता है |” सामवेद का सम्बन्ध मुख्यत गीति से है। इसीलिए इसमे गान की पाँच क्रियाझ्ो की श्रोर सकेत भी किया गया है। सामचेद से सम्बद्ध छान्दोग्योपनिषद्‌ भे सामगान की पाँच क्रियाप्रो का क्रम निम्न है--हिंकार, प्रस्ताव, उदगीय, प्रतिहार और निधान । बस्तुत उद्गीथ वाणी की या गन की चरम सीमा है । प्रफारान्तर से 'उदगीय' औकार' या ** का ही पर्याय है | छान्दोग्योपनिषद्‌ मे उदगीथ को सार का भी सार कहा गया है--एपाँ सर्वभूतानाँ पृथिवी रस | पृथिव्या श्रापो रस । झपामौपधयो रस । औपधीर्यां पुरुषों रस । पुरुषस्य वररस | बाच्र साम रस । साम्न उद्गीयो रस | ४ / सामग्रान की छ लय भी प्रसिद्ध है--क्रुष्ट, प्रथमा, द्वितीया, चतुर्थी, मद्र और प्रतिस्वार्य |/कहा जाता है कि महामारतकालीन ईशावतार श्रीकृष्ण सामदेद के महान्‌ ग्रष्येता थे । उन्होने घोर अगिरस से [दान्तमत की दीक्षा ली थी तथा साम-गान के रहस्य को सीखा था । सम्भवत इसीलिए श्रीकृष्ण ने छालिक्य' नामक गान का प्ाविष्फार किया था, जिसे यादवों ने झपता प्रधान गान माना था। हिन्दी -_ च्न वेदिक साहित्य 4] साहित्य के मध्यकाल मे श्रीकृष्ण भौर श्ुगार रस का जो चमत्कारी सम्बन्ध स्थापित किया गया है, उसके पीछे भी श्रीकृष्ण को सामवेत्ता के रूप में जानने-मानने की व्यापक भूमिका कार्य करती जान पडती है । कि सामवेद सहदिता के नाम से जो प्रतियाँ श्राज उपलब्ध है, वे दो भागों में विभक्त हैं| प्रथम भाग की सन्ञा पूर्वाचिक और द्वितीत भाग की उत्तराजिक है । पूर्वांचिक तथा उत्तराचिक में कुल मिलाकर भन्‍्त्रों की सल्या ,80 है, जिनमे से 26 भन्‍्त्रो की दो वार आवृत्ति हुई है । इस प्रकार, उन्हे कम कर देने पर सामवेद की कुल मन्त्र-सर्या ,549 रह जातो है । इन )549 भनन्‍्त्रो मे भी केचल ? 5 मन्सत्रो को छोडकर शेष सब मन्त्र ऋग्वेद के स्‍सक्‍ष्टम तथा नवम मण्डल से लिए गए है । यदि इन्हें भी प्रलण कर दिया जाए, तो सामवेद का कलेवर चारो वेदो मे सबस्ले लघु रह जाता है ॥7 सामवेद मे भ्रध्याय या मण्डल के स्थान पर प्रपाटक है । पूर्वाचिक में कुल 6 प्रपाटक हैं, जिनमें दम-दस मन्त्रो की दस दर्शात हैं। कुछ दशतियों में मन्‍्त्रो की संख्या 8 या 9 भी है। इस प्रकार, सम्पूर्ण पूर्वांचिक में 985 मन्त्र है । उत्तराचिक में नौ प्रषाठक हैं, जिनमें भारम्भ के पाँच दो-दो प्रछभाग में विभक्त है, शेष चार के तीन-तीन भ्रधेक हैं । कुल 9 प्रपाठको में 22 श्रधं, 9 खण्ड भोर 400 सृूक्त है, बिनमें मन्त्र-सरुमा 225 है| इस प्रकार, दोनो भाचिको की मन्न-सरुया का योग 80 है | सामवेद को गाँधवंवेद के नाम से भी जाना जाता है। इसमें हजारो राग- रागनियाँ दर्शनोय हैं। सामवेद की भ्रधिकाश ऋचाएँ गायत्री भर जगतो छन्‍्दो में हैं । उस यूम में प्रमुख वाद्य-यन्त्र-दुन्दुर्भि, वीणा भौर वेणु रहे । सामवेद को लिखित कलाभो का उद्यम केन्द्र या बिन्दु माता जाता है । इस वेद से छान्दोग्य बाह्मण तथा छान्दोग्योपनिषद्‌ सम्बद्ध है । शाखाएँ सामबेद की शाज्ाझ्ो के विषय में अ्रनेक प्रवाद प्रचलित है। पुराणों में तो सामवेद की सहस्तो शाख्ाप्रों का उल्लेख है। महाभाष्यकार पतण्जलि ने भी 'सहस्त्रवर्त्मा सामवेद ! लिख कर हजारो -आज़ाओ की बात की पुष्टि की है, कित्तु चरण॒व्यूह ग्रन्थ में इसकी सोलह शास्राएँ कहो गई हैं । सम्प्रति, इंस बेद की केवल तीन शास्ताप्रो का ही भरस्तित्व सर्वविदित है। इनके नाम हैं--कौथुमीय शाला, राशाबनीय शाज्ञा तथा जे मिनीय शाखा १ “कक कौथुमीय शाखा को प्रचार गुजरात प्राल्त में अधिक है। काशी मे रहने बाले गुजराती ब्राह्मणो मे इस शाक्षा का प्राचीनकाल से अध्ययन होता चला श्रा रहा है । स्व॒रगान की विधि का ज्ञान भी भ्रव इन्ही क्ाह्मण-परिवारों के कतिपय ]_ वैदिक साहित्य सामवेद-.-डॉ बिजयेन्द्र स्नातक, पृ 25 ; 3 चही, पृ 25. 42 प्राचौन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्कृतिक इतिहास पण्डितो को है। यह शाखा प्रकाशित हो चुकी है। इसका सम्पादन 848 में थियोडोर वेन्फी महोदय ने जमेंन-अनुवाद के साथ किया । इस शाखा से सम्बन्ध रसने वाले ग्रन्थ है--पहिता, ताँडय ब्राह्मण, पड्विश ब्राह्मण, सामविधान ब्राह्मण, छारोग्य उपनिपद्‌, मशक कल्पसुत्र लाड्यायन श्रौतसुनन, गोमिल गृहासूत्र । राणायनीय शास्त्रा का प्रचार महाराप्ट्र में है। कौथुम शाखा की श्रपेक्षा इसका प्रचार कम ही है । इस शाखा के लोग सहिता, ब्राह्मण श्रौर उपनिषदु की दृष्टि से उन्ही को मान्यता देते है, जिन्हें कौथुमीय शाखा के लोग मानते है । इनके श्रौत तथा ग्रृह्म सूत्र उनसे भिन्न है । इतके श्रोत का नाम है द्राह्ययण श्रौत सूल तथा ग्रह्म का नाम है खदिर गरृह्य सूत्र । यह शाखा भी मुद्रित हो चुकी है । इसका सवंप्रथम सस्करण श्री जे स्टेवेन्सन ने इग्लंण्ड से 842 में अग्रेजी-अनुवाद के साथ प्रकाशित किया था । जैमिनीय शाखा का प्रचार अपेक्षाकृत कम है। इसका प्रामाणिक सस्करण यूरोपीय विद्वान्‌ डॉ कैलेण्ड ने प्रकाशित किया है । इस शाखा के जैमिनीय सहिता, जैमिनीय ब्राह्मण, केनोपनिषदु, जेमिनीय उपनिषद्‌, जैमिनीय श्रौत सूत्र और जैमिनीय गृह सूत्र प्रसिद्ध हैं ।* सामवेद के प्राचीन भाष्यकार सामवेद के प्राचीन भाष्यकारो मे सात प्राचायोँ के भाष्य आज उपलब्ध होते हैं। सबसे पथम भाष्यकार का नाम है, माघवाचार्य इन्होने अपने भाष्य का नाम विवरण रखा है। दूसरे भाष्यकार श्री भरतस्वामी हैं। तीसरे माष्यकार सुएसिद्ध वैदिक विद्वान्‌ श्राचायं सायण हैं। सभी वेदों पर इनके भाष्य उपलब्ध होते हैं । चौथे भाष्पकर्त्ा हैं, सूर्य देवज्ञ | पाँचवें भौर छठे महास्थामी और शोभाकर भट्ट है । इनके अतिरिक्त, सामवेद पर पाश्चात्य विद्वानों ने भी शोध-सम्बन्धी सराहनीय कार्य किया है। अग्रेजी तथा जर्मेन भाषा मे श्रचुवाद और टिप्परियाँ भी लियी है । लन्‍्दन से श्री जे स्टेवेल्सन के सम्पादन तथा एच एच विल्सन महोदय के निरीक्षण मे सामवेद-सहिता का प्रथम बार मुद्रण हुआ । उसके बाद वेन्फे महोदय ने बलिन से इसका प्रामाणिक सस्करण प्रकाशित किया। डब्ल्यू केलेण्ड महाशय ने जैमिनीय शाखा का सम्पादन 907 मे किया । आाश्चयें का विपय है कि अन्य भारतीय साहित्य की तरह वैदिक साहित्य की निधि सुरक्षित और सर्गजन युतभ बनाने मे यूरोपीय विद्वानों का बडा योग रहा है। हमे उन्तकी ग्रुस प्राटकता और ज्ञान-लिप्सा की प्रशसा करनी चाहिए | कतिपय भारतीय विह्वानो ने भी सामवेद-सहिता के पश्रामारिक सस्कररा है तथा तीन-चार सज्जनो ने उस पर आधुनिक युग में भाष्य भी किया है। श्री ठुलसीराम स्वामी भौर प जयदेव शर्मा का हिन्दी मे साधारण भाष्य है । ] बहु प ४6 चैंदिक साहित्य 43 देवता और विषय इस सम्बन्ध में डॉ विजयेन्द्र स्नातक का सारपूर्ण विवरण निम्नानुसार है- देवता-विपयक विवेचन की दृष्टि से तो सामवेद का प्रमुल्त देवता सविता था सुर्य है, जैसा कि शतपथ ब्राह्मण मे कहा हें- सूर्यात्सामबेद । किन्तु प्ररिन, इन्द्र झौर सोम देवता का भी इसमे पर्याप्त वर्शान हं। पूर्वाचिक की 2 दशतियों के सस्त्रो का सम्बन्ध श्रश्नि से, दीच की 36 दशतियों का सोमपायी इन्द्र से भौर श्रन्त की दशतियो का सोम से है। इन मन्‍्नो का विनतियोग सौमयान के लिए वत्ताया गया है । यह सौमयान स्वग-प्राप्ति का साधन वेदों मे वशित है | सामचेद का उपचेद उसक विपयानुकूल गन्धर्ववेद है। विपय की दृष्टि से यह वेद उपासना-काण्ड-अधान माना जाता है । सामवेद में उपासना-काण्ड का प्राघान्य होने से भ्रग्ति रूप, सूर्य रूप, सोम रूप ईश्वर का स्व॒तन्त्र प्रधात रूप से परिलक्षित होता है। ईश्वर की उपासना के लिए शान्तिपूर्ण वातावरण की नितान्त आवश्यकता है । ध्यान से उपयुक्त साधनों की कामना तथा साँधारिक राग-देप से हमारा सन श्रमिभूत न हो, यह सामवेद के मन्‍्त्रो भे बार-बार आार्काक्षा के रूप मे प्रकट किया गया है । भ्रग्नि रूप तेजस शक्ति में ईश्वर के दश्शंन करता हुआ साधक अपने सत को इतना सुस्थिर और शान्त रसना चाहता है कि उसे प्रकृति के समस्त उपकरणों में झानन्द के ही दर्शन हो---किसी प्रकार का साँसारिक व्यववान उसकी उपासना के मार्ग में उपस्थित न हो | उपासना की इस शान्त स्थिति में उपासक को सव्त्र उसी दिव्य शक्ति का स्वरूप दिलाई पडता है । पुरुष की व्यापकता का भ्राभास इस मन्त्र में स्पष्ट रूप से ध्वनि होता हैं- ओइम्‌ पुरुष एवेद सर्वे यद्भूत यक्च भाव्यम्‌ । पादोध्स्म विश्वाभूतानि त्रिपादस्वामृत दिध्रि ॥ प्रकृति के उपकरणो में कल्याण की कामना करता हुआ उपासक ईएवर से यही चाहता है कि उसके लिए समस्त पदार्थ शान्ति और सुदायक हो | उपासना की भूमिका में स्थित होने पर भी श्रपने चारो शोर के वातावरण में स्थायी शान्ति की कामना साधक के लिए पश्रभीष्ट है। नीचे के मन्‍्त्रो में यही भाव व्यक्त हुआ है-- झोइम्‌ सन पवस्व श गये श जनाय शमवजंते । शब्& राजप्नलोषधीम्य | प्रोडम्‌ शपन्नो देवीरमिष्टय भ्रापो भवन्तु प्रीतये | शयोरभिस्त्रवन्तु न । झापो हिष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दघातन । महे रणय चक्षसे। सामदेद मे विश्व-कल्माणु-कामना के मत्त्रों की भी कमी नही है। प्रखिल विश्व का कल्पाण चाहने वाला उपासक ईश्वर से अ्रपनी आस्यन्तर पवित्रता के साथ समस्त चराचर की भी हितकामना मे लीन दिखाई पडता है-- ( भेद्र कशांलि शल्रुणुयाम देवा सदर पश्येमाक्षभियंजत्रा । रिथरेज्ध स्तुष्टुवा ७ सस्तनूभूव्यंशेमहि देवहित यदायु ॥। तथा स्वस्ति न इन्द्रो वृद््षवा स्वस्ति न पूपा चिश्ववेदा ! स्वस्ति नस्ताक्ष्यों प्ररिष्नेमि स्वस्ति नो बृहस्पतिदंधातु ॥ 44 प्राचीन भारत का साहित्पिक एवं सॉस्क्ृतिक इतिहास सक्षेप मे, सामवेद की महिमा झ्लौर विपय-वस्तु का भ्रवगाहन करने पर यह निष्कर्ष निकालना किसी भी व्युत्पन्न पण्डित के लिए कठिन नही कि चारो वेदों में सामवेद का अपना एक विशिष्ट स्थान है श्रौर यह वेद अपनी गेयात्मकता के फारण प्रचार, प्रसार श्र प्रसिद्धि मे भ्रपेक्षाकृत अ्रधिक व्यापक भी रहा होगा । इस बेद का सकलन भी इस बात का द्योतक है कि ऋग्वेद, आदि श्रन्य वेदों से मन्व-चयन करके उन्हे इस वेद में गीति शैली में ढालने के उद्देश्य से ही ऋषियो ने एकत्र क्रिया । उन भन्‍्त्रो मे स्व॒र-सधान द्वारा चमत्कार-सृष्टि करने की अपूर्व क्षमता सामबेद द्वारा ही भाई, प्रन्यथा मस्नो की पुनरावृत्ति से क्या लाम सम्मव था ? भारतवर्प के महाराष्ट्र श्यौर गुजरात प्रास्त मे इस वेद का अच्छा पठन-पाठन होता रहा है, किन्तु अब इसका सस्वर पाठ करने वाले पण्डितो का श्रभाव होता जा रहा है। जिस सामचेद-गान की हम भूरि-भूरि प्रशसा पुरातन ग्रन्थों मे पढते है, श्राज उसका लोप देख कर दु ख होना स्वाभाविक है। क्या यह सम्भव नहीं कि सगीत-प्रेमी जन साप्रगान की झाषं-पद्धत की परम्परा को जीवित रखने के लिए भारतीय सगीत के साथ इसे भी पुनरूज्जीवित करें श्रौर वेदिक साहित्य की इस अमूल्य ज्ञान राशि को विनष्ट होने से बचाएँ ? सामचेद की महिमा प्नन्य वेदो मे भी अनेक स्थानों पर बणित है। ऋग्वेद में तो अनेक ऋचाएँ सामवेद की प्रशसा मे ही लिखी गई है । वेदो के अतिरिक्त ब्राह्मण तथा उपनिषद्‌-ग्रस्थो से लेकर महाभारत और गीता तक सामवैद की महिमा का भ्रखण्ड रूप से कीत॑ंन होता रहा है । “४ 4. श्रथववेद सहिता वेद की चौथी सहिता भ्रथवंवेद है। कहा जाता है कि एक बार ब्रह्माजी ते उग्र तपस्था करके अपने तेजस्वी शरीर से दो जल धाराएँ उत्पन्न की । पहली घारा को अथवेन तथा दूसरी घारा को अगिरा कहा गया। वस्तुत 'ब्रह्मा' मन्त्रद्नष्ठा के लिए उपाधिसूचक शब्द है| ब्रह्मा की तपस्या से दो जलधाराधो के उत्पन्न होने का प्र्थ है--मन्द्रष्टा ब्रह्मा के दो विद्वान पुत्रो की उत्पत्ति एव विकास | मनुस्मृति मे ऋषक्‌ू, यजु साम नामक तीन वेदो के श्राविभाव की बात कहकर भ्रथवंवेद के विपय मे भह्दधि अगिरा या बृहस्पति द्वारा ब्ह्माजी को अथवंवेद का ज्ञान देने की बात का उल्लेख है--'भष्यापयामास पित्तन्‌ शिशुरागिरस कवि / झत मन्‍्त्रद्नष्ठा ब्रह्मा के शिष्यो भ्रथवा पुन्नो ने ही भ्रथववेद की रचना की । । चारो वैदिक सहिताओ मे भ्रन्तिम स्थान प्रथवंवेद फा है । गणना-क्रम से झन्तिम स्थान होते हुए और यजुर्वेद का प्रधान विषय क्मंकाण्ड होते हुए भी दंदिक कर्मेकाण्ड की दृष्टि से श्रथवंवेद को सबसे भ्रधिक महत्त्वपूरों स्थान प्राप्त है। वेदिक कर्मकाण्ड का सचालन जिन चार ऋत्विजों के तत्वावधान मे होता है, उनमे सबसे मुझ्य स्थान ब्रह्मा का है भौर इस पद पर अ्भिषिक्त होने का गौरव केवल अ्रथर्गवेदज्ञ को ही प्राप्त होता है | स्वय ऋग्वेद ने 'यन्ैरथर्वा प्रथम प्रथस्तते ऋक (! $ 35) कह कर अधथर्जवेद के इस महृत्त्व का भ्रतिपादन किया है। ऋग्वेद की शत यक्ति यदि सालिहय 45 प्रधर्णवेद थी प्राथमिकता फे राध उसकी प्राधीनता की भी गरियायक है । सता झाधुनिक विद्वानों का उसको ग्र्बाचीत सिद्ध करन के प्रयास गुक्तिशात गो है ॥॥ प्रथर्भवेद के मूगत दो भाग है--प्रसर्णन्‌ शौर पभ्गिरम । 'गपर्णन्‌! भाग मे मस्व-तन्त्र, टोता-दोटफा तथा औवधियों का पुक्तियुक्त विवेचन है । 'अ्रिरश' भाग में मारण-उच्चाटन प्रिपमक गन्‍धों का संग्रह हे। प्राप्त प्रथर्णयेद सरिता वे 20 पएुए्ड, 48 प्रषाटक, 760 युक्त एव. 6000 गन्त्र है। विध्य सटिया के गरभ्युस्याव में भुगुथशी विद्वानों का पूर्ण सहयोग रहा हे | श्रथर्ययेद शो 'ब्रद्मवेंद' गाग से भी ग्रभिहित किया गया हे । प्ररतुत वेद मे शाप श्राणीर्वाद, गारण-उच्चाटव, मोह ।- चग्मीकर ण, स्तुति प्रार्थना भ्रादि से रास्यश्व मन्‍्भो का संग्रह कोने थे कारण शी एगे 'प्रह्मभेद! कहा गया है । बस्तत उत्ता प्रकृति के मच्जी को 'प्राह्मणी' कहा जाता है । दुमतिए शअथर्चगेद 'बरहानेद' के ख्य मे स्‍्वीफार किगा गया है । 'ब्रद्मा' शन्द निरतार फा बाचक है। श्रथर्गगेद में व्यक्ति, रामाज झौर राष्ट्र के उत्वान के शिए-नीस्ार फे लिए श्रनक स्पछूण परिकतपनाएँ है। बधा-- जीशेम शरद शतणु, बु्येग शरद ? शतम्‌, रोहेम शरद ? शतग्‌ । प्ररतुत बेद मे शरीर को श्राठ चको तथा चबय द्वारो रा रागुत्त शिप्र करके, उसे शयोध्या नगर के रूप से परिक्रतिपतत किया है-- ». शप्ट्नक्रा लव द्वारा दबाया पुरगोध्या । यधार्यत शरीर देवों की--दिव्य शक्तियों की ही सगरी हैसा पुर है । णरीर को पुए्ठ रखने के लिए भ्रौपधियों फा रोचन तथा गन को पविन्न एवं शवदाता रखने के दिए प्राष्यारम पथ पर श्रग्सर होना ही पअ्रथर्तगेद की गौधिय' गिक्षाएँ है | इस गेंद में बुछ गन्‍्त्र यशी रे राम्बद तथा पब्रुछ मन्त्र भ्राध्यातिक रहरपो रा सम्बन्धित है। क्रयदेवेद के प्रतिपादूय विएण. पथर्गवेद के सूक्त प्रायुर्भेद सम्बन्धी, राजधर्ग या राष्ट्र धर्म राग्गम्धी, गमाज-त्यवस्था विपयया, श्रष्याक्ाविद्यापरक प्रौर विभिन्न विपमी ते सग्गन्ध खाते है। इनका गारशूत पिश्नेपण श्राघार्य घिणरीश्वर ते लिग्नानुगार किया है ।? प्रायुरषेद-राम्यस्थी सूक्त-भरथयबेल फे भ्ायु्वेद-राम्यत्थी यूरो गे गागघ-णरीर के प्रापाइमर्तक समस्त भ्रगो का नागब्रद्पूर्पफ उत्तेग पाया जाता है। सारिएय फै कियी का नग-शिप्र बात जिस प्रजार भरा से शिग क्री और घगता है, उ्ती प्रकार प्रथपवैद मे मानव-ऑरीर फ श्रगौ का वशॉत पैर के ततुवे से प्रास्म्ण होवार क्रमश ऊपर की और चता जाता है। शरीर-रचना के बाद शारीरिफ रोगौ--- छ्वर और गडमाना-गैस गाधारण रोगों से लेकर कुएट श्रौर राणयध्ष्मा-जैगे भीषण रोगो तक-का उस्धन अयनवैद से मिरता है। ज्वर के प्रशग में शीवक्यर प्र्थात्‌, 2 पैदिर साहित्य प्रधववइ-पायाप पिश्वश्धर, परष्ठ 3] पहद्टी, पृष्ठ 32.35 44 प्राचीन भारत का साहित्पिक एवं साँस्कृतिक इतिहास सक्षेप मे, सामवेद की महिमा और विपय-वस्तु का भ्रवगाहन करने पर यह निष्कर्ष निकालना किसी भी व्युत्पन्न पण्डित के लिए कठित नही कि चारो वेदों में सामवेद का अश्रपना एक विशिष्ट स्थान है श्रौर यह वेद अपनी गेयात्मकता के कारण प्रचार, प्रसार झौर प्रसिद्धि मे अपेक्षाकृत अधिक व्यापक भी रहा होगा । इस बैद का सकलन भी इस बात का दोतक है कि ऋग्वेद, आदि अन्य वेदों से मन्‍्च-चयन करके उन्हे इम वेद में गीति शली मे ढालने के उद्देश्य से ही ऋषियों ने एकत्र किया। उन मनन्‍्त्रों मे स्वर-सधान द्वारा चमत्कार-सृष्टि करने की अपूर्व क्षमता सामवेद द्वारा ही आई, भ्न्यथा भन्‍्त्रों की पुनरावृत्ति से क्‍या लाम सम्मव था ? भारतवर्ष के महाराष्ट्र और गुजरात प्रान्त में इस वेद का अश्रच्छा पठन-पाठन होता रहा है, किन्तु भ्रव इसका सस्वर पाठ करने वाले पण्डितो का ग्रभाव होता जा रहा है। जिस सामबेद-गान की हम भूरि-भूरि प्रशसा पुरातन ग्रन्थों मे पढते है, आज उसका लोप देख कर दु ख होना स्वाभाविक है। क्या यह सम्भव नहीं कि सगीत-प्रेमी जन सामगान की भरार्ष-पर्दात की परम्परा को जीवित रखने के लिए भारतीय सगीत के साथ इसे भी पुनरूज्जीवित करें भ्रौर वैदिक साहित्य की इस अमूल्य ज्ञान राशि को विनष्ट होने से बचाएँ ? सामवेद की महिमा अन्य वेदो मे भी भ्रनेक स्थानो पर वरणित है। ऋग्वेद में तो अनेक ऋचाएँ सामवेद की प्रशसा मे ही लिखी गई हैं । वेदो के अतिरिक्त ब्राह्मण तथा उपनिपद्‌-प्रल्थो से लेकर महाभारत और गीता तक सामवेद की महिमा का अ्रखण्ड रूप से कीतंन होता रहा है । ५“ 4. श्रथववेद सहिता वेद की चोथी सहिता अथरववेद है । कहा जाता है कि एक बार ब्ह्माजी ने उम्र तपस्या करके अपने तेजस्वी शरीर से दो जल धाराएँ उत्पन्न की । पहली घारा को भ्रथवेन तथा दूसरी धारा को अगिरा कहा गया | वस्तुत 'ब्रह्मा' मन्‍्त्रद्रष्टा के लिए उपाधिसूचक शब्द है | ब्रह्मा की तपस्या से दो जलघाराओो के उत्पन्न होने का अर्थ है--मन्द्रष्ठा ब्रह्मा के दो विद्वान पुत्रो की उत्पत्ति एव विकास | मनुृस्मृति में ऋतक्‌, यजु साम नामक तीन वेदो के झ्राविभाव की बात कहकर प्रथवेचेद के विपय में महर्षि अग्रिरा या दृहस्पति द्वारा ब्रह्माजी को प्थवंवेद का श्ञान देने की बात का उल्लेख है--अध्यापयामास पितृन्‌ शिशुरागिरस कवि ! झ्रत भन्‍्त्रद्रष्टा ब्रह्मा के शिष्यो अथवा पुत्रो ने ही अथववेद की रचना की । चारो वैदिक सहिताओो में अन्तिम स्थान अथ्वँचेद का है । गणना-कम मे झन्तिम स्थान होते हुए झोर यजुर्वेद का प्रधान विपय कर्मकाण्ड होते हुए भी वेदिक कर्मकाण्ड की दृष्टि से अ्रथवंवेद को सबसे अ्रधिक महत्त्वपूर्ण स्थात प्राप्त है । वेदिक कर्मकाण्ड का सचालत जिन चार ऋत्विजों के तत्वावधान मे होता है, उनमे सबसे स्थान ब्रह्मा का है और इस पद पर अ्रभिषिक्त होने का गौरव केवल अथर्गवेदश को ही प्राप्त होता है 6 स्वय ऋग्वेद ते 'यत्रेरथर्चा प्रथम प्रथस्तते ऋकछू (! 8 35) कह कर अथर्गवेद के इस महत्त्व का प्रतिपादन किया है। ऋग्वेद की यह उक्ति ब्ेंदिक साहित्य 45 प्रथर्गवेद की प्राथमिकता के साथ उसकी प्राचीनता की भी परिचायक है । प्रतएव प्राघुनिक विद्वानों का उसको भ्र्वाचीव सिद्ध करने का प्रयास युक्तितत नही है 0! अथर्गवेद के घूवत दो भाग है--प्रथर्गन्‌ भौर अगिरस्‌ । “प्रथर्गन्‌” भाग मे मन्त्र-तन्त्र, टोना-टोटका तथा औपदधिशयों का पृक्तियुक्त निवेचन है । अगिरस' भाग में मारण-उच्चाटन विपयक मन्‍्त्रों का सग्रह है। प्राप्त प्रथर्णवेद सहिता में 20 काण्ड, 48 प्रपाटक, 760 सृक्त एव 6000 मन्त्र हैं। विच्य सहिता के भरम्पुत्यान में भुगुवशी विद्वातों का पूर्ण सहयोग रहा है। अ्रथर्वेवेद को 'ब्रह्मवेद! नाम से भी प्रभिहित किया गया है । प्रस्तुत वेद मे शाप-आ्राशीर्वाद, मारण-उच्चाटन, मोहत- वशीकरण, स्तुति प्राथेना भ्ादि से सम्बद्ध मन्‍्त्रों का सम्रह होने के कारण ही इसे 'ब्रह्मग्रेद' कहा गया है । वस्तुत उक्त प्रकृति के मन्‍्त्रो को 'ब्राह्मणी' कहा जाता है । इसलिए श्रथर्गगेद “ब्रह्मणेद' के रूप मे स्वीकार किया गया है। 'ब्रह्म' शब्द विस्तार का वाचक है। भथर्गनेद में व्यक्ति, समाज भौर राष्ट्र के उत्यान के लिए--विस्तार के लिए झतेक स्वरूप परिकल्पनाएँ हैं। यथा-- | जीगेम शरद शतम्‌, बुध्येम शरद २? शत्म्‌, रोहेम शरद ? शतम्‌ । प्रस्तुत जेद मे शरीर को भ्राठ चक्रो तथा नव द्वारो से सयक्त सिद्ध करके, उसे भ्रयोष्या नगर के रूप मे परिकुल्पित किया है--- * भ्रष्टचक्रा नव द्वारा देवाना पुरयोध्या । यथार्थत्त शरीर देवो कौ--दिव्य शक्तियों की ही नगरी हैया पुर है । शरीर को पुष्ट रखने के लिए प्रौपधियो का सेवन तथा सन को पविन्न एवं भ्रवदात रखने के लिए ग्राध्यात्म पथ पर श्रग्सर होना ही भ्थर्गगेद की मौलिक शिक्षाएँ है । इस बेद मे कुछ सन्‍त्र यज्ञो से सम्बद्ध तथा कुछ मन्त्र आध्यात्मिक रहस्पो से सम्बन्धित हैं । ५ अथवेदेद के प्रतिपादूय विषय ४-४ भ्रथर्जगेद के सूक्त भ्ायुगेंद सम्बन्धी, राजधर्म या राष्ट्र धर्म सम्बन्धी, समाज-व्यवस्था विषयक, पश्रध्यात्मविद्यापरक भ्ौर विभिन्न विपयो से सम्बन्ध रखते हैं। इनका सारभूत विप्लेषण आचार्य दिश्जेश्वर ने निम्नानुसार किया है ।* प्रायुर्वेव-सस्वन्धी सूक्त-अथवदेद के झायुवेद-सम्बन्धी सूक्तो मे मानव-शरीर के आ्रापादमस्तक समस्त भगो का नामग्रहपूर्वक उल्लेख पाया जाना है। साहित्य के कवियों का नख्न-शिक्ष व्शुन जिस प्रकार नख से शिख की झोर चलता है, उसी प्रकार श्रथवंचेद मे मानव-शरीर के भझगो का वरणेन पैर के तलुवे से प्रारम्भ होकर क्रमश ऊपर की ओर चलना जाता है। शरीौर-रचना के बाद शारीरिक रोगो-- ज्वर और गडमाला-जैसे साधारण रोगो से लेकर कुष्ट और राजयक्ष्मा-जैसे भीपण रोगो तक-का चर्सान प्रथर्ववेद भे मिलता है। ज्वर के प्रसग मे शीवज्वर अर्थात्‌ ३) बेदितल साहित्य अपववेद-प्राचार्य विश्वेश्वर, पृष्ठ 3] पह्दी, पृष्ठ 32-35 हर 46 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्कृतिद इतिहवप्त मलेरिया प्रौर उसके अ्रन्येद्य॒ तथा तृतीयकख (तिजारी), श्रादि भेदों का भी वन मिलता है| श्रोपधियों के प्रसंग में अ्रपामार्य, पृश्निप्णी, पिप्पली, ग्रादि ध्रौपधियों का वर्णोन झ्ाया है | चिकित्सा के प्रसग में जल-द्वारा चिकित्सा का भी वर्णशोत है तथा उद्यय होते हुए सूर्य की रश्मियो का प्रयोग भी बनाया गया है। इस प्रकार, झायुवेद-सम्बन्धी अनेक बातों का वर्णन श्रथववेद मे पाया जाता है । राजधर्म-सम्वन्धी सूक्त--राजधर्म का वर्णन करते हुए ध्थववेद ने विशुद्ध प्रजात।न्त्रिक राज व्यवस्था का निर्देश क्रिया है। त्वा विशो वृणता राज्याय (3-4-८) के स्पष्ट शब्दो मे राजा के वरण श्रर्यात्‌ निर्वाचन और चतुर्थ काण्ड के प्रप्टम सूक्त मे (प्रभि त्वा व्चंसा सिचन्नापो दिव्या" पयस्वती ', झादि से उसके प्रभिपेक का वर्ण किया गया है। अ्रभिषेक के समय राष्ट्रपति प्रजाजनों को विश्वास दिलाता है कि “श्रह राष्ट्रस्थामी वर्ग निजो मभूयासमुत्तम” (3-5-2) शर्थात्‌ में राष्ट्रननो के मध्य सदेव उसका निज भौर उत्तम विश्वासभाजन रहूंगा । राष्ट्रपति से आशा फी जाती है कि वह सर्देव राष्ट्र की उन्नति में तत्पर रहेगा-- 'वुहद्राष्ट्र दघातु न ' । राज्य के शासन के लिए न केवल राष्ट्रपति, अपितु उसकी राष्ट्रभा तथा प्रवर-स्मिति का भी निर्देश 'सभा व मा समितिश्चावताम्‌ (7-3-) के शब्दों मे किया है। राष्ट्र की सुव्यवस्था के' लिए राष्ट्रपति भौर उसकी राष्ट्रसभा के सदस्यो में पूर्ण सहयोग होना प्रावश्यक है। “ये ते के च सभासदस्ते मे मन्‍्तु सवाचज्स । एपामह समासीनाना वर्चो विज्ञानमाददे (* (7-3-2) जो राष्ट्रसभा के सदस्प है, वे मुझ राष्ट्रपति के साथ एक स्वर मे बोलें और मैं राष्ट्रहित के लिए उनके ज्ञान श्लौर शक्ति का उपयोग करूँ | इस राष्ट्रीय व्यवस्था के लिए उच्चतम निद्धान्तों का प्रजातान्तिक आादर्शो पर प्रथवंवेद ने प्रतिपादन किया है । समाज-व्यवस्था सम्बन्धी सूक्त--अ्रथवंवेद का तीसरा प्रतिपाद्य विपय समाज-व्यवस्था है | वैदिक सस्कृति मे समाज-व्यवस्था की झाधघारभित्ति वर्खाक्षम- व्यवस्था है | अ्रयवंवेद मे भी उस वर्णाश्रम-व्यवस्था के विपय में ग्हुत-कुछ कहा गया है.। उसके सुविदित होने से हम इस समय उसके विषय में कुछ नही कहेगे | समाजशास्त्र के सिद्धान्त के श्रनुमार, हमारे सामाजिक जीवन की इकाई कुटुम्व या परिवार है | अथववेद के तृतीय काण्ड के 30वें यूक्त मे हमारे पारिवारिक जीवन का जो आदश झौर स्पृहणीय जित्र उपस्थित किया गया है, वह हमारे द्ृदयो को उदुबोधन देने वाला अबाब चेकालिक सत्य है। उसफे कुछ मन्‍्त्रो को इस समय प्रस्तुत करना उपयोगी होगा । माता, पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-बहुन--- यही परिवार के मुख्य झग हैं । इन सबके पारस्परिक सम्बन्धों का प्रदर्शन करते हुए श्रथवंबेद ने लिया है 'अनुत्रत पित्‌ पुत्रों मात्रा भवत्‌ सम्माना, जाया पत्ये मधुमती वात बदतु शान्तिवाम्‌ ॥ मा आता प्रात्तर द्विक्षन्‌ मा स्वसारभुत स्वसा | सम्यन्ग सक्नता भूत्वा वाच वदत भद्गया ।* श्र्थातु पुत्र पिता का अनुगामी और माता के मनोनुकूल चलने वाला हो। पति और पत्नी परस्पर मघुरभाषी बनें । चैदिक साहित्य 47 भाई-भाई और वहत-वहन या भाई-वहनो में कभी किसी प्रकार का द्वप या भगइ नही होना चाहिए। इकाई से वढ़ कर सामाजिक जीवन का चित्रण करते हुए अथवंवेद मे लिखा है--'समानी प्रपा सह वोछचन्नभाग ' श्र्थात्‌ तुम्हारा सान-पान, भोजनाच्छादन, प्रादि समान हो । इमसे हमारे सामाजिक जीवन मे प्रेम का संत्रार होगा । 'सहृदय सामझ्जस्थविद्वेप कृणोमि व, भनन्‍्यो प्रन्यममिहरय॑त वत्स जातमिवाष्त्या' श्र्थात्‌ सहृदय और समान मन वाले बनो परस्पर- प मत करा और जैसे गाय अपने नवजात बच्चे को प्यार करती है, इसी प्रकार परस्पर एक- दूसरे से सदेव प्रेम करो । यह प्रादर्श है, जिसके अनुसार भ्रयववेद हमारे नामाजिक जीवन को बनाना चाहता है । प्रष्यात्मविद्यापरक सूक्त--भ्रथवचेद का चौथा मुरय प्रतिपाद्य विपय अ्रष्यात्मवाद है। 'प्रस्य वामस्य' सूक्त के नाम से प्रसिद्ध नवम्‌ काण्ड का नवम्‌ सूक्त श्रध्यात्मृविद्या का सबसे मुख्य यूक्त हे । यह सूक्त ऋग्वेद में भी पाया जाता हे । उसे हम भारतीय दर्शनशास्त्र का भ्रादिज्ञोत कह सकते है। भ्रध्यात्मवाद के क्षेत्र मे एकेश्वरवाद भ्रौर बहुदेववाद, हं तवाद भर भ्रद्व॑तवाद, भादि कई ऐसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं, जिनके विदेचन मे बडे-बडे दिग्गज विद्वानों ने भी ठोकर खाई है| परन्तु श्रथवेवेद उनके विषय मे बडे स्पष्ट शब्दों मे प्रतिपादन करता है । बहुदेववाद का निराफरण कर एकेश्वरवाद की स्थापना करते हुए भ्रयर्ववेद मे लिखा है--/“इद मित्र वरूएभग्निमाहुर॒थो दिव्य? स सुपर्णो ग्रत्मानु, एक सदुविध्रा बहुधा वदन्ति श्रग्नि यम मातरिश्वानमाहु ” (9 0 28) अर्थात्‌ इन्द्र, भित्र, वरुण, यम, आदि अ्रलग- “मल देवता नही, वे सब गुण भेद से परमात्मा के ही नाम हैं। सृष्टि-विज्ञान में ईएवर, जीव भ्ौर प्रकृति--ये तीन नित्य पदा्य प्रथव॑वेद ने माने हैं। इन तीनों के स्वरूप और परस्पर सम्बन्ध का निरूपए करते हुए प्रलनकार-रूप से प्रथववेद ने लिखा है--+“द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समान वृक्ष परिषस्वजाते, तयोरन्य पिप्पल स्वाइत्तयनश्ननूनन्योभिचाकशीति” (3 9 20] प्र्थात्‌ समात रूप, साथ रहने वाले, दो मित्र पक्षी एक समान बुक्ष पर बैठे हैं, उनमे से एक उस वृक्ष के स्वादु फलो को खाता हैं भौर दूसरा नहीं। यह वृक्ष प्रकृति है, दोनो पक्षी ईश्वर भौर जीव है जीव फलो का भोग करता है, ईश्वर इस फलभोग से अलग है। भअ्रध्यात्मवाद मे इस इंपवर का. साक्षात्कार ही जीवात्मा का परम ध्येय है। श्रयर्व ने इसका निरूपणश कश्ते हुए लिखा है--यस्तन्न वेद किमृचा करिर्णत' (9 ]0 8 ) भर्थात्‌ जो उसको नही जानता, उसके लिए वेदादि सब व्यर्थ है। 'तमेव विद्वानू न विभाय मृत्योरात्मान घीरसजर युवानय्‌' (0 8 44) भ्रर्थात्‌ उस परमात्मा का साक्षात्कार कर लेने पर जीव परमानन्द-स्वलूप मोक्ष को प्राप्त करता है। 'प्कामो घीरोध्मृत स्वय-म रसेन तृप्तो न कुत्तश्चनौन ' (0 8 44) भर्थात्‌ यही प्रथर्ववेद का भ्रध्यात्मवाद है। विभिन्न विषयक सूक्त--अरथवंवेद ने स्वय वेद को माता झौर देव को काव्य कहा है 'स्तुनामया वरदा वेदमाता' तथा 'दश्य देवस्य काव्य न ममार न जीय॑ति' (१0 8 32) | इसलिए काव्य की दृष्टि से भी उसका कुछ रतास्वादन कर लेना 48 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास उचित होगा। काव्य की आत्मा रस है और उसको सर्वोत्तम प्रानन्दानुमूति-रूप श्रह्मानन्दसहोदर माना गया है। भ्रथवंवेद ने उस ब्रह्मानन्द की श्नुभूति का वर्णन करते हुए लिखा है--'रसेन तृप्नो न कुतश्वनोन ' (0 8 44) । साहित्य में श्रसिनव- नुप्त के रतत-सम्प्रदाय का आदिमूल कदाचित्‌ यही रहा हो । 3 25 2 में जब हम आाधिपर्णा कामशल्यभिप सकल्पकुल्मला ता मुसनता कृत्वा कामों विध्यतु त्वा हृदि' पढते हैं, तो हमे मध्यक्राल के श्यू गारी साहित्य का स्मरण हो झाता है साहित्यिक जगत्‌ के प्राकृतिक वर्सनों भे वाल्मीकि तथा तुलसीदास के वर्षा-वर्णेन बहुत उत्कृष्ट माने गए हैं। अ्रयववेद का चतुर्थ काण्ड का 5वाँ सुक्त वर्षायूक्त है भौर यह _ प्रबृति-दर्शन का वडा उत्कप्ट उदाहरण है । तुलसीदास ने वर्षा-वर्णंन मे दादुर घुनि चहुँ प्रोर सुहाई, वेद पढहि जनु वदु समुदाई' की जो सुन्दर उपमा दी हे, उसका जोड श्रयर्व॑ज्द मे 'सवत्मर शशयाना ब्राह्मणा ब्रतचारिणों वाच पर्जन्यजिन्वित्ता हि. प्रमण्डू अवादिपु” में विद्यमान है| - देदो का वर्ण्य विषय वेद सत्य विद्या के भ्रगाघ भण्डार है, प्रत उनका वण्यें-विपय भी मानव- समुदाय के परम कल्याण से सम्बद्ध हे। वेद में मुख्यतत निम्न विषयो का वर्णन क्विया गया है--- ] दिव्य शक्तियों का स्तवन, 2 यज्ञ-सम्पादन, 3 कमेंण्यता, 4 प्रकृति-प्रेम, 5 आध्यात्मिक गहराइयाँ, 6 स्वस्थ जीवन-दरशेन, 7 आयुर्वेदिक ज्ञान । । दिव्य शक्तियों का सतवन--देदो में द्यालोक, भ्रन्तरिक्ष लोक, भूलोक झ्रादि से सम्बद्ध दिव्य शक्तियों का स्तवन किया गया है| सूर्य, पूषा, मित्र, सविता भादि दिव्य शक्तियों को मनुष्यों के कार्य मे पूर्ण सहायक सिद्ध करके उनसे प्रकाश पाने के फलस्वरूप मनुष्यो को भी उनसे प्रेरणा ग्रहण करने के अनुदेश दिए गए है। सूर्य झपने किरण-घोडो को हाँकता हुआ सिद्ध किया गया है| इन्द्र को कभी सूर्य, कभी बादल तथा कभी एक राजा के रूप मे स्मरण किया गया है । पर्जन्य देवता दृष्टि करके समस्त फसलो को अ्रपार रूप में उत्पन्न कराने मे उपादान-भूमिका प्रस्तुत करता है, इसीलिए उसके लिए झ्ाहुतियाँ देना याजकों का परम पुनीत कर्तव्य है । झग्नि देवता मृपाल का देवता है, जो देवयज्ञ मे पुरोहित का काय करता है | वस्तुत अग्नि मे जो हवि झाहूत की जाती है वह भरिए के माध्यम से द्वी वातावरण मे व्याप्त होकर मानव के लिए शुद्ध वायुमण्डल प्रदान करती है | हिरण्पगर्भ--सूर्ये देवता को समस्त सृष्टि का मूल आधार मानकर उसे प्रेरणा ज्नोत सिद्ध किया है । सूर्य के प्रति मन्त्रद्नष्टा की भक्ति निम्नलिखित भन्त्र से द्र॒ष्टव्य है-- हिरण्यगर्म समवतंताग्रे मूतस्य जात पतिरेकासीत | स दाधार पृथियी छ्यामुत्तेमा कस्ले देवाय हुविषा विधेम ।। य झात्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिष यस्त देवा । यस्यच्छायामृत यस्य भृत्यु, कस्मे देवाय हृविषा विधेम ॥! वेदिक साहित्य 49 भन्त्रद्रष्टाओ ने पृथ्वी को गौमाता के रूप मे, नदियों को वत्सला माँ फ्रे झूप में तथा सूरमे-हूप विष्णु को सभी सानदों के भाई के रूप में चित्रित करके साँस्कतिक स्तर पर सामाजिक भावनाओो को दिव्यत्व प्रदान करने का सुन्दर प्रयास किया गया है | 2 यज्ञ-सम्पादन--डॉ रामघारीसिह दिनकर ने प्रार्यों को प्रद्धत्तिमार्गी सिद्ध किया है। झारयों को प्रद्धत्तिमार्गी सिद्ध करते का झ्लाधार उनका यज्ञ सम्पादन ही है | इस सन्दर्भ में डॉ दिनकर के शब्द द्रष्टव्य है--“बैदिक थुग के श्रार्य मोक्ष के लिए विन्तित नहीं ये, न वे ससार को असार मानकर उससे भागना घाहते थे । झनकी प्रार्थना की ऋचाएँ ऐसी है, जिनसे पस्त से पस्त झ्ादमियों के भीतर भी उमग की लहर जाग सकटी है। उन्हे ऋतु, का ज्ञान प्राप्त हो चुका था प्र वे भानते थे कि सारी सृष्टि किसी एक ही प्रच्छन्न शक्ति से चलित भर ठहरी हुई है तथा उस शक्ति की झाराधना करके, मनुष्य जो भी चाहे, प्राप्त कर सकता है । किन्तु, बराबर उनकी प्रार्थना लम्बी भायु, स्वस्थ शरीर, विजय, आनन्द प्र समृद्धि के लिए ही की जाती थी | वेदिक प्रार्थंनाएँ, प्राथनाएँ भी हैं और सबल, स्वस्थ, प्रफुल्ल जीवन को प्रोत््ताहन देंने वाले मन्त्र भमी।” वस्तुत बेंदों का यज्ञ-सम्पादन निम्न विशेषताएँ लिए हुए है--- (१) प्रकृति निरन्तर यज्ञ करती है, भ्रत मनुष्यों को ्चससे भ्रथक्‌ परिश्रम की प्रेरणा लेनी चाहिए। (7) यज्ञ प्रकृति के प्रेति श्रगाघ प्रेम का परिन्ायक है। (गा) यज्ञ नियमितता का मूल स्रोत है । (१९) यज्ञ के माध्यम से पूर्वजों के प्रति भी निष्ठा ध्यक्त को जा सकती है। (९) यज्ञ का प्रत्यक्ष देवता भ्रश्नि वातावरण की शुद्धि में सहायक सिद्ध होता है---अग्निमीले पुरोहित यज्ञस्थ देवमृविजम्‌ । होतार रत्तघातमम्‌ (९)) 'यश्च! शब्द एक विस्तृत श्रथ में रणु-यज्ञ, श्रम-यज्ञ, भोग-यज्ञ आदि का वाचक है, भरत सहज प्रशस्प है । 3 फर्मण्यता--वबेदो में विभिन्न दिव्य शक्तियों की स्मृतियों की स्तुति करने के पीछे एक महान्‌ कर्मण्यता छिपी हुई है । रद देवता को महाशक्ति-सम्पन्न नित्य तरुण तथा भजुओ के प्रति भ्रत्यन्त फोपनशील सिद्ध करने के साथ-साथ उनसे यह भी प्रार्थना की गईं है कि वे तथा उनकी सेनाएँ श्रार्यो के शत्रुओं अथवा सदाचार- परायण व्यक्तियों के शत्रुओं को धराशायी कर दें [वस्तुत रुद्र देवता की वीरता तथा उसकी सेनाएँ इस तथ्य की दोतक हैं कि जिस भ्रकार रुद्र ने श्रपत्रे सगठत के माध्यम से देव और देत्य शक्तियों को नाको चने चबा दिये, उसी प्रकार हम भी नीति मार्ग पर चलते हुए दुरात्मा्रो के विनाश हेतु श्रपने सुदृढ सगठन के माध्यम से झागे बढें (इसीलिए शकर को अद्वितीय योद्धा भी सिद्ध किया गया है-- "विश्वमम्व न वा श्रोजीयो रुद्र त्वदस्ति ॥--ऋग्वेद 2/33/0 50 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास मित्र देवता जग्त्‌ में प्रकाश करता हुश्ला सभी कृपकों को कार्य मे व्यस्त करता है | सोमरस के पान से भ्रमरता का वरण करके मध्यम मार्ग का अनुमरण करने फ्री प्रेरणा दी गईं है। वेदों की कर्मण्यता के पीछे विभिन्न गक्तियों से अपार याचना को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि वेदों से प्राकृतिक शक्तियों के सामने भुंकने की भी दृत्ति भाग्यवादिता के रूप मे दिखलाई पडती ह । भोगवादी आये ज्ञानमार्गी शकर से भयभीत दिखलाई पडते ह | आर्य मन्त्रद्वष्टाओ पे रुद्र के सामने ठहरने की कोई शक्ति भी दिखलाई नही पडती बे रुद्र देवता फो विभिन्न यज्ञो के सम्पादन से, जिनमे भोगवादी प्रवृत्तियों का अभाव है, से सतुष्ट करना चाहते है | फिर भी वेदों का प्रवृत्तिमार्ग कर्मण्यता का ही पथ है | किसी बडी शक्ति के सम्मुख भुकना अथवा उसे अपने पक्ष से लेने का उपक्रम भी कर्मवादी दृष्टिकोण ही है । 4 प्रक्धति प्रेम--वेदो मे प्राकृतिक शक्तियों के प्रति श्रगाघ प्रेम प्रदर्शित किया गया है | ऋग्वेद मे मह॒पि विश्वामित्र ने उपा को एक झमर युवती के रुप में चित्रित किया है | उपरा को लालिमा पर मुग्ध होकर ऋषि ने भ्रपने कवि हृदय का परिचय देते हुए यहाँ तक कह डाला कि उषा देवी दिव्य गुणों से परिपूण है, वह मरण-धर्म से रहित है, वह सुवर्णंमय रथ पर झारूढठ होकर विश्व का दर्शन किया करती है, उसे प्रिय भौर सत्य वासिप्रो का उच्चारण करने व।ली सूर्ये की किरणो से विशेष स्नेह है, वह स्वर्ण के समान दैदीप्त होती हुई हमे विमुग्ध किया करती है ।* कुछ भ्रन्य मन्त्रद्रष्ठाओ ने उपा को सूर्य की पुत्री कहा है । वैदिक ऋषियों ने भ्ररिन को एक यजमान का रूप देकर दन्द्र-वादल या सूर्य को एक राजा का रूप देकर, पृथ्वी को गोमाता का रूप देकर प्राकृतिक तत्त्वो का मानवीकरण कर दिया है, जो उनके प्रकृति-प्रेम की पराकाष्ठा का परिचायक है । केवल इतना ही नही, वैदिक ऋषियों ने तो द्युलोक, भन्तरिक्ष लोक, जलमण्डल, वायुमण्डल, थल क्षेत्र, औषधि-समूह, वनस्पति-समूह विश्वदेव भ्रादि का स्मरण करके समस्त प्राकृतिक वातावरण को शान्तिपूर्ण देखने का निश्चय प्रकट किया है । शरद ऋतु के प्रेमी मन्त्रद्रष्ठाओ ने जीने, उन्नति करने जैसी क्रियाओं के लिए “जीवेम शरद शतम्‌' तथा 'रोहेम शरद शतम्‌” कहकर प्रपनी प्रकृति परायणत्ता का परिचय दिया है । प्रकृति-प्रेमी वेद ्रणेताझो ने वर्षा ऋतु के सन्दर्भ में मेघ- ग्जेता को बडा महत्त्व दिया है। मेधो के गरजंन से शत्रशओं के या विरहौजनो के हृदय विकम्पित हो जाते हैं। वस्तुत मेघ एक महाक्रान्तिकारी शक्ति के रूप में दृष्टिगोचर होता है । कालिदास का मेघदूत लौकिक सस्क्ृत साहित्य मे मेघ के कार्यों रूपो को चित्नित करने मे वेदिक पर्जन्य देवता से ही श्रनुप्रेरित जान पडता है । हिन्दी के प्रकृति-प्रेमी कवि सुमित्रानन्दन पन्‍त का 'बादल' जहाँ श्रग्नेजी के महान कवि पी बी शेले की 'क्लाउड' कविता से प्रमावित जान पडता है, वहाँ वह पजन्य ] “मात्व रुद्र चक्रुधास नमोभिर्मा दुष्टती वृषभ माँ सहूती ।” --ऋग्बेद, 2/33,4 2. ऋग्वेद 3/6][/-2 बेदिक साहित्य 5[ देवता से भी कम प्रभावित नही है। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की बादल” कविता पर भी पजेन्य सूक्त की सहज प्रकृति की छाप देखी जा सऊती है। भ्रव हम यहाँ सूर्य देवता के उस चित्र को भ्रस्तुत करना चाहेंगे, जिसमे वह शअ्रन्धक़ार से परिपूर्ण भ्रन्तरिक्ष लोक से पुन -पुन श्राते हुए अपने प्रकाश से सभी जीववारियों को अपने स्वशिम रथ पर प्राहुढ होकर, देखता हुश्ना चित्रित क्रिया गया हे-- झा कृष्णेन रजसा वर्तमानों निवेशयनमृत मत्य च । हिरण्येन सविता रथेनादेवो याति मुवनानि पश्यन्‌ू ॥ ऋक /35/2 अत वेदो मे सम्पूर्ण यज्ञ-विधान के पीछे अपार प्रक्ृति-प्रेम द्वी निहित है । जहाँ मेढ़को के हे के माध्यम से कृपि-प्रघान देश भारतवर्ष की सम्पन्तता सूचित की गई हैं, वहाँआार्यो की प्रकृति निष्ठा को समकना सरल प्लौर स्वाभाविक हो दह्वी जाता है । 5 प्राध्यात्मिक गहराइयाँ- वेदों के भ्रन्तिम भाग को वेदान्त के नाम से जाना जाता है भ्रत श्रधिवश प्राष्यात्मिक गहराइयाँ वेदो के भ्रन्तिम भागो में ही दर्शनीय हैं। परन्तु, इससे हमे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि वदो के भ्रादि भौर मध्य में किसी प्रकार की कोई रहस्यथात्मकता ही नहीं है । यजुर्वेद के चालीसवें भ्रध्याय मे समस्त जगत मे ईश्वर की व्यापक्ता का सुन्दर चित्रण किया गया है। हमे कर्मनिष्ठा के माध्यम से ही भोगवाद कौ ओर बढना चाहिए । हमे कर्म परायरा रहकर ही सौ वर्ण पर्येन्त जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिए #वत्य रूपी महापात्र का मुल्ल हिरण्यमण पान से ढका हुआ है, प्रत हम जब तक कचन-कामिनी रूपी भाया को नहीं त्यागेंगे, तब तक यथाथ्थंत्रा का दर्शन सम्भव नहीं है। यथा--- ची । हिरिण्पमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहित मुखम्‌ । ५. 6 तत्व पूपन्तपावुण सत्यघर्माय दृष्टये ॥]८ --अजुर्वेद भ्रथवेवेद मे ईश्वरवादी 'नेति-नेति' सिद्धान्त का परिपाक दर्शनीय है। जिसे मन के द्वारा मनन का विपय नहीं बनाया जा सकता, अपितु मन ही जिसकी शक्ति से मनन करता है, वही ईश्वर हैँ, श्रन्य कुछ नही । आँखें जिसे नही देख सकती, अपितु जिसकी शक्ति से आँखें देखने का कार्य करती हैं, वही ईश्वर है, भनन्‍्य कुछ नही। प्राण जिसकी शक्ति से सचार करते हैं, बुद्धि जिसकी शक्ति से चिन्ता करती है, इन्द्रियाँ जिसकी शक्ति से क्रियाशीन रहनी है, वही ईश्वर है | जो इन्द्रियों एन प्रत्त करण की पकड मे आ जतय, जिसकी पूजा बाह्य उपकरणो से होती है, चह ईश्वर नही है । ४ । ऋणग्वेद के पुरुष सूक्‍त में चेतता-ल्वरूप ईश्वर का मानवीकरण करके उसे झनन्त पैर वाला, भ्रसीम सिरो वाला, श्रगण्ित हाथो वाला सिद्ध किया है। वस्तुत वह जेतन्य तत्त्व समस्त ब्रह्माण्ड ईश्वर का विराट स्वरूप ही है तथा इसमे निहित झसीम ज्ञानमयी-प्रानन्दमयी चेतना ही परमन्नहा है । शकराच।र्थ का भ्रद्वैतवाद इसी दत्द पर भ्राश्चित है। ऋग्वेद का नासदीय सूक्त सृष्टि-रचना की प्रसीम गहराइयो हा ज्वलन्त उदाहरण है । वासदीय सुक्त को लेकर जगदुगुद शकराचा्य के ईश्वर, 52 प्राचीन मारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास जीव और जगत्‌ का प्रनिरवंचनीय स्वरूप विकसित हुआ्ना है | वौद्ध दर्शन की सर्वोत्कृष्ट शाखा शृन्यवाद की प्रृष्ठभूमि भी नासदीय सुकत ही है। भरत वदी मे भाग्यवाद, यज्ञवाद, प्रद्व तवाद, शून्‍्यवाद, सर्वास्तिवाद श्रादि दाशेनिक सिद्धान्त बीज रूप में देखे जा सकते है | बेदो का एफ्रेश्वरवाद तथा बहुदेववाद भी देखते ही बनता है | 6 स्वस्थ जीवन-दर्शन--व्यावहारिक दर्शन का नाम ही जीवन दर्शन है । वेदों मे सभी वर्णों के लोगो को--स्त्रियो को सत्यविद्या को पढने तथा समभने का अधिकार दिया गया है । यजुर्वेद मे यह स्पष्ट कर दिया गया है कि कल्याणी वाणी को--वेद को पढसे का अधिकार अन्य लोगो को भी है इसी आधार पर वेदों में स्त्रियों एव पुरषो को समान घरातल पर खडा करने का सुन्दर प्रयास किया गया है, वथा--- यथेमा कल्याणीमवदानि जनेम्य ॥ ब्रह्मराजन्स्या शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय ॥ --यजुवेंद जिस नारी-शोपण की बात भ्राज के मानवतावादी दर्शन के परिप्र क्ष्य मे की जाती है तथा उसके उद्धार हेतु आन्दोलन भी किए जाते हैं, वह नारी-उद्धार की भावना तो वेदों मे साकार रूप मे--व्यवहार रूप मे दृष्टिगोचर होती है । ऋग्वेद के प्रक्ष सूक्त में जुआ खेलने के व्यसन की शोर स्पष्ट सकेत किया गया है--/जिस जुझारी के धन पर वलवान दूत का पासा लगने लगता है, ऐसे जुझारी की पत्नी के केशो को जीते हुए परुरुषो द्वारा खीचा जाता है। हारे हुए जुआरी को उसके माता-पिता, पुत्र-पत्वी आदि भी छुणा की दुष्टि से देखने लगते हैं। उसे घर से बाहर भी निकाल देते हैं। परन्तु, फिर भी जुप्मारी जब जुशा न खेलने का निश्चय करता है, तो द्यूत-क्रीडा का स्मरण अथवा पासो की खनखनाहट उसके चित्त को बरवस झपनी झोर भाकृष्ट कर लेती है। जुआारी पुन व्यभि- चारिणी स्त्री की भाँति व्यसन की शोर श्रग्नसर हो जाता है |” वेदों मे सोमरस के पान की विस्तृत चर्चा हुई है । सोम को सभी व्यक्तियों का राजा बतलाया गया है, उसके पान से भायु उसी प्रकार बढती है जिस प्रकार सूर्य के प्रतिदिन उदय से दिनो की सल्या बढती है । सोमरस के पान से प्रकाशमान लोको को प्राप्त किया जाता है--पर्थात्‌ सात्विकी बुद्धि प्राप्त की जाती है, त्तोमपान से व्यक्ति बलवान वनता है, अपने शत्रु को विमदित करता है, किसी की घूर्तेता के प्रकोप से प्रभय रहता है| वस्तुत सोमरस का पान सीमित मात्रा में ही उपयोगी है । 'सोमरस” मदिरा का ही नाम है | इसलिए वेद मे सोमपान की दुराई की भी चर्चा की गई है ॥ यदि सोमपान मे अत्तिपेषता का व्यवहार होगा तो व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है तथा व्यक्ति क्रोधोन्मत्त भी हो सकता है-- “मा न रि्येद्धयंश्व पीत ।” ऋग्वेद, 3/48/40 बेंदो मे वर्ण-व्यवस्था की मनोवैज्ञानिकता, माता-पिता का सम्मान, सतति- वालन की सुच्यवस्था, राष्ट्रीयता की भावना, कर्मंपरायणता जैसी विशेषताओं को लेकर जीवन-दर्शन का स्वरूप चित्रित किया गया है। बदिक साहित्य 53 | श्लामुवेंदिक शान--अधर्वेवेद मे भ्ायु्वेदिक ज्ञान की प्रधानता है। वेद का उपचार-सम्बन्धी ज्ञान भी यज्ञ के माध्यम से हो विकसित हुप्रा है। म्ौपधियों के भाहार लेकर एक किंवदन्ती है। एक वार एक भिषगाचाये किसी राजा के दरबार में गए । राजा ने जब उनके झागमन का कारण पूछा तो उन्होने बहृदायार पुस्तक निकालकर राजा को भेंठ की तथा कहा कि इसमे सम्पूर्ण आयुर्वेदिक ज्ञान है। रादा से झपनी राजनीतिक व्यवस्था का १रिचय देवर यही कहता चाहा कि यह इतनी बडी पुस्तक को पढने श्रथवा सुनते का समय नहीं निकाल सकता ) भरत राजा ने उस पुस्तक को प्रति सक्षिप्त करने का श्रादेश दिया । उक्त भिपगाचार्य ने पुस्तक सक्षिप्तीकरण कर दिया | परन्तु, राजा ने उसे भ्रौर भी सक्षिप्त रूप मे देखना चाहा | प्न्तत बह पुस्तक एक श्नोक का एक चरण-मात्र ही बची । बह पूत्र निम्न है-जीरॉमन्न मोजनम! श्र्थात्‌ खाए हुए पदार्थ के पूर्णंत जीर्ण हो दोने या पच जाने पर ही पुत्र भोजन करना चाहिए । वस्तुन पायुर्वेदिक प्रौषधियों मे प्राक्ृृतिकता को विशिष्ट महत्त्व दिया गया है। बेदी का 'त्यागरय भोग' सर्वोत्तृष् आयुर्वेदिक भ्रौषधि है-तेन त्यक्तेन भुझजीया' | --यजुर्वेद, 40/] सग्रह-रूप में वेदों के वण्यें-विषय के बारे में यही कहना समीचीन है कि बेंद भौतिक भ्रौर प्राध्यात्म पहलुझे के सतुलन को लेकर ग्रवतीर्ण हुए है-प्रविधया[ मृत्यु त्रति विधयाश्मृतमश्नुते'यरधार्थत प्रायें लोग तूरेंग की सवारी को महत्त्व देते के। वे माय को माता के समान प्ादर देते थे । इसीलिए भ्रधवंवेद मे गोहत्या के निषेध की भ्रवेकेश चर्चा हुई है। झ्रार्य कृषि ग्रोपालन को महत्त्व देने के साथ-साथ कुटीर उद्योगो को भी महत्व देते थे । वेदो के द्रष्ठा स्वर्ण, लोहा, तौँवा श्रादि घातुओरों से सुपरिचित जान पडते हैं) इसीलिए इन सप्नी तत्वों के समन्यवयात्मक स्वरूप को देखने के कारण विभिन्न पाप्रचात्य भ्रौर प्राच्य विद्वातो को वेदों की मुक्तकष्ठ से प्रशशा करनी पड़ी (हाँ सर्वपल्ली राधाइष्णन्‌ ने यह विचार रखा है वेदो के द्रष्टाओं को अनुभूति के विषय में भ्रनुशीलन करने पर यही कहना पढता है कि दैदिक युग कोई झाडेट युग भही था । बंदिक युग का व्यक्ति भत्वन्त सस्कृत एव जाभ्रत जान पढ़ता है। उनका कृषि एवं ग्रोपालन व्यवसाय श्राजकल भी भारतवर्ष की प्रामीण प्रगति का भूलमन्तर है।कुछ विद्वानों ने बेदो में वायुयान की-विकसित विज्ञान को भी खोजने की चेष्टा की है | परन्तु, बह दुर की खिचड़ो पकाने वाली वात ही प्रतीत होती है । वेदों मे 'विमान' शब्द का प्रयोग प्रवए्य हभा है, परन्तु उसका झर्थे 'निर्मात?' है, वायुदान नही । यदि झार्य विमान घनाना जानते थे तो वे सेन्षव-सिन्धी घोड़े की सवारी को ही सर्वाधिक महत्त्व क्यों देते रहे ? विमान बहुत पहले ही बन चुके थे तो उतका विकास उसी रूप में होना चाहिए ता, जिश्न रूप मे वेदों के दर्शन का विकास हुआ है। भ्रत विकासवादी बिचार- आरा के भ्राघार पर उलटी गयग्या बहाना कथमपि ठीक नहीं कह जा सकता । परत वेदों ने हजारो वर्षों के ज्ञान का सचित रूप मानव-जांति को प्रदान किया है, 54 प्राचीन भारत का साहित्यिक एव साँस्कृतिक इतिहास यही मानव-समुटाय के ऊपर उनका चिर ऋण है, वे हमारी अमूल्य थाती हैं। हमें वेदिक साहित्य पर गर्व है। वेदो के श्रौपनिपदिक भाग के विपय मे ठीक ही कहा है-- “वेदिक साहित्य के दाशंनिक तत्त्य भारत में अद्वितीय स्थान रखते है । इन तत्त्वो को विश्व के दर्शन साहित्य मे भी अ्रद्धितीय कहा जा सकता है ।”? ब्राह्मण प्रन्थ (छाथाापाशापर5 ) ब्रह्मभाव का नाम ब्राह्मण है। ब्राह्मण ग्रत्थो मे यज्ञ को ईश्वर का साकार स्वरूप कहा गया है-एप व॑ प्रत्यक्ष यज्ञों यो प्रजापति ।”* श्रत जिन ग्रन्थों में यज्ञ के त्रास्तविक स्वरूप को-पर्थात्‌ ब्रह्म को स्पष्ट किया गया है, वे ग्रन्थ ही ब्राह्मण प्रन्थ हैँ । किवदन्ती के रूप मे यह भी माना जाता है कि ब्राह्मण लोग ही यज्ञों को सम्पादित कराते रहे हैँ, अ्रत पुरोहितों से सम्बद्ध ग्रन्थ ही ब्राह्मण-गनन्‍्थ है। प्रस्तुत किवदन्ती में भ्राघुनिक व्यावहारिक घरातल पर बहुत कुछ सार भी दिखलाई पडता है | वस्तुन ब्राह्मण-अन्य हिन्दुप्रो के मुल धर्म ग्रन्य हैं। प्रारम्भिक युग में वरसणु-व्यवस्था की मनोवैज्ञानिकता के फलस्वरूप हिन्दु-समाज में किसी प्रकार की कोई सकीणंता नही रही होगी, परन्तु कालान्तर मे जाति-पाँति के वन्धकों के जकड जाने पर ब्राह्मण पिता का भ्रज्ञ और बुद्धू पुत्र भी यज्ञ कराने का भ्रधिकारी माना जाने लगा तथा वेदाविद्‌ ब्राह्मण-जातीय व्यक्ति को यज्ञ कराने से वचित रखा जाने लगा । आशिक रूप मे इसका पौराणिक प्रतिबिम्ब महषि वशिष्ठ तथा त्रिशकुश से जुडे हुए क्षत्रिय वर्णोत्यिन्न विश्वामिन्न की कया मे देखा जा सकता है । फिर भी ब्राह्मण-ण्न्थो का सम्बन्ध केवन ब्राह्मण जाति से ही है, ऐसी मान्यत्ता मु्खता मात्र ही कही जाएगी । वस्तुत ब्राह्मण-ग्रन्थ सनातन घर्मं से सम्बद्ध हैं और सनातन धर्म व्यक्ति या मनुष्य का घम्म है। यदि उप्ते मानव धर्म के नाम से पुकारा जाए तो कोई प्रत्यक्ति न होगी । झ्ब हमे विभिन्न बेदो के ब्राह्मण-ग्रन्थ पर विचार कर लेना चाहिए । ऋग्वेद के ब्राह्मणग--ऋग्वेद-सहिता के दो ब्राह्मण-ग्रन्य उपलब्ध हैं-ऐतरेय ब्राह्मण और कोषीतिकी ब्राह्मण । यद्यपि ऋग्वेद-सहिता के श्ननेक ब्राह्मतो की सम्भावना की गई, परन्तु आज ऐतरेय और कौपीतिकी ब्राह्मणों के अतिरिक्त झन्य किसी ऋणग्वेदिक ब्ाह्मण-ग्रन्यथ की प्रतिलिपि प्राप्त नही । भरत हमे दोनो ब्राह्मण! अन्यो के इतिहास पर विचार कर लेना चाहिए | ऐतरेय ब्राह्मण-ऐतरेय ब्राह्मण मे चालीस श्रध्याय हैं। इस ब्राह्मण मे कुरुवश के राजा परीक्षित-पुत्र जनमेजय के उल्लेख के साथ-साथ उसके पूर्वजों का भी उल्लेख किया है। डॉ काशीप्रसाद जायसवल ने इस ब्राह्मण-प्रन्य का समण ६ *गृगा06३णापयल्वा (00९फडा5ड एएटतुपब्ो।रत वा वतताब 07 फ्याव्रएड था; जोटाल ०४७ 0 06 श0०70 " -ीव्मो 2 दादा 2 शत्पथ ब्राह्मण 4/3/4/3 बेदिक साहित्य 55 एक हजार ई पू के लगभग स्वीकारा है। यह ब्राह्मण पज्ञ-विधान की शिक्षाओ्रो के साथ-साथ ऐतिहासिक, भौगोलिक तथा धन्य क्षेत्रीय ज्ञान-विज्ञान से भी जुदा हुआ है । 'ऐत्तरेय ब्राह्मस' को कुछ लोग 'इतरा' नामक शूद्र के गरमें से उत्पन्न महोंदास नामक ब्रह्मवेत्ता की रचना मानते है| व्याकरण के आधार पर यदि “इतरा” शब्द मे अ्रपत्मवाचक ढक्‌ प्रत्यय सयुक्त किया जाए तो 'ऐतरेय' शब्द हो निष्पन्न होगा । फोषोतिकी ब्राह्मत--ऋग्वेद-सहिता का दूसरा ब्राह्मण शॉसायन या कौपीदिकी ही है । कुषीत ऋषि के पुत्र कौपषीतक उल्लेख्य प्रन्ध के द्रष्टा या उपदेष्टा स्वीकारे गए हैं । इस ब्राह्मण मे 30 श्रध्याय हैं । प्रस्तुत ब्राह्मण की भाषा-वेशानिक समीक्षा करने से पता चनता है कि यह ब्राह्मण एक ही लेखक की रचना है । इस भ्हाण मे अनेक पौराणिक भ्राख्यान है । इसमे यज्ञ-विंधान की चर्चा के साथ-साथ विभिन्न सामाजिक विज्ञानों को विंलक्षण पुंढें भो दिलाई पडता है । प्रस्तुत ब्राह्मरा की विपय-प्रतिपादन की क्षमता भी उल्लेखनीय है । यजुर्वेद के दाह्मण--यजुर्वेद-सहिता के दो भाग हैं--कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल गजूबेंद | इन दोनों सहिताझो का एक-एक ब्राह्मण है तैत्तिरीय ब्राह्मण तथा शतपथ भ्राह्मण । दोनों के ऐतिहासिक स्वरूप निम्न हैं-- तेत्तिरोय ब्राह्मस--प्रस्तुत श्राह्मए के तीन भाग है, जो 25 प्रषाउक तथा 308 अनुवादको मे विमक्त है। तैत्तिरीय ब्राह्मण मे मनुष्य-बलि-पअ्र्थात्‌ पुरुष-मेघर का भी वर्णन किया गया है। घ्॒मे की दृष्टि से मनुष्य की बलि देता प्रनुचित है, इसलिए थेद के मर्मज्ञो को उक्त घामिक रूढि का परिहार करने के लिए श्रनुमन्धान करना पड़ा। शत्तपथ ब्राह्मण में भ्रन्न को गौ या गाय का पर्याय कहा है। 'अश्वमेध' को राष्टट का वाचक मानता गया है। 'अग्नि' को 'अश्व' ताम से भी पुकारा है। , भेजय, भ्र्थात्‌ घृत्त के रुप भे 'भेघ' शब्द को रखा गया, यथा-- हट प्रन्न हि भा । ““शतपथ ब्राह्मण 4/3/25 है राष्ट्र वा भ्रश्वभेध । बही 3//6/3 अग्निर्वा भ्रश्व । आज्य मेध । वही 4/3//25 / प्रत 'गोमेघ' का भथे अग्नि मरे प्र्न की भ्राहुति देना है, 'अश्वमेघ' का शर्थ॑ राष्ट्रीय उन्नति से है, 'नृमेघ” का भ्रथ॑ मानवीय उद्चति है । 'त्‌'-भर्थात्‌ मानव का घ॒त कमंपरायणता या मानवता है तथा 'यज्ञ' श्रम या कर्म का ही वाचक है/ झत " वाह्मण प्रन्यो मे जहाँ कही भी विभिन्न मेधो की चर्चा हुई है, वहाँ हमे उसे सात्विक केत्र में ही ग्रहण करना चाहिए । तैत्तिरीय ब्राह्मण मे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा भूद्व नामक चार दर्णों के कांप विभाग का सुव्यवस्थित उल्लेख है। ब्रह्मचयें, य्ृहस्थ, वानअस्प तथा सन्यास नामक चार पश्राश्ममो की चर्चा भी चक्त ब्राह्मण का प्रतिपाथ है कण शत्तपथ ब्राह्मण--शतपथ ब्राह्मण मे सौ भ्नध्याव है । इसको 4 काण्डो मे विभक्त किया गया है । इस द्वाह्मण का सम्दन्ध शुक्त्र यजूबेंद से है। ब्राह्मण-प्न्धो मे 56 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्क्ृतिक इतिहास सर्वाधिक प्रसिद्ध गन्थ 'गतपथ” ही है। इसके प्रमुख रचयिता मह॒षि शॉडिल्य माने जाते हैं | शॉडिल्व ने आध्यात्म-क्षेत्र मे 'शॉडिल्य विद्या' की खोज की थी । आजकल 'शॉडिल्य' ब्राह्मण जाति का एक गोत्र मी है। विवेच्य ब्राह्मण मे श्री रामचन्द्र की कथा, कद्गू-वनिता के संघर्ष की गाया, पुरुरवा-उर्वशी का प्रेमारयान तथा अश्वनी कुमारों की कथा दशनीय है । प्रस्तुत ब्राह्मण का रचना-काल 2500 ई पू स्वीकार किया गया है। यह ब्राह्मण ताकिक और मनोव॑ज्ञानिक विवेचन के लिए विरयात है । इसका आधार लेकर सम्झत साहित्य की विभिन्न साहित्यिक विधाएँ विकसित हुईं है । वस्तुत इसे साहित्यकारों का महान्‌ प्रेरणा-त्नोत कहना पूर्णत उपयुक्त जान पडता है । सानवेद के बाह्यण--सामवेद की तीन शाखाएं--कौथुमीय, जैमिनीय तथा रामायणीय है। पहली दो शाखाझ्नों के ब्राह्मण-ग्रन्थ उपलब्ध है| रामायणीय सहिता का कोई ब्राह्मण प्राप्त नही हुआ है । कौथुसीय सहिता के ब्राह्मण--कौथुमीय सहिता के पाँच ब्राह्मण प्रसिद्ध हैं- पचविश या ताण्डय, पड़विश, प्रदूमुत, मन्त्र तथा छान्‍्दोग्य | इन ब्राह्मणों मे 'पत्षवविश' ब्राह्मण का ऐतिहासिक महत्त्व है। इस ब्राह्मण मे अनेक पौराणिक या सामाजिक कथानक भरे पडे है। यदि पूरा ब्राह्मण-ग्रस्थ श्राज प्रामाणिक रूप मे प्राप्त होता तो कथा-साहित्य की प्राजीनतम परम्परा की खोज कर ली जाती । इसी प्रकार से 'पडविश' ब्राह्मण भी भ्रपना ऐतिहासिक महत्त्व रखता है । 'छान्दोग्य ब्राह्मण का एक भ्रश 'छान्दोग्योपनिषद्‌! के रूप में प्राप्त होता है | ज॑मिनीय सहिता के ब्राह्मण--जैमिनीय सहिता के दो ब्राह्मण प्रसिद्ध है- जैमिनीय ब्राह्मण तथा जैमिनीय उपनिद्‌ ब्राह्मण ।| जैमिनीय ब्राह्मण में यज्ञ का जो रूप विकसित हुआ है, उसे महपि जेमिनीकृत_'मीमाँसा” दर्शन का प्रेरणा-त्रोत कहा जा सकता है । प्रस्तुत ब्राह्मरा का ऐतिहासिक महत्त्व भी पक्षुण्णा है । इस ब्राह्मण को 'भारपेय ब्राह्मण” के नाम से भी जाना जाता है। जैमिनीय उपनिषद्‌ ब्राह्मण मे यज्ञ और आध्येत्मि का सुन्दर समन्वय है । प्रथवंवेद का गोपय ब्राह्मण--20 काण्डो मे सयुक्त भ्रथर्ववेद सहिता का एकमात्र ब्लाह्मण गोपय' है | यह ब्राह्मतर दो काण्ड और ग्यारह अष्यायों में विभक्त है। इसके प्रथम काण्ड मे पाँच तथा द्वितीय काण्ड मे छ श्रध्याय हैं । 'गोपथ' ब्राह्मण-ग्रन्थ होने पर भी एक वेदाल्तिक ग्रल्थ माना जाता है । इस ब्राह्मण में आध्यात्म-विद्या का क्रबद्व विवेचन किया गया है। 'गो' एक श्लिष्ट शब्द है, जिसका इन्द्रिय, गाय और चेतना के रूप मे प्र्थ लिया जाता है या लिया जा सकता है । ब्राह्मण प्रन्थो का विवेषज्य विषय ब्राह्मस॒-ग्रन्थ सनातन धर्म के प्रतिपादक है । सनातन धर्म मूल धर्म का ही दूसरा नाम है | भ्राजकल जिसे हिन्दू धर्म या वैदिक धर्म नाम से जाना जाता है,वह सनातन धर्म या मानव धर्म ही है। ब्ाह्मण-प्रन्थो का प्रतिपाद्य मिम्त रूप मे है-- विधि-भाग, भर्थवाद, उपनिषदु-तत्त्व तथा आड्यान-चर्चा । वेदिक साहित्य 57 दिधि-भाग--यज्ञ को सम्पादित करने की विधियों का वर्णेन विधि-भाग' का मूल विपय है। कर्मेकाण्ड की आवश्यकता भौर उपयोगिता का सुन्दर विवेचन विधि-भाग भे किया गया है। यज्ञों वे श्रेष्ठनम कर्म अर्यात्‌ यज्ञ करना हमारा महानतम कम है, इस नारे का उद्घोष विधि-भाग का प्राण है। अनेक प्रकार से यजश-रचना का विधान मानव के विभिन्न हितो को ध्यान मे रखकर ही फ़िया गया है । इसके साथ-साथ वेद मनत्रो का विश्लेषण करना या व्याख्या करना तथा शब्दो की व्युत्तत्ति करना भी ब्राह्मणों के विधि-भाग का मूल विपय है। इसे निग्न उदाहरण के माध्यम से सूचित किया जा सकता है-- अग्निर्वा भ्रश्व । शभ्राज्य मेघ ।॥। --शतपथ प्राह्मण भ्र्थवाद--करणीय कार्यों की प्रशसा करना तथा व्याज्य कार्यों की निन्‍्दा करना 'प्र॒थंवाद' कहलाता 'है विहितकायें प्ररोचना निपिद्धकार्य निवर्तना भर्थवाद । भरत ब्राह्मण -प्रल्थो के 'अर्थवग्द” भाग मे यज्ञों के सम्पादन की मूरि-मूरि प्रशसा की गई | एक ब्राह्मण के लिए प्रध्ययन-प्रष्यापन, यजन-याजन, दान-प्रतिदान जैसे कार्य करणीय हैं। एक क्षत्रिय के लिए समाज-सुरक्षा तथा राष्ट्र-रक्षा का काय करणीय है । एक वेश्य के लिए कुपि, दुग्ध-व्यवसाय तथा व्यापार जैसे का्ये करणीय है। एक शूद्र व्यक्ति के लिए अन्य वर्णों की सेवा हो करणीय है | इसी तरह से आ्राश्रम- व्यवस्था की'करणीयता पर भी सुन्दर प्रकाश डाला गया है । उपनिषद्‌ तत्त्त--ब्रह्मविद्या का नाम उपनिपद्‌ है। उपनिपद्‌-भाग मे विद्या- भ्रविद्या, ईश्वर-जीव, माया-जगत्‌ जेसे रहस्यपूर्ण तस्‍्बो के सन्दर्भ मे विचार किया गया है । हमे यहाँ यह याद रखना चाहिए कि ब्राह्मण-प्रन्थों का उपनिपद्‌ भाग उपनिषदो जेसी गहराइयो से परिपूर्ण नही है । मनुष्य को जरा-मरण की व्याधि से मुक्त करने का विधान भी उपनिषद्‌-भाग मे दृप्टब्य है-- पुनभृ त्यू मुच्यते य एवमेतामग्निहोत्रे मृत्योइतिमुक्ति वेद । --शत्तपथ 2/3/3/9 झावयान-घर्चा--आह्मण-प्रत्थो मे फूसी (प्रयाग के निकट) के राजा पुएरवा का उवंशी के प्रति प्रटूट भनुराग्र से युक्त प्रार्यान दर्शनीय है। सर्पेषश की झ्ादि साता कंद्रू तथ। गदंडबश की आझ्ादि साता सुवर्ण या वनिता के बीच राजसत्ता को लेकर सघर्ण हुआ, उसके सकेत क्राह्मण-प्रन्थो मे मिलते हैं । राम तथा भ्रश्विनी चुमारो की कथाएँ भी इन प्रस्यो मे मिलती हैं। राजवशो की कथाप्नो के प्रतिरिक्त ऋषि-वशो की कथाएँ भी ब्राह्मणों मे पढ़ो जा सकती है। रेक्व ऋषि का प्रारुपान छान्दोग्य ब्राह्मण मे पठनीय है । ॥॒ उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्राह्मण-प्रन्थो मे सनातन धर्म का जो स्वरूप व्यक्त किया है, उसके झाधार पर ब्राह्मण-प्रन्यो को यदि घम्म ग्रन्थ या धमशास्त्र कहा जाए तो कोई झतिशयोक्ति न होगी । ब्राह्मस प्रन्थो का नहत्त्व पुरन्त पर्चात्‌ ब्राह्मण-य्रन्यो कौ रचना प्रारम्भ हुई। श्ानता से परिपूर्ण रही। परन्तु उनमे विशेषत मन्‍्त्रो की सह्दिता काल के सहिताएँ यज्ञ की ज्रघान 58 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास प्रधानता होने से यज्ञ-सम्पादत जन-समाज के लिए दुर्बोष्य ही बना रहा। ग्रत यज्ञ के रहस्य के साथ-साथ अन्य रहस्थो को प्रकट करने मे ब्राह्मण-ग्रन्थों का महत्त्व अनेको रूपो में देखा जा सकता है--यज्ञ-सम्पादन का विवेचन, 2 ग्ृहस्थ-प्राश्नम की सीमाझो का निर्धारण, 3 वर्ण-व्णवस्था की वैज्ञानिक विवेचना, 4 राष्ट्र धर्म का प्रतिपादन, 5 दार्शनिक अनुचिन्तन का विकास तथा 6 ऐतिहासिक घटनाओं का स्पष्टीकरण । ! यज्ञ-सम्पादन का विवेचन---अ्राह्मण-प्रत्यो मे यज्ञ को ईश्वर का स्वरूप माना गया है| ब्राह्मणो का भ्रथंवाद यज्ञ के विभिन्न रूपो को स्पष्ट करने वाला है । किस प्रकार का यज्ञ सम्पादित करने से किस काल की प्राप्ति होती है, इस रहस्य को प्रकट करना भी ब्राह्मए-ग्रन्यो का ही काये रहा है। यज्ञ से सम्बद्ध मन्‍त्रों के शुद्ध पाठ से भाषागत स्तर निर्धारित होता है तथा यज्ञ करने से अनेक प्रकार के दु खो का निवारण होता है | ब्राह्मणो मे प्राय सभी दु खो का निदान यज्ञ सम्पादन में ही खोजा गया है। प्राय समस्त्र ससार शारीरिक तथा मानसिक रोगो का शिकार बना रहता है | इन रोगों के निदान के लिए घर के वातावरण को पवित्र बनाने के लिए यज्ञ-सम्पादन होना चाहिए । मृत्यु को जीतने के लिए मृत्युन्जय मन्त्र के माध्यम से यज्ञ होना चाहिए । मृत्युन्जय मन्त्र! का महत्त्व प्रतिपादित करके ससार- सागर मे डूबे हुए व्यक्तियों को एक त्राण-सबल देना ब्राह्मण ग्रत्यों के महत्त्व का एक सुस्पष्ट परिचायक बिन्दु है । 2 गृहस्थ-झ्ाश्रम की सीमाश्रो का निर्घारख-ब्राह्मण॒-प्रन्थो मे गहस्थ झाश्रम को समाज का मूल आधार सिद्ध किया है इसीलिए गहस्थ झाश्रम के समस्त विधि-विद्वानो को स्पष्ट करके ग़ृहस्थ जीवन को सरम झौर पविन्न बनाने का कार्ये ब्राह्मण-ग्रन्यो ने किया । तैत्ति रीय ब्राह्मण मे चारो भ्राश्नमो का सम्बन्ध सृहस्य झाश्रम से जोडकर गृहस्थ श्राश्मम की महिमा को स्पष्टत प्रतिपादित कर दिया है इसीलिए ब्राह्मस-प्रन्यो के युग मे ही ग्रृहस्थ आश्रम को सर्वेश्रेष्ठ श्राश्षमस मानने की परम्परा विकसित हो गई । वस्तुत ब्राह्मण-पग्रन्यो ने जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण को सबल बनाने मे जो भूमिका प्रस्तुत की है, उसका आधार ग्रृहस्थ आश्रम के विस्तृत विवेचन को ही माना जा सकता है। शतपथ ब्राह्मण मे झुहस्थ आश्रम का सविस्तार उल्लेख हुआ है | ग्नहस्थियो में ईमानदारी से कार्य करने की प्रद्धत्ति का विकास करने मे ब्राह्मणों का जो योगदान रहा, उसे कदापि नही भुलाया जा सकता । 3, वर्स-ब्यवत्था का वैज्ञानिक विवेचन--ब्राह्मणा, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र नामक चारो वर्णो की वैज्ञानिक रूप मे स्थापना का श्रेय ब्राह्मणों को ही है। सहिता ] “हपम्बक यजामहे सुगग्धि पुष्टिवर्धनम्‌ । उर्वादकमिण वच्धतान्मृत्योम्‌ क्षीय माब्मुतात्‌ ।।'--ऋखेद, 7/59/2 बैदिक साहित्य 59 काल भे चारो वर्णों की व्यवस्था का मनोवैज्ञानिक मकेत कर दिया था !? परन्तु ब्राह्मण प्रस्थों मे ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा शुूद्रों के स्वभाव एवं कार्यों को वैज्ञानिक रूप देकर समाज को व्यवस्थित कर दिया गया।/शत्तपथ् ब्राह्मण में बण॑ व्यवस्था का इतना विशद विवेचन किया गया कि धर्मशास्त्र का भूल तत्त्व ब्राह्मण ग्रत्थों में ही पर्याप्त विकास को प्राप्त हो चुका था-यदि यह कहा जाय तो को+े भत्युक्ति न होगी । वर्ण-व्यवस्था को प्रकृति या स्वभाव से जोडकर सामाजिक मतोष का यक्तिसंगत कार्य भी प्रशस्त कर दिया गया। वर्ण-व्यवस्था का ऐसा वेशानिक विवेचन प्रन्यन्न दुर्लभ है । 4 राष्ट्रधर्स का प्रतिपादल--राप्ट्रीय उन्नति के लिए ब्राह्मण-प्न्धों में राष्ट्र घ॒र्मे का प्रतिपादन किया गया। शतपथ ब्राह्मण में भ्रश्वमेप् के रूप में राष्ट्र को एक सूत्र में बाँचने का सफर प्रयाम दृष्टिगोचर होता है। भव को राष्ट्र का स्वरूप सानकर राष्ट्रीय उन्नति के लिए यज्ञ सम्पादित करने पर बल दिया गया । राष्ट्रीयता की भावना का विकास करने का श्रेष ब्राह्मण-प्रन्यो को ही है | 'ज्ञो वे श्रेष्ठतम कर्म! कहकर थज्ञ की सार्वभौभिकता प्रतिपादित करके समस्त राष्ट्र को कर्म-सन्दर्भ से एक ही दिशा बोध दिया गया। 'प्रौढ ब्राह्मण! भे समाजशास्त्र की सामग्री प्रस्तुत करके समाज को एक राष्ट्र के रूप में बद्ध करके राष्ट्रधर्म का प्रतिपादन किया गया है। 5 दाशेनिक प्रनुचि्तन का विकास--ब्राह्मण-प्रन्‍्यो मे उपनिषद्‌ तत्त्व की भी चर्चा हुई ( सामवेद सहिता के गोपथ ब्राह्मण में वेदान्त तत्त्व का सुन्दर लिदशेन - है। ऐतरेय ब्राह्मण मे सृष्टि के रहस्पो को विशदतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है । झौपनिषदिक तत्त्वों के विवेचन से सृष्टि के निर्माण को लेकर मानव की जिज्ञासा का परितोष करने का सुन्दर प्रयात करके उपसिषदों तथा भ्रन्य दाशतिक साहित्य के लिए मार्ग स्पष्ठ कर दिया गया है । वैदिक साहित्य का उपनिपद्‌ भाग सूष्टि- रचना, इंश्वर का स्वरूप, जीवात्मा का स्वरूप, मोक्ष का स्वरूप, पुनर्जन्म, जरा- मरण जैसे प्रसगो को लेकर ब्राह्मण-प्रन्यों का ऋणी रहा है। शतपथ ब्राह्मण मे सृष्टि-रचना के रहस्पो का जो वर्णन हुप्रा है, उससे यह सिद्ध हो जाता है कि ब्राह्मण॒-प्रन्थो से ही दाशनिक भ्नुचित्तन का विकास हो चला था ॥ 6 ऐतिहासिक घटनाप्नो का स्पष्डीकरणा--सहितान्ो मे अनेक राजाप्रों ऋषियों तथा देवताओं के सकेत मात्र ही निहित थे परन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों में उन सकेतो को ऐतिहासिक स्वरूप प्रदान करने का सर्वप्रथम प्रयास हुआ है। वेदों मे कट्रू-वनिता, पुदुरवा-उवेशी आदि के जो सकेत पहेली बने हुए थे, उन्हीं को शतपथ ब्राह्मण ने विस्तृत रूप देकर पुराणों के लिए एक विशिष्ट मार्ग खोल दिया । अतएव ब्राह्मण में कुर वश का इतिहास विस्तृत रूप मे पाया जाता है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि महाभारत के अणयन मे विभिन्न कवियों को ऐतरेय द्राह्मण से भनेक ३ ऋगेद, 0/90|2 60 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास प्रेरणाएँ होती रही होगी । पुराणों मे कद्र्‌ तथा बनिता के बीच होने वाले सधर्ष को सौतिया डाह की परम्परा का मूल ग्रावार ही सिद्ध कर दिया। ब्राह्मण ग्रन्थों के पुरुवा तथा उवशी के आदुयान को लेकर चौथी शताब्दी मे कालिदास ने 'विक्रमो- बेशीयम्‌” नामफ सुप्रसिद्ध नाठक की रचना की ब्राह्मण ग्रन्थों मे इन्द्र देवता के स्वरूप को श्रत्यघिक विस्तार दिया गया है जिसका लेशमात्र प्रभाव महाभारत तथा पुराणों पर भ्रवश्य पडा है । पुराणों मे चल्द्रवश, सूयंवश तथा देव एवं दानव वशों की जो सूची दी हुई है, उसफ़े ऊपर भी ब्राह्मण ग्रन्थों का प्रभाव परिलक्षित होता है । ऐतरेय ब्राह्मण मे चन्द्रवश राजाश्ों का अषरयानात्मक वर्णन किया गया है। ब्राह्मण साहित्य का प्रभाव सस्कृत के ही ग्रन्यो पर न होकर श्रन्य भाषाओ्रों के भी ग्रन्थों पर देखा जा सकता है। हिन्दी के महान्‌ कवि जयशकर प्रसाद ने 'कामायनी” की भुमिका मे मनु, इडा तथा श्रद्धा के सम्बन्धों की प्रामाणिकता के लिए शतपय ब्राह्मण को उद्घृत किया है । कामायनी के कथानक पर भी ब्राह्मण साहित्य के झ्राख्यानो का प्रभाव है। निष्फर्पत ब्राह्मण-साहित्य ने पुराण, इतिहास तथा काव्य के विकास के लिए कथानकीय सामग्री प्रस्तुत की, यही मानना युक्तिमगत है ब्राह्मण-साहित्य का घर्मेशास्‍्त्र के ऊपर भी अत्यधिक प्रभाव पडा है। धर्मे- शास्त्र के प्रसिद्ध लेखक पी बी काणे ने ब्राह्मण ग्रन्थों को पधम्मशासस्‍्त्र के अन्तगंत ही गिना है। ब्राह्मण-साहित्य से प्रेरणा लेकर सूत्र ग्रन्थो ने यज्वाद को चरम महत्त्व दे डाला । घमंशास्त्र से सम्बद समस्त स्मृति-प्रन्थयो पर ब्राह्मण-साहित्य का व्यापक प्रभाव है । वेदी के स्वरूप को जानने मे ब्राह्मण-प्रन्यों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । बेदो मे ईएवर को ही चतुव॑र्ण रूप कह दिया गया था । किक्‍्तु ब्राह्मण ग्रन्थों ने इस रहस्य को स्पष्ट करते हुए यहाँ तक कह डाला कि यह समाज ही चार वर्णो वाला है। भरत ईश्वर को समाज के रूप मे देखकर जो बात कही थी, उसी को ब्राह्मणो में दाश्शनिक पहलू का रूप न देकर समाजशास्त्रीय रूप प्रदान करके बेद-तत्त्व को स्पष्ट किया गया। वंदिक साहित्य के मर्मज्ञ ब्राह्मणो के आरयान भाग के आधार पर इस निष्फर्ष पर सहजनया पहुँच चुके हैं कि वेदो मे किसी अज्ञात शक्ति को चित्रित करने के साथ-साथ उससे सामाजिक श्रथवा ऐतिहासिक घटनाप्नों को भी जोडा गया है । वेदो की रूपक-शैली का निर्धारण करते समय ब्राह्मण-साहित्य को ही मूल आधार बनाया गया है| ब्राह्मण-साहित्य मे सरल भाषा तथा स्पष्ट शैली का प्रयोग होने से वेद-रहस्य को जतोपयोगी बना दिया गया है यदि ब्राह्मणों को जन-प्रन्थ कह दिया जाएं त्तो कोई अत्युक्ति न होगी । विद्वानों ने ब्राह्मण साहित्य को घर्मशास्त्र तक कहा है । यदि ब्राह्मण ग्रन्थों को वैज्ञानिक ब्राह्मण धर्म का आधार कहा जाय या वैदिक घर्म कहा जाए तो सभवत किसी बेदिक साहित्य के मर्मज्ञ को कोई प्रग्पत्ति न होगी । झआारण्यक ग्रन्थ (47909१:95 ) बन को सूचित करने वाले '“अरण्य' शब्द मे 'कुड्म' प्रत्यय के योग से 'अरणष्यक बंदिक साहित्य 6] शब्द बना है । प्राचीत काल में भारतवप में कुछ तपोभूमियाँ थी, जिनमे नैमिपारण्य तथा दण्डकारण्प विशेषन प्रसिद्ध हैं। हरिद्वार का निकट्वर्ती कुन्जर वन भी बीरो के मृगया-मनोरजन का क्षेत्र होने के साथ-साथ तपस्वियों की तपरोभूमि रहा है पुराणों भे 'हरिद्वार' शब्द के स्थान पर 'हरद्वार' शब्द का प्रयोग किया गया है। कभी हरद्वार मे योगीराज शकर का ग्रुरुकुल रहा होगा, जहाँ शस्त्र-शास्त्र की विद्या का केन्द्र रहा होगा | ऋग्वेद के रद्र-सूक्त मे शकर को प्रह्वितीय यौद्धार, नित्य युवक, भिपयाचार्ये तया ज्ञानमार्गी मिद्ध क्रिया गया है । नैमिपारण्य आधुनिए पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उत्तरी पश्चिमी बिहार का ही भाग है, जहाँ सीताजी के पिता सीरध्वज जनक के गुरु गौतमजी का गुरुकुल विद्या के केन्द्र के रुप मे प्रसिद्ध रहा था | महपि गौतम न्याय दर्शन के प्रणेता के रुप में भी प्रसिद्ध है। दण्डकारण्य मे अत्रि, भगस्त्य, सुतीक्षण तथा शरभग जैसे झआचाय॑ एवं तपस्वियो के झ्राश्रम रहे हैं । वस्तुत्त ऐसे ही ऋषियो के प्राश्नमो मे झरण्यक-प्रन्थो की रचना हुई । ऐसी वनस्थलियों मे समाज- सेवी वानप्रस्थियो के लिए जितने भी विघान-नियम निमित किए गए, उन सबका सग्रह भ्ारण्यक-प्रन्थो के रूप मरे जाना जाता है। सम्भवत्त वैदिक काल में ऐसे तपस्वियो को भरण्यवासी या वतवासी ही कहा जाता होगा । महाकवि कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तल' मे एक प्रसग यह है कि जब महथि कण्व झपत्री पालिता पुनी शकुन्तला को राजा दुष्यन्त के साथ परिणीत करके विदा करने को उद्यत थे, तो उनकी दृष्टि जडीभूत हो गई, उनके नेत्रो से श्रश्रुओ की धारा प्रवाहित होने लगी श्रौर उनका कण्ठ गदगद्‌ हो गया । जब महंदि कण्व ने भाव-विभोर स्थिति पर विचार किया तो वे इसी निष्कर्प पर पहुँचे कि जब एक वनवासी की यह स्थिति कन्या-वियोग की बेला से सम्भव है तो मोह के बन्धन मे बचे बेचारे गृहस्थी कन्या वियोग के भसह्ाय दुख को किस प्रकार सहन करते होगे-- स्नेहादरण्पौकस ! पीड्यन्ते गृहिण कथ नु कन्याविश्लेषण दुखेनवे ॥!” भ्रत जिन ग्रन्थों को वनो मे रचा गया तथा बनभागो के गुरुकुलो मे जिनका पढा-पाठन भी विकसित हुआ, उन्ही प्रन्यों को आज 'झारण्यक' नाम से अभिहित किया जाता है| सायशाचार्य ने भी आरण्पक-प्रल्थो के नामकरण के विपय मे इसी तेथ्य को पृष्ट किया है--अरण्य एवं पाठयत्वादारण्यकमितीयते ।? भार्यक का वर्गककिरण / // #7 कहा जाता है कि जितनी वंदिक सहिताएँ प्रचलित रही, उतने ही ब्राह्मण तथा आरण्यक भी प्रसिद्ध एवं प्रचलित रहे परन्तु सम्प्रति गिने-चुने श्रारण्यक ही उपलब्ध है। वेद-सहिताशो के श्राधार पर आरण्पको का वर्गीकरण अग्रादित रूप मे किया जा सकता है-- १ ऋग्वेद 2/33/0 2 बही 2|33/], 3 बउही 2|33|4, 4 बह 2334-00 62 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास ऋणष्वेद के भ्रारण्यक--ऋगेद के दो भझ्रारण्यक प्रचलित है-ऐतरेय तथा कौपीतिकी । उनके नामकरण की चर्चा ब्राह्मरा ग्रन्यों के प्रसग मे की जा चुकी है । ऐतरेय श्रारण्यक से बानप्रस्थियो के कार्यों के विवेचन के साथ-साथ सुष्टि-रचना की गूढता का भी स्पर्श किया गया है । कौपीतिकी आरण्यक विषय-प्रतिपादन की माभिफता के साथ-साथ वनवासियों के कृत्यों को भी सहजता के साथ व्यक्त करने वाला है | ऐतरेय प्रारण्यक महीदास क्री शिष्य-परम्परा में कौपीतिकी आरण्यक्त महपि कुपीतक की शिष्य परम्परा मे विकसित हुझा । यजुर्वेद के भ्रारण्पक--कृष्ण यजूवंद का भ्ारण्यक 'तैत्तिरीय” हैं तथा शुक्ल यजुर्वेद का श्रारण्यक 'शतपथ' है । इनके नामकरण की चर्चा सहिता तथा ब्राह्मण प्रन्‍्थो के प्रसंग मे की जा चुकी है। यजुर्वेद सहिता का वुहृदारण्यक ग्रन्थ अपना लग ही महत्त्य रखता है । इस प्रारण्यक का सम्बन्ध शुक्ल यजुर्वेद से है। यह भ्रारण्यक वृहदारण्यकोपनिपद्‌' के रूप मे भी प्रचलित है । इस आ्रारण्यक प्रथवा उपनिषद्‌ मे आध्यात्मिक रहस्यो का मनोव॑ज्ञानिक चित्र भी दिखलाई पडता है ! इस प्रारण्पक का एक सुमधुर प्रसग है कि एक वार महर्पि याज्ञवल्क्य ने भ्रपनी दोनो पत्नियों के सम्मुत्त अपने सन्‍्यासी होने की चर्चा की | उन्होने मेत्रेयी तथा कात्यायनी नामक दोनो घमंदेवियों के सम्मुख झ्रपनी सम्पत्ति के बंटवारे का प्रस्ताव भी रखा । कात्यायनी ने भहि के प्रस्ताव का भ्नुमोदन किया, परन्तु मंत्रेयी ने इडहइलौकिक धन की क्षरिगकता का प्रसग उठाकर महपिजी से पारलौकिक घन प्राप्त करने को इच्छा व्यक्त की । तब मह॒पि याज्ववल्लक्य ने मैत्रेयी को सन्तुष्ठ करने के लिए ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया | उस उपदेश का एक अश यहाँ उद्घृत है- “सा होवाच मैत्रेयी येनाह नामृता स्था किमह तेन कुर्याम्‌, यदेव भगवान्‌ वेद तेदव मे ब्रू हीति। स होवाच यार्गवलक्य । तवा झरे पत्पु कामाय पति प्रियों भवति, आात्मनस्तु कामाय पति प्रियों भचति ।न वा भरे जायाये कामाय जाया प्रिया भवत्ति, झात्मनस्तु कामाय जाया प्रिया भवति । न वा भरे पुत्राणा कामाय पुत्रा प्रिया भवन्ति, आत्मनस्तु कामाय प्रुत्रा प्रिया भवन्ति । न वा अरे वित्तस्थ कामाय वित्त प्रिय भवति, ग्रात्मनस्तु कामाय वित्त प्रिय भवति । न वा भरे ब्राह्मण कामाय ब्रह्म प्रिय भवति, श्ात्मनस्तु कामाय ब्रह्म प्रिय भवति । न वा भरे क्षत्रस्थ कामाय क्षत्र प्रिय भवति, झात्मनस्तु कामाय पुत्रा भवति । न वा भरे लोकाना कामाय लोका प्रिया मवन्ति, प्रात्मतस्तु कामाय लोका प्रिया भवन्ति | ते वा भरे देवाना कामाय देवा प्रिया मवन्ति, प्रोत्मसस्तु कामाय देवा प्रिया भवन्ति, न वा धरे भूताना कामाय भू ४4४ प्रियारि भवन्ति, प्रात्मनस्तु क्रामाय भूतानि प्रियारि। भवन्ति | नवा भरे संबंस्थ कामाय सब प्रिय भर्वाति, प्रात्मनस्तु कामाय सर्वे प्रिय भवति | भ्रात्मा व शरे द्रष्टव्य श्रोतव्यो, मनतव्यो, निदिष्यासितव्यो मैत्रेणि ! झात्मतों वा झरे दर्शनेन, अवणोेन, मत्या विज्ञानेनेद सर्वे विवितम्‌ ।” वैदिक साहित्य 63 भरत प्रात्महित ही सर्वस्व है। वस्तुत उक्त विवेचन की मनोदनिकृता सत्यानुभूति का साक्षात्‌ निरदर्शन है । ऊमदेद के शऋर(र्यक--सामवेद के दो आारण्यक है-जेमिनीयोपनिपदारण्पक तथा दान्दोग्यारण्यक | इन दोनों ही आरण्यकों में बेदिऊकालीन राजवशों तथा ऋषिवशो के प्राधार पर आचार-सहिता का निर्माण किया गया है । दाह्दी-कही यथायता का स्पर्श करने वाली भ्राध्यात्मिक गहराइयो को भी बड़ी सजीवता के साथ स्पष्ट किया गया है | तिम्नलिधित उदाहरण से यह तथ्य और भी भ्रधिक स्पष्ट हो सकेगा -- झल्पे सुख नाहित । यत्र भूमा तत्र सुलभ ॥ “छान्दोग्य छात्दोग्यारण्यक कुछ हेर-ऊेर से छान्दोग्योपनिपद्‌ के रुप मे भी प्रस्तिद्ध है। झयर्वबेद का सम्भावित गोपय श्रारण्यक-प्रशर्वेवेद के गोपणथ' ब्राह्मण के आधार पर केवल यह कल्पना ही की गई है कि प्रथवंवेंद के 'गोपय' झ्रारण्यक का भी भ्रस्तित्त होता चाहिए। परन्तु, गोपथारण्यक के रूप में कोई भारण्यक प्राप्त नही होता । आरण्यको का वण्यें-विषय जिस प्रकार ब्राह्मण ग्रस्यों से धर्मशास्त्र को श्राधार बनाकर यृहस्थाश्रम तथा सामाजिक व्यवस्था्रो” के निरूपण को महत्व दिया गया है, उसी प्रकार झारण्यक प्रन्यों में वानप्रस्वाश्रम से सम्बद्ध कर्मकाण्ड कौ विशेष महत्त्व दिया गया है । सक्षेपत्‌ श्ारण्यकों में निम्नलिखित तत्वों को प्रतिपादित किया गया है- !] यज्ञ-कर्मों की विधियों का प्रतिपादन 2 महाक्षतों के स्वरूप का विवेचन 3 वामप्रस्थियो के विशिष्ट कृत्यो का वर्णन 4 ज्ञानमार्गीय तत्त्वों की विवेचना । भारण्यक ग्रन्थी के प्रामाणिक भसाष्य झारण्यक ग्न्यो के मूल एवं प्रमाण-स्वरूप भाष्यकार आचार्य सायण तथा शकराचार्य हुए हैं । शकराचार्य ने प्रदे तवाद की स्थापना के लिए भ्रारण्यको के---- ऐतरेय, कौपीतिकी तथा वृहृदारण्यक के भौपनिषदिक तत्त्वी का सुन्दर विवेचन किया है। भाचार्थ शकर के कुछ भाष्यो की टीकाएँ प्रघोलिखित विद्वानों ने की है- भ्रानन्‍्द ज्ञान, प्रानन्दगिरि, आतन्दतीय, अभिनव चारायण, नारायणेन्द्र सरस्वत्ती, नृततिहाचार्म तथा कृष्णदास, रामानुजाचार्ये /» विशिष्ठाह्॑तवाद की स्थापना के उद्देश्य से 'दृह्दारण्यक' का प्रामाशिक भाष्य लिखा। तैत्तिरीययारण्यक के ऊपर सायण, भास्कर मिश्र तथा वरदराज के प्रामाणिक भाष्य देते हैं । उपयु क्त समीक्षात्मक विवेचन से यह स्पष्ट हो ही जाता है कि आरण्पक पन्य सनातन धर्म के यथार्थ स्वरूप को प्रतिपादित करने मरे पूर्णत सहायक सिद्ध हुए है ।, इन ग्रन्थों की मुख्यत दो विशेषनाप्रो ने भारतीय सस्कृति को विश्व समाज के सम्मुख उजागर करने मे प्राशातीत यौगदान दिया है-भ्रथम विशेषता है-समाज- 64 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास सेवा रूपी यज्ञ तथा दूसरी विशेषता है-आध्यात्मिक निष्ठा | वस्तुत भारतवर्य के महापुरुषों ते धर्म प्रचार तथा चरित्र प्रदर्शन के क्षेत्र मे उक्त दोनो विशेषताशो को साकार करके मारतीय सस्कृति को दिव्य एवं प्रलौकिक रूप प्रदान किया है ! आरण्यको की उपयोगिता आरण्यक ग्रन्थों में विभिन्न पक्षो को नए भ्रर्थों में ग्रहण करके उन्हे समाज सेवा से सम्बद्ध कर दिया गया। आरण्यकों ने उपनिपदों की सुदुढ एवं परिष्क्ृत भूमिका वनाकर विश्व-दर्शन के सर्वोच्च साहित्य का मार्ग श्रनावृत किया । ब्राह्मण और प्रारण्यक ग्रन्थो मे भ्रन्तर सहिता-काल के पश्चातु वेद की चारों सहिताश्रो-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा प्रथवंबद के प्राधार ब्राह्मण ग्रन्थों का प्रणयन हुआ । कहा जाता है कि जितने ब्राह्मण ये, उतने ही आरण्पक ग्रन्थ रहे होगे, परन्तु भ्राज ब्राह्मण॒-ग्रन्थो के हिसाब से झारण्यक ग्रत्यों वी उपलब्धि नही हो सकी है | ब्रह्म या मन्त्र एवं यज्ञ को विस्तार देने वाले प्रन्यो को ब्राह्मण ग्रन्थ कहा गया तथा वानप्रस्थियो के कर्मों को विस्तार देने वाले ग्रत्थो को आरण्यक ग्रन्य के रूप मे जाना गया । विवेचत्त की दृष्टि से दोनों प्रकार के ग्रन्थों के भेद दर्शतीय है-- | रचना काल का भेद, 2 वण्यं-विषय का भेद तथा 3 महत्त्वगत भेद । 4 रचता-काल का सेद--न्राह्मरा-ग्रन्थ सहिता-ग्रल्थो के अ्नुवर्ती माने जाते है तथा आरण्यक ग्रन्थ ब्राह्मण ग्रन्थो के भ्रनुवर्ती रहे हैं । ब्राह्मण ग्रल्थों का रचना- काल 2500 ईसा पूर्व माना गया है तथा भारण्यक ग्रन्थों का रचना-काल 300 ईसा पूर्व से 2000 ईसा पूर्व तक हो चुका श, साधघारणत यह निष्कर्ष निकाला जाता है । ब्र,ह्मणो तथा उपनिपदों के रचना-काल के सन्दर्भ मे नेंदो के रचना-काल के प्रसग मे पर्याप्त विचार किया जा चुका है । 2. बण्यें-विषय का भेव--नश्राह्मणो की वस्तु-सामग्री के विवेचन के सन्दर्भ मे ब्राह्मणों के चारो भागो पर विचार किया गया है | 'विधिमाग” का सम्बन्ध शुभा- शुभ कार्यो की पहचान से रहा । “पर्थवाद” नामक भाग में बज्ञो की विधियों तथा उपयोग पर प्रकाश डाला गया । 'उपनिपद्‌' भाग मे सृष्टि के रहेस्‍थों को तथा अन्य तत्त्वो को प्रकाशित किया गया । “आ्राइ्यान' भाग का सम्बन्ध कंथात्मक सामग्री के माध्यम से उपदेश देता रहा | झारण्यक ग्रन्थों का निर्माण वनो में हुआ । वन मे ही उनका पठन-पराठन होने से उन्हे 'भारण्यक' कह दिया गया । भरारण्यको से वातपस्यियो को लक्ष्य करके बानप्रस्थाश्रम-षर्मे को प्रामाणिक रूप मे प्रस्तुत किया । जहाँ ब्राह्मण प्रत्थो ने गृहस्थ- घर्म का व्यापक रूप मे विवेचन किया, वहाँ प्रारण्यक ग्रन्थों ने वानश्रस्थ घर्मया प्राश्रम के स्वरूप को स्पष्ट किया । श्रारण्यको में उपनिपद' तत्त्व को भी ऐसा विस्तार दिया गया कि उपतिपदो की सुदृढ भूमिका आरण्यको ते ही निर्मित कर दी । खवहृदारण्यकोपनिपद्‌' श्रारण्यक भी है श्रौर उपनिषद्‌ भी | केवल इतना ही नही, अपितु ब्राह्मण ग्रल्थो के यज्ञादि विधानो को भी प्रारण्यको ने पर्याप्त महत्त्व दिया! चंदिक साहित्य 65 परत एक और प्रारण्यक ग्रन्थ ब्राह्मण ग्रभ्थो के विषय को समाहित करके साहित्य को परम्परा को भी विकसित करते रहे श्लौर दूसरी भ्रोर उन्होने प्रौपनिषदिक गहराइयो को प्रकट करके उपनिपदो के लिए एक सुदृढ भूमिका बना दी । 3 सहत््वगत सेद--द्राह्मणु ग्रन्थों के महत्त्व पर पीछे प्रकाश डाला जा चुका है। जहाँ ब्राह्मण-साहित्य, पुराण, इतिहास भौर काव्य को कथानकीय सामग्री देने का कार्य करता हुआ्ला ग्रहस्थ-चम का विवेचत करता रहा, वहाँ प्रारण्यक ग्रन्य उपनिषदो के विचारको के प्रेरणा-त्नोत बन कर वानप्रस्थ श्राश्रम का प्रामाणिक रूप देने मे जुटे रहे | भ्त महत्त्व की दृष्टि से भी दोनो प्रकार के साहित्य मे पर्याप्त झन्तर रहा है । ब्राहण तथा शारण्यक प्रन्थो के विपय में ब्राह्मण/ एव प्रारण्यक' नामक प्रध्यायों के सन्दर्भ मे पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका है, जिसका निर्देश निम्त रूप मे किया जा रहा है-- ) नामकरण का प्रन्तर 2. रचनाकाल का भन्तर 3 वण्यें-विषय का अन्तर (क) ब्राह्मणों का वण्यं-विपय-, विधिभाग, 2 भ्रथेवाद, 3 उपनिपद्‌ भाग तथा 4 आख्यान साग । (ख़) श्लारण्यकों का वण्यं-विपय-।« यज्ञ कर्मो की विधियों का प्रतिपादन, 2 महत्त्वों के स्वरूप का विवेचन, 3 वानप्रस्थियों के विशिष्ट छृत्यो का वर्णन तथा 4. ज्ञानमार्गीय तत्वों की विवेचना। लिष्कषं--आरण्यको ने वानप्रस्थ ग्राश्मम को प्रामाणिक रूप प्रदान किया तथा धर्मशास्त्र को अभावित किया । ब्राह्मण ग्रन्थों ने धर्मेशास्त्र को प्रभावित करने के साथ-साथ गृहस्थ घ॒र्में का विवेचन किया । प्रारण्यको में करमेंमागें तथा ज्ञान मारे का समन्वय किया गया है तथा ब्राह्मण ग्रन्थो मे सामाजिक व्यवस्था को वैज्ञानिक रूप प्रदान करने का प्रबल प्रयास किया गया है। प्रारण्यको के ज्ञानमार्गीय तत्त्व फुछ उपनिषदों की विवेच्य-वस्तु मे वणित हुए हैं अत यहाँ भ्रधिक प्रकाश झनपेक्षित होगा । उपनिषद्‌ (एएण5५६४085) उपनिपदो मे आध्यात्मक विद्या का चरमोत्कर्ण है । प्राघुनिक विदृत्समाज मे 'उपनिपद्‌' शब्द अग्रेजी के 'सेमीनार' शब्द का दाचक है| यथार्थत किसी सेमीनार मे कुछ विद्वानों के द्वारा कुछ प्रपत्नों को पढकर तथा विचार-विमर्श के माध्यम से निर्धारित विषय को स्पष्ट किया जाता है । ठीक इस तरह से औपनिषदिक भ्रन्थो का निर्माण भी विभिन्न विद्वानों के विचार-विमर्श का फल है श्रत इस सन्दर्भ या तथ्य को पृष्ट करने के लिए 'उपनिषद्‌” शब्द की व्युत्पत्ति को देख लेता प्रावश्यक है- ड 86 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉल्कृतिक इतिहास उप--नि-+सद- क्विप++उपनिषद्‌ वस्तुत 'सद” घातु का भ्रर्थ है 'बैठना' ओर जब 'सदु” घातु मे “नि” उपसर्ग को जोड दिया जाए तो उसका श्र है जाता है--पूर्णत बैठना या प्रयोजन-विशेष से बेठना । 'उप' उपसगंग का अर्थ है--समीप सा लचु । अत यहाँ 'उप' उपसर्म समीप झ्र्थ का ही वाचक है. इसलिए यह कहना ठीक है कि 'उपनिपद्‌'! सार के भी सार है । यह तो सब मानते ही है हि परस्पर विचार-विमर्श से जो निष्कर्ण सामने श्राते हैं, वे यथार्थता का प्रवश्यमेव स्पर्श करने है । हमे यहाँ यह याद रखना चाहिए कि जब ब्राह्मण ग्रन्थी के कर्मकाण्डो के प्रसार से जन-जीवन मे रूढियरो और कट्टूरताग्रो का प्रवल प्रचार-प्रसार होने लगा, तो वंदिक विद्वानों को समाज-सुधार की श्रावश्यकता प्रतीत हुई । तत्कालीन विद्वानों से यह रहस्प भी छिपा नहीं था कि किमी भी ग्रन्थ फो वेदो से जोडे बिना उसकी प्रामारिकता ही सदिग्ध हो जाएगी । श्रन मनीषियो ने ऐसे प्रयास किए कि वेदिक मन्‍त्रों को लेकर आध्यात्मिक तत्त्वो को स्पष्ट करना प्रारम्म कर दिया | यथार्थत मनीपियों के वही प्रयात्त उपनिपदो के रूप मे प्राप्त होते है । शकराचार्य ने बाहर उपनिषदों का भाष्य क्रिया है, अत प्रमुख्त उपनिषद्‌ बारह ही है, ये इस प्रकार हैं-- ] ईशावास्थोपनिपदु, 2 केनोपनिषदु, 3 कठोरपनिषद्‌, 4 प्रश्नोपनिषद्‌, 5 भुण्डकोपनिषद्‌, 6 माण्ड्कयोपनिषद्‌, 7 तैत्तिरीयोपनिपदू, 8 ऐत्तरेयोपनिपद्‌, 9, छान्दोग्योपनिपदू, 0 बृह॒ृदारण्यकोपनिपदु, ! कौपीतिकी उपनिषद्‌ तथा 2 'ध्वेताश्वतरोपनिषद्‌ । 4 ईशावाल्योपनिषद्‌ू--ईशाव।स्थोपनिपद्‌ यजुर्वेद का चालीसवाँ अ्रध्याय है। इस उपनिपद्‌ मे केवल पअ्रठारह मन्त्र हैं। इतने सक्षिप्त रूप में यह ईश्वर के स्वरूप पर तथा मानव-समुदाय के सतुलित विक्रास-मार्ग पर अत्पल्त सुन्दर प्रकाश डालता है। इसकी प्रथम पक्ति 'ईशावास्य” शब्द से प्रारम्भ होती है, इसलिए इसका नाम 'ईशावास्योपनिषद्‌” रखा गया है । प्रस्तुत ग्रन्थ मे आत्महन्ताओ के ऊपर बहुत सुन्दर प्रकाश डाला गया है-- झसुर्या नाम ते लोका भ्रन्धेन त्मसादृत्ता । तँसते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनों जना ॥॥ प्रस्तुत ग्रन्थ में ज्ञान को साकार रूप देने पर बहुत बल दिया गया है | इसके प्रथम मन्त्र की सराहना तो प्राय सभी विद्वानों ने की है, जो निम्नलिखित है- इईंशावास्यमिद सर्व यत्किड्च जगत्याँ जगत्‌ । तेन त्पक्तेन भुझ्जीया मा ग्रुद्ध कस्यवित्घनम्‌ ॥ डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन्‌ ने प्रस्तुत ग्रन्थ पर प्रामारिक भाष्य लिखा था, जौ हिन्दी भौर भग्रेजी दोनो मे ही उपलब्ध है । 2 केनोपनिषदू--केनोपनिपद्‌ सामवेद की जैमिनीय शाखा के ब्राह्मण ग्रन्थ का नवम्‌ प्रध्याय है । इस ग्रन्थ की पहली पक्ति मे सबसे पहले प्रश्न सूचक शब्द वैदिक साहित्य 67 केन का प्रयोग होने से इसे 'केनोपनिषद' नाम दिया गया है। इस उपनिपद्‌ का प्रारम्भ भ्रनन्‍्त शक्ति विषयक जिज्ञासा से होता है-'केनेपित पत्तति प्रेषित मन ।“- प्र्यात्‌ सन किसकी शक्ति से चलाथमान होता है । इसी प्रसग मे भ्राँखो की ज्योति के केन्द्र के रूप में, प्राणों की चेतना के रूप मे, चुद्धि की सार-ग्राहिणी भक्ति के रूप से, मन को झभिप्रेरित करने वाली शक्ति के रूप में ईश्वर को देखा गया है। बह ईएवर नही है, जिसकी पूजा बाह्य साघनों से की जाती है-- ॥॒ तदैव त्व ब्रह्म विद्धि, नेद यद्धिमुपासते । 4 प्रस्तुत ग्रन्थ मे झहकार का निवारण करने के लिए यहाँ तक कह दिया गया है कि जो वेद-मर्मज् ईश्वर का ज्ञाता होने का दावा करता हैं वह उसे नहीं जानता, परन्तु जो वेद ज्ञाता ईश्वर के भर्म को जानकर उसे जानने का दावा नही करता, वह उस श्रनन्त शक्ति को भली-भाँति जान गया है-- अ्रविज्ञेगय विजानता विज्ञेयमाविजानताम्‌ । प्रत केनोपतिषद्‌ 'नेति-वेति' सिद्धान्त का प्रवल प्रतिपादक अन्य भी है। 3 कठोपलिषदुू--यह उपनिपद्‌ कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा का भाग है। इसमे दो भ्रध्याय भौर छ_बल्लियाँ हैं । प्रस्तुत उपनिषद्‌ का भारम्भ उद्दालक ऋषि झौर उनके पुत्र नचिकेता के उत्तेजना-भरे सवाद से होता है । कहा जाता है कि उद्ालक ऋषि ने भोदान का ब्रत लिया था । वे भ्रनेक गाएँ दान कर चुके थे । जब कुछ बृद्ध गायो को भी दान कर दिया गया तो नचिकेता ते कुड होकर भ्रपने पिताजी से यह कहा कि झ्ाप मुझे किसे दान से देंगे ? उदालक ने झावेश में यही कहा कि मैं तुफरे यमराज को दूंगा । भ्राज्ञाकारी नचिकेदा यमराज के यहाँ चला गया श्ौर वहाँ उसने ब्ह्म-विद्या से सम्बन्धित प्रश्न पूछे । कठोपनिषद्‌ का वृत्त इतना ही है । यहाँ यह विचारणीय है कि नतिकेता ने आचार्य यम से जितने प्रश्न पूछे, उनके पीछे कया रहस्य है ” यथारथंत वैदिक यमराज वेद की रूपर्क शैली के श्राघार पर दो रूपो मे जाना जा सकता है-नहला रूप तो यह है कि पौराणिक यमराज के रूप में जिस मूत्ति का विकास हुभा है, वह मैसा के ऊपर सवारी करने वाला है, नरक-' निकृष्ट स्थान का राजा है । इस घारणा को पुष्ट झरने के लिए मरुभुमि विशेष का निक्षष्ठ स्थान कहना युक्ति संगत है | जहाँ तोग भैसो की सवारी करते हो, ऐसे स्‍थान भी नस्तलिस्तानों के रूपो मे मझभूमियों मे उपलब्ध हो जाते हैं। सारत यमराज भ्ररव देशीय भूमि का राजा था। कुछ विद्वान्‌ उसे दक्षिणी भारत की सयमिनी नगरी का राजा मानते है । यथार्थत यमराज भ्ररव भूमि का ही राजा था तथा विभिन्न देवो की भाँति उसने भी भारतवर्ण मे झ्रपना उपनिवेश 'सयप्तिनी' मे स्थापित किया होगा | दूसरा मत है कि सयम-शक्ति का नाम ही यमराज है भ्रत नचिकेता की भेंट जिस यमराज से हुईं, वह कोई काल्पनिक यम न होकर ब्रह्यवेत्ता व्यक्ति ही था । प्रस्तुत उपनिषद्‌ में कुछ बेद-प्रल्थो का अ्रध्ययन कर लेने पर स्वयं को परम बोर पष्डित भानने वाले विद्वानो को झाडे हाथो लिया गया है-- 68 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्कृतिक इतिहास अविद्याया वर्तमाना स्वय घीरा पण्डित मन्यमाना | जघन्यमाना - परियन्ति मूढा अन्धेनेव नीयमाना यथान्घा ॥ 4 प्रश्नोपतिषदु--अ्रथवंवंद की पिप्लाद सह्िता के अप्राप्य ब्राह्मर-ग्रन्यो से प्रश्नोपनिपद्‌ का सम्बन्ध जोडा जाता है। इस उपनिपद्‌ मे पिप्पलाद नामक ऋषि द्वारा भरद्वाज के पुत्र सुकेशा, शिवि के पुत्र सत्यवान्‌ कोशलवासी अश्वलायन, विदर्भवासी भागव, कात्यायन और कवन्धी नामक छ शिष्यों के प्रश्नों के उत्तरो का वृत्त प्राप्त होना है। प्रस्तुत उण्निषद्‌ मे यज्ञ को भी ब्रह्म-चिन्तन से समन्वित किया गया है। प्रश्नोत्तर की प्रधानता के कारण ही इसे प्रश्नोपनिषद्‌ कहते है । इस उपनिपद्‌ मे निरग ईश्वर को '“प्रभापूर्ण हिरण्यमय” सिद्ध किया गया है | ऐसा लगता है कि पिप्पलाद ऋषि की पनुसूति ने शास्त्रीय ज्ञान के साथ-साथ, इस उपनिपद्‌ को मौलिक रूप भी प्रदान किया है । 5 मुण्डकोपनिषदू--यह्‌ उपनिषद्‌ तीन सुण्डकों में विभाजित है । प्रत्येक मुण्डक पृथक्‌ पृथक्‌ दो खण्डो से भी विभाजित है। इस उपनिषद्‌ से सृष्टि की उत्पत्ति तथा ब्रह्म-तत्त्व की जिज्ञासा को प्रधानता दी गई है। इसमे ईश्वर के अनुशासन को अमिट सिद्ध करने के लिए उस “भय” की सज्ञा दी गई है | ईश्वर #े भय से सूर्य प्रकाशित होता है, अग्नि प्रज्ज्वलित होती है, वायु वहन करती है । उपनिपद्‌ की कुछ पक्तियाँ कठोपनिपद्‌ मे भी प्राप्त होती है । प्रस्तुत ग्रन्थ मे मोक्ष के स्वरूप को एक रमणीक उदाहरश के माध्यम से चित्रित किया गया है-- | यथा नय्य स्थन्दमाना समुद्रेडस्त गच्छान्ति नामरूम विहाय । तथैव नामरूपाद विमुक्त स त पर पुरुषमुपेति दिव्यम्‌ !। जिस प्रकार नदियाँ समुद्र मे मिलकर श्रपने नाम-रूप को विलीन कर देती है भर्थात्‌ समुद्रवत्‌ हो जाती है, उसी भअ्रकार वासना-समुक्त व्यक्ति ईश्वरत्व को प्राप्त करके ईश्वर-रूप ही हो जाता हैं । 6 साण्ड्वयोपनियदू--यह उपनिषद्‌ अ्रथवंवेद से निर्गंत है। इसमे केवल बारह मन्त्र ही प्राप्त होते हैं। महापण्डित राहुल साँस्कृत्यांयन ने इस उपनिषद्‌ के 'झऔकार' तत्व को ईश्वर रूप मे मान लेने को भ्रनावश्यक सिद्ध किया है ।* यथार्थत इस उपनिषद्‌ मो आकार” को त्रिकालव्यापी सिद्ध करके, उसे ही सब कुछ सिद्ध कर दिया गया है । इसमे भ्रात्मा और परमात्मा को एक ही तत्त्व माना है । 'सोध्यमात्मा ब्रह्म । इसके साथ ही साथ भ्रात्मा को जाग्रत, स्वप्न, सुपृष्ति तथा समाधि अ्रवस्था-रूपी चार पैरो वाला सिद्ध किया है) जागृति में आत्मा का स्वरूप वैश्वानर, स्वप्न में तेजस सुषुप्ति से प्राश्ष तथा तुरीय या समाधि में कंवल्य या मोक्ष रूप प्राप्त होता है। यद्यपि झ्लात्मा अपने यथार्थ रूप में पूर्णत विमुक्त है, तथापि ससाह-चक्र मे उसके विभिन्न रूप देखने को मिलते है। भ्रत झ्ात्मा का ]. राहुल सॉस्कृत्वायन दर्शन-दिग्दशन, भाण्ड्क्योपनिषद्‌ प्रकरण । वैदिक साहित्य 69 चार झवस्था्रों के माध्यम से वर्णन करना पूर्णत युक्तियुक्त जान पछता है। #चव्वप्नावस्था में झात्मा दस इन्द्रियो, पच तन्‍्मात्राओ तथा बुद्धि, चित्र, मन एवं भ्रहकार नामक चार श्रन्तस्तत्वों के माध्यम से विषयों का उपभोग करती है। भरत यह कहना उपयृक्त ही है कि भात्मा के इन विपय-उपकरणो के माध्यम से जब विपय का भोग होता है, त्तो इन विषयोपकरणो को समाधि के माध्यम से निष्किय कर देने पर तथा भारसक्ति रूपी बीज को जला देने पर विषयोपमोग भी स्वत्ममोग का रूप घारण कर लेता है। इस प्रकार आत्मा का शिवरूप प्रदान करने के लिए तुरीयावस्था का निरूपण करके माण्डूक्य उपनिपद्‌ इतिश्री को प्राप्त होता है )” 7 तैत्तिरीयोपनिषदू--प्रस्तुत उपनिपद्‌ का सम्बन्ध कृष्ण यजुव्वेद से है । यह उपनिपद्‌ तीन प्रपाठकों शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवहली श्रोर भृगुवल्ली मे विभक्त है । इस उपनिषद्‌ में ब्रह्म-तत्व के विवेचन के साथ-साथ घार्मिक विधानो का भी सुन्दर निरूपण हुप्ना है | तैत्तरीय उपनिषद्‌ की शिक्षावल्ली मे स्वाध्याय-युक्त प्रवचन की महिमा पर कितना सुन्दर प्रकाश डाला गया है-- ऋत च स्वाध्यायाप्रचचने च । सत्य च स्वाध्याय प्रवचने च॑ । तपश्च स्वध्यायप्रवचने च । दमएवस्वाष्याय प्रववने च । शमश्च स्वाध्यायप्रवचने च्‌ । प्रग्तयश्च स्वाध्याय प्रवचने चे | अ्र्निहोत्र च॒ स्वाध्यायप्रवचने च्‌ । भ्रतिधयश्च स्वाष्यायप्रवचने च । मानुप च॒ स्वाध्यायप्रवचने च । प्रजा च स्वाध्याथ प्रवचने च । प्रजनश्च स्वाध्यायप्रवचने च । प्रजातिश्च स्वाध्याय प्रवचने च । सत्यमिति सत्यवचा राथीतर । तप इति तपोनित्य पौदशिष्ट । स्वाध्यायप्रवचने एनेति नाको मौद्गल्य । तद्धि त्पस्वद्धि तप । उक्त उपनिषद्‌ में विद्याथियों के लक्षणों एवं धारणाओं का सुन्दर विवेचन किया गया है । इस उपनिषद्‌ मे समस्त शभ्राचार-सहिता का सारांश यही दिया है कि जो कार्य अप्रशस्य है, _ वही त्याज्य है तथा जो कार्य प्रशस्य है, वही ग्राह्म है। गथा--- यान्यनवद्याति कर्मारि | तानि सेवितव्यानि। नो इत्तराशि । यान्यस्माक सुचरितानि तानि त्वयोपास्थानि । नो इतराणि । ये के चास्मच्छोयाँसों ब्राह्मणा । तैपा त्वयाध्थ्सनेन प्रश्वसितव्यम्‌ | श्रद्धया। भश्नद्धयाश्देयम्‌ | क्रिया देयम्‌ | हिया देयम्‌ । भिया देयम्‌ । सबिदा देयम्‌ । 8 ऐत्रेयोपनिषद्‌--ऐतरेय उपनिषद्‌ का सम्बन्ध ऋग्वेद-सहिता के ऐतरेय श्रारष्यक से है । इस उपनिपद्‌ मे तीन अध्याय हैं, जिनमे क्रमश सृष्टि-रचना, जीवात्मा का स्वरूप तथा प्रह्म-तत्त्व का विवेचन किया गया है ॥दइस उपनिषद्‌ को लेकर शकराचार्य ने झद्व॑ तवाद की पुष्टि करने के लिए तृष्टि-रचना के प्रसग में सृष्टिका्ये को ईश्वर की जादुगरी का परिणाम बतलाया है। जीव और ब्रह्म का ऐव्य सिद्ध करने के लिए जगदगुरु ने श्रपने इस सिद्धान्त, 'ब्रह्मतत्य जगन्मिथ्या! १०02 परिषाक कर दिया है । इस उपनिषद्‌ की गरूढदा दर्शनीय है । 70 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉँस्कृतिक इतिहास 9 छान्दोच्योपनिबदू--इस उपनिपद्‌ का सम्बन्ध सामवेद सह्िता से है । इस उपनिपद्‌ में साठ अध्याय हैं। यह एक बृहृदाकार ग्रन्थ है। इसमे राजा जानश्रुति भौर रैक्च मुनि का श्रत्यन्त रोचक एवं रहस्थपूर्ण झात्यान भी दिया हुआ है | हिन्दी साहित्य के प्रमुख उपन्यासकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उक्त श्राख्यान से प्रेर्ति टोफर 'अनामदास का पोया” उपन्यास्त लिखा है । इस उपनिपद्‌ में ब्रह्माजी के पास देत्यराज विरोचन तथा देवराज इन्द्र के पहुंचने के फलस्वरूप ब्रह्म विद्या की विवेचना अत्यन्त माभिक बन गई है। उपनिपद्‌ में शाण्डिल्य-विद्या का भी सुन्वर निर्द्शन है । रस की गरूढता का सुन्दर विवेचन निम्न उदाहरण मे इष्टव्यू है-- एपा सर्वभूताना प्रथिवी रस । प्ृथिव्या श्र।पोरस । श्रपामौपषधयों रस । औपधीनोाँ पुरुषी रस । पुस्पस्थ ऋग्रस । ऋच सोमरस । साम्व उद्गौथो रस ॥। 0 बृह॒दारण्यकोपनिषबू--यह उपनिषद्‌ समस्त उपनिषदों मे विशालकाय हैं । इसके ववुहद” शब्द से इसके विशालाकार होने की स्पष्ट सूचना मिलती है। प्रस्तुत उपनिपद्‌ का सम्बन्ध शुक्ल यजुर्वेदीय 'शत्तपथ” ब्लाह्मण प्रन्थ से है । इस ग्रन्थ में भ्रारण्य एवं उपनियद्‌ तत्त्वो को एकाकार-ता कर दिया गया है । प्रस्तुत उपनिपद्‌ मे छ प्रध्याय हैं। इस उपनिपद्‌ मे याशवलक्य झौर मैँत्रेयी के सवाद की ग़म्भीरता दर्शनीय है। बरह्मविद्या का इतना सुन्दर शौर विस्तृत विवेचन अन्यत्र दुर्लभ है। ब्रह्म-तत्त्व का एक उदाहरण द्रष्टब्य है-- “बह्म त परादादू योडन्यत्रात्मनों ब्रह्म वेद, क्षत्र त परादाद्‌ योजत्यत्रात्मन क्षत्र वेद, लौकास्त परादुर्योउ्त्यश्रात्मनों लोकानू वेद, देवास्त पुरादुर्योश््यचात्मनो देवानू वेद भरूतानि त परादुयोज्न्यत्रात्मनो भूतानि वेद, सर्व त परादातृ योज्््यच्रात्मन सर्व वेदेंद ब्रह्मंद क्षत्रमिमि लोकां इमे देवा इमानि मूतानीद सर्वे बदमात्मा ।” 3] फौषोतिकी उपनिषबु--कुपीतक नामक ऋषि की शिष्य-परम्परा में कौपीतिकी उपनिषद्‌ की रचना हुईं । इस उपतनिपद्‌ मे दो प्रव्याय है। अ्स्तुत उपनिषद्‌ का सम्बन्ध ऋग्वेद-सहिता से है ।-उपनिषदों में इसे सबसे प्रीचोन माना जाता है । इस उपनिषद्‌ मे ब्रह्म-तत्त्व का साँगोपाँग विवेचन किया है। यह उपनिषद्‌ भी बृहदाकार है। $ ० पड 32 श्वेताश्वतरोपनिषदू--इस उपनिपद्‌ का सम्बन्ध कृण्णयजुवेंद से है। प्रस्तुत उपनिषद्‌ मे छ भअ्रध्याय है। इस ग्रन्थ मे योग-विद्या का ऐसा मामिक चित्रण मिलता है कि उसे शैलीगत दृष्टि से सराहे विना रहा नहीं जा सकता । यदि इस अन्थ को योग-विद्या की पराकाष्ठा कहा जाय तो कोई अझ्तिशयोक्ति न होगी | जब एक योगी योगानल के माध्यम से ज्योतिर्मेय शरीर को प्राप्त कर लैता है तो उसे जरा-मरण तथा व्याधि इत्यादि का किचिदेपि मय नही रहता-- “न तस्य रोगों न जरा न भृत्यु प्राप्तस्ययोगार्निमय शरीरम्‌” । इस उपनियद्‌ की काव्यमयी शैली सराहनीय है । वदिक साहित्य 7! उपनिषदो का विवेच्य विषय बारह उपनिषदो का तत्त्व प्रस्तुत करते समय उपनिपयो के विवेच्य विषय का कुछ भ्राभास मिल चुका है। 'डपनिपद्‌' नाम ही अपने प्रतिपाद विषय को स्पष्ट करने मे पूरंत समय है। मुख्यतः उपनिषदों मे तिम्त विपयो का प्रतिपादन हुपा है-- ४] ब्रह्म स्वरूप का विवेचन 2 जीचात्मा के रहस्य की व्याख्या 3 प्रकृति या माया का रहस्य 4« सरकार कौ झावश्यकता 5 सृष्टि-रचना 6 योगविद्या 7 मोक्ष का स्वरूप ] ब्रह्म के स्वरूप का विषेचन--प्नह्मय को अखण्ड झर अनन्त शक्ति कहकर उसके निगुण रूप का विवेचन करना उपनिषदो का सर्वोत्कृष्ट विषय रहा है । उपनिषदो का ब्रह्म एक ऐसी शक्ति है, जो जगत में व्याप्त होकर भी जगत्‌ से बाहर भी पश्पना भस्तित्व रखता है । इन्द्रियो से अतीत ईश्वर निष्किय न होकर नित्तान्त सक्रिय भी है। वह चलकर भी नही घलता है। वह दूर भी है भौर पास भी है झ्त ईश्वर को भ्न्तर्यामी और व्ह्ययामी भी सिद्ध किया है। यथा--- | हदेजति तन जति, तदुदूरे तद्धन्तिके । | त्तदन्तरस्य सर्वेस्व तत्‌ सर्वस्यास्य प्राह्मत )|। --केनोपनिपद्‌ “बहा के इस अनिर्वेचतीय स्वरूप के झ्राघार पर 'विभावना' अलकार का «विभिन्न भाषागत साहित्यो मे प्रयोग किया । 'गीता' का समस्त रहस्य ईएवर के इसी स्वरूप पर टिका हुआ है | गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस में ऐसी विभावना का वहुत सुन्दर चित्र किया गया है-- बिनु पग चलइ सुनइ विनु काना । कर बिनु कर्म करइ विधि नाना | झानन रहित सकल रस भोगी । विनु बानी वक्ता बड जोगी ॥। तन बिचु परस नयन बिनु देखा । करइ प्राण बिनु वास अशेषा ॥ भ्रव हमे यहाँ “ब्रह्म शब्द के विपय में यह विचार भी कर लेना चाहिए कि यह शब्द संहिता-काल से ही ईश्वर का वाचक है अथवा इसे यह स्वरूप या भ्रथ कालान्तर मे प्राप्त हुआ। इस सन्दर्भ मे स्वर्गीय रामघारीसिह 'दिलकर' के विचार समीद्षय हैं--“अल्थ का_ नाम पहिले ब्रह्म था | पीछे उसे ब्रह्म कहने लगे, जो वेदी के. समीप विठाया जाता था झौर भी पीछे चलकर वह ब्रह्म सृष्टि के भ्रध्यक्ष का बाचक हो गयी (४४ १ दिनकर सस्कूति के चार प्रध्याय, पृ 82 72 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्कृतिक इतिहास दिनकरजी का उक्त वक्तव्य परम्परागत ययार्थ जान पडता हैं, क्योकि ब्रह्मविद्या-स्वल्प मन्त्रो को ईश्वर-रूप ही मात्रा गया है| “मन्त्र” सत्यविद्या है और ज्ञान-स्वरूप ईश्वर भी सत्य तत्त्व है, श्रत मन्त्र और ईश्वर एक ही है । ऐसे मन्त्रो का उद्गाता अथवा यज्ञ-सचालक ब्नह्मा ईश-भक्त ही कहा जा सकता है, ईश्वर नही। परन्तु ऋग्वेद के पुरुप-सूक्त म जिस पुरुष स्वरूप जैतन्य-तत्त्व का वर्णन किया गया है, वह ब्रह्म विशद-तत्त्व ज्ञान की भप्रमिव्यक्ति के रूप मे ब्राह्मण, समाज-रक्षक के रूप मे क्षत्रिय, व्यापारिक सचालन के रूप में वंश्ध तथा समाज-सेवा के रूप मे शुद्र कहलाता है ।? उस जैतन्य-तत्त्व के अनेक शीश है, भ्रनेक पर हैं, श्रनेक मुख है औौर सम्पूणा ससार उसी मे स्थित है ।* वस्तुत उस चेतन तत्त्व का वरुन 'न्ह्मय' शब्द से भी हुआ ।* भ्रत यह कहना ठीक जान नही पडता कि 'ब्रह्म' शब्द बहुत पीछे ईश्वर का वाचक बना | प्रत + ब्रह्म! शब्द सहिता-काल से ही ईश्वर का वाचक भी रहा है, वह सम्पूर्ण सृष्टि मे व्याप्त है, वह प्रकाश का श्रनन्त पुझुम है, यह देवों का मी देव है, वह शक्तियों का श्रादि ज्ञोत है |; 2 जीवात्मा के रहस्य की व्यास्या--माण्ड्क्योपनिपद्‌ मे जाग्ृत्ति, स्वप्न, सुपुष्ति तथा तुरीय नामक चार श्रवस्थाओ के आधार पर जीवात्मा के समग्र स्वरूप का चित्रण किया गया है । अन्तत जीवात्मा आनन्द और ज्ञान का ही स्वरूप है। उपनिषद्‌ मे जीवात्मा को पग्रुठे के परिमाण वाला भी कहा गया है। जीवात्मा को इतना छोटा बताने का प्रभिप्राय केवल यही है कि जीवात्मा का दर्शन हृदय के रोहिताकाश मे ही सम्भव है। उपनिपदो मे भात्मा को ब्रह्म का स्वरूप बताया गया है | झासुरी वृत्तियो मे श्र॒पने झ्रापको प्रदत्त करना ही प्रात्म-हनन है । झ्रत आत्मा का यथार्थ रूप अनुभवगम्य ही है तथा उसे एक चेतना के रूप मे ही जानता चाहिए । जीवात्मा के स्वरूप की झाँकी निम्न उदाहरण मे द्रष्टब्य है--- हु “सोथ्यमात्मा ब्रह्म । सोध्यमात्मा चतुष्पात्‌ ॥” 3 प्रकृति या माया का रहस्य--उपनिषदो मो ईश्वर की भाज्ञा या भय के फलस्वरूप सूर्य का तप्त होना भ्रग्नि का ज्वलित होना, वायु का वहन तथा जल के प्रवाहित होने का वन किया गया,है | मूल रचना ही प्रकृति है। वृहदारण्यकोपनिषद्‌ मे इस समस्त मूल रचना को चेतन-तत्व स्वरूप ईश्वर मे तैरता हुआ सिद्ध किया गया है । उपनिषदो की प्रकृति असत्य न होकर ईश्वर का ही_विराट्‌ रूप है | 4 सदाचार को झावश्यकता--ईशावस्य उपनिषद्‌ मे सौ वर्ष तक कर्म करते हुए जीवित रहने की वाछा सदाचार की पराकाष्ठा कही जा सकती है । तैत्तिरीय उपनिषद्‌ मे ब्रह्मचारी वर्ग था वट इृन्द के लक्षणों को अत्यन्त सुन्दर रूप मे चित्रित किया गया है | बृहदारण्यक उपनिषद्‌ मे आत्म हित को स्पष्ट करने के लिए सभी ऋग्वेद 0/90, 2 2 चही, 0/90 3 ध्यौशान्ति ब्रह्म शान्ति. । --बजुवेंद 36/8 वंदिक साहित्य 73 कार्यो मे भरात्मीयता को ही भनुस्यूत कर दिया गया है। छान्दोग्य उपनिपद्‌ से रेबव ऋषि के भाचरण के माध्यम से कमनिष्ठा की दुहाई दी गई है। प्रहकार को विगलित करने के लिए श्रात्म-प्रकाशन या शेख्ी वघारने की प्रद्ृत्ति की निन्‍दा की गई है। प्रतिथि-सत्कार को महत्त्व देने के लिए "पतिथिदेवों भव' तक कह दिया गया है | है 5 सूह्टि-रचना--सृष्टि-रचना जैसे गृढतम विषय को लेकर उपनिपदो से पर्याप्त चर्चा की गई है । वृहृदारण्यक उपनिपदो में याज्ञवलक्य झौर गार्गेगी के सवाद मे झाकाश-तत्व को ईश्वर में ही श्रवस्थित बतलाया गया है। ऐतरेय उपनिपद्‌ भें सृष्टि-रचना का सविस्तार वरणत किया गया है। वस्तुत पृथ्वी जल मे, जल प्रर्ति-तत्त्व मे, प्रग्नि-तत्त्व वायु मे, चायु झ्ाकाश मे सस्थित एवं क्रियाशीन है । भावात्मक भौर जड-स्वरूप प्रकृति का चेतन-तत्त्व के साथ याग होने से ही सृष्टि “मन शा रचना हुई है । यथार्थंत सुष्टि-रचना चेतन-तत्त्व की क्रियाशीलता _का है। पक था का “० & बोणविश्या--उपनिषदो मे ज्ञानमार्गे की प्रघानता है । अवण, चिन्तन, भनतन झोर निधिथ्यासन के माध्यम से झ्रात्म-्तत्त्व का ज्ञान सम्मव है। ज्ञानमार्ग की चरम सीमा “ब्रह्मविद्‌ ब्रह्म॑ व भवति'-अर्थात्‌ ब्रह्म को जानने चाला ब्रह्म ही हो जाता है, ही है । इवेताश्वतरोपनिषद्‌ मे योगमार्य या में योगमार्य या ज्ञान मागे के माध्यम से जरा, मरण तथा व्याधि-समूह पर विजय पाने का निर्देश किया. है (जस्तुत उद्गीथ विद्या एव शाण्हिल्य विद्या जीवात्मा का ब्रह्म के साथ योग कराने के लिए ही खोजी गई है ।धोग विद्या मे प्राशामाम को इतना महत्त्व दिया गया है कि उसके बिना कोई भी योगी सतोगुणी बृत्ति को सरलतापूवेक प्राप्त नही कर सकता | चिन्तन के समय एकान्त की प्रतीव ग्रावश्यकता रहती है | नाप्तिका के वाम रन्‍्प्न से श्वास लेकर उसे दक्षिण रन्त्न से निकालने का करमपूर्णक अभ्यास करने से नाडी-शोघन होता है /प्रत उपनिपदो के ज्ञानमार्ग को योगविद्या के रूप मे प्राप्त करके हम यह पह सकते हैं कि वह एक वैज्ञानिक सत्य है । 7 भोक्ष का स्वरूप--कठोपनिषद्‌ मे कहा गया है कि शरीर रूपी रथ मे प्रात्मा रूपी रथी झ्ारूद है। इन्द्रियाँ रूपी घोड़े तथा मन रूपी लगाम था बल्गा है । थो व्यक्ति बुद्धि रूपी चतुर सारथी के माध्यम से श्पने-रथ को सभालकर ब्रह्म रूपी गल्तव्य की श्रोर चलता है, उसे शान्ति के समुद्र के के समान विष्णुपद या मोक्ष प्राप्त होता है। जिस व्यक्ति भी समस्त हृदय प्रन्थियाँ छिन्त-भिन्न हो चुकी हैं, वह व्यक्ति कामना-शुन्य तत्त्त--मोक्ष को प्राप्त होता है। प्रत उपनिषदो के मोक्ष का स्वरूप इस प्रकार है-- । | कामना-शुन्‍्य स्थित्ति ही मोक्ष है। | 2 मोक्ष शान्ति का भ्नन्‍्त समुद्र है। । 3 म्रोक्ष जीवात्मा का वास्तविक स्वरूप ही है। 74 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्‍्कृतिक इतिहास 4 मोक्ष पाने पर पुनरागमन की समाप्ति हो जाती है | 5 मोक्ष वसनातीन तत्त्त है । 6 मोक्ष एक स्थिनि है वह बिसी विशिष्ट स्थान पर नहीं है । उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि उपनिपदो मे ज्ञानमार्ग का सुन्दर निरूपण है । इसीलिए शकर, रामानुज, मध्व, निम्बार्क, वल्लभ जैसे झाचायों ने युगानुमार अनेक दार्शनिक विचारधाराशो के प्रवर्तन हेतु उपनिपदों का भाष्य किया । वस्तुत उपनिपदो में गृह्तम स्थिति का अनेक प्रकार से वर्णन किया गया है । उपनिपदो की शिक्षाएँ उपनिषद्‌ ब्रह्मविद्या के प्रतिपादक ग्रत्य है | प्रामाशिक एक दर्जन उपनिषदो मे ब्रह्म विद्या का दार्शनिक स्तर पर विवेचन किया गया है। उपनिपदो में समाज के परिष्कार को ध्यान मे रखकर श्रात्म-परिष्कार की चर्चा की गई इसलिए उपनिपदो की शिक्षाएँ सामाजिक तथा दाशशनिक स्तर की रही | यहाँ शौपतिपदिक शिक्षाओं का सक्षिप्त उल्लेरा किया जा रहा है | उपनिपद्‌ की प्रमुख शिक्षाएँ इस प्रकार हैं-- . स्वाध्याय की महिमा, 2 गुरु का महत्त्व, 3 शिष्य का कर्तव्य, 4 कर्म-परायणता, 5 निरहकारता, 6 मुमुक्षा, 7 आत्मज्ञान, 8 ससार की असारता, 9 ईशवरीय ज्ञान तथा 0 पुनर्जन्म। स्वाध्याय की महिमा--सद्ग्र्यो के नियमित भ्रध्ययन को स्वाध्याय कहा जाता है। यदि सद्ग्रन्‍्यों का प्रेमी प्रमाद को त्यागकर श्रष्ययन-रत रहता है तो उस्ते ससार के व्यवहार और रहस्य की सहज जानकारी मिल जाती है। स्वाध्याय पे व्यक्ति के मानस मे निहित भावनाओं की जाइति का अवसर मिलता है । उपनिषद्‌ ग्रन्यो का स्वाष्याय करने से नित्य पावन पथ पर चलने की प्रेरणा मिलती है। स्वाध्याय की महिमा को कंठोपनियद्‌ मे श्राचार्य यम और नचिकेता के श्रसग में स्पष्ट किया गया है। उपनिषदो-मे स्वाध्याय की महिमा का प्रकाशक ग्रन्थ 'तैत्तिरीयोपनिपद्‌” उल्लेध्ननीय है। मुण्डकोपनिषद्‌ मे भी स्वाष्याय के रहस्य पर प्रकाश डाला गया है । 'छान्दोग्य' तथा 'हृहदारण्यकोपनिषद्‌' विभिन्न प्रसगो के माध्यम से स्वाष्याय की महिमा का ही गान करते हैं श्रत उपनिपदों में यथार्थ ज्ञान के मार्ग पर चलने का एजमात्र आधार स्वाध्याय को ही सिद्ध किया है। स्वाध्याय झ्रात्म-परिष्कार की प्रथम सीढी है ! ४ 2 गुरु का महतत्व--वेदविद्‌ गुरु के महत्त्व के प्रकाशन के लिए कठोपनिपद्‌ में अनेक प्रकार की चर्चाएँ हुई है। ज्ञान-पिपासु शिष्य को वेदश ग्रुदु को सोजना चाहिए क्योकि उप्तके प्रभाव मे ज्ञानसुर्य से श्रालोकित पथ पर चलना असम्भव है । जो गुद यथार्थ ज्ञान को पाकर प्राय मौन राघचे रहता है अथवा गम्भीर वना रहता ,है, वही ययाथथ गुरु होता है | शिष्य की जिज्ञासा का पत्तोप करने के लिए शिष्प बंदिक साहित्य 75 की सुमघुर वाणी रामबाण झौषधि का कार्य करती है। अविद्या से ग्रस्त व्यक्ति अपने आपको घोर-गम्मीर तथा प्रकाण्ड पण्डित समझकर स्वय को भज्ञान-रूपी कृप में डालते हुए अपमे भ्रनुयायियों को भी भ्रज्ञता के कूप मे गिरने के लिए विवश किया करते है। समस्त औपनिपदिक्त ज्ञान गुदजनो की ही देन है इसीलिए _ झ्रौपनिपदिक ज्ञान भी गुर है | उपनिषदो मे ईश्वर को गुरुओ का भी गुरु कहा गया है ( उस ज्ञान-क्षेय रहस्यमम् तत्व को जानकर व्यक्ति गुरुता को प्राप्त कर लेता है। ऐसे गृरुजनो के ज्ञानतोक से ससार भ्ज्ञान-प्रन्धकार को दूर करता हैं तथा सामाजिक व्यवस्थाएँ सुचारु रूप से सम्पन्न हुआ करती हैं। कठोपनिपद्‌ के अज्ञानेनैव नीयमाना यथान्घा ” रहस्य को महात्मा कबीर ने तिम्त रूप मे शिक्षार्थे प्रस्तुत किया है| [“जाका गुर है प्रांधरा, चेला निपट निरध। | भन्धा भ्रन्वेहिं ठेलिया, दोनो कूप परन्त ॥ 3 शिष्य का कत्तव्य--'तैत्तिरीयोपनिपद' में शिष्यो या विद्यार्थियों के दोक्षान्त समारोह जैसा चित्रण किया है । विद्यार्थी को चाहिए कि वह माता-पिता को देव-तुल्प समभे । गृहस्थाश्रम प्रवेश करने पर प्रतिथि के सत्कार के सन्दर्भ मे अतिथिदेंवों भव” अर्थात्‌ भ्रतिधि देवता होता है यही भ्रादेश एवं भ्रनुदेश दिया गया है। विद्यार्थी का यह पावन कृत्य है कि वह यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिए सदगृरु को दूँहे। 'कठोपनिपद' मे नचिकेता ने भ्राचार्य यम को दूढकर भआध्यात्म ज्ञान प्राप्त किया, यह स्पष्टत बताया गया है । इसी प्रकार 'प्रश्नोपनिपद' के प्रतेक भआ्राचार्यो तथा शिष्यो के प्रश्नोत्तरो की चर्चा भी यही सिद्ध करती है कि विद्यार्थी वो ज्ञान-दर्धन के लिए विद्वान्‌ गुरुजनो की खोज करनी चाहिए | विद्यार्थी तर्क और सेवा के जन विक्नियों के लिए घकिशार है। पर रे सदेव ज्ञानाजेन करे, यह उपनिषदों की परम शिक्षा है। ब्रह्मचये- ब्रत की पालन विद्याथियों के लिए प्रनिवायं है। उपनिषदो । उपनिषदो मे ब्रह्मचयं भोर विद्या चये झौर विद्यार्जन का प्रटूट जप तय गया ह। उतने स्थापित किया गया है। विद्यार्थी_के लिए एकान्तवास तथा दत्तचित्तता बायें बताया गया है | उपनिषदो मे शिष्य या विद्यार्थी के कर्चव्यो को इतनी मधुरता झौर पावनता प्रदान की गई है कि विद्यार्थी समाज के कर्णंघार क॑ रूप मे भी पुर ईमानदारी तथा कर्मठता का परिचय दे, इस भावना और घारणा ) उजागर कर दिया गया है । 4 कर्मपरायशता--वेदो के कमेंबाद को उपनिषदो मे निष्काम कमें योग का स्वरूप प्रदान किया गया है। उपनिषदो ने समाज को श्राशावादी बनाने के लिए सौ चर्ष तक कर्म करते हुए जीवित रहने की शिक्षा दी | त्याग की नीति को अपनाकर कर्म"त रहने की शिक्षा भौपनिपदिक युग में ही दी गई. कर्मपरायण भाग को निश्चित करते समय समस्त सदाचार को सम्पक्‌ मान्यता दे दी गई। योगपुर्णं भोग के विपय मे बुलन्द स्वर उठाया गया । किसी के धन को भृत्तिका या ईैशावान्योपनिषद्‌,] 76 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्क्ृतिक इतिहास लोष्ठवत्‌ समझने का उपदेश दिया गया । नित्य-नैमित्तिक कर्मो को करने के साय- साथ उपासना से सम्बद्ध कर्मों को करने की भी प्ररणाएँ दी गयी । प्रशुभ मार्ग पर चलना श्रात्मा का हनन करना है। अतएव जो व्यक्ति पतित पथ को अपनाते है वे ग्रज्ञतापूर्से श्रन्धकार के लोको मे निवास करते है । अन्तत यह शरीर भस्मसात्‌ हो जाता है, श्रत हमे ईमानदारी से ही काय्ये करना चाहिए । 'बृहदारण्यकोपनिपद्‌' मे महपि याज्ववलक्य के प्रसग मे यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ग्ृहस्थ को सुचारु रूप से सचालित करके ही परमार्थ की साधना हेतु प्रयाण करना चाहिए । भ्रग्निहोत्र सम्पादित करते हुए वातावरण को पवित्र बनाना चाहिए । स्वाध्याय करके पावत पथ अपनाना चाहिए | सत्य एवं मुदुबचन बोलकर वाणी का तप करना चाहिए । जो काये प्रशसनीय है, उन्ही फोजकरना आहिए | श्रद्धापूवक कर्मठता को अपनाना चाहिए । जिन शझ्लादर्शो को श्रपनाने से हम चरित्रवान्‌ बन सकते हैं, उन्हे अभ्रवश्य ही अपनाना चाहिए। कर्मपरायणता आत्म-ज्ञान की प्राप्ति मे नितान्त सहायक तत्त्व है। 5 निरहकारता--'केनोपनिषद' मे अहकारी भावना को स्पष्ट किया गया है । एक ज्ञानी व्यक्ति वह है जो यथार्थ को जानकर भी यही कहता है कि मैने यथार्थ को नही जाना । जो व्यक्ति कुछ प्रन्थों का भ्रध्ययन करके यथार्थ तत्त्व को जानने का दावा करता है, उसने यथार्थ को नही जाना । “छान्दोग्योपनिषद्‌' मे रैक ऋषि के झारयान के द्वारा निरहकारता की शिक्षा दी गई है। महपि नारद भनेक विधाश्रों को जानकर भी प्रात्मतोप प्राप्त नही कर सके, क्योकि साँसारिक विधाएं व्यक्ति को प्रभुता के मद से मदोन्‍्मत्त कर देती हैँ । जब नारद सनत्कुमार से मिले तो सनत्कुमार ने भात्मविद्या को अभ्रहकर को दुर करने की सजीवनी बताया । “ईशावास्योपनिषद्‌” में ऐसे व्यक्तियो की चर्चा हुई है, जो प्रकृति की उपासना ३ रके झपने श्रापको मुक्त व्यक्ति या सिद्ध पुरुष मानने लगते हैं । ऐसे व्यक्ति घोर भ्रन्धकार से पूरा कृप मे थुग-युग पर्यन्त निवास किया करते हैं। यदि कोई व्यक्ति श्रेष्ठ ग्रन्थो का अध्ययन करके भी श्रेष्ठ मार्ग को नही भ्रपनाता तो वह व्यक्ति उस व्यक्ति की अपेक्ष" अधिक पापी है जो अज्ञानग्रस्त होने के कारण शुभांचरण नही कर पाया । जो व्यक्ति यह मानता है कि मैं ही कार्यकर्ता हें, वह अहकार से ग्रस्त होने के कारण पतनोन्मुख होता है। प्रविद्या के समार में ससृत होने वाले व्यक्ति स्वय को धोखा देने के साथ-साथ दूसरे व्यक्तियों को भी अपनी अहकारी प्रद्ृत्ति के कारण कुमार्गगामी बनाते हैं अतएवं निरहकारता परम झावश्यक गुण है । झ्हकार के त्याग का एकमात्र आधार आध्यात्म-विद्या ही है । 6 शरुमुक्षा--उपनिषद्‌ ब्रह्मविद्या के भ्रस्तुतकर्त्ता ग्रन्थ होने के कारण पुरुषार्य चतुष्टय में मोक्ष को सर्वाधिक महत्त्व देते रहे है। नित्य-नैमित्तिक कर्मो को सम्पादित करते रहने पर मोक्ष की प्राप्ति की सबल इच्छा रहनी चाहिए । एक मुमुक्ष व्यक्ति समस्त साँसारिके सिद्धियो यो सफलताओ को प्राप्त करते हुए भी झपने भ्ात्महूप को प्राप्त करने के लिए सचेत रहता है। मुमुक्ष के लिए यह झावश्यक है कि वह एकान्त-परायण बने । जिस लोक मे या 2” बिजलियाँ वैदिक साहित्य 77 अपनी अमक नही पहुँचा सकती, जहाँ सूये की किरणो का प्रवेश नही है, जहाँ चन्ध की चाँदनी नहीं प्रसर सकती वह मुमुक्षुओ का पारमायिक लक्ष्य मोक्ष है। ध्वृहदारण्यकोपनिषद्‌' की मैत्रेयी महपि याशवलक्य के द्वारा सम्पत्ति दिए जाने पर भी सन्तुष्ट न हुई । उसने केवल यही कहा कि “मैं जिसे प्राप्त करके भ्रभर नद्दी हो सकती उसे लेकर क्या कहूँ! यथा-य्रेनाह नज्जता स्थाम्‌ तेन कि कुर्षाम्‌ ।” मोक्ष की इच्छा के कारण निष्काम कर्मयोग साकार होता है। निष्काम कर्मयोग के द्वारा व्यक्ति अनन्त ज्ञान के पथ पर पझ्रग्रसर होता है । जहाँ मुमुक्षा है, शान्ति वही है । पे झात्मज्ञान--उपनिषदों में आत्मा को ब्रह्म कहा गया है। गूढ तत्त्व झात्मा का सबके सामने प्रकाश नहीं होता | प्रात्मा केवल सूक्ष्म दृष्टि से श्रथवा ज्ञान-नेश्रो से ही दर्शनीय है | भात्मा का निवास हृदय के रोहिताकाश नामक भाग में कहा है भात्मज्ञानोन्मुख व्यक्ति अविधा तथा दोनो के ही रहस्य फो जानकर जरा- मरण के अक्र से निवृत्त हो जाता है-- - “ श्रविद्यया-मृत्यु तीर्तवा-विद्ययाउमृतमश्नुते ॥। --ईशावास्योपनिषद्‌ । श्वेताश्वरोपनिषद्‌ मे योगसाघना को भात्मज्ञान का मूल कारण सिद्ध किया गया है । एक साधक एकान्तसेवी होकर भय को त्याग कर स्वस्थ मन से निरन्तर श्रात्म-चिन्तन करता हु मोक्ष की शान्ति को प्राप्त होता है ।/ आत्मज्ञान की ओर बढने वाले व्यक्ति के चित्त मे सहज प्रसाद या सुख की भनुभूति होती रहती है । योगोन्मुख्त व्यक्ति का कण्ठ सुमघुरता को प्राप्त होता चला जाता है, उम्तके शरीर मे एक विशेष प्रकार की स्फूति होती चली जाती है। भातज्ञान प्राप्त करने वाला व्यक्ति सच्चा गुरु होता है, 'कठोपनिषद' मे कहा गया है कि शरीर रूपी रथ में भ्ात्मा रूपी रथी बेठा हुआ है | बुद्धि रूपी सारथी इन्द्रिय रूपी घोडो की मन रूपी रास को पकडकर शरीर-रथ को सचालित करता है। जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ भ्रसयमित हैं, भ्रथवा जिनकी बुद्धि भ्नस्थिर है, उस व्यक्ति को भ्रध पतन अवश्यम्भावी हैं। भात्मश्षान का मागे कृपाण की तीक्षण धार के तुल्य होता है ! इस मार्ग पर चलना तरण-तारण व्यक्तियो के सामर्थ्य की ही चीज है । जाग्रत, स्वप्न, सुसुष्ति तथा तुरीय तामक चार भ्रवस्थाओ के क्रम मे व्यक्ति को झात्मज्ञान प्राप्त होता है । झांत्मज्ञान पुरुपार्थलभ्य होता है । कोई वलहीन व्यक्ति, आत्मश्ञान प्राप्त नहीं कर सकता । भात्मज्ञान प्रवचन से भी प्राप्त नहीं द्वोता । (व्यक्ति शास्त्र विधि के द्वारा भात्मा की और बढता है, भात्मा का प्रकाश उसके जामने स्वव॒प्रकट हो जाता है तथा बह व्यक्ति आात्मरूपता को प्राप्त कर लेता है) 8 ससार की भसारता--उपनिपदो मे ससार की शिक्षा अ्रनेक रूपो मे दी गई है । जब एक व्यक्ति अन्न को भपने जीवन का सर्वेस्व मानता है, तो उसे भ्रपनी धात्मा झन्न के रूप मे ही जान पढती है--भनश्नमेव प्राण । जब व्यक्ति उपाहम्‌' से थोडा ऊपर उठता है तो उसे प्राशशक्ति का भ्नुभव होता है और वह प्राणशक्ति 3 भाष्डबयोपनिपद्‌, 2 78 प्राचीन भारत का साहित्विक एवं सॉस्क्ृतिक इतिहास को ही अपनी प्रात्मा मानने लगता है । जब वही व्यक्ति मन के स्वरुप को समझता है तो उसे मन ही आत्मा के रूप मे जान पडता है। वही अवक्ति बुद्धि-तत्त्व का महत्त्व समझ कर बुद्धि या विज्ञान-तत्त्व को प्रपनी श्रात्मा मानने लगता है । ऐसा विज्ञानवारी व्यक्ति विशुद्ध आनन्द का अनुभव करके ग्रानन्द-तत्त्व को ही शात्मा मानने लगना है । झ्रानन्द का प्रात्म-तत्त्व के रूप में भ्रनुभव करते पर समस्त ससार फीका लगने लगता है। व्यक्ति शिव-नत्त्व को जानकर ससतार की प्रसारता को भली-भाँति समझ जाता है | समार की असारता को समभने के लिए एक सुन्दर उदाह”ण दिया गया है | एक दक्ष की दो शाख्ताप्रो पर दो पक्षी बैठे है। उनमे से एक दुक्ष के फलो को खाता है तथा दूसरा उसे देखता मात्र है। « कलभोक्ता पक्षी सुख-दु ज़ से लिप्त रहता है तथा फलदुष्टा सुख-दु प से झत्तम्पुक्त रहता है। झत साँसारिक भोगो मे लिप्त व्यक्ति श्रावागमन का शिकार बनता है तथा ससार का दृष्टा ईएवरत्व प्राप्त व्यक्ति ससार की श्रमारता को जानकर निह्व न्द्व हो जाता है । 9 ईश्वरीय ज्ञान--'सत्य ज्ञान भ्रनन्त ब्रह्म--श्रर्थात्‌ सत्य एवं अ्रनन्तश ज्ञान-स्वरूप ईश्वर को मानना ही अनन्त ज्ञान को प्राप्त करना है। ईश्वरीय ज्ञान, ज्ञान की पराकाष्ठा है। एक न्यक्ति ईश्वरीय ज्ञान को प्राप्त करके ईश्वर रूप ही हो जाता है--ब्रह्म वेद ब्रह्म 7 भवति ।” जब एक व्यक्ति को समस्त वासनाएँ छिन्न- भिन्न हो जाती है तव वह प्रमरता का वरण करता है। जिस प्रकार से नदियाँ समुद्र मे मिलकर विश्वाम करती हैं, उसी प्रकार जीवात्मा ईशए्दर में विलीत होकर झखण्ड झानन्द को प्राप्त करती है। ईश्वरीय ज्ञान झ्रात्मा का ही ज्ञान है । ईश्वरीय जान होने पर सम्पूर्ण जगत्‌ ईश्वरवत्‌ प्रतीत होने लगता है “सर्वम्‌ खल्विद ब्रह्म ।” उपनिषदो में सत्य भौर यथार्थ ज्ञान के रूप भे ईश्वरीय ज्ञान को ही स्वीकार किया गया है। इसी से मुक्ति या सोक्ष सम्भव है । 40 पुन्जेन्म--छान्दोग्य उपनिषद्‌ मे कहा गया है कि अल्प वाभिकता या साधना मे सुख नही है | सुश्ष की भ्रसीमता केवल भूमा या अखण्ड साधना-शक्ति में ही होती है । जब तक जीव कर्मो के बन्धन में वंघकर भटकता है तव तक उमे जन्म- जन्मान्तर के रूप में विभिन्न योनियों मे भ्रमण करना पडता है । जीव झात्मरूपता को प्राप्त कर लेने पर पुनर्जन्म के चक्र से दूर हट जाता है। 'श्वेताश्वतरोपनियद्‌” में योगानल-सदृश शरीर को पाने वाले योगी को जरा मरणा के बन्धन से भ्रतीव बताया गया--- लः “तल तस्य रोगो न जरा न मृत्यु प्राप्तस्थ योगास्तिमय शरीरस ॥“ “विमुक्तो5मृतमश्नुते” श्रर्थात्‌ माया-मुक्त व्यक्ति ही जन्म-मरए के चक्र से मुक्त होता है। भात्म तत्त्व को जानने वाले व्यक्ति के समस्त सस्कार ससार मे ही वबिलीन हो जाते हैं. 'सर्वे इद्दैव प्रविलीयन्ते ।” परत उपनिषदी मे पुनर्जत्म को बैज्ञानिक रूप देकर उससे मुक्ति पाने के उपायो की भी शिक्षा दी गई है। उपनिषदो के अनुशीलन से इस निष्कर्ष पर पहुँचना सरल है कि उपनिषद्‌ ग्त्थ निष्काम कर्मेयोग के भ्राधार पर सामाजिक कार्यो की शिक्षा प्रदान करते रहे। वैदिक साहित्य 79 उपनिषद्े मे.दाशेनिक स्तर की शिक्षाएँ श्रत्यन्त _ व्यापक हैं। हमारे ममग्ज को उद्धरित करने के लिए उपनिपदो की जो भूमिका रहो है, उसे वेदवेत्ता ही भरी माँति समझ सकते हैं। उपनिपदो की शिक्षाओ्रों को ध्यान मे रखकर शोपेनहार को यहां तक कहना पड़ा कि उपनिपद्‌ ससार के महानतम ज्ञान केन्द्र हैं। उपनिपदो से जीवितावस्था मे शान्ति मिलती है तथा वे मृत्यु को भी शान्तिमग्र बनाने में पुणेत समर्थ है-- गा 6 छ०यत परीढाह 75.. 70 ४४०३७ ४० छै६९क्षाएह8 85 0 0६ शफ्णाशा॥088 70 85 ऐश (08 30808 ए गए तह, गे ज्ञषी 08 ता० 5०७०९ रण जाए त6॥," घड़-देदाँग (8४ एश्रा5 ए 4॥० ५४४४६) वेद के छ भ्रग है--शिक्षा, कल्प, व्याफरण, निरुक्त, छत्द भ्ौर ज्योतिष । ये सभी वेदाँग वेंदो की यवरार्थ जानकारी के लिए सहायक हैं । हम इनका स्षिप्त चर्शन प्रस्तुत कस्ते हैं-- शिक्षा--वर्णो के उच्चारण की विधि का नाम शिक्षा है। वेदों के स्वर तीन प्रकार के हैं--उदात्त, अनुदात्त भौर स्वरित । ऊँचे स्वर मे उच्चरित बरण उदात्त कहलाता है--उच्चेददात्त , नीचे स्व॒र में उच्चरित वर्ण अनुदात्त कहलाता है--- नीचेरुदात्त , उदात्त भौर भनुदात्त के वीच के स्वर मे उच्चरित चर स्व॒रित कहलाता है---समाहार स्वरित '। सक्षेपत, 'शिक्षा' भें भाषा-विज्ञान की श्रधिकाँश वातें समाहित रहा करती हैं । कल्प---कल्प' शब्द का भ्र्थ है एक उदार कल्पना या व्यवस्था इसलिए कल्पसूत्रो भे बश्ो की विधियाँ, भ्राचार-सहिना झादि का सुन्दर विवेचन किया है। हम कल्पसूत्री का बणुंन भागे पृथक रूप से करेंगे | व्याकरशु---शब्द-रचना या शब्द-व्याकलन विधिशास्त्त का नाम व्याकरण है । प्राचाय पाणिनि की भ्रष्टाध्यायी, प्रातिशाहुप ग्रन्थ व्याकरण के प्रत्य ह्दै। अरष्टाध्यायी' लौकिक सस्कृत का प्रामाणिक ग्रन्थ है । निरुतक्त--शब्द-बोध कराने के शास्त्र का नाम निरुक्त है। निरक्त के माध्यम से बेदिक शब्दों की जानकारी होती हे । प्राचार्य यास्क का “निशक्त' एक प्रामाणिक निरक्त-प्रन्थ है । छतद--वृत्त-व्यवस्था का नाम छन्द है। गद्य से पद्य को पृथक्‌ करने के लिए भत्ल आधार छुन्द ही है । वेदों भें तिम्त छल्दों का प्रयोग हुआ है--गायत्री, जगती, व्रिष्दुप, पक्ति वृद्धती अनुष्दुप, पग्रतिजगती, शब्वरी, ग्रतिशक्वरी, कृति, प्रकृति, पभाकृनि विकृति, संस्कृति, भ्रभिकृति, उत्कृति, इत्यादि । श्राचायें हैमचन्द का छन्दो« अुभ्ासन ग्रन्ध छुन्दशास्त्र के रूप मे विरषात हैं । ज्योतिष--“हु-ज्ञान या काल-ज्ञान विद्या का नाम ज्यौतिप है। यज्ञ-क्रियाप्रो की सफलतापूर्वक समाप्ति के लिए ज्योतिय उपादेय है | ज्योतिष एक प्रकार से एक 80 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास भहान्‌ गणित है । 'वेदाँगज्योतिप' ग्रन्थ मे ज्योतिष का महत्त्व निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया गया है-- १ यथा शिखा मयूराणा नागाना मणयो यथा। तहद्वे दागशास्त्राणा गरियत मूधिन सस्थितम्‌ ॥॥ सूत्र-प्रन्थ (50725) सूत्र का स्वरूप एव सूत्र ग्रन्थो का वर्गीकरण 'सूत्र! शब्द का श्रर्थ है--धागा । जिस प्रकार धागे मे पत्र-प्रवाल, मण्ि- मारिक्प प्रादि पिरोकर माला बनाई जाती है, उसी प्रकार छोटे-छोटे वाक्यो में अनेक भावों को परिपूरित करके सूत्रो की रचना होती है । झ्त सूत्र के माध्यम से गागर में सागर मुहावरे को चरितार्थ किया जाता है। सूत्र की परिभाषा इस प्रकार है--'प्र्थ भमित झआखर्‌ भ्रति थोरे ।--अर्थात्‌ कतिपय श्रक्षरों मेया शब्दों मे प्रसीमित भ्रर्थ को प्रतिपादित करना ही 'सूत्र” है। इस श्राधार पर यह कहना पूर्णंत दीक होगा कि जो ग्रन्थ सूत्र-शंली मे रचित है, वही सृत्र-प्रन्य है । हम वेद के छ झगो की चर्चा करते समय 'कल्प' का भी परिचय दे आए हैं। वेद के 'कल्प! श्रग से सम्बद्ध भ्ननेक ग्रन्थ रचे गए, जिन्हे 'कल्पसूत्र” नाम से श्रभिहित किया जाता है । परन्तु, वैदिक साहित्य मे प्रातिशाख्य-प्रन्थो मे भी सूत्र-शैली का प्रयोग किया है, श्रत वे भी सूत्र-ग्रन्थो के रूप मे विवेच्य हो सकते है । फल्पसूत्र---कल्प' का अर्थ है--परादेश, श्रनुदेश, न्याय, यूक्ति, कर्म इत्यादि ।_ इसी तरह 'सृत्र' का भ्रर्य है सक्षेपण या सक्षिप्त शैली या सुक्तिपूर्ण शैली । श्रत /कल्पसूचर-प्रन्थी में अनेक धम्मे-विधियो, यज्ञानुष्ठाको, कर्म-विधानों तथा भ्रन्य नियमों का वन करने के लिए सूत्र-शैली को श्राघार बताया गया है ।/ कमें-प्रतिपादन की दृष्टि से कल्पसूत्रो का वर्गीकरण इस प्रकार से है-श्ौतसूत्र, गृहसूत्र तथा धर्मसूत्र। ओऔत्रसूत्र--श्षुति-भ्र्थात्‌ वेद मे यज्ञ की प्रधानता है इसीलिए यज्ञों के प्रतिपादक ग्रन्थ को शजसून कहा गया है । भ्रौजसूत्रो मे सम्पूर्ण यज्ा-विधानों को चर्चा की गई है ए/ब्राह्मण-प्रन्थो में भी यज्ञ-होम इत्यादि का प्रतिपादन है, परन्तु वे शैली मे न होकर काव्यात्मक और वर्णनात्मक शली मे रचित हैं । प्रत्त यज्ञ के विधानो को सरलतापूर्वक कण्ठस्थ रखने के लिए श्रौन्नसूत्रो की भ्ननुपम उपादेयता है/ प्रमुख ओऔन्रसूत्र इस प्रकार हैँ--आराश्वलायन-श्रौजसूत्र, शॉलायन-शौौज्सूत्र, मानव- ओत्रसूत्र, बौधायन-श्रौत्नसूत्र, आपस्तम्भ-भ्ौश्नसूत्र 'हिरण्यकेशी-आतसूत्र” कात्यायन- ओन्ञसूत्र, लाट्यायन-शऔज्रसूत्र, द्राह्यायण-श्रौतसूत्र, जेमिनीय ओऔनसूत्र तथा वैतान ओऔद्रसूत्र < । गृहासूत्र--शह्मसूत्रो मे गहस्थाश्रम-के-समस्त सस्कारो एवं सदाचारो , का बरणुंत किरा गया है। शहस्य जीवत को सरस वनाने के लिए गृहासूत्रो की रचना की गई है। प्रमुख ग्रहसूत्र श्ग्नलिखित हैं--भाश्वलायन गृह्मसूत्र, शॉलायन-गह्सूत मानव-गहासूत्र, बौधायन-ग्रह्मसूत, आपस्तम्ब-एह्मसूज, हिरण्यकैशी-ग्रह्मसूत्र, भारद्वाज- चैंदिक साहित्य 8 भारदाज--सशह्यसूत्र, पारस्कर-एच्यसूत्र, द्राह्यायश-गह्मसूत्र, गोभिल गृह्मसूल, खरिद-गृह्ययूत्न एव कोशिक-गृह्मसूत्र । घर्मसन्ष--वर्साअम-घसं-व्यवस्था को लेकर धम्मसूत्रो की रचना की गई। “धरम! एक व्यापक शब्द है, जिसमे सम्यता और सस्कृति को समाहित किया जाता है । समस्त धर्म-व्यवस्थाओों का सम्रह धर्मसूत्रो मे दृष्ठव्य है। प्रधान धर्मसूत्र इस प्रकार हैं--वशिष्टधर्ममत्र, मातव घर्मसूत्र, वौघायन धर्मसूत्र, शापस्तम्भ धर्मसूत्र झौर गौतमघर्मसूत्र वेदों के झ्राधघार पर कल्पसूत्ो का वर्गीकरण वैदिक सहिताशो को लेकर केवल क्नाह्मण, भारण्यक तथा उपनिपद्‌-प्रन्यो की ही रचना न होकर, कल्पसूत्रो की भी रचना हुई है । चारो वेद--कऋचग्वेद, यजुर्वेद, सामबेद तथा प्रथवंवेद के झाघार पर कल्पसूत्ी का वर्गीकरण निम्न भाँति किया जा सकता है-- ऋत्वेद के कल्पतृश्न---ऋग्वेद से सम्बद्ध दो सुत्र-ग्रत्थ है-म्राश्वलायन.तथा शाँखायन । झाश्वलायन श्ौजसूत्र तथा प्लाश्वलायन गृहस्थसूत्र के साथ-साथ शाख़ायन- श्रौजसूत्र एवं शाखायन-गृहासूत्र सी ऋग्वेद से जुडे हुए हैं। उक्त सूत्रों पर भ्रनेक भाष्य भी प्राप्त होते हैं। इन सूत्र-प्रन्यो को विभिन्न प्रष्यायो में विभाजित करके एक-एक विषय का क्रमबद्ध विवेचन किया गया है । भजुर्वेद के कल्पसूत्र-थजुरवेद के कल्पसूत्रों मे प्रापस्तम्ब, हिरण्यकेशी वौघायन्‌ प्रसिद्ध है। इस वेद से सम्बद्ध श्रौनसूत्त मे मानव, लौगांक्षि, कठे प्रो काव्य विस्यात है | धाधुनिक युग में श्रापस्तम्ब-धर्मंसूत्न को बहुत भ्रधिक महत्त्व दिया जा रहा है” आ्रापस्तम्ब का शुल्वसूत्र भी यजूवेंद से सम्बद्ध है। सासवेद के कल्पसूक्ष--सामवेद की कौथुमीय शाखा का लाद्यायन औजसूत्र प्रसिद्ध हैं । इसी तब राय हे सम्यजप परम वोजपन है। सा के पचविश ब्राह्मण का औत्रसुत्त 'माशक कायम से जाना जाता है । उक्त वेद की राणायणीय शाला से सम्बन्धित द्राह्यायण औन्रसूत्र है। सामवेद के प्रह्मसूतो मे गोभिल तथा खदिर- प्रसिद्ध अन्य सूत्र-ग्रन्थ इंस प्रकार हैं---ताण्डय लक्षण-सृत्र, उपग्रन्थसूत्र, छुद्रसूत्र इत्यादि । झथवेंद के कल्पसूत्न--अथवेंगेद का एकमात्र ब्राह्मण 'गोपथ” है। इस ब्राह्मण के प्राघार पर पाँच सूत्र-प्रन्थो का विकास हुआ, जिनके नाम इस प्रकार हैं- कौशिक्र-सूच, जेतात-सूत, नक्षत्॒कल्प सूत्र, अगिरस-कल्पसूत्र भ्रौर-शान्तिकल्पसूत्र । इन सूत्र-प्रत्थो के भ्ततिरिक्त प्रथर्गगेद से सम्बद 'आाथर्णण-कल्पसूत्र” का भी उल्लेख किया गया है । फलपसूत्रों को रचता की भावश्यकता-सम्पुर्ण गेदिक साहित्य मौखिक रूप मे जीवित था। लिपिबद्ध ज्ञान के अभाव मे मौश्लिक ज्ञान को सुरक्षित रखना असम्भवप्राय हो चला था | इसी कारण से गैदिक यज्ञ-विधानो को जीवित रखने के लिए उन्हें सूत्रों मे प्रतिपादित कर दिया गया । इन सूत्रों को याद रखना भपेक्षाकृत सरल या । इसी सूत्र-काल मे भोजपनत्नों तथा ताडपत्रों के ऊपर लिकनते की पद्धति 82 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सास्कृतिक इतिहास प्रारम्भ हुई । सूत-बुग का आविर्भाव लगभग 600 से 700 ई प्‌ तक स्वीकार हक्षिया जाता है । १ - “ कल्पसूुन्नो का वण्यं-विपय हिन्दू-धर्म की उपादेयता को साकार करने का उद्देश्य लेकर सूत्र-णैली में कल्पसूत्रो की रचना हुईं। इन नूत्र-प्रन्गे का निवेच्य निम्न रूपो मे देखा जा सकता है-- ] यज्नों का वर्गीकरण, 2 गहस्थ-धर्मे का विवेचन, 3 वर्णाश्रम धर्म का स्पष्टीकरण तथा ९4 प्रन्य सामाजिक व्यवस्थाओों का प्रतिपादन । ] शक्षों का दर्गोकरण--श्रौउसूत्रो मे चौदह पकार के यज्ञों का विधान स्पष्ट किया गया है । इन यज्ञों मे सोमरस के पान की भी विस्तार से चर्चा फी गई है । सोमरस के शभ्रनुप्ठान से सम्वन्धित सोमयज्ञ की भी चर्चा की गई है । 'यज्ञपरिभापासूत्र” मे तीन प्रकार के यज्ञो--सोमसस्था यज्ञ, हवि सस्था यज्ञ तथा पाक सस्‍्या यज्ञ का सुन्दर विवेच्रन हुप्रा है। उपयुक्त तीनो प्रकार के यज्ञों को सात-सात भागो मे विभाजित किया गया है। यथा--- सौमसस्या यज्ञ-भग्निष्टोम, भ्रत्यग्निष्टो म, उक्थ्य, पोडशी, वाजपेय, भ्तिराजत्र एव प्राप्तोष्मि । हविसस्था यज्ञ -अ्रम्नाध्येय, अग्निहोत्र, दर्शं, पौर्णामास, श्रात्रहापण, चातुर्मासस्य एवं पशुबन्ध ) पाकसस्था यज्ञ--सायहोन्र, प्रातहोत्रि, स्थालीपाक, नवयज्ञ, वेश्वदेव, पितृयज्ञ तथा भ्रष्टका । इन सब यज्ञों के माध्यम से वायुमण्डल को शुद्ध करने के साथ-साथ सामाजिक एवं साँस्कृतिक पर्यावरण की शुद्धि पर भी दल दिया गया है | 2 गृहस्थ-घर्म का विवेचन--सर्देवा ग्राश्ममाणा ग्रृहस्थाथम विशिष्यते” । अर्थात्‌ सभी आश्रमो में गृहस्थाअरम सर्वेश्रेष्ठ है। वस्तुत इस पश्राश्मम के ऊपर ब्रह्मचये, वानप्रस्थ तथा सनन्‍्यास नामक प्राश्रम भी झाश्चित रहते है | प्रत्यक्षत यह देखा ही जाता है कि समस्त उन्नति-विधान गृहस्थाश्रम को ही लक्ष्य करके किए जाते हैं। हमारे विद्वानों ने गृस्थाश्रम मे ही सुमी झाश्रमो का दर्शन करने पर बल दिया है। सूत्र-प्रल्यो मे यृहस्थ के लिए कुछ यज्ञो को भ्रुष्ठित करना आवश्यक कहा है । वे मुरय यज्ञ इस प्रकार हैं-- गृह यज्ञ -पितृयज्ञ, पार्वणयज्ञ, श्रष्टकायज्ञ, श्रावणी यज्ञ भ्श्वायुजी यज्ञ, झ्राग्रहायणी यज्ञ एवं चेत्रीयज्ञ । महायज्ञ-देवयज्ञ, भूतयश्, पितृयज्ञ, ऋषियज्ञ एवं नूयज्ञ । गृहस्थ-जीवत को सुखी और सयत्‌ रखने के लिए आरोग्यता की सर्वाधिक झावश्यकता है। इसीलिए कौशिक गृहासत्र” मे अनेक रोगो तथा दैविक विपत्तियो को दूर करने के लिए अनेक मन्त्र लिखे है। पितृ यज्ञ के माध्यम "जो का वैदिक साहित्य 83 नाम उजागर करने वाली सत्तान या सतति का विकास करना हूं तथा नृयत् के भाध्यम से मानवतावादी सदेश प्रेषित काना है। झत गृहस्व-घर्म में सम्बद्ध विभिन्न यज्ञ अपनी अलग ही उपादेयता रखते हैं। गृहस्थ-धम का मूल दाम्पत्य जीवन है। दाम्पत्य जीवन को सफल बनाने के लिए कुछ वैवाहिक विधि- निपेघ की चर्चा भी सूत्र ग्रन्थो मे की गई है । विवाह आठ प्रकार के हं--पराद्म, देव, प्रार्प, प्रजापत्य, प्ासुर, गाँवव, राक्षस और पंशाच । प्रथम चारो प्रकार के विवाह प्रशसनीय तथा अ्रन्तिम चारो प्रकार के विवाह निन्‍्दनीय कहे गए है । दाम्पत्य जोचन मे सोलह सस्कारो का भी बडा महत्त्व है भरत सूत्र-प्रस्यो में गृहस्थ-घर्म की सजीवता को प्रमाणीभ्षृत किया है । 3 बर्णाकम-धर्स का रपष्टोकरण---धर्मपूत्रो मे चार प्रकार के वर्णा-ब्राह्मण, क्षत्रिय, चेश्य तथा शूद्र के कार्रो का युक्तियुक्त विवेचन हुप्रा है। 'गौतमधर्मंसूतर' में द्विजातिया--ब्राह्मरा, क्षत्रिय एवं वैश्य को खान-पान की दृष्टि से समान स्तर पर देखा ग्रया है। शूद्रों को भनन्‍्य वर्गों की वराबरी का दर्जा न देने के कारण सूच-प्रन्था से भी 'शोषक-शोष्य' भ्रष्याय को पव॑वत्‌ रखा । /उपनिषदो मे ब्रह्म-विद्या के भराधार पर सबको ब्रह्म-हूप भे देखने का प्रयास करके समानता की स्थापना की । परन्तु सूत्र प्रल्थो ने उस समानता को दृष्टि से प्रपमत करके असमानता के प्रध्याय का पुन श्रीगणेश कर दिया । इसीलिए व॑ चाहिक सीमाएँ भी कट्टूरता को प्राप्त हो गईं तथा रूढिवादिता को पुन पनपने का भ्वसर प्राप्त होने लगा । इन्ही रूढियो के फलस्वरूप ई पू छट्टी शत्ताब्दी मे युगपत्‌ वौद्ध तथा जैन धर्मो का उदय हुआ 2 क्र घमंसूजो मे दुह्मई देकर भी दण्ड-व्यवस्था के प्रसग मे भ्राह्मणो को नाममात्र दण्ड तथा भ्रन्य वर्गो को भ्रपेक्षाकत भ्रधिक दण्ड देने की व्यवस्था की गई । झत-सैत्र-प्रत्यो मे ब्राह्मण घमम की कट्टरताप्रो को सुरक्षित रख लिया गया; इसीलिए सूत्र-प्रन्थो का धर्म भी ब्राह्मएा-घर्म'! नाम से जाना गया ।” झनन्‍्य सामाजिक व्यवस्थाझो का प्रतिपादन--हिन्दू-घर्सा को सुरक्षित रखने के लिए विदेशी-सम्पर्क को घृणा झौर जुग्ुप्सा की दृष्टि से देखा जाने लगा था इसीलिए सूत-प्र॒ल्थो मे समुद्र-याजा का भी निषंघ कर दिया गया । यदि कोई व्यक्ति विदेशी नागरिकों से वैवाहिक सम्पर्क स्थापित करने की चेष्टा करता तो उसे घर्म- दोही माना जाता। विवाह के विषय में वर-कल्या से सम्बन्धित जितनी भी गहराइयाँ हो सकती हैं, उद सबको घर्मसूत्रो मे स्थान दिया गया | #स्तुद घर्मसूत्र जिसे वर्ण-व्यवस्था घोषित कर रहे थे, वह जाति-व्यवस्था बन चुकी थी और न जाने कितनी ही रूढियो-प्रन्वविश्वासो का विशिष्ट सूत्रपात भी सूभ-काल में ही हुआ । फिर भी सूउ-पल्यों की उत्रादेयता हिन्दू-चर्म के परित्रेक्षय मे अपरिहाये कही जा सकती है । सूत्र-प्रन्यो का धन्य प्रन्थो पर प्रभाव , _ उपय क्त विवेचन से यह तो स्पष्ट ही हो चुका है कि सूत्र-प्रन्थो का रूढिगत धैर्य कल्पसूओं से ही है परन्तु सूत-शैली का प्रभाव व्याकरण ग्रन्थों पर भी पडा । 84 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास इसीलिए ऋक्‌ प्रतिशाख्य जैसे वेदिक व्याकररान्ग्रन्थ सूत्र-शैली मे ही रचे गए। सूत्र- शैली लौकिक सस्क्ृत मे भ्राकर अभ्युत्यान को प्राप्त हुईं। इसीलिए साँस्य, योग न्याय, मीमाँसा, वेशेपिक, ब्राह्मसूत्र जैसे दार्शनिक ग्रन्थो की रचना सूच्र-शैली मे ही हुईं । लौकिक सस्क्ृत के प्रामाणिक वयाकरण पाणिनि की “अ्रष्ठाध्यायी' भी सूत्र- शैली में ही प्रणीत है| व्याकरण के क्षेत्रों मे श्रनेकानेक ग्रन्थों की रचना सूत्र-शैली में ही हुई है । भ्रत वदिक साहित्य के सूच-प्रन्थो का प्रभाव लौकिक सस्‍्कृत पर ही ने होकर आधुनिक भाषाओ---हिन्दी, वगाल, मराठी आ्रादि पयेन्त देखा जा सकता है । प्राचीन हिन्दी समालोचना का विकास सूत्र-शैली मे ही हुआ । उसका एक प्रतिदर्श दृष्टव्य है-- * सूर-सूर तुनली शशि, उडुगबव केशवदास ।॥ भ्रब के कवि खद्योत सम, जहें-तहेँ करत प्रकास ।। ! पौराणिक साहित्य (४एए0ण०प्ताए४ ॥/४००७४७) 'पुराण” शब्द का श्रर्थ है--पुराता या प्राचीन । बस्तुत प्राचीन काल मे वेद-विस्तार का फार्य श्ननेक रूपो में हुआ । जिस प्रकार वदिक साहित्य के भग- ब्राह्मश, आरण्यक, उपनिषद्‌ तथा सूत्र-प्न्‍न्थ वेदो के प्रत्तिपाद्य का ही प्रनेकश एव झरनेकधा वशन भौर प्रतिपादन करते रहे, उसी प्रकार वेदिक साहित्य के भ्रनेक विषयो को कथानकीय झाधार_पर विस्तृत रूप देने का भहत्त्वपूर्शो कार्य पुराणों ने किया । पुराणों मे प्राचीन कथाप्नो को श्राधार बनाकर सनातन मूल्थो को ही स्पष्ट किया गया है, इसलिए “पुराण' पुराने होकर भी नए हैं--'पुरा भवति” (यास्कीय निरक्त, 3/9) । अर्थात्‌ पुराण पुराना होकर भी तया है | पद्म प्राण मे पुराण शब्द का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखा है---पुरा परम्परा वृष्टि पुराण तेन तत्‌ स्मृतम' पद्म 5/2|53 भ्रर्थात्‌ प्राचीनकालीन परम्पराओशो का वर्णोन करने वाले ग्रन्थ को 'पुराण' नाम से पुकारा जाता है | वायु पुराण मे 'पुराण' का रहस्य स्पष्ट करते हुए लिखा है---यस्मात्‌ पूरा ह्ानतीद प्‌ रारश तेन तत्‌ स्मृतम्‌ । प्र्थात्‌ जो प्राचीन घटनाश्रो को अपने झाप में जीवित रखता है, वह प्‌ राण है| प्रत प्राण” शब्द की व्याख्या के श्राघार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि'प्‌ राण परम्पराझो के पोषक है । वे सनातन मूल्यो के प्रतिपादक है, वे इतिवृत्तो से परिपूर्ण हैं, वे वेद के विस्तारक हैं, वे प्राचीन ग्रन्थ हैं ॥/ पुराणों का वर्गोकरण पुराणों मे 'पुराणो' की सख्या झठारह मानी गई है। श्रष्टादश पुराणों के नाम इस प्रकार है--- ब्रह्म, पदूम, विष्णु, शिव, भागवत, नारद, मार्क॑ण्डेम, अरिन, भविष्य, अह्ायवंवर्त, लिंग, चराह, स्कन्द, वामन, कूर्म मत्स्य, गरुढ तथा बह्माण्ड । अहम घुराण--ब्रह्म पुराण मे 245 अध्याय है तथा 3783 इलोक हैं| यह पुणण भारतवर्ष को देवभूमि या तीर्थेभुमि के रूप मे उजागर करता है। 86 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृृतिक इतिहास मध्य भारत के दण्डकारण्य की चर्चा इस पुराण का विस्तृत विषय रहा है। इस पुराण मे गोदावरी नदी का विस्तार से वर्गांन किया है। इस पुराण मे उडीसा- उत्कल देश (स्थान) का विपद्‌ वर्णन है जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्म पुणाण पी रचना में उड़ीसा या उत्कल भूमि का आकर्षण शीरयंेध्ष्य स्थान रखता है । प्रस्तुत पुणण में तीर्थों का महात्म्य विस्तार वणित हुआ है। इसमे जगन्नाव-श्री कृष्ण के बडे भाई बलराम या सकर्पण तथा उनकी वहिन सुभद्रा की भी चर्चा हुई है। इस पुराण में अनेक पुराणों के श्लोको को ज्यो के त्यो रूप मे शम्मिलित किया गया है इसीलिए कुछ विद्वानू इस पुराण के अधिकाँश भागो को पक्षिप्त मानते है। भ्रक्षिप्त- करण के आधार पर इस पुराण का रचना-काल 3वी शताब्दी तक माना जा सकता है । पदुम पुराण--पदुम पुराण मे छ अध्याय है--आदि भूमि, ब्रह्य पाताल, सृष्टि और उत्तर खण्ड । इस पुराण में श्तोको की अ्रधिकतम सरया 25 हजार मानी जाती है। पद्म पुराण में 2वी शताब्दी के प्रथम चरण मे होने वाले कुलोत्तुग नामक राजा की कथा का भी उल्लेख है, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि यह पुराण कुछ अशो के हिसाव से बहुत ही प्र्वाचीन है कुछ विद्वान्‌ इस पुराण के ऊपर राघावुल्लभ. सम्प्रदाय का प्रभाव देखकर इसे 6वी शताब्दी तक की रचना न्‍्वीकार करते है । विष्णु पुराण--इस पुराण के वक्ता मह॒पि पराशर हैं। प्रस्तुत पुराण मे लगभग छ हजार श्लोक उपलब्ध होते हैं ॥ विष्णु पुराण मे विष्णु के साथ साथ विष्णु के श्रवतार श्रीकृष्ण का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। श्रीकृष्ण ने गोवघन पववेत को खेल ही खेल मे उठा लिया। ऐसा वर्णान पौराणिक अतिशयोक्ति- पूरा शैली की घोषणा कर देता है। जब श्रीकृष्ण ने द्वारका की महिलाओ को अजुन के सरक्षण मे इन्द्रप्स्थ भेजना चाहा तो मध्य देशीय भीलो ने झजुनत को पराजित कर दिया। उस समय की अजु न की मन स्थिति का युक्तियुक्त मनोवेज्ञानिक चित्रण देखते ही बनता है । इस पुराण मे विभिन्न राजवशो-सूर्येवग तथा चन्द्रवश का सुन्दर विवेचन किया है | विष्णु पुराण का रचना-काल प्रथम शत्री के लगभग स्वीकार किया जाता है | वायु पुराणश--वायु पुराण में 2 प्रध्याय है तथा इसकी श्लोक सख्या ]0 हजार के लगभग हे । इस पुराण का सम्बन्ध धामिक कृत्यों से ग्रधिक जुडा हुआ है। यहू पुराण इतिहास तथा श्रम शास्त्र दोनो से ही सम्पन्न है। वायु पुराण मे भी झवतारवाद की भावना का एक सहज निदर्न है । लौकिक सस्कृत साहित्य के भहान्‌ गध्यकार भाचाये बाण भट्ट ने भी वायु पुराण की चर्चा की है। अत वायु पुराण के कुछ भशो का रचना-काल चाहे कितना ही भर्वाचीन हो, परन्तु इसका मूल भाग कम से कम छठी गत्ताब्दी के मध्य से पूर्व रचित होना चाहिए । ] झाचाये बलदेव उपाध्याय पुराण विमश, भूमिका भाग पौराणिक साहित्य 87 7 झागवत्‌ पुराण--श्रीमद्भागवत्‌ नाम से एक महापुराण की चर्चा प्राय सर्वत्र होती है। वह महापुराण भागवत्‌ पुराण ही है। इस पुराण में 2 स्कन्च है। इस पुराण के 8 हजार श्लोक उपलब्ध हैं। प्रस्तुत पुराश के बारहवें स्फन्‍्च को देखने से पता चलता है कि इसका प्रत्तिम भाग अभ्रधिक प्राचीन नहीं है। इनमे देवकी के पुत्र स्कन्घ गुप्त की भी चर्चा हुई है अत _इसका अच्तिम स्कस्व पाँचदी शताब्दी में रचित हभ पे रचित हध्ा है । कुछ अन्य प्रन्थो का धनुशील करने के उपराल्त विदेणी विद्वान काणें साहब ने भागवत्‌ पुराण को नवी शताब्दी की “चना मात्रा है। इस पुराण के दशम स्कन्ध मे श्रीकृष्ण की लीलाप्नो की सविस्तार रचना की गई है । कहा जाता है कि जब श्रीकृष्ण गोकुल से मथुरा के लिए प्रवास्तित हो गए तो उन्होंने फस का सहार करके कस के पिता उप्रसेन को मथुरा राज्य के राज-सिंहासन पर झासीत कराया । कस के श्वसुर मगध नरेश जरासन्ध ने एक विशाल सेना लेकर अपने जामातृहन्ता श्रीकृष्ण का वध करने का निश्चय किया | कई वार श्रीकृष्ण और बलराभ ने जरासन्ध को पराजित किया। तदनन्तर गोकुल मे रहने वाले ननन्‍्द- यशोदा तथा भोप-योपी-दृन्द को समभाने के लिए उद्धवजी को भेजा गया । ज्ञानमार्गी उद्धव ने गोपियो को समझाने को भरसक कोशिश की परतु गोपियाँ श्रीकृष्ण के झान- मार्गी सन्देश को शभ्रध्िक महत्व न दे सकी । भागवतकार की कल्पना ने उद्धव और गोपियो के वार्ताकाल मे एक अमर को भी ला खड़ा किया | अब उसी “अ्रमर' के भ्राघार पर यह माना जाता है कि हिन्दी कृष्ण-भक्ति शाखा के सूरदास जंसे महाकवियो के काव्य मे भ्रमर-दूृत की रचना का स्रोत भागवत का अमर-प्रसग ही है । इस पुराण मे राजवशो के वर्णंत के साथ-साथ राजा परीक्षित की कथा का भी सामिक चित्रण हुआ है । नारद पुराश--नारद पुराण मे 38 श्रध्याय है तथा 3600 एलोक है | इस पुराण में विष्णु-मक्त नारद के माध्यम से वेष्णवो के समस्त दिद्धान्तों की चर्चा की शई है । प्रस्तुत पुराण मे बौद्ध-घर्म की कटु ग्रालोचचा की गईं है। यदि कोई द्विज व्यक्ति बौद्ध-विहार में प्रवेश करता है तो उसे पाप-समुद्र मे डूबना पडता है । ऐसे व्यक्ति की शुद्धि सैकडो प्रायश्चितो से भी सम्भव नही है--- वौद्धालय विशेद यस्तु महापद्मपि वे द्विज । न तस्य निष्क्तिहं ष्टा प्रार्याश्चितशतैरपि ।। “नारद पुराण मे जिन मत-मतान्तरो का विवेचन मिलता, उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि नारद पुराण के प्राचीन सवादो के श्राघार पर तत्कालीन ब्राह्मण- धर्म के ममर्थेक विद्वानों ने इसमे इतना प्रक्षेप किया है कि जिसकी कोई सीमा ही नही जान पड़ती / नारद पुराण का रचना-काल 600 ई से पुराना नही है| मार्केण्डेय पुराण--प्रक्रण्ड के पुत्र मार्कण्डेय की रोचक कथा का वर्णोन इस पुराण का आधार है। मार्कण्डेय ऋषि ने भगवान विष्णु की लीला की महत्ता का, अनुभव तद क्रिया जब उनके देखते-देखते प्रलयकालीन दृश्य उनके सामने उपस्थित दो गया । इस पुराण भे देवी की महत्ता का भी भुन्दर रूप मे प्रतिपादन हुआ है । वि 88 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्क्ृतिक इतिहास दत्ताक्षेत्र नामक ऋषि के माध्यम से प्राश्रम व्यवस्था, राज व्यवस्था, श्राद्ध तथा तरक जैसे विषयो को लेकर चर्चाएँ कराई गई है। इस पुराण का रचना-काल छठी शताब्दी से प्राचीन है । प्रस्तुत पुराण मे 9 हजार श्लोको की सम्भावना की गई है। प्रर्ति प्राण--इस पुराण मे 5 हजार श्लोको की सरुया का अनुमान किया जाता है । भ्रग्नि पुराण मे वैष्णवी पूजा-चर्चा का सुन्दर विधान दिखलाई पडता है। इस पुराण का सम्बन्ध कुछ तत्त्वों से भी है, जो कभी वग देश में प्रचलित रहे थे । इस पुराण मे गोचिकित्सा, आयुर्वेद, वास्तु-विद्या, घनुविद्या तथा रत्नपरीक्षा जैसी विधाझ्रो का भी सुन्दर वर्णन है । इस पुराण का रचना-काल नवी शताब्दी से पूव॑ का है । भविष्य पुराण--इस पुराण में चार पर हैं-ब्रह्म, मध्यम, प्रतिसगग तथा उत्तर | भविष्य पुराण मे श्लोको की सख्या 74 हजार तक की गई है । प्रस्तुत पुराण का स्वरुप भअप्रामारिषक अधिक जान पडता है। समय-समय पर श्रनेक व्यासो ने इस पुराण का खूब विस्तार किया है इसलिए इसके रचना-काल के सम्बन्ध मे कोई निर्णय लेना कठिन जान पडता है । ब्रह्मवेवर्त पुराण--प्रह्मवेवर्त मे 8 हजार श्लोक हैं। प्रस्तुत पुराण मे भगवान के लोक को “गोलोक' नाम दिया है। इस लोक की प्राप्ति परस्पर ब्रह्म की कृपा से ही सम्भव है। इस पुराण मे देवी के प्रनेक रूपो में-मगल चण्डी तथा मनसा देवी को विशिष्ट स्थान मिला है। ब्रह्मवैवर्त मे 'गगावतरण” की कथा का सुन्दर वर्णन किया है । हिन्दी के महान्‌ कवि जगन्नाथदास 'रत्नाकर' ने इस पुराण से प्रभावित होकर 'गगावरणु” नामक खण्ड-काव्य लिखा है ।' सुयंवशी राजा सगर के बीरो की मुक्त-कठ से प्रशसा भी इस पुराण मे द्रष्टव्य है । इस पुराण का रचना-काल नवी शताब्दी से पूर्व का स्वीकार किया गया है | लिग पुराण--'लिंग” भ्रनेकाथवाची शब्द है| इसके प्रमुख भ्रर्थ इस प्रकार हैं--लक्षण, चिह्न, वेशभूषा, लपट या शिक्षा इत्यादि । जब कभी अग्नि प्रज्ज्वलित की जाती है तो उसमे से जो चिनगारियाँ या लपटें ऊपर उठती है, उन्हे ज्योतिलिग ही कहा जाता है। निगु रा ईश्वर को उपनिषदों मे हिरण्यमय स्वरूप प्रदान किया था । उसी भगवान को ध्यान का आधार बनाने के लिए चिह्न के रूप मे कल्पित किया गया | ईश्वर को शिव स्वरूप या कल्याणकारी ही कहा गया है । इसीलिए भारत-वर्ष में प्रकाश स्वरूप श्रथवा शिव या कल्याणकारी ईश्वर की लिंग-पूजा प्रचलित हुईं । लिंग पुराण मे मगवान शकर की शक्ति का अत्यन्त सुन्दर विधान है। इस पुराण में । हजार श्लोक है। इसका रचना-काल अष्टम, नवम शती माना जाता है । चाराह पुराण--वाराह पुराण मे 27 श्रध्याय हैं तथा 9654 श्लोक है । झनन्त शक्ति ने एक वाराह या सूकर के रूप में श्रवतीर्ण होकर हिरण्यकश्यप के झनुज मद्दा प्रतापी हिरण्याक्ष का सहार किया था । इस कथा के साथ-साथ इस पुराण मे नचिकेता की कथा को भी विस्तृत रूप मे प्रस्तुत किया गया है। वाराह पौराणिक साहित्य 89 पुराण मे कानपुर के निकट कालप्रिय या कालवी के मन्दिर की चर्चा के साथ-साथ यमुना के दक्षिण पाएवीय तया मूलस्थान (मुल्तान) के मन्दिर का निर्देश सूर्ये- मन्दिर के रूप मे किया गया है। इस पुराण मे अ्रवतारवाद कौ प्रवल भावना को लेकर वैष्णव-सिद्धान्तो का विवेचन हुआ है । इस पुराण का रचना-समय नवम- दशम शतती माता गया है । स्कन्व पुराण-स्कन्द पुराण को झ्राकार की दृष्टि से सर्वाधिक वृहदाकार पुराण माना जाता है। इस पुराण मे श्लोको की सख्या 8 हजार तक स्वीकारी गई है। 'स्कत्द' शकर के पुत्र का नाम है। राजा हिमालय की पुत्री पांवेती का विवाह शकर से हुआ था। पार्वती के गर्म से उत्पन्न पुत्र स्कन्द ने देवसेना का सेनापति होने पर तारकासुर नामक राक्षस का वध किया था । इस पुराण मे स्कन्द की प्रिय दासी मह्दामाया का भी उल्लेख हुमा है। स्कन्दपुराण के भ्रवन्तिखण्ड मे तीर्थों की महिमा का सबविस्तार विवेचन है । इसी खण्ड मे रेवासण्ड नामक भाग में झाधुनिक हिन्दू-समाज मे प्रचलित सत्यवारायणश की कथा का वर्णन है। इस गन्य मे भ्रनेक विषयो का विस्तृत वर्शंन किया गया है। शिव की भक्ति का सुन्दर परिचय भी इस पुराण की महान्‌ उपलब्धि है। इस प्रन्थ का रचना-काल नवम शताब्दी तक स्वीकार किया जाता है । बामत पुराण--'वामन' शब्द का श्र्थ है--बौना | कहा जाता हैँ कि ईप्रवर ने एक बौने तपस्वी के रूप भे पाताल के राजा बलि से तीन डग भूमि की याचना की थी । राजा बलि के “रु नीति-प्रवर शुक्राचार्य ने वामन के छल को प्मझ कर राजा बलि को दान देने से रोकना चाहा था, परन्तु दानवोर बलि उस दान के प्रसग में श्रपने राज्य की भी बलि चढा बेठा, यह वामन पुराण का मूल विषय है । वामन पुराश मे 95 श्रष्याय है तथा 0 हजार श्लोक हैं। यद्यपि यह पुराण वंेष्णवी चेतना का पुराण ल्नन्प शध म परन्तु सम्प्रति इसे शेव देन भौर शिव-कथानक से स॒थुक्त रूप में भ्राप्त किया जाता है। शिव का बढ रूप में तपस्विती पावंती के सम्मुख उपस्थित होने का रोचक प्रसंग भी इस पुराण में वरणित है। महाकवि कालिदास के 'कुमार- सम्भव! महाकाव्य से इस पुराण के भनेक एलोक बहुत कुछ साम्य रखते हैं| इस पुराण का रचना-काल छठी शताब्दी से नवी शताब्दी परयन्त स्वीकारा जाता है । कर्म पुराण--कूंम पुराण में 99 अध्याय है तथा 7 हजार श्लोक है। पहले यह पुराण पाञ्चरात्र मत (वेष्णव) का प्रतिपादक था, परन्तु कालान्तर से इसे ४38 (शेद) मत से परिपूर्ण कर दिया गया। कूर्म 'कच्छप' ईशवर के दशावतार!ं मे एक दूसरे पर परिगरित किया गया है। इस पुराण में महेश्वर की शक्ति का विवेचन किया गया है। महेश्वर की शक्ति चार प्रकार की कही गई 'है-शान्ति, प्रतिष्ठा, विद्या भर निदृत्ति । इसी शक्ति चतुष्टय को चतुब्यूह के नाम से भी जाना जाता है। कूम पुराण में वष्णबी तत्वों का भी समावेश है। इस पुराण का 828५0 छठी सातवी शती है । 4४6०५ [ 90 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास मत्तस्य-पुराख--मत्त्य-पुराण मे 4 हजार श्लोक हैं | इस पुराण मे ईश्वर के मत्स्यावतार की चर्चा की प्रधानता है| मत्स्य का ग्र्थ है-मछली । इस पुराण में प्रलयकालीन दृश्यो को सजीव कर दिया गया । इस पुराण का रचना-क्षेत्र नर्मदा तदी का पाष्व॑वती भ्रदेश माना जाता है | वामन पुराण में तीयों की महिमा का भी गान किया गया है| नर्मदा नदी को प्रलय में भी प्रकट प्रदर्शिन किया गया है, जो पुराणकर की नर्मदा के प्रति विशिष्ट श्रास्था का परिचायक है । इस पुराण का रचना-काल 200 ई से 400 ई के बीच होता चाहिए गरुड पुराख--गरुड पुराण मे 264 श्रध्याय है तथा 9 हजार श्लोक है । यह पुराण विभिन्न विद्याओ्रो का विश्वकोप है | प्रस्तुत पुराण मे भ्रन्त्येष्टि सच्कार से लेकर मृतक की भ्ररिष्टि तक के विवानों पर साँगोपाँग प्रकाश डाला गया है। इस पुराण मे मरणाभूति को थथार्थंता के समीप लाकर खडा कर दिया है। जब व्यक्ति के प्राणों का निष्कमरा होता है तो उसे शत दृश्चिकी द्वारा युगपत्‌ काटने जैसी श्रसह्मय पीडा का अनुभव होता है । गरुड पुराण के उत्तर खण्ड को 'प्रेतकल्प' नाम भी दिया गया है। इसका रचना-काल झाठवी-नवी शताब्दी है । कह्माण्ड पुराश--यह भठारहवाँ पुराण है । इस पुराण मे चार विभाग हैँ तथा बारह हजार श्लोक हैं। प्रस्तुत पुराण मे जमदस्नि के पुत्र परशुराम का प्रचण्ड प्रताप प्रदर्शित किया गया है। इसके साथ ही साथ सूर्यवश तथा चन्द्रवश के राजाभों की वशावलियो का भी प्रत्यन्त सुन्दर वर्णंत है । राजा सगर के वशज भगीरथ की कथा का भी इसमे समावेश हे । ब्रह्माण्ड प्राण मे शब्दों की ध्युत्पत्ति के साथ-साथ काव्य-सौष्ठव पर भी बहुत बल दिया गया है । इस पुराण का रचना-काल छठी शताब्दी से नवी शताव्दी के मध्य तक माना जाता है । पुराणों के लक्षण पुराण के मुख्यत पाँच लक्षण हैं--मर्ग, प्रतिसग, वश, भन्‍्वन्तर तथा वश्यानुचरित-- , सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वशो मन्वन्तराएि च। बश्यानुचरित चेतिर पुराण पण्चलक्षणम्‌ ॥ भागवत पुराण मे 'पुराण' के दश लक्षणों का निर्देश है-- सर्गेश्वाथ विसरगंश्च वृत्ती रक्षात्तराणि च । , वशों बशातरुचरित संस्था हेतुरपाश्य ॥--भागवत, !2/7/9 सगे, 2 विसर्ग, 3 दृत्ति, 4 रक्षा, 5 अन्तराणि, 6 वश, 7 वशानु- चरित, 8 सस्था, 9 हेतु तथा 0 अपाश्नय । यहाँ पौराखिक लक्षणों का क़मवद्ध विवेचन किया जा रहा है । 4 सर्गे--सग' का श्रर्थ है-सृष्टि | सृष्टि की रचना का रहस्य पुराणों मे झनेक प्रकार से वर्शित है ! सृष्टि मुस्यत जड-चेतन के विचित्र सयोग का परिणाम है। विभिन्न पुराणा मे किसी विशिष्ट देवता को सृष्टि का स्नोत कह दिया गया है। कही यह सरष्टि महेंश्वर की क्रिया से बनी है तो कही इसके निर्माता, “7 पौराणिक साहित्य 9] विष्णु जैसे देवता या ईश्वर हैं। पुराणों मे मुख्यत निम्नलिखित तत्वों को सृष्टि रचना में प्रावश्यक माना है-! जीवात्मा, 2 वृद्धि, 3 मन, 4 चित्त, 5 भ्रहकार, 6 शब्द, 7 स्पशे, 8 रूप, 9 रस, !0 गन्ष, !! प्रृथ्वी, ।2 जल, !3 भ्रश्नि, ]4 दबायु, 35 श्राकाण उपयुक्त तत्त्वो के माध्यम से समस्त ग्रहों, नक्षत्रों, वनस्पतियों, जीवधारियों तथा अन्य पदार्यों की रचना होती है। मानत्र ग्पनी पाँच क्मेंन्द्रियो-हाथ, ३२, वाणी, वायु एवं उपस्थ तथा पाँच ज्ञानेन्द्रयो-आँस, कान, नाक, रसना तथा स्व॑चा के माध्यम से मर के सथोय को प्राप्त करके विभिन्न विषयो में प्रदत्त होता है । पुराणों मे सृष्टि के भ्रनेऊ रूप कहे गए है जो मक्षिप्त रूप मे बताए जा रहे है- भहंत्‌ तत्त्व या बुद्धि तत्त्त का चाम ही ब्रह्मसग है। इसे प्राकृत स़ग के प्रन्तगुत-प्रयम- स्थान विययों गया है। प्राक्ृत सगे के अन्तर्गत पचमहाभूतो को भी स्थान दिया गया है। पच तन्मात्राप्रो-शब्द, स्पर्श, रूप रस तथा गन्ध से क्रमश झाकाश, वायु, भ्र्नि, जल, तथा पृथ्वी नामक पच्रमहाभून परिपूर्ण है। इसी निर्माण- प्रक्रिया को 'भूतसगे' नाम दिया गया है। भ्रहकार की सात्विक रूप मे विक्ृति होने से इन्द्रियों का जन्म होता है । पच ज्ञानेन्द्रियो, पचकर्मेन्द्रयों तथा एक सकल्प- विकल्पात्मक उभयेन्द्रिय मन को बेंकारिक सर्ग के नाम से जाना जाता है। प्राकृत सर्य के पश्चात्‌ बैकृत सर्ग कौ स्थान मिला है । ब्रह्माजी के ध्यान के फलस्वरूप पचपर्वा श्रविद्या के रूप मे पाँच तत्व उत्पन्न हुए। पाँच तत्त्वो को तम, मोह, महामोह, तामिल्न तथा भ्रस्वतामित्र के झर मे जाना जाता है। इन तत्त्वो से वनस्पति पवत, वीदघ तथा लतादि की रचना हुईं | इस स्ग को 'भुस्यसग” नाम से पुकारा गया है । वस्तुत मुझ्य सर्ग का सम्बन्ध स्थावरो से है। इस सगे की रचता मे ब्ह्माजी के ध्यान को महत्त्व दिया गया है। मुश्य सर्ग के पश्चात्‌ 'तियक्‌-सर्ग” को स्थान यिया गया है। त्रध्वी गति से उड़ने वाले एवं चलने बाले जीव-जन्तुझ्रो को तियेक्‌ सग के रूप मे जाना जाता है । पशु पक्षियों वी रचना के उपरान्त ब्रह्माजी ने सतोगुण हे युक्त 'देवसर्यी को रचना की । "देवता? विकसित च्यक्ति का ताम है। देव, ज्ञात भर भोग दोतो की प्रधानता हे युक्त बताएं गए हैं। देवसर्ग के-उपरान्त 'मानुस सगे' को स्थॉने दिया गया है। सत्व, र॒ुज़ तथा जम नामक त्रिगुण से पूर्ण कर्मेशील रृष्दि को 'भानुप रंगे _ नाम देना है परन्तु देव के पश्चातू मानव को रखना विकासवाद की दृष्टि से प्रनुचित है । चार के जीवो--जरायज, भ्रण्डज, स्वेदूज तथा उद्भिज में विज्लेप कृपा-हूप गुझो का विकास 'पनुप्रह सर्ग” नाम से जाना जाना है। ईएवर ते भनुष्यों भे सिद्धि, देवो पे स्थावरो में विपर्यास तथा दियेको मे शवित को प्रतिष्ठित करके विशेष अनुग्रह कया हैं । भाकृत भौर वेकृत सर्योके मिश्रित रूप को 'कौसार सर्म कहा गया है। परह्मा ने भ्रपने पवित्र ध्यान से चार कुमारों की रचना की | चार कुमारो के नाम 90 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास मतस्य-पुराख--मत्स्य-पुराण मे 4 हजार श्लोक हैं । इस पुराण मे ईश्वर के मत्स्यावतार की चर्चा की प्रधानता है। मत्स्य का श्र्थ है-मछली । इस पुराण मे प्रलयकालीन दृश्यो को सजीव कर दिया गया । इस पुराण का रचता-छ्षेत्र नमेंदा नदी का पाश्वंवती प्रदेश माना जाता है| वामन पुराण में तीयों की महिमा का भी गान किया गया है| नमेंदा नदी को प्रलय भे भी प्रकट प्रदर्शित किया गया है, जो पुराणफार की नर्मदा के प्रति विशिष्ट आस्था का परिचायक है। इस पुराण का रचना-काल 200 ई से 400 ई के बीच होना चाहिए | गरुड पुराण--गरुड पुराण मे 264 श्रष्याय है तथा 9 हजार श्लोक है । यह पुराण विभिन्न विद्याओ्रो का विश्वकोप है। प्रस्तुत पुराण मे श्रन्त्येष्टि सस्कार से लेकर भृतक की ग्ररिष्टि तक के विवानो पर साँगोपाँग प्रकाश डाला गया है। इस पुराण मे मरणाभूति को थथार्थता के समीय लाकर ख़डा कर दिया है। जब व्यक्ति के प्राणों का निष्क्रमर होता है तो उसे शत वृश्चिको द्वारा बुगपत्‌ काटने जैसी प्रसह्म पीडा का अनुभव होता है| गरुड पुराण के उत्तर खण्ड को 'प्रेतकल्प' नाम भी दिया गया है। इसका रचना-काल आझाठवी-नवी शताब्दी है ब्रह्माण्ड पुराय--यह अठारहवाँ पुराण है। इस पुराश मे चार विभाग हैं तथा बारह हजार श्लोक हैं | प्रस्तुत पुराण मे जमदरगिनि के पुत्र परशुराम का प्रचण्ड प्रताप प्रदर्शित किया गया है। इसके साथ ही साथ सूरयेवश तथा चन्द्रवश के राजाग्रो की वशावलियो का भी भ्रत्यन्त सुन्दर वर्णन है। राजा सगर के वशज भगीरथ की कथा का भी इसमे समावेश हे । ब्रह्मण्ड पुराण मे शब्दों की व्युत्पत्ति के साथ-साथ काव्य-सौष्ठव पर भी बहुत बल दिया गया है। इस पुराण का रचना-काल छठी शताब्दी से नवी शताब्दी के मध्य तक माना जाता है। पु पुराणों के लक्षण पुराण के मुख्यत पाँच लक्षण हैं--सग, प्रतिसर्ग, वश, मन्वन्तर तथा वश्यानुचरित-- र्गेश्व प्रतिसर्गश्व वशो मन्‍्वन्तरारि च। वश्यानुचरित चेतिर पुराण पड्चलक्षणम्‌ ॥। भागवत पुराण मे 'पुराण” के दश लक्षणों का निर्देश है-- » सेंगेश्वाथ विसगंश्च वृत्ती रक्षान्तराणि च । ' वशो वशानुचरित संस्था हेतुरपाश्रयः ॥--भागवत, 2/7/9 ] सर्ग, 2 विस, 3 चृत्ति, 4 रक्षा, 5 झन्तराखि, 6 वश, 7 वशानु- चरित, 8 ससस्‍्था, 9 हेतु तथा 0 झपाश्नय । यहाँ पौराणिक लक्षणों का क्रमवद्ध विवेचन किया जा रहा है | 4. सर्गे--'सर्ग' का श्रर्थ है-सुष्टि । सृष्टि की रचना का रहस्य पुराणों मे झनेक प्रकार से वर्णित है | सृष्टि मुख्यत जड-चेतन के विचित्र सयौग का परिणाम है। विभिन्न पुराणा मे किसी विशिष्ट देवता को सृष्टि का ल्ोत कह दिया गया है । कही यह धष्टि महेश्वर की क्रिया से बनी है तो कही इसके निर्भाल"? पौराशिक साहित्य 9 विध्णु जैसे देवता या ईश्वर हैं। पुराणों मे मुस्यत भिम्नलिखित तत्त्वों को सृष्टि रखना मे आवश्यक माना है-! जीवात्मा, 2 बुद्धि, 3 मन, 4 चित्त, 5 प्रहकार, 6 शब्द, 7 स्पर्श, 8 रूप, 9 रम, 0 गन्च, ।] पृथ्वी, ।2 जल, 3 भ्रर्नि, ]4 वायु, 5. ध्राकाश । उपयुक्त तत्त्वों के माध्यम से समस्त प्रहो, नक्षत्रो, चनस्पतियों, जीवधारियों तथा प्रस्य पदार्यों' की रचना होती है। मानव अपनी पाँच कर्मन्द्रियो-हाय, 4२, वाणी, वायु एवं उपस्य तथा पाँच ज्ञनिन्द्रियो-आँल, कान, ताक, रसना तथा त्वचा के माध्यम से मंत्र के सथोग कौ प्राप्त करके विभिन्न विपयो में प्रदत्त होता है । पुराणों मे सृष्टि के प्रनेक् रूप कहे गए है, जो सक्षिण्ता रूप मे चत्ताएं जा रहें है- मह॒त्‌ तत्त्व था वृद्धि तत्त्त का नाम हो ब्रह्मसर्ग है। इसे प्राकृत स्ग के भन्तगुत प्रथम- स्थान दियो गया है| प्राकृत सगे के श्रन्तर्गत पचमहाभूतों को भी स्थान दिया गया है। पच तन्मात्राप्र-शब्द, स्पर्श, रूप रस तथा गन्ध से क्रमश आकाश, वायु, भ्ररित, जल, तथा पृथ्वी नामक पचमहाभून परिपूर्ण है । इसी निर्माण- प्रक्रिया को 'भूतसर्ग! नाम दिया गया है। श्रहकार की सात्विक रूप में विक्षति होने से इन्द्रियो का जन्म होता है । पत्र ज्ञानेन्द्रियों, पत्र कर्मेन्द्रियों तथा एक सवाल्प- विकल्पात्मक उयेन्द्रि मत को वेकारिक सगे के नाम से जाना जाता है । “7 प्राकृत से के पश्चात्‌ बैकृत सगे को स्थान मिला है। क्ह्माजी के ध्यान के फलस्वरूप पचपर्वा अविद्या के रूप मे पाँच तरव उत्पन्न हुए । पाँच तत्त्वो को तम, मोह, महामोह, तामिल् तथा धन्धतामिस्र॒ के रूप मे जाना जाता है। इन तत्वों से वनस्पति पवत, वीदघ तथा लतादि कौ रचना हुई । इस सर्गे को 'भुल्यसग' नाम से पुकारा भया है; वस्तुत घुश्य सर्व का सभ्वन्ध स्पावरों से है। इस सर्ग की रचना मे ब्रह्माजी के ध्यान को महत्त्व दिया गया है। मुल्य सर्ग के पश्चात्‌ 'तियक-सर्गे” को स्थान यिया गया है । तिरदी गति से उड़ने वाले एवं चलने वाले जीव-जन्तुओ को विर्यक्‌ सग के रूप मे जाना जाता है। पशु पक्षियो वी रचना के उपरान्त बह्माजी ने सतोगुण से युक्त देवसर्म की रचना की । 'देवता' विकसित व्यक्ति का नाम है। देव, ज्ञात भौर भोग दोनों की प्रधानता से युक्‍त बताएं गए हैं । देवसर्य के.उप्रान्त 'मानुस सर्गे' को स्थोन दिया गयो है | उत्व, रंज _ तया- तम नामक त्िगुण से पूर्ण कुमेशील सृब्दि क्रो 'मानुंद सर्ग नास देता युवितथुक्त परन्तु देव के पश्चात्‌ मातव को रखना विकासवाद की दृष्िट से प्रनुचित है। चार के जीवो---जरायज, भ्ष्डज, स्वेदज तथा उद्भिज में विशेष कृपा-हूप गुणों का विकास “अनुग्रह सर्ग” नाम से जाना जाता है। ईश्वर ने सनृष्यों मे सिद्धि, देवों पृ, स्थावरो में विपर्यास तथा तियेको भे शक्ति को प्रतिष्ठित करके विशेष प्रनुग्रह कया हैं । पाकृत भ्रौर वेकृत सर्यो के मिश्वित रूप को 'कौमार सर्ग” कहा गया है । ब्ैद्मा ने अपने पविन्न ध्यान से चार कुमारों की रचना की । चार कुमारों के नाव 92 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास इस प्रकार हैं-सनत्‌, सनतन, सनत्कुमार तथा सनातन । इन चारो ही कुमारो को प्रमर कहा गया है । 2 प्रतिसर्ग--प्रतिसगगं का अर्थ है--प्रलय | “जायते ध्रूवम्‌ मृत्यु ' नामक सिद्धान्त के श्राधार पर जन्म लेने वालो की मृत्यु अवश्य होती है। इसी पिद्धात्त को लेकर चार प्रकार के प्रलय बताए गए है--नेभित्तिक प्रलय, प्राकृत प्रलय, प्रात्यन्तिक प्रलय तथा नित्य प्रलय | पौराणिक काल-गणाता के भनुसार ब्रह्मा के श्रनुसार ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनुष्यो का उदय होता है। जब एक कल्प का समय पूरा हो जाता है तो उतने ही समय के लिए रात्रिकाल भी होता है। उस प्रचण्ड रात्रिकाल मे प्राय प्रूव रूप मे समस्त भूमण्डल जलमग्न हो जाता है। इसी का नाम नैमित्तिक प्रनय है । ब्रह्माजी की भायु सौ ब्रह्म वर्षों को होती है । उनकी भायु व्यतीत होने पर पृथ्वी जल में, जल प्ररिन मे, भ्ररिनि वायु में तथा वायु श्राकाश में विलीन हो जाती है ! आकाश प्रहकार मे, भ्रहकार महत तत्त्व मे तथा महत्‌ तत्त्व प्रकतिस्थ हो जाता है प्रत समस्त स्थूल पदार्थ के रूप मे विलीन हो जाते है । जब सभी तत्त्वो से पूरा प्रकृति ही अपने मुल रूप में उपस्थित रह जाती है तो उसी को प्राकंत प्रलय कहा जाता है| पूरा दु ख-निवत्ति का नाम आ्रात्यन्तिक प्रलय है झत मोक्ष को ही झात्यन्तिक प्रलय कहा जाता है । इस प्रलय के लिए कोई समय निर्धारित नही है । जब व्यक्ति प्रपनी ज्ञान रूपी तलवार से मोह रूपी गाँठ को काट देता है तो उसकी संमसस्‍्त वासनाएँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं। उस समय व्यक्ति अपने यथार्थ ईश्वरीय रूप को प्राप्त कर लेता है। प्रभी तक सभी जीवघधारियों की प्रात्यन्तिक प्रलय सम्भव नहीँ हुई है । क्या यह प्रात्यन्तिक प्रलय कभी हो सकेगी ? जीवघारियो का निर्माए-क्षय नामक क्रय नित्य चलता रहता है। भरत नित्य क्षय के क्रम का नाम नित्य प्रलय है यथा--“जन्मवृद्धिक्षेगे नित्य ससारयति चक्रवतू ।” 3 बश--पुराण का तीसरा लक्षरा वश है | पुराणों मे त्तीन आर्य वशो का विशद्‌ वर्णन हैं--सुर्यवग, चन्द्रवश तथा सौद्युम्व वश । इनमे भी प्रथम दो वशों की प्रधानता रही है । विराद भारत मे सूर्य नामक राजा हुए हैं, जिनका उल्लेख नामत गीता के श्रतुर्थ ग्रध्याय के प्रथम श्लोक में हुमा है । सुर के पुत्र मनु ने अयोध्या” नामक मगर में अपनी राजघानी स्थापित की थी | इस मनु के ज्येष्ठ पृत्र का नाम इक्वाकु था । मनु ने अपने पिता ने नाम पर भपने वश का नाम सूर्यवश रखा। इक्षवाकु की वश-परम्परों मे निम्नलिखित राजा विख्यात है-पृथु, युवनाश्व, मान्धाता, प्रम्वरीष, अनरण्य, निशकु, हरिश्चन्द्र, रोहिंताश्व, सगर, दिलीप प्रथम, भागीरथ, सुदान, दिलीप सद्दाँग, रघु, भ्रज, दशरथ, राम, कुश, भ्रितिवण» बृहदुबल | सूर्यवश पौराणिक साहित्य 93 का प्रथम राजा मनु तथा अत्तिम राजा बुहदृवल था। राजा वृहद्बल महाभारत के युद्ध मे अरजु न-पुत्र प्रभिसन्‍यु के हाथ से मारा गया था। विराट भारत के राजा चन्द्र देववश के राजा सूर्य के मित्र थे। चन्द्र के पुत्र का नाम बुध था । मनु ने भ्रपनी पुत्री इला का विवाह चन्द्रपुत्न बुध से किया था। बुध का ज्येष्ठ पुत्र॒पुरुरवा था । पुरुरवा ने इलाहाबाद के दूसरी ओर गगा नदी के त्तट पर बसे प्रतिष्ठानपुर (भूसी) को अपने राज्य की राजघानी बनाया था| बुध झौर पुरुरवा ने भ्रपने पूर्वज चन्द्र के नाम पर अपने वश का नाम चन्द्रवश रखा । चन्द्रवश मे नहुप, ययाति, दुष्प्त, भरत, कुछ, पुरु, श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर, भ्रभिमन्यु, परोक्षित, जनमैजय जैसे प्रतापी राजपुरुष हुए है। चन्द्रवा की प्रमुख शाखाएँ इस प्रकार हैं--यदुवश, पुरुवश, तुवंसु शाला, हुद्मा, शाखा, प्रनुशाला, अन्धक शाखा, घ्रृष्णि शाखा, कुर शाखा, हैह्य शाखा, चन्द्रवश मे श्रीकृष्ण भ्रवतार के रूप मे प्रसिद्ध है । पूर्वी भारत मे--प्रसम, मेघालय, भ्ररुणाचल, बर्मा प्रादि की ओर सौद्युम्त वश की शाजशाखाएँ कार्य करती रही ! कहा जाता है कि सौधुम्न वश का सम्बन्ध भी मनु से ही रहा है । इस वश का कोई विशेष वर्णन पुराणों मे नही मिलता है । उपयुक्त राजवशो के भ्रतिरिक्त पुराणो मे कश्यप की विभिन्न पत्नियों के नाम पर भी विभिन्न राजवशो की शाखाएँ भी प्रवर्तित हुईं | कश्यप की मुख्यत झदिति, दिति, हनु, क्र, वनिता आदि रानियाँ थी। इन रातियो के नाम पर देववश, दैत्यवश, दानववश, सर्प या शेष वश तथा गरुरुड वश प्रवर्तित हुए। ये सभी वश सूर्यवेश, चन्द्रवश तथा सौद्युम्न वश से प्राचीन हैं। वस्तुत पुराणों के दोनो राजवश--सूयेवश तथा चन्द्रव्श देववश को ही शाखाएं हैं। उपयुक्त विभिन्न वशो की शाखाएँ आज सम्पूर्ण विश्व मे विद्यमान हैं । देववश से जो जाति निकली, उसे भ्राये कहा गया है । भ्राजकल शायोँ के शभ्रागमत के विषय भे जितने भी मत हैं, उनमे बहुत कुछ सत्य विद्यमान है, क्योकि देववश के लोग विश्व के ग्रनेक भू-भागो में बसे हुए थे तथा उन्होने वहाँ से भारत में बमी विभिन्न जातियाँ को भ्रातकित करके अपना प्रमुत्व या झ्ाययंत्व स्थापित करके अपने को आये नाम से प्रसिद्ध किया था । वस्तुत ये ब्लाये मुख्यत तत्कालीन विराद भारतवर्प के ही निवासी थे, इसलिए आये भारतवर्ष के ही निवासी ये! यह मत भी न्‍्यायमगत जान पड़ना है। इन विभिन्‍न वशो की राजशास्ाप्रो का सविस्तार वर्णन पुराणों मे द्रष्टव्य है। वशानुक्रम के विस्तर से यह पता चलता है कि विभिन्‍न वशो के राजाप्नो ने अपना इतिहास प्रशास्ति के रूप में लिखवाया है | 4 सन्‍्वन्तर--मन्वन्तर' का प्र्थ है--एक मनु का समय । पौराशिक काल- गणाना का क्रम निम्न प्रकार है-- युगो की फाल-गणना--सत्ययुग. _ _7 लाख 28 हजार वर्ण ब्रेता युग 2 लाख 96 हजार वर्ण द्वापर यूग 8 लाख 64 हजार वर्ण कलि युग 4 लाख 32 हजार वर्ण एक चतुयु गी ज« 43 लाक्ष 20 हजार वर्ष _ 94 प्राचीन सारत का साहित्यिक एवं साँस्छृतिक इति। 7] चतुय गी ८5 मन्वन्तर एक हजार चतुयु यी २ एक ब्रह्म दित--अर्थात्‌ चार भ्रब वत्तीस करोड <र्घ एक हजार चतुय्‌ गी ८5 एक ब्रह्म राधि-वबही बरह्माजी के एक दिन में 4 मनु होने हैं, जिनके दाम निम्नलिखित हैं--- ) स्वायम्मुव भनु, 2 ल्वरोनिप मनु, 3 उत्तम मनु, 4 तामस मनु, 5 रंबत मनु, 6 चाक्षुप मनु, 7 वेवस्वत मनु, $ सावरि मनु, 9 दक्षसावशि मनु, 0 ब्रह्म सार्वाण सनु, !! धर्म सावरस्यि मनु, !2 रुद्सावर्णि मनु, 3 देवसावर्णि मनु ता !4 इन्द्र सावर्स्ति मनु । मन्वन्तर के अ्रधिकारियों के नाम इस प्रकार है-मनु, सप्तपि, देव, देवराज इन्द्र तथा मनु पुत्र । भागवत पुराण में ईश्वर के अज्ञावतार को भी मन्वन्तर का अधिकारी घांपित किया गया है । इत सभी अधिकारियों का कार्य सूष्टि-विस्तार, सृष्टि-सरक्षण तथा वेद-विस्तार से सम्बद्ध है 5 वशानुचरित-सूर्यववश तथा चन्द्रवर के प्रमुख प्रतापी तथा दानवीर राजाग्रो के चरित्रों का वर्णन 'वशानुचरिम' लक्षण के आधार पर किया गया है । पुराणों मे सूयवशी राजा सगर के शतकतु बनने के प्रयास का कुतूहलकारो वन हुआ है । देववश के राजा इन्द्र ने सयर को शतक्रत्‌ बनने से रोका | सयर के व॒राज भगीरथ ने गगा नदी को उत्तरी भारत में भ्रवतीर्ण कराया इसील्ए गगा का एक पर्याय 'भागीरपी भी है। सुर्वेवश के राजा तरिशकु तथा हरिश्चन्द्र की कथा भी दो भिलन्‍न दृष्टिकोशो को भ्रस्तृत करती है । राजा रघु के प्रताप के कारण इक्वाकुवरा को रघुवश नाम से भी झभिहित किया गया है। इसी वश में दशरथनन्दन श्री रामचन्द्र ने श्रार्य भौर देव शक्तियों का संगठन करके राक्षत सस्कृति और शासन के महान्‌ भ्रधिष्ठाता रावण का वध किया था । पुराणकारो ने राम के प्रति इतनी कृतक्तत्ता ज्ञापित की कि राम को सर्वेत्र रमण करने वाली भक्ति राम या ईश्वर का ही साक्षात्‌ अवतार कह डाला । राम के चरित्र मे प्रनुशानन, तत्यसघना, आतृत्व, कर्म-परायराना, स्नेह, सहानुभूति, परोपकार वीरता, धीरता, गम्भीरता, स्वाभाषिकता जँसे अनेक गुण परिपूर्ण दिखलाई पड़ते है चन्द्रवश के राजा पुरुरवा को इन्द्र रक्षक तथा महाम्य गारी रूप भ्रदान किया गया हैं! महाराजा दुृष्पन्त ने कण्व छी पालिता पुत्री शक्भुन्तला से गाँधर्व विवाह किया था । महाराजा दुष्यन्त को पुराणों की अपेक्षा कालिदास के 'अभिज्ञान शाकुन्तल' ने अधिक प्रसिद्ध किया है। राजा दुष्यन्त के पत्र भरत का सम्बन्ध भारतवर्ण के नामकरण से भी जोडा जाता है | परन्तु विष्णु पुराण मे दुष्यन्त पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ण का नामकरण न वतलाक" राजा उत्तानपाद के वशज भरत के नाम पर मारत का नामकरण निर्धारित किया है। चन्द्रवण का राजा नहष देववश के राजा इन्द्र को हराकर स्वय शतक्रतु बन बैठा था। नहुष अपने दिजम-दर्प मो न तह तका । उसमे शची (इन्द्राणी) की अपनी पत्नी बनाना चाह पौराशिक साहित्य 95 बह भपनी शिविका, मे भ्रगस्त्य जैसे ऋषियों को कहार के रूप मे जोतने पर भी उतारू हो थवा । बुद्धिनीवियो के अपमान के कारण नहुप की इस्धासन से हटना पढ़ा । नहुष के पुत्र ययाति ने दिश्विजय करके देत्यराज इृपपर्वों के कुलयुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से विवाह किया । देवयानी का पुत्र मदु यदुवश का भवर्तेक सिद्ध हुआ । ययाति की प्रेमिका दृष्पर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा के गरस से पुर का जन्म हुआ । ययाति के पश्चात्‌ उसके पुत्रो की शालाओो का वडा विस्तार हुमा । निष्कर्णत ययाति वीर होने के साथ-साथ घोर रू गारी व्यक्ति भी था। चन्दवक्ष मे ब्राह्मणों का द्रोही कार्तवोर्य भजुत या सहस्तवाहु नामक राजा भी हुआ्ना । कार्तेवीय का विनाश करने का श्रेय गुजराती ब्राह्मण परशुराम को प्राप्त हुआ । परशुराम भौर कन्नौज नरेश विश्वामित्र के वीच सम्बन्ध होते के कारण , परशुराम विश्वामित्र की सेना के बल पर का्तवीयं को पराजित कर सक्के । कार्तवीय्य हैहय शाखा का सर्वाधिक प्रतापी राजा था। कार्तेवीयं ने एक बार रावण को भी कद कर लिया था। चन्द्रवश की दृष्णिशास्रा भें श्रीकृष्ण जन्मे । पुराणों में श्रीकृष्ण को ईशावतार कहा गया है। श्रीकृष्ण की राजनीति, चीरता, रसिकता, दांशेनिकता जेसी विशेषताओं के भाधार पर उन्हे सर्वोधिक प्रभाषपुरों विभूति भी कहा गया है। महान्‌ राजनीतिज्ञ श्रीकृष्ण की भ्राँखो के भागे ही मद्दाभारत तंथा यादव-सहार जैसे घोर काण्ड हुए । कृष्ण ते देव-पूजा का विरोध किया था । शुद्रो को भी वेद पढने का अ्रधिकारी माना था । | राजवशो के चरित्र के अतिरिक्त कुछ ऋषि वशो के चरित्र पर भी पुराण प्रकाश डालते हैं। भुगुवश मे जमदग्ति तथा परशुराम का चरित्र भ्राकर्षक है। परशुराम की वीरता से प्रभावित होकर पुराणकारो ने उन्हे ईशावतार तक कह डात्ा है । परशुराम ने केवल हैहम शाखा का विष्वस किया था, सम्पूर्ण क्षानरवश का नहीं। पुराणों मे महर्षि भ्रगस्त्य तथा राजपि विश्वामित्र की सच्चारित्रिकता का भी सनोहारी वर्णन है । मह॒षि भ्रगस्त्य की वीरता से प्रभावित होकर विदर्भराज से पझ्रपनी पत्नी लोपामुद्रा का भगरत्य से विवाह किया था। पुराणों में गौतम, अगिरा, पूलस्त्य, विश्ववा, भत्रि, दत्तात्रेय, दुर्वासा, दोणाचाये जैसे ऋषियो के चरित्रो पर भी सुन्दर प्रकाश डाला गया है । देवव्श का इन्द्र, देत्यवश के हिरण्पकश्यप, हिरण्याक्ष, प्रह्माद, विरोचन, बलि, वाणासुर जैसे दैत्येन्द्रो के शौर्य की भी भूरि-भूरि प्रशसा की गई है। भत पुराणों में वश्यानुचरित का वृहद्‌ विश्लेषण है । 6 विसर्ग--भ्रनेक प्रकार की जीव-सृष्टि का नाम विस है। चेननामय भ्रल्त करण का ताम जीव है | यह जीव स्थावरो मे--पेड-पौधो भे भ्रविकसित स्थिति में होता है। रही जीव पसीना प्लौर गर्मी से उत्पन्न होने दाले कीटो झौर जन्तुओ में स्थावरों की भ्रपेक्षा विक्रसित होता है। वही चेतना #ण्डो से उत्पन्न होने वाले मछनी, मेढक, पक्षी श्रादि जीवधारियों मे कुछ और भी भधिक विकसित होती है । भूल चेतना जरायुजों अरायुजी--जानवरो तथा मनुष्यों मे क्रमश भ्रघिक विकसित होती 'है । इन चारे प्रकार के जीवों को क्रमश उद्भिज, स्वेदज, भ्रण्डज तथा 94 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सास्कृतिक इतिहास 7] चतुय गी 5८ | मस्वस्तर एक हजार चतुयू गरी -+ एक ब्रह्म दिन-भ्र्थात्‌ चार अरब वत्तीस करोड वर्ण एक हजार चतुय गी 55 एक ब्रह्म रात्रि-वह ब्रह्माजी के एक दिन मे 4 मनु होने है, जिनके नाम निम्नलिखित है- ] स्वायम्भुव मनु, 2 स्व॒रोचिय मतु, 3 उत्तम मनु; 4 तामस मनु, 5 रंवत मनु, 6 चाक्षुप मनु, 7 वेवस्वत मनु, 8 सावर्शि मनु, 9 दक्षसावर्णि मनु, 0 ब्रह्म सावणि मनु, ! | धर्म सावरणि मनु, !2 दरुद्रसावरि मनु, 3 देवसावर्णि मनु ठग 4 इन्द्र सावर्णि मनु । मस्वन्तर के अधिकारियों के नाम इस प्रकार है--मनु, सप्तपि, देव, देवराज इन्द्र तथा भनु पुत्र | भागवन पुराण में ईश्वर के अशावतार को भी मन्वन्तर का अधिकारी घांपित किया गया है । इन सभी अधिकारियों का कार्य सूप्टि-विस्तार, सुप्टि-परक्षण तथा वेद-विस्तार से सम्बद्ध है । 5 चशानुचरित-सूर्यवेश तथा चन्द्रवश के प्रभुख प्रतापाी तथा दानवीर राजाओो के चरित्रो का वर्णंत 'वश्लानुचरिम' लक्षण के आधार पर किया "या है । पुराणों में सुयवशी राजा सगर के गतक्रतु बनने के प्रवास का कुतुहलकारी वन हुआ है । देववश के राजा इन्द्र ने सगर को शतकरतु बनने से रोका ।! सगर के वशज भगीरथ ने गया नदी को उत्तरी भारत में अवतीर्ण कराया इसील्ए गया का एक पर्याय 'भागीर<ी' भी है। सूर्यवेश के राजा त्रिशकु तथा हरिश्चन्द्र की कथा भी दो भिन्‍न दृष्टिकोणो को प्रस्तृत्त ऊरती हैं । राजा रघु के प्रताप के कारण इक्ष्वाकुबश को रघुदश नाम से भी प्रभिहित किया गय। है। इसी वश में दशरथनत्दन श्री रामचन्द्र ने भ्रार्य भौर देव शक्तियों का संगठन वरके राक्षत सम्कृति और शासन के महान्‌ अधिष्ठाता रावण का वध क्रिया था । पुराणकारो ने राम के प्रति इतनी कततज्ञता ज्ञापित की कि राम को सर्वत्र रमण करने वाली भक्ति “राम या ईश्वर का ही साक्षात्‌ अवतार कह डाला । राम के चरित्र मे प्रनुशा तन, तत्पसधनता, आतृत्व, कमें-परायणना, स्नेह, सहानुभूति, परोपकार, वीरता, धीरता, गम्भीरता, स्वाभाविकता जैसे भ्रनेक गुर परिपुर्णं दिखलाई पडते है । चन्द्रवश के राजा पुरुरवा को इन्द्र रक्षक तथा महाम्द् गारी रूप प्रदान किया गया है । महाराजा दुष्यन्त ने कण्व की पालिता पुत्री शकुन्तला से गाँधवं विवाह किया था । महाराजा दुष्यन्त को पुराणो की अपेक्षा कालिदास के 'अभिज्ञान शाकुन्तल” ते अभ्रधिक प्रसिद्ध किया है। राजा दुष्यन्त के पृत्र॒ भरत का सम्बन्ध भारतवर्ण के नामकरण से भी जोडा जाता है। परन्तु विष्णु पुराण मे दुष्यल्त पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ण का नामफरण न बतलाक” राजा उत्तानपाद के बशज भरत के नाम पर भारत का नामकरण निर्धारित किया है। चन्द्रवश का राजा नहुष देववश के राजा इन्द्र को हराकर स्वय शतकऋ़्तु बन बैठा था। नहुप अपने विजम-दर्ण को न सह सका । उसने शी (इन्द्राणी) की झपनी पत्नी बनाना भाहा। पौराशिक साहित्य 95 वह भपनी शिविका, मे भ्रगस्त्म जैसे ऋषियों को कहार के रूप मे जोतने पर भी उतारू हो गया । बुद्धिजीवियो के झ्पमान के कारण नहुप को इन्द्रासन से हटना पडा । नहुष के पुत्र ययाति ने दिग्विजय करके देत्यराज ढृपपर्वा के कुलगुर शुक्राचाय की पुश्री देवयानी से विवाह किया ।। देवयानी का पुत्र यदु यदुवश का प्रवर्तेक सिद्ध हुआ । गयात्ति की प्रेमिका दृषपर्वा की पुत्री शमिष्ठा के गरस से पुर का जन्म हुआ | ययाति के पश्चात्‌ उसके पुत्रो की शाखाओं का वडा विस्तार हुआ । निष्कर्णत ययाति वीर होने के साथ-साथ घोर शव गारी व्यक्ति भी था। चच्द्रवण मे ब्राह्मणो का द्रोही कार्तवोर्य प्रजुंन या सहश्नवाहु नामक राजा भी हुआ । कातेवीय का विनाश करने को श्रेय गुजराती ब्राह्मण परशुराम को प्राप्त हुआ | परशुराम भ्रौर कन्नौज नरेश विश्वामित्र के वीच सम्बन्ध होते के कारण , परशुराम विश्वामित्र की सेना के बल पर कातंवीय को पराजित कर सके । कार्तवीर्य हैहय शाखा फा सर्वाधिक प्रतापी राजा था । कातवीयें ने एक बार रावण को भी कंद कर लिया था | चन्द्रवण की दवृष्णिशाखा में श्रीकृष्ण जम्मे । पुराणों में श्रीकृष्ण को ईशावतार कहा गया है | श्रीकृष्ण की राजनीति, वीरता, रसिकता, दार्शनिकता जैसी विशेपताभ्रो के आधार पर उन्हे सर्वाधिक प्रभावपुरों विभूति भी कहा गधा है। महान्‌ राजनीतिज्ञ श्रीकृष्ण की भ्राँघो के श्रागे ही महाभारत तथा यादव-सहार जैसे घोर काण्ड हुए । कृष्ण ते देव-पूजा का विरोध किया था । शुद्रों को भी वेद पढने का भ्रधिकारी माना था। है राजवशो के चरित्र के प्रतिरिक्त कुछ ऋषि दशोो के चरित्र पर भी पुराण प्रकाश डालते है | भूगुवश मे जमदरिन तथा परशुराम का चरित्र झ्राकर्षक है। परशुराम की वीरता से प्रभावित होकर पुराशकारो ने उन्हे ईशाबतार तक कह डाला है । परशुराम ने केवल हैहय शाला का विध्वस किया था, ्म्पुर्ण क्षात्रवश का नहीं । पुराणों में महर्षि प्रगस्त्य तथा रार्जाप विभ्वामित्र की सच्चारित्रिकत्ता का भी मनोहारी वर्णोत है । मर्वहष अगस्त्य की वीरता से प्रभावित होकर विदर्भराज ने प्रपनी पुत्री लोपामृद्रा का भ्रगस्त्य से विवाह किया था। पुराणो में गौतम, श्रगिरा, पुलस्त्य, विश्ववा, भ्रत्रि, दत्तात्रेय, दुर्वासा, दोणाचार्य जैसे ऋषियो के चरित्रो पर भी सुन्दर प्रकाश डाला गया है। देवग्श का इन्प्र, देत्यवश के हिरण्पकश्यप, हिरण्पाक्ष, प्रक्लाद, विरोचन, बति, चाणासुर जंसे दैत्वेन्द्रों के शौर्य की भी भूरि-भूरि प्रशसा की गई है। झत्त पुराणों में वश्यानुचरित का वृहद्‌ विश्लेषण है । । 6 दिसगे--अ्रनेक प्रकार की जीव-सृष्टि का नाम विसर्म है। चेतनामय श्रन्त करण का ताम जीव है | यह जीव स्थावरों मे--पेड-पौधो भे भ्रविकसित स्थिति में होता है। ही जीव पसीना झौर गर्मी से उत्पन्न होने वाले कीदी और जन्तुओं में स्पावरों की भ्रपेशा विकस्तित होता है। वही चेतना ऋष्डो से उत्पक्ष होने वाले ३४०७४ पक्षी आदि जीवधारियों मे कुछ भौर भी श्रचिक विकसित होती है। पुद्ध बेतना जरायूजो--जानवरो तथा मनुष्यो मे कमश अ्रधिक चिक| है । इन चारो प्रकार के जीव आह बरी को क्रमश उदुभिज, स्वेदज, भ्रण्डज तथा जरायून 96 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास कहा गया है । यह विविध भुखी सर्ग ईश्वर के द्वारा निभित है। जीवों के जन्म- जन्मान्तर के सस्कार ही उनके जन्म के कारण कहे गए हैं। सस्कारो की भिन्नता के कारण सृष्टि भी विविध मुखी है । इसीलिए पुराणों मे मानव शरीर को देवदुलभ शरीर बताकर जीवात्मा के वास्तविक श्रर्थात्‌ मुक्त रूप को प्राप्त करने के लिए उसे ही मूलाघार घोषित किया गया है । 7 वृत्ति--जीवो के निर्वाह के योग्य जितनी भी उपभोग्य सामग्री है, उसका पुराणों मे वृत्ति के रूप मे उल्लेख किया गया है। पुर णो मे खाद्य-प्रखाद्य का विस्तार से विवेचन किया गया है | विधि-निपेष की यही परम्परा भ्राज भी हिन्दू-समाज मे द्रष्टव्य है । यद्यपि यह सम्पूर्ण जगत्‌ जीवों का उपभोग्य है, परन्तु मानव-समाज को भर्यादित रखने के लिए यह प्रावश्यक है कि विधि-निपेध स्वरूप शास्त्रीय सिद्धान्त लागू किए जाएँ | वन्यो की भृत्ति विधि-निपेघ की चिन्ता नही करती, क्योकि जगली जीव-जन्तुश्रो में 'मत्स्य-स्याय” सिद्धान्त ही दर्शनीय होता है। मानवों में भी पाशविकता की कभी कमी नही रही इसीलिए समस्त भनुष्य-समाज भ्ात्मगौरव की ग्रन्थि को शिकार रहा है। चावन गेहूं, भ्रादि खाद्यान्न शास्त्र-सिद्ध है तथा माँस- मछली का सेवन शास्त्र-वर्जित है । 8 रक्षा-प्रपने पस्तित्व-रक्षण की सभी को चिन्ता होती है। मानव की महत्त्वाकाँक्षा उसे ककोरता और बर्बरता की ओर भी श्रग्रसर करती है | पौराणिक राजसूय यज्ञ, भ्रश्वमेघ यज्ञ तथा दिग्विजय जैसे तत्त्व यही घोषित करते हैं कि मानव आ्रात्मगौरव की भावना के श्राघार पर ही विकास की शोर बढा है। जब मानव ने अपने प्रतिद्वन्द्दी को कुचलना चाहा तभी 'रक्षा' का प्रश्न उठा | इसीलिए अनेक सगठन, भ्रनेक जातियाँ, भ्रनेक दल विश्व-समाज के मच पर प्रा खडे हुए । भागवत्‌ पुराण मे कहा गया है कि ईश्वर ने विभिन्‍न जीवधघारियो के रूप में प्रपने आपको प्रकट करके इस सृष्टि की रक्षा की-.. के रक्षाध्च्युतावतारेहा विश्वस्यानु युगे युगे । तियेक्‌ मरत्यंधि-देवेपु यैस्त्रयीद्धिण ॥ -भागवत 2/7/4 वेद-विरोधी शक्तियों का विनाश करने के लिए ईश्वर को भ्रवतरित होना पडता है | इस अवतार-तत्त्व का विस्तृत विवेचन पुराणों मे दर्शनीय है । पुराणों मे मुख्यतः दशावतार की चर्चा निम्न रूप मे हुई है-- मत्स्य कूर्मो वराहुश्च नरसिहोईथ वामन । राम रामश्च कृष्णाश्च बुद्ध कल्किश्च ते दश ।॥! --पदुम पुराण, उत्तर 257/40 श्रवतारों का क्रम इस प्रकार है--! मत्स्य, 2 कूर्म, 3 वराह, 4 नृत्तिह, 5 बामन, 6 परशुराम, 7 श्रीराम, 8 श्रीकृष्ण, 9 बुद्ध तथा 30 कल्‍्की | प्रस्तुत अवतार-क्रम को देखने पर यह भी पता चलता है कि पुराण एक युग मे नही लिखे गए तथा जो भी विशिष्ट महापुरुष हुआ, उसे दी श्रवतार कहकर सम्मानित किया गया । गौतम बुद्ध ईश्वर तथा ईशावतार को स्वीकार तक न करते पौराणिक साद्वित्व 97 थे, परस्तु उस कर्मकाण्ड विरोधी महापुरुष को पुगणकारों ने ईश्वर का श्रवतार कहुकर सम्मानित किया । यह अवतार सरुया चौवीस तक भी गई है । चस्तुत ईश्वर का अवतार सप्रयोजन होता है। पुराणों मे यह स्पष्ट कर दिया गया है कि जब धर्म का हा होता है, अ्रधर्म की वृद्धि होती है, तव श्रीभगवान्‌ दुष्टो का नाश करने के लिए, सन्तो की रक्षा के लिए, वेद-मर्यादाश्रो की सस्थापना के लिए स्वय को किसी जीवधारी के रूप मे प्रकट करते है । पुराणों के भ्रवतारवाद पर भक्तिवादी दर्शन की गहरी छाया प्रतिविम्बित है | यदि अ्रवतार-तत्त्व का निषेध किया जाए तो भक्ति-दर्शन को गहरा धक्का लगेगा । भ्रवतारवाद की विचित्र कल्पना के कारण भ्राइम्वरो का भी विकास हुआ है। व्यक्ति प्रत्येक प्रनूठे तत्त्व का दुरपयोग करता है. इसलिए अवतारदाद की ग्राड में मूर्ति-पुजा, दान व ल्लानपान को लेकर कितने ही भाडम्बर प्रचलित हुए । इन भ्राडम्बरो का इतना प्रकोप बढ़ा कि हि्दु- धर्म एक तरह से भाडम्बरों का केन्द्र वन गया | इसीलिए चैदिक धर्म के पुनरुद्धार को चर्चा करते समय महषि दयानत्द सरस्वती ने 'सत्यायें प्रकाश/ में पुराणकारो को लाल बुझवकंढ तक कह डाला है। समाज-शास्त्रियों ने भ्रवतारवाद का सम्बन्ध विकासवादी सिद्धान्त से भी जोडा है। मछली या मत्स्य या क्षेत्र जल तक सीमित है। कर्म जल और थल पर चल सकता है। वराह या शूकर पृथ्वी पर दौड सकता है तथा पाशविक भक्ति का प्रत्तीक है| नु्तिह प्रद्ध शेर तथा प्र मानव है। वामन एक अ्रविकृत्तित मानव का रूप है । परशुराम क्रोध का प्रवतार है । श्री रामचन्द्र मर्यादित मात्रव के प्रतीक हैं। श्रीकृष्ण दर्शन और राजतीत्ति के शाक्षाद्‌ प्रवतार हैं । बुद्ध समस्त वासनाप्रो से ऊपर उठकर मानव को निर्वाण कौ शिक्षा देते हैं। कल्की मुरादाबाद कौ सम्भल हहपील मे अवतरित होकर कलियुग के पापो का शमन करेगा । बह बिना युद्ध के संसार पर घिजय पाभर सत्यगुग की शुरूप्रात करेगा । मत्स्य श्रौर कर्म अवतारों ने जल-मर्त सृष्टि का उड़ार किया--प्नर्यात मत्स्य भर कूर्म जैसे जलचरो से ही आगे विकसित होने वाले जीवघारी उत्पन्न हुए। वराह ने--अर्थात्‌ शुकर वशी राजा ने प्रपनी सेना के साध्यम से हिरण्याक्ष का वध किया । नृप्तिह--अर्थात्‌ नरशादूल्ल विष्णु ने हिरण्यकश्यप का वध किया तथा बेद- सार्गे की सस्थापना को । थामत ने तीन डगो-पअर्थात्‌ तीन भाकरमणो के द्वारा दैत्वेन्द्र चलि को परास्त करके वैदिक सस्कृति और शासन की रक्षा की । परशुराम ने चेद- विरोधी कातेब्रीयें प्रजु न को संसैन्‍्य समाप्त कर दिया। भरी रामचन्द से रक्ष-सस्कृति के विश्तारक रावश का वध क्ररके भ्रार्य संस्कृति की रक्षा की । श्रीकृष्ण पे प्रातकवादी कस तथा उसके पक्षघरी का उन्मूलन करके दानाशाही को ही चकनाचूर कर दिया। बुद्ध ने मानव के भ्रन्तरण में बसी झासुरी शक्तियों का विरोध किया तथा उनसे जूभने का माध्यम मार्ग भौप्रद्धिपादित किया। कल्की समस्त आदर्शो को साकार करने वाला सिद्ध होगा । जिन ऋषियों ने वेद-मार्य को प्रशस्त करने के लिए प्रयास किए, वे सभी , “पार हूँ। “अवतार का प्रथ है-नीचे उतरता। जब ईएबरीय कि किसी 98 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास जीवघारी में उतरती या प्रकट होनी है तो उसी व्यक्ति को प्रवतार कह दिया जाता है। परल्तु, १राणो का अवतार ऐसे मतोत्रेज्ञानिक अवतारवाद का आदर करके भी ईश्वर द्वारा की जाने वाली लीलाग्रो को ही भ्रधिक महत्त्व प्रदान करता जान पडता है। ईश्वर की लीलाग्ो से सगुण ईश्वर का स्वरूप स्पष्ट होता है। जो न्गुंण ईश्वर गुणातीन, शब्दतीन, चित्रातीत एवं ससारातीत है, वही प्रवतारवादी प्रयोजन की पति के लिए साकार होता है । ऐसे सगुण ईश्वर को नवधा भक्ति के माध्यम से पाया जा सकता है । नवघा भक्ति इस प्रकार है-- श्रवण कीतंन विष्णो स्मरण पादसेवनम्‌ ! झर्चन वन्दन दास्य सस्यमात्यनिवेदनम्‌ ।। ईश्वर की कथा को श्रद्धपुर्वंक मुतना अवण भक्ति है, ईश्वर का गुणगान कीत॑न भक्ति है, ईश्वर को पुन -पुन याद करना स्मरण भक्ति है, ईश्वर की मूर्ति की पग-सेवा पाद-सेवन भक्ति है, ईश्वर की प्रतिमा पर पुष्पयादि चढाना भ्रचन भक्ति है, ईश्वर की महिमा के सूचक स्त्रोतों का गान एवं मनन वन्दना भक्ति है, “ईश्वर भेरे स्वामी है श्र मैं उनका सेवक हँ'--यही भावना दास्य भक्ति है, ईश्वर को अपना मित्र मानकर उसमे परम प्रेम रखना सरुय भक्तित है तथा निरहकार भाव से सव कुछ ईश्वर को ही समपित करना श्ात्म-निवेदन भवित है | ईश्वर भ्रपने भक्त की रक्षा के लिए सदंव तत्पर रहता है | ईश्वर अपने कर्ममार्गी भक्त की निष्कामता के आधार पर रक्षा करता है, भक्तिमार्गी भक्त को सामीष्य मोक्ष प्रदान करके रक्षा करता है, ज्ञानमार्गी सारुप्यता को प्राप्त करके रक्षा का पात्र बनता है । भ्रत ईरसवर का अभ्रवतार अनेक माध्यमों से समाज का रक्षक कहा जा सकता है । 9 हेतु--जीवो के जन्म का कारण विद्या है । भ्रविद्या के कारण जीव का नित्य, शुद्ध, बुद्ध एव चेतन रूप घूमिल हो जाता है । इसी अ्रविद्या को जन्म का हेतु कहा गया है । ससार के सभी जीवो का ससरणा श्रविद्या के ही कारण होता है । ग्रविद्या-ग्रस्त जीव का जन्म-मरण होता है, यथार्थ जीव का नही । समस्त सूष्दि- प्रलय का यही रहस्य ज्ञातव्य है। जीव जब बच्चे के रूप मे प्रवोध और झशक्‍त होता है, तो वह प्पने श्रापको बच्चा मानता है शौर जब वहयौवन, भ्रौढ तथा बृद्धावस्था जैसे शरीर-यात्रा क्रमो से निकलता है तो वह अपने झ्ापको तदूवतू देखने लगता है। वास्तव मे जीव क्‍या है ? प्रथवा 'कोहह' जैसी समस्या उसकेट सामने सर्देव बनी रहती है । झत पअ्रविद्या के कारण सस्कार-रचना का क्रम नहीं टूट पडता है तथा जीव विभिन्न योनियो में ससरण के लिए विवश हो जाता है| विष्णु पुराण मे ठीक ही कहा है- तेपा ये यानि कर्मारि प्राक्सृष्टया प्रतिपेदिरे । तान्येव ते प्रपद्चन्ते सृज्यमाना पुन पुत ॥ -विष्णुपुराण शत दार्शनिक दृष्टिकोण को अपवाकर पुराणों में अविद्या के स्वरूप को बहुत श्रधिक स्पष्ट किया गया है| वस्तुत अ्रविद्या माया का ही नाम है। माया निगुरमयी है। त्रिगुरा के समुद्र मे सभी जीव निमज्जित रहते है। इसलिए अविद्या को कम-जननी कहकर भागवत पुराण मे कहा गया है-- पौराणिक साहित्य 99 हेतुर्जीवोधत्य सगदिर विद्याकर्मंकारक | त चानुशामिन प्राहुर व्याकृतमुतापरे ॥। -भागवत्त, 2/7/8 भ्रत सृष्टि के प्रारम्भ में भ्रविद्या के कारण ही कर्मो का प्रमार हुप्ना इसलिए भ्रविद्या ही जीव के समरण का हेतु है। जीव प्रकृति मे शयन करता है इसलिए जीव को 'परव्याकृत' भ्र्थात्‌ प्रकृतिहप भी कहा गया है। हमे यहाँ यह थाद रखना चाहिए कि किसी भी सूष्टि को प्रथम सृष्टि नही कहा जा सकता, क्योकि जीव की प्रकृतिबद्धता सृष्टि को अनादि मानने पर ही सिद्द हो सकती है। श्रत्त जीव, प्रकृति और ईश्वर झनादि होने के कारण समस्त विश्व भ्रौर ब्रह्माण्ड रूपी नाटक के सर्वेस्व हैं । 0 शक्रपाश्य--अ्रपाश्रय प्रचिष्ठान या आधारभूत स्थिति का नाम है। जब जीवात्मा जाग्रतावस्था मे होती है तो उसे विश्व की यथार्थ अनुभूति होती है, जब जीव सोता है तो उसे यथार्थ विश्व की मानसी अनुभूति होती है, जब जीव सुपुष्ति मे होता है तो वह कुछ क्षणो के लिए पूरी तरह से अपने झाष में खो जाता है, ऐसी स्थिति को प्राज्-पूर्ण भ्रज्ञता कहते हैं! जीव इन तीनो स्थितियों में प्रलग-प्रलग प्रकार का अनुभव प्राप्त करता है। यह सब अनुभव मायामय है। वास्तव में जीव कया है? इस प्रश्न का समाघान ये तीनो ही झवस्थाएँ नही कर पाती । पुराण विभिन्न भ्रवस्थाओं के झ्राधार पर यही स्पष्ट करते हैं कि जीव पभ्रवेक रूपों के अनुभव मे ईश्वर के प्रनेक रूपो का श्रनुभव करता है । परन्तु ईश्वर का वास्तविक रूप क्षणिकता के आघार पर उसे 'सुषुष्ति” मे भ्रनुभृत होता है। यदि जीव तुरीबा- वस्था को प्राप्त करले त्तो वह अपने यथार्थ रूप को प्राप्त हो जातां है । उस समय चह शअ्पने यथार्थ अधिष्ठान को प्राप्त कर लेता है । इसी तत्व को भागवतकार ने इस प्रकार कहा हैं-** विरमेत यदा चित्त हित्वा वृत्तिभय स्वयम्‌ । योगेन वा तदात्मान वेंदेहाया निवतंते ।। “भागवत प्रत पुराणों मे दश लक्षणो को आधार बनाकर भ्रत्यन्त सुन्दर वर्णन किया गया है भागवत पुराण का #अन्तराणि' लक्षण मन्वन्तर का वाचक है, 'सस्था' प्रतिसर्ग का सूचक है । अन्य लक्षणों का यथाक्रम वर्णन कर दिया गया है। फिर भी यह कहना कथमसपि उचित जान नही पडता कि पुराणों से भ्रन्य॒विषयो का विवेचन ही नही हुआ है । पुराणों का महत्त्व भ्रष्टादश पुराणों मे बेंदो के कथानकीय रहरयो को पर्याप्य विश््तार दिया गया है । यद्यपि पुराणों का भ्रचलन उत्तर बेदिक्‌ काल में ही हो चुका था, परन्तु पुराणो का प्रभाव ईसापूर्व छुटी शताब्दी के पश्चात्‌ ही समाज में देखने को मिला। पू.राणों मे भक्तिमार्भी दशेन के प्राधात्य के कारण अनेक प्रकार की रूढियों का भी भचलत हो गया था फिर भी पुराणों का महत्त्व अनेक कारणो से अनेक छूपो मे दशशेनीय है। पुराणों के महत्त्व के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं--. 00 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्कृतिक इतिहास ] वेदों का ।वस्तार, 2 अत्रतारवाद, 3 विभिन्न विद्याप्रों का वर्णन, 4 भौगोलिक जातकारी, 5 मक्ति-मातवरना का विस्तार, 6 ऐतिहासिकता का आधार, 7 दाशंनिफ्रता का स्रोत, 8 काव्य-ल्रोत्त तथा 9 घधमममंशास्त्रीय महत्व | वेदों का विस्तार--वंदिक सहिताओ मे सूर्यवेश तथा चन्द्रवश के राजाग्रो के श्रतिरिक्त भ्रनेक कथानको का सकेत है पुराणों मे उन्ही साँकेतिक कथानको को विस्तार दिया गया है । चन्द्रवश के राजा पुरुरवा तथा उरबंशी के सवाद की एक भलक ऋग्वेद मे मिलती है । उसी सवाद को पुराणों मे एक विस्तृत कथा के रूप मे प्रस्तुत किया गया है । वेदो का इन्द्र देवता एक राजा के रूप मे पुराणों मे प्रसिद्ध रहा है । वेदों के यज्ञवाद को पुराणों मे पर्याप्त विस्तार दिया गया है । राजसूय, भ्रश्वमेघ जैसे अनेक यज्ञों की चर्चा पुराणो में सविस्तार की गई है। राजा सगर के यज्ञ के सन्दर्भ मे ब्रह्मवंवर्त पुराण मे विस्तार से लिखा गया है । वेदों के यज्ञों का राजनीतिक रहस्थ केन्द्रीय शक्ति का निर्माण ही था--ऐसा पुराणों से ही जाना जा सकता है | देववश के राजा इन्द्र ने संगर को 'इन्द्र' बनने से रोका । राजाओ मे इन्द्र बनने की भश्रभिलापा केन्द्रीय सत्ता को निर्मित करने के रूप में विलसित रही । चन्द्रवशी राजा नहुष ने इन्द्र को पराजित करके इन्द्रत्व प्राप्त किया परन्तु पूर्ववर्ती इन्द्र ने विद्वत्वगें को श्रपने पक्ष मे लेकर नहुप को सन्‍्मार्ग से हटाकर इन्द्रशासन से भी हटा दिया । वेदिक धर्म को प्रतिष्ठित करने में पुराणों का जो योगदान रहा है वह भी किसी से छिपा नहीं है। वेदों का यज्ञवाद ही नही, ज्ञानमार्ग भी पुराणों का साँगोपाँग रूप में चित्रित हुआ है । वैदिक देवतोझो को ईश्वर के रूप में पुजने की स्वस्थ परम्परा पुराणों से ही विकसित हुई है। वेदो मे जो काव्य-शैली कार्य कर रही थी उसी का विस्तार पुराणों मे चरम सीमा तक पहुँच गया है । बेंदो मे दिव्य शक्तियों के मानवीकरण करने की प्रथा थी इसीलिए इन्द्र को एक नित्य यूवक का रूप प्रदान किया । परन्तु पुराणों से दिव्य शक्तियों के लक्षणों के आधार पर उनका मानवीकरणा कर दिया गया तथा उनको ईश्वर रूप में भी प्रतिष्ठित कर दिया गया । अत पुराणों में वेद का विविधमुखी विस्तार है। 2 अ्रवतारबाद--भारतीय सस्कृति में अवतारवाद का श्रीगरोश पुराणों ने ही किया । दिव्य शक्ति का एक जीवधारी के रूप मे भ्रवतरित होना ही भ्रवतार- वाद का आवार है। पुराणों मे ईश्वर के दशावतार की चर्चा हुई है | प्रवतारो का कम निम्नलिखित प्रकार से है- मत्स्यावतार 2 कूर्मावतार 3 वबराहावतार 4 नृसिहावतार 5 वामनावतार 6 परशुराम 7 श्रीरामचन्द्र 8 श्रीकृष्ण 9? गौतम बुद्ध तथा 0 कल्कि | पौराणिक अवतारवाद मे मनोविज्ञान को भी ध्यान मे रखा गया है । ज्यो-ज्यों धर्म का हास होता है भ्रधर्म का अभ्युत्यान होता हैं, सतजन पीडित दुष्टजन उत्पात मचाते है त्यो-त्यों विशिष्ट प्राघार को पाकर दिव्य शक्ति को प्रकट होता पडता है | पुराणों की झतिशयोक्तिपुर्णं शैली ईश्वर को प्राय मानव पौराणिक साहित्य 40! के रूप में प्रकट देखती रही है, परन्तु यह कहना भ्रधिक युक्तिमगगत है कि विकट परिस्थितियाँ ही मानव को ईश्वरीय गुणों को वारण करने की प्रेरणा देती हैं । पुराणों के अवतारवाद का प्रभाव गीता, भक्तिदर्शन तथा विभिन्न भाषाओ्रों के साहित्य के ऊपर परिलक्षित होता है। पौराशिक प्वतारवाद में भ्रादर्शता की प्रधानता स्पष्ट है। श्रीराम ने सीता की प्राप्ति के निमित्ति आय सस्कृति के उद्धार को अपनी लीला का प्रयोजन माता । श्रीकृष्ण तानाशाही का सशक्त विरोध करके लोकतान्त्रिक नीतियो को महत्व देते रहे | गौतम बुद्ध ने श्राडम्वरों के विरोध में बौद्ध धर्म तथा दर्शत का प्रचार किया । 3 विभिन्न विद्याप्रों का वशेंन--पुराणो में ऐसे अनेक सकेत है जिनसे यह सुध्पष्ट हो जाता है कि पौराणिक काल में अपने देश मे अनेक विद्याग्रों का प्रयत्न था। पुराणो मे मु्यत चौदह विद्याप्नों के नाम इस प्रकार है-- भ्रनुलेपन विद्या, स्वेच्छारूपघारिणी विद्या, स्वभूतरत विद्या, पद्मनी विद्या, भरद्ताप्राभ विद्या, रक्षोष्न विद्या, जालन्धरी विद्या, वाक्‌ सिद्धि विद्या, परावाला विद्या, पुरुष प्रेमोहिनी विया, उल्लापन, विद्या देवहृतिबिया, युवकरण विद्या तथा चत्तवाहनिका विद्या | ; पौराणिक पअनुपल्षेपन विद्या के झ्लाधार पर कोई व्यक्ति भ्रपने पैरो पर लेप करके हजारो मील की यात्रा कर सकता था। स्वेच्छारूपधारिणी विद्या के विपय मे महिषामुर को जानकारी थी, जो भशनेक रूप घारण करके युद्ध कर लेता था । पदुमपुराण मे राजा धर्ममूति को स्वेच्छारूपधारिणी विद्या का ज्ञाता कहा है । मत्स्य-पुराण में समी जीवधारियों की बोलने की ध्वनि को 'सर्वभृतरत विद्या! के भन्तगंत रखा है। राजा व्यह्मदत्त को इस विद्या की जानकारी थी। मार्कंण्डेय पुराण मे कलावती झौर स्व॒रोधिष के प्रमग मे पद्मिनी विद्या के प्रभाव से छिपे रत्न-भण्हारों को जानते का वर्सुन है। भरत भ्राघुनिक भरूगर्भशसस्त्र के सम्बन्ध मे पौराणिक युग मे जानकारी थी। ऐसी जानकारी से भूगभेशास्त्रियों को पर्याप्त प्रेरणा मिली है। 'अ्रस्त्रग्रामविद्या' के प्रसग मे भ्रनेक चमत्कारो को प्रदर्शित करने वाले शस्त्रो की चर्चा हुई है। भ्रजुल ने शकर से पाशुपात अस्त्रो को प्राप्त किया था| राम तथा भ्रजुन के पास ग्रक्षय तूणीर थे। वारुण्यास्त्र तथा आस्तेयास्त्र की जानकारी झ्ाधुनिक युग की शस्त्र विद्या के लिए एक विशेष प्रेरणा है । दुष्टो का दलन करने वाली तथा स्वयं की रक्षा करने वाली विद्या को रछोध्न विद्या नाम दिया गया। माकंण्डेय पुराण के 70वें भ्रध्याय मे 'रक्षोष्त विद्या! का उल्लेख जिया गया है। इस विद्या को 6वी शताब्दी के हिन्दी कवि तुलसी ने अपने रामचरितमानस' मे उल्लेश्व रूप से प्रस्तुत किया है-- “अब सो मन्त्र देहु प्रमु मौही। जेहि प्रकार मारौ मुनि द्रोही ॥” जल मे भ्न्तर्ान होने की विद्या को जालन्धरी विद्या का रूप दिया गया | महाभारत से दुर्पोचिन के युद्ध-रसग मे “पौराणिक जालन्वरी विद्या का प्रभाव स्पष्ठत दृष्टिगोचर होता है। पौराणिक युग मे वाक्मिद्धि विद्या का भी विकास 02 प्राचीत भारत का साहित्यिक एवं सॉाँस्कृतिक इतिहास रहा था जिससे शाप एवं आशीर्वाद देने की शक्ति उत्पन्न हो जानी थी | 'परा वाला विद्या' के प्रभाव से कोई व्यक्ति शव गारिक वातावरण में रहकर भी नितान्त निष्काम रह सकता था। इस पुराण-विद्या ने ससार को लीतचा या बैल के रूप मे समभने का पाठ पढाया । पौरारिक पुरुष 'प्रमोहिनी विद्या” के प्रभाव से कोई सुन्दरी बड़े-वडे ऋषियों को प्रपनी ओर आऊबित करने मे सफल हुईं है। पौरारिक काव्यों मो रस्भा नामक अ्रप्सरा द्वारा महवि विश्वामित्र को विमोहित करने का वर्णन मिलता है । कुबडें लोगो को सीधा एवं नीरोग बनाने मे पौराणिक उल्लापन विद्या का विशेष योगदान है| पौरारिक श्रीकृष्ण ने कुछ्जा को इसी विद्या करे माध्यम से स्वस्थ किया था। इसी का प्रभाव सूर के काव्य पर भी परिलक्षित होता है। श्रीमद्भागवत पुराण मे एक प्रसग यह है कि कुन्ती ने मह॒पि दुर्वासा से 'दिवहृति विद्या' सीखी थी जिसके प्रभाव से वह सूर्य नामक देवता को ग्पने निकट बुला सकी । वृद्धों को युवक बना देने वाली विद्या को 'युवकरण विद्या के नाम से जाना गया । शरीर को वज्जवत्‌ कठार बनाने वाली विद्या को 'वज्भवाहिनिका विद्या” कहा गया । आधुनिक युग मे इस विद्या का सम्बन्ध व्यायाम से जोडा जाता है। पुराणो में वर्जित चौदह विद्याओ्रो के भ्रतिरिक्त 'रत्नपरीक्षा', 'वास्तुविद्या', अश्वशास्त्र” आदि का वर्णन है। इन सभी विद्याओं ने आधुनिक वैज्ञानिक क्षेत्र को एक नई दिशा मे श्रागे बढने के लिए मार्ग प्रशस्त किया है। पुराणों की विद्याएँ श्राधुनिक समाज को भ्रनेक चमत्कारों की शोर बढने की प्रेरणाएँ देती हैं । 4 भौगोलिक जानकारी--पुराण-युगीन भूगोल हमे प्राचीन सस्कृति का भ्रष्ययन करने मे सहायता प्रदान करता हैं । कुछ पौराणिक पर्गत एव समुद्र प्राधुनिक युग में लिखे गए इतिहास के इन विवादास्पद प्रस्‍्तो का समाधान खोजने मे सहायता करते है कि झायों का मूल देश कौन-सा था ? पुराणों में क्षीरसागर का विस्तारपूर्णक वर्णन किया गया है। क्षीरसागर को विष्णु का निवास-स्थान बताया गया है। क्षीरप्तागर किसी मीठे पानी के समुद्र को कहा जाता होगा । प्राचीन युग मे 'काश्यप सागर” एक विशाल समुद्र के रूप मे रहा होगा। भ्राजक्ल उसे कैस्पियन सागर कहते है । भौगोलिक हलचलो के कारण पुरातन काश्यप सागर का एक अ्रश बालकश फ्रील के रूप में अवशिष्ट रह गया । झ्राज वालकश कील विश्व में सर्वाधिक मीठे पानी की कील है। प्रत ईरानी भापा में 'शोरवान' शब्द क्षीरसागर के नाम की परम्परा को सूचित करता हुआ हमे “बालकश भील' शब्द की भोर जाने के लिए विवश कर देता है । 'शीरवान्‌' दुरधपूर्ण समुद्र का ही सकेतक शब्द है ! प्रत देवों में श्रेष्ठ विष्णु का राज्य क्षीरसागर था कंस्पियन सागर के इदे- गिर्द रहा होगा | भ्रत देवों के गशज आर्य व,हत्तर भारत के ही निवासी रहे होगे । ” पौराणिक सुमेद पर्गत मग्रोलिया का 'प्ल्टाई पर्गत ही है क्योकि मगोलियन भाषा में_ 'अल्टाई” शब्द का श्र्थ होता है-स्वर्ण-निर्मित पर्गत । भारतीय साहित्य में सुमेर को देवताशो का निवास कट्दा है। सुमेर को हिमालय के उत्तर में ही स्थित बतलाया है | इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि देव मध्य एशिया के निवासी थे पौराणिक साहित्य 03 तथा उनऊी सन्‍्तान झआ्रायों के रूप में भारत मे आकर निवास करने लगी थी। देव सस्कृति वेदों मे सुरक्षित है तथा मानव सस्क्ृति भी। भरत वैदिक साहित्य का सम्बन्ध निश्चयत वृहत्तर भारत से रहा है। पुराणों मे जम्बूद्वीोप पहले वहत्तर भारत को कहा गया, जिसमे चौन और साइवेरिया का भाग भी सम्मित्रित था। पुराणो का दूसरा द्वीप प्लक्षद्वीप है, जिसे श्राजकल आस्ट्रेलिया के नाम से जाना जा सकता है । पुराणों का शाल्मलि दीप नाग सस्कृति और मणियों के भण्डार के प्राघार पर उत्तरी भ्रमेरिका महाद्वीप ही है। पुराश-वर्णित कुशद्दीप को नील नदी बस ता गया, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कुशद्वीप झाबुनिक का महाद्वीप ही है | पुराणों का क्नौचद्वीप आधुनिक भनुसन्धानो के फलस्वरूप भय संस्कृति के भाधार पर दक्षिसी प्रमेरिका ही सिद्ध होता है । प्राचीन शाकद्वीर भ्राधुनिक दक्षिणी पश्चिमी एशिया ही है। प्रत पौराणिक भूगोल प्राचीन सस्कृति के विस्तार को जानने मे बडा सहायक है । 5 भक्ति-भाषना का प्रसार--पुराणो मे नवघा भतित का साँगोपाँग वर्णन हुआ है । भागवत पुराण में नौ भक्तियों का उल्लेख इस प्रकार हुआ है--- १ श्रवण कीर्तन विष्णो स्मरण पादसेवनम्‌ | है भ्रचेन' वन्‍दन दास्य सख्यमात्मनिवेदनम्‌ ॥ पुराणों के भक्तियोग मे दश्षम शताब्दी मे प्रारम्भ होने वाले भवित आन्दोलन को विशेष रूप मे प्रमावित किया। हिन्दी साहित्य के भग्तिकालीनत कवियों को पुराणों की भक्ति-भावना ने विशेष रूप में प्रभावित किया है। पुराणों की उपासना पद्धति ने हिन्दू समाज को वेदिक धर्म के पथ पर चलने के लिए एक नए रझूप में ही प्रेरित किया । विष्णु पुराण में प्रक्लाद, ध्रूव जेसे भकतो की चर्चा हुई है। ऐसे भक्‍तो के भक्तिपूर्ण माव जन-समाज को एक झादर्श सिखाने में पर्याप्त सहायक सिद्ध हुए हैं । पुराणों में ऐसे भक्तो की भी चर्चा है, जो भक्ति के समुद्र में डूबकर भोक्ष को भी भुलाते रहे । पौराणिक भक्ति-मावना ने जनसमाज को जीवन के प्रति एक भ्ानन्दवादी दृष्टिकोण भ्रपनाता सिखाया | भागवत पुराण से सार्कण्डेय ऋषि को शकर की भक्त में इतना भ्रोत-प्रोत दिखाया है कि वे शकर का स्तवन करते समय ईश्वर के बैचिध्य को प्रतिपादित कर बैठते हैं-- नम शिवाय शान्ताय सत्वाय प्रमृडाय च। रजरेन्खेडघोराय. नमस्तुम्य तमोजुषे ।। 6 ऐतिहासिकता का श्राघार-उन्नीसवी शताब्दी में वैज्ञानिक रूप में इतिहास लिखने की परम्परा प्रारम्भ हुई । ऐतिहासिक युग में राजाओ के दरबारी कवियो ने प्रशस्ति-काव्य लिखकर ऐतिहासिक ग्रन्थ लिखे | पौराणिक युग में राजवशों का इतिहास लिसने की परम्परा .रही है। पुराणो के प्रमुख पाँच लक्षणों में से वशानुचरित' नामक लक्षण के भाधार पर -इततिहास ही लिखा ,जाता.था।| सर्मेवश तथा चन्द्रवश के राजाप्नो का इतिहास जानने के लिए हमें पुराणों को ही वर्णन का “गधार बनाना पड़ना है। गौतम बुद्ध से लेकर पाँचवी शताब्दी में होने वाले गुप्तवशी 04 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य तक की ऐतिह।मिक जानकारी भागवत पुराण के भश्राधार पर सम्भव है। प्रनेक ऐतिहासिक गुत्थियों को सुलकाने के लिए पुराणों को ही आधार मानकर भागे बढा जाता है । प्राचीन राज्यो की जानकारी के एकमात्र आधार भी पुराण ही हैं । 7 दाशंनिकता का ज्ञोत--पुराणो में कर्मयोग, भक्तियोग तथा ज्ञानयोग का विशद्‌ वर्णन हुआ है | पुराणों के अवतारवाद ने गीता” के ग्रवतारवाद को भी प्रभावित क्रिया है | पुराणो में ईश्वर का स्वरूप सगुण तया निग्गुण दोनो ही रूपो में प्रस्तुत किया गया है । पुराणों की मान्यता है कि ईश्वर की कृपा से ही जीव भगवदाकारता को प्राप्त हो सकता है! इन सिद्धान्तों को 5वी शताब्दी में श्राचार्य वललभ ने श्रपनायथा तथा अ्रद्व तवाद को भक्तिवादी रूप देने के लिए शशुद्धाई तवाद' की स्थापना की । वल्लभाचाय ने भागवत्‌ पुराण का भाष्य करके उसे दाशेनिक ग्रन्थ वना दिया । पौराणिक यज्ञवाद ने वैदिक यज्ञवाद को पूर्ववाद रूप मे प्रचलित रखने मे योगदान दिया । पुराणों मे ही वंष्णव तथा शव जैसे #क्त- सम्प्रदायो का विकास हुश्रा ५ साम्यवादी दृष्टिकोण भी पुराणो की ही देन है । पुराणों मे नास्तिकता और आस्तिकता का भी विस्तृत वन किया गया है । भोगवाद को यथार्थ रूप देने मे तथा उसे विरक्ति रूप देने मे भी पौराशिक कथाओो का विशेष योगदान है । 8 काव्य का स्रोत--पुराणो मे भ्रनेक कथाओ्रो का विस्तृत वर्णोव है। सूयंवश के राजाशो का इतिवृत्त भागवत्‌ पुराण मे मिलता है। उसी इतिवृत्त को झाधार बनाकर चौथी शताब्दी मे महाकवि कालिदास ने 'रघुबश” महाकाव्य की रचना की । शिव पुराण तथा स्कन्‍्द पुराण की घटनाझ्रो को लेकर-कालिदास का कुमारसम्भव” नामक महाकाव्य लिखा गया | सस्क्ृत के श्रनेक नाटकों की रचना पौराणिक कथानको को लेकर ही हुईं । पुराणों का प्रभाव सस्क्ृत साहित्य के ऊपर ही नही, भपितु हिन्दी साहित्य के ऊपर भी व्यापक रूप मे पडा है । भागवत्‌ पुराण के दशम स्कन्‍्घ के आधार पर भक्तिकालीन कवि सूरदास ने श्रीकृष्ण की लीलाश्ों का प्रद्भुत रूप प्रस्तुत किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस की भूमिका में “नाना पुराण निगरमागम सम्मत' कहकर अपने काव्य के ऊपर पुराणों के प्रभाव को स्वीकार किया है। तुलसी ने पुराणो को प्राप्त वाक्य के रूप में भी ग्रहण किया है--कहहि वेद इतिहास पुराना” । श्राघुनिक सस्क्ृत साहित्य पर पुराणों का व्यापक प्रभाव स्पष्ट है।झाधुनिक युग के महान्‌ नाटककार भट्टनारायर शास्त्री ने छियानवें पौराणिक नाटको की रचना की। “त्रिपुर विजयम्‌*, 'मैथिलीयम्‌', अमृतमन्थनम्‌” झ्रादि नाटक पौराणिक प्रभाव को स्पष्ट करते हैं । हिन्दी के आधुनिक कवि अ्रवोध्यासिह उपाध्याय हरिझ्रौध के महाकाव्य 'प्रिय-प्रवास” पर पौराणिक प्रभाव स्पष्ट है | पूराणो की शेली ने भी साहित्य विधाओ की शैली को प्रभावित किया है। भ्रत पुराणों का संहिंत्य के ऊपर विविधमुद्ली प्रभाव है, इसमे लेशमात्र भी सन्देह नहीं किया जा सकता | पौराणिक साहित्य 403 9, घर्मशास्त्रीय सहतत्व--पुराणों मे वर्ण-व्यवस्था तथा वर्णाश्रम-घर्मे का वैज्ञानिक विधान प्रतिपादित करने का एक सुन्दर प्रयास दिखलाई पडता है। पुराणों मे इष्टापूर्ा कर्मो की करणीयता पर विचार करके हमारे जन-समाज को एक स्वस्थ कर्मे-पथ प्रदान किया गया है । पुराण तीथों की महिमा प्रतिपादित करने भे पीछे सही रहे । पुराणो ने राजधम का वरणंव भी विस्तार से किया है। परन्तु जब पुराणों ने ब्राह्मणों की जातिगत तथा देशगत विशेषतामों को लेकर उनकी मुक्तकढ से प्रशसा का श्रीगरोश किया तो प्रनेक भ्रड़म्वरो का प्रचलन प्रारम्भ हो गया । गया नामक सी के ब्राह्मणों के विषय में तिम्त दर्शनीय उदाहरण है-- न विचार्य कुल शील विष्ण च तप एव च्‌ । पूजतेस्तु राजेन्द्र ! मुक्ति प्राप्तोति मानव ॥ वायु पुराण, 82/26 भर्थात्‌ गया तीथे के ब्राह्मण के कुल, उसके शील, विद्या तथा तपस्या के विषय मे विचार न करके जो व्यक्ति उसका प्रादर करता है, बह मुक्ति को प्राप्त होता है । यहाँ यह विचारणीय है कि यदि गया तीर्थ के ब्राह्मण की जाति-विद्या तत्त्व भ्परीक्षणीय हैँ तो कुछ लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों के पीछे लड्रे विद्वानों की भी पूजा होने लगेगी । अ्रत पुराण ब्राह्मणा-धर्मं का विश्लेपणा करते समय श्रतिवादी दृष्टिकोश भौर भुके हुए भी दि्धलाई पड़ते हैं। इसी तरह से मानवों को भयभीत करके उन्हें घर्मश्रियता का पाठ पढाना तो उचित है, परन्तु ऐसी धर्मप्रियता के पीछे भ्रनेक भाठम्बरो से समाज को श्रप्क्रान्त करना तो बुरा है। फिर भी पुराणों के धनेक उदाहरण स्पृतिजा्यो े ज्यो क्यो पाए जाते है बिन यह स्मष्य हो जाता है कि पुराणों ने ध्शास्त्र को भ्रत्यांघक प्रभावित किया है | राजाओो भ्रौर ऋषियों के चरित्र को लेकर जो चारित्रिक घमम प्रस्तुत किया गया उसका अ्रधिकाँश सदैव भनुसरणीय रहेगा। वरं-व्यवस्था तथा वर्णाश्रम धर्म को समाज मे प्रत्यधिक प्रचलित करने का श्रेय पुराणो को ही है | भ्रनेक विद्वानों ने पुराणों को धर्मशास्त्र ही. कहा है । के प्रव हम इस निष्कर्प पर सहजता से पहुँच सकते हैं कि पुराणों भे वस्तुपो तथा तत्तवों के नामकरण .मे भी काव्यात्मक शैली का परिचय दिया गया है। इसीलिए सृष्टि को विस्तार देने वाली शक्ति को ब्रह्म, सृष्टि को गत्ति या विकास देने वाली शक्ति को विष्णु तथा सृष्ठि सहार करने वाली शक्ति को रुद्र कहा गया है । बस्तुत ये तीनो ही नाम -च् तव्य शक्ति की तीन स्थितियों के है। परन्तु समय-समय पर होने वाले ऋषियों श्रौर राजाओरो को प्रकृति के साथ जोड़कर भ्रतिशयोक्तिपुर्ण शेली का स्वरूप सुसज्जित कर दिया गया है| पुराणो मे प्राय सभी तथ्य अति- शयोक्ति से पूर्णो है। पौराणिक काल-गराना श्ननेक प्रसगो मे भत्युक्तिपूर्ण जान पडती है । तपोरत व्यक्तियों के तपस्था-काल निर्धारण करते समय अत्यन्तातिशयोक्ति से काम लिया गया है । युवती पारवती को शकर की प्राप्ति हेतु कई हजार वर्ष तक तपस्या करनी पड़ी। इद्ध मनु तथा शत्तरूपा ने हजारो वर्ष तप किया। ऐसे सभी भसगो को भ्रतिशयोक्तिपूर्णं ही मानना पेडेगा फिर पी ण्रफले > व्ननस्कि 06 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृनिक इतिहास दाशेनिक अ्ननुचिन्तन का स्वरूप पर्याप्त उज्ज्वल है। समय-ममय पर होने वाले व्यासो ने अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए पुराणों की उज्ज्वलता को अत्यधिक घूमिल करने के दुस्साहसपूरों प्रयास किए है। प्रशस्तिगान करने वाले चारणों भौर भाटो की भाँति पौराणिक वेदव्यासों ने भी पुराणों का ऐतिहासिक रूप विगाडने मे किसी प्रकार की कमी तही रखी | एक विचित्र बात और भी हैं कि पुराणों का झवतारवाद तो विकासवादी सिद्धान्त का पोषक जान पडता है परन्तु पौराणिक युगक्रम भ्रपनी उल्दी गगः ही बहाता है । सतयुग को सर्वाधिक उन्नतिशील यूग कहा गया हे । त्रेता को सतयुग की अपेक्षा कम प्रगतिशील तथा द्वापर को त्रेता की अपेक्षा कम विकसित बताया गया है | वर्तमान यूग (कलयुग) को तो समस्त पापों का केन्द्र ही कह दिया गया है। इतना कहने पर भी कलियुग को रामनाम के प्रताप से सुसज्जित करने की दिव्य कल्पना की गईं है | कलियुग मे ईश्वर का नाम लेने से दी मुक्तित होती है । ऐसे पण्डितताऊपन के कारण ही हमारा देश प्रगतिशीलता की दौडढ मे पीछे रह गया है। फिर भी पुराणो का मूल तत्त्व धर्म ग्रे, काम तथा मोक्ष नामक पुरुपार्थ-चतुष्ट्य की दृष्टि से भ्रत्यन्त प्रशसनीय है । विभिन्न भाषाओ्रो के साहित्य को विकसित करने में पुराणों का अभूतपुर्वे योगदान स्वीकार किया गया है। प्राचीन युग को सर्वाधिक उन्नति का केन्द्र बताने से पुराणों ने श्रतीत को जो मंहत्त्व प्रदान किया है, उसका राष्ट्रीयतावादी महत्त्व भ्रवश्य है। परन्तु पुराणकारों की इस कल्पना का भ्रादर कथमप्रि नहीं किया जा सकता क्रि समस्त प्रगति अतीत काल मे ही हां चुकी है तथा श्राधुनिक युग पापो का केन्द्र है। ग्राज के विज्ञान को आज की विविधिमुखी सभ्यता को महत्त्व देने के लिए हमे महाकवि कालिदास के इस कथन की भोर दृष्टिपात करना ही चाहिए-- 'पुराणमेव न साधुसर्व न नवमित्यवद्यम्‌ ।* पौराणिक सहाकाव्य ((5१ग0ण्ड्राथ्व एरफ़ाट5) हम पूर्व पृष्ठो मे पुराणों के विषय मे सविस्तार प्रकाश डाल चुके हैं । जिस प्रकार पुराण लौकिक सस्कृत के प्राचीन रूप मे प्रणीव हुए, उसी प्रकार लौकिक सस्क्ृत को भ्राधार बनाकर बाल्मीकि ते 'रामायण” तथा कृष्णद्व पायन वेदव्यास ने महाभारत” की रचना की । पाँचवी शताब्दी ई पृ में आचार पणिनि ने जिस ससकृत भाषा को “अ्रष्टाध्यायी” के रूप मे व्याकरणबद्ध किया, उससे किचित भिन्न भाषायी रूप मे 'रामायण” एवं महाभारत” नामक प्राचीन महाकाव्यों की रचना हुई । भ्रत भाषा की दृष्टि से ही नही, अपितु अनेक पौराणिक प्रतिमानों के आवार पर भी उक्त ग्रन्थों को पौराणिक साहित्य के भ्रन्तगंत परियणित किया जाता है । रासायण गोस्वामी तुलसीदास ने 'रामणरित मानस” के बालकाण्ड में रामायण के रचयिता महषि बाल्मीकि का आदर करते हुए लिखा है--- बन्दहु मुनि पद कज, “रामायण” जेहि निरमयऊ | सखर सुकोमल मजु, रो रहित दूपषण सहित ॥ पौराणिक साहित्य 07 संस्कृत साहित्य के ताक उत्तररामचरित्‌' में म्हाप वाल्मीकि को झ्रादि कवि के रूप भे याद किया गया है। वाल्मीकि रामायण के प्रारम्भ में वाल्मीकि को नारद तथा भारद्वाज जेसे ऋषियों से प्रभावित दिखलाया है परन्तु यह निरिचत है कि लोकिक सस्क्ृत मे पहले कवि के रूप मे वाल्मीकि ही प्रसिद्ध है। डॉ राम- धारीतिह दिनकर ने वाल्मीकि को लौकिक मस्कृति का प्रथम कवि कहने का एक साम्य ढूँढ निकाला है । वस्तुत जिस प्रकार तेरहवी शत्ताव्दी मे हिन्दी के बचि प्रमीर खुसरो मे खडी बोली मे कुछ रचनाएँ की, परन्तु चह युग हिन्दी का प्रारम्भिक युग ही था, उसी प्रकार वैदिक सस्कृत के युग मे वाल्मीकि ने लौकिक सस्कृत में सहाकाव्य रामायण की रचना की ।? कहा जाता है कि एक वार वाल्मीकि तमसा नदी के तट पर घुम रहे थे । उनके सामने ही एक दुर्घटना घटित हुईं । एक वहेलिये ने अपने तीर के वार से कौच या ढटहरी पक्षी के जोडे मे से एक का वध कर दिया । जोढे मे से बचा एक पक्षी विरह-कातर दृष्टि पे देखता रहा--प्रलापता रहा । वाल्मीकि की सहृदयता करुणा-ज्वार के रूप मे परिणत हो गई । भ्रचानक ही उनके कण्ठ से यह भनुष्टुप छन्द फूट पडा-- माँ निपाद ! प्रतिष्ठात्वसगम शाश्वती समा यत्कौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्‌ ॥। वाल्मीकि से पूर्व रामायण से सम्बद्ध कुछ प्राख्यान प्रचलित रहे थे । पहले राप-कथा कण्ठो तक ही सीमित रही थी । पीछे से वाल्मीकि ले राम-कथा (को एक महाकाव्य का रूप प्रदान किया परन्तु वाल्मीकि रामायण में वाल्मीकि राम के समकालीन कहे गए हैं। पौराणिक शैली के भ्राधार पर तो उन्होने “रामायण की रचना राम के उद्भव से पूर्व ही कर दी थी परन्तु ऐसा कथन केवल श्रादि कवि को महत्त्व प्रदान करने के लिए ही है । आधुतिक 'रामायण” को देखते हुए यह कहना न्‍्यायसगत है कि रामायण पहले प्रति सक्षिप्त रूप मे रही होगी । वाल्मीकि भ्रादि कवि थे, परन्तु उन्होने रामायण को जो रूप प्रदान किया, वह आज ॒प्रप्राप्य है। समय-समय पर 'रामायर! कवियो के हाथो मे पढती रही तथा उसमे इतना प्रक्षेप किया गया कि उसझा वास्तविक रूप ही तिरोहित हो गया। शाधुनिक वाल्मीकि रामायस मे गौतम बुद्ध को एक नास्तिक के रूप भे याद किया गया है-यथाहि चोर स हि बुद्धस्तवागत नास्तिकमत्रविद्धि (2/09/34) । फिर भी रामायण का मूल रूप बेदिक युग मे ही रचा गया होगा। सम्प्रति रामायण का रचना-काल 600 ई पू.« माना जा सकता है 2 रामायस्त का भहाकाव्यत्व--रामायण एक पौराणिक महाकाव्य है। किसी महाकाव्य को महाकाव्यत्व की कसौटी पर कसने के लिए कुछ प्रमुन्ल श्रग्नलिखित लक्षणों की श्रावश्यकता होती है-- ! दिनकर सस्कृत्ि के घार भ्रध्याय, पृ 67 2 गामिल बुल्के रामकुधा, पृ 0] 06 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सास्कृतिक इतिहास दाशेनिक प्रनुचित्तन का स्वरूप पर्याप्त उज्ज्वल है। समय-समय पर होने वाले व्यासो ने अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए पुराणों की उज्ज्वलता को अत्यधिक घूमिल करने के दुस्माहसपुरों प्रयास किए है। प्रशस्तिगान करने वाले चारणो और भाटो की भाँति पौराणिक वेदव्यासों ने भी पुराणों का ऐतिहासिक रुप ब्रिगाडने मे किसी प्रकार की कमी तही रखी | एक विचित्र बात शौर भी हैं कि प्राणो का अवतारवाद तो विकासवादी सिद्धान्त का पोषक जान पढ़ता है परन्तु पौराणिक युगक्रम झ्पनी उल्दी गया ही बहाता है। सतयुग को सर्वाधिक उन्नतिशील युग कहा गया हैं। जेता को सतयुग की अ्रपेक्षा कम प्रगतिशील तथा द्वापर को चेता की भ्रपेक्षा कम विकसित वताया गया है | वर्तमान युग (कलयुग) को तो समस्त पापों का केन्द्र ही कह दिया गया है। इतना कहने पर भी कलियुग को रामनाम के प्रताप से सुमज्जित करने की दिव्य कल्पना की गई है | कलियुग मे ईश्वर का नाम लेने से ही मुक्ति होती है। ऐमे पण्डिताऊपन के कारण ही हमारा देश प्रगतिशीलता की दौड़ में पीछे रह गया है। फिर भी पुराणों का मूल तत्त्व धर्म श्र, काम तथा मोक्ष नामक पुरुषाय॑-चतुष्ट्य की दृष्टि से भ्रत्यन्त प्रशननीय है । विभिन्न भाषाशओ्रो के साहित्य को विकसित करने मे पुराणो का प्रभूतपूर्व योगदान स्वीकार किया गया है । प्राचीन युग को सर्वाधिक उन्नति का केन्द्र बताने से पुराणों ने भ्रतीत को जो महत्त्व प्रदान किया है, उसका राष्ट्रीयतावादी महत्त्व अवश्य है। परन्तु पुराणकारो की इस कल्पना का झादर कथमपि नही किया जा सकता कि समस्त प्रगति अतीत काल मे ही हां चुकी है तथा आधुनिक युग पापो का केन्द्र है। आज के विज्ञान को झाज की विविधिमुखी सभ्यता को महत्त्व देने के लिए हमे महाकवि कालिदास के इस कथन की झोर दृष्टिपात करना ही चाहिए--- 'पुराणमेव न साधुसवे न नवमित्यवद्यम्‌ ।/ पौराणिक महाकाव्य (४5 छाणण्डाल्यो छएा८६) हम पूर्व पृष्ठो मे पुराणों के विषय मे सविस्तार प्रकाश डाल चुके हैं । जिस प्रकार पुराण लौकिक सस्क्ृत के प्राचीन रूप मे प्रणीत हुए, उसी प्रकार लौकिक सस्क्ृत को प्राधार बनाकर वाल्मीकि मे 'रामायण” तथा क्रृष्णद्वैपायन वेदब्यास ने 'महाभारत' की रचना की । पाँचवी शताब्दी ई पू में झराचाये पणिति ने जिस सस्क्ृद भाषा को '्रष्टाध्यायी' के रूप मे व्याकरणबद्ध किया, उससे किचित भिन्न भाषायी रूप मे 'रामायण” एवं महाभारत” नामक प्राचीन महाकाव्यो की रचना हुई ! मत भाषा की दृष्टि से ही नही, भ्रपितु भ्रवेक पौराणिक प्रतिमानों के आवार पर भी उक्त ग्रन्थो को पौराणिक साहित्य के झन्तगेंत परिगणित किया जाता है । रामायरा गोस्वामी तुलसीदास ने “रामचरित मानस” के बालकाण्ड मे रामायण के रचयिता महषि बाल्मीकि का झ्ादर करते हुए लिखा है--- ! बन्दहु मुनि पद कज, रामायण" जेहि निरमयऊ । सख्तर सुकोमल मजु, दो रहित दृषण सहित ॥ पौराणिक साहित्य 07 सस्कृत साहित्य के नाटक 'उत्तररामचरित्‌' में मह॒पि वाल्मीकि को भ्रादि कवि के रूप मे याद किया गया है। वाल्मीकि रामायण के प्रारम्भ में वाल्मीकि को नारद तथा भारद्वाज जैसे ऋषियों से प्रभावित दिखलाया है परन्तु यह निश्चित है कि लौकिक सस्कृत मे पहले कवि के रूप मे वाल्मीकि ही प्रसिद्ठ हैं। डॉ राम- धारीसिह दिनकर ने वाल्मीकि को लौकफिक मस्कृत्ति का प्रथम कवि कहने का एक साम्य ढूँढ निकाला है । वस्तुत जिम् प्रकार तेरहवी शताब्दी मे हिन्दी के कवि झमीर खुसरो ने खडी बोली मे कुछ रचनाएँ की, परन्तु वह युग हिन्दी का प्रारम्भिक युग ही था, उसी प्रकार वैदिक सस्कृत के युग में वाल्मीकि ने लौकिक सस्कुत मे महाकाव्य रामायण” की रचता की । कहा जाता है कि एक वार वाल्मीकि तमसा नदी के तट पर घूम रहे थे । उनके सामने ही एक दुर्ृडदना घटित हुईं । एक वहेलिये मे भ्रपने तीर के वार ते क्रौँच या व्टहरी पक्षी के जोढे मे से एक का वध कर दिया। जोडे मे से वचा एक पक्षी विरह-कांतर दृष्टि से देता रहा-भ्रलापता रहा। चाल्मीकि की सहृदयता करुणा-ज्वार के रूप मे परिणत हो गई । भ्रचानक ही उनके कण्ठ से यह भनुष्टूप छन्द फूट पडा-- माँ निपाद ! प्रतिष्ठात्वमगम" शाश्व्रती समा ) यत्क्रोंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्‌ ॥। वाल्मीकि से पूर्व रामायण से सम्बद्ध कुछ भारुषान प्रचलित रहे थे। पहले राम-कथा कण्ठो तक ही सीमित रही थी । पीछे से वाल्मीकि ने राम-कथा (को एक महाकाव्य का रूप प्रदान किया परल्तु वाल्मीकि रामायण मे वाल्मीकि राम के समकालीन कहें गए हैं। पौराणिक शेली के आधार पर तो उन्होने “रामायण” की रचना राम के उद्भव से पूर्व ही कर दी थी परन्तु ऐसा कथन केवल भादि कवि को महत्त्व प्रदान करने के लिए ही है। आधुनिक 'रामायण' को देखते हुए यह कहना न्‍्यायस्गत है कि रामायण पहले अति सक्षिप्त रूप मे रही होगी। वाल्मीकि आदि कवि थे, परन्तु उन्होने रामायण को जो रूप प्रदान किया, वह झाज श्रप्राप्य है । समय-समय पर “रामायण” कवियों के हाथो भे पडती रही तथा उसमे इतना प्रक्षेप किया गमा कि उसका वास्तविक रूप ही तिरोहित हो गया। आधुनिक वाल्मीकि रामायण में गौतम बुद्ध को एक नास्तिक के रूप से याद किया गया है--यथाहि चौर स हि बुद्धल्तपागत नास्तिकमत्रविद्धि ।' (2//09/34) । फिर भी रामायण का मूल रूप वेदिऊ युग मे ही रचा गया होगा। सम्प्रति रामायण का रचगया-काल 500 ई पू भाना जा सकता है ।5 रासायण का भहाकाव्यत्व--रामायण एक पौराणिक महांकाव्य है। किसी महाकाव्य को महाकाव्यत्व की कमौटी पर कसने के लिए कुछ प्रमुख श्रग्नलिखित लक्षणों की प्रावश्यकता होती है-- १ दिनकर सस्कृति के चार प्रध्याय, पृ 67 2 कामिल बुल्के रामकथा, पृ 0] 08 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सास्क्ृतिक इतिहास हनन “४ ]। सगंवद्धता, 2 उदात्त नायक, 3 प्रसिद्ध कथानक, 4 म्यृगार, वीर तथा शान्‍्त रसो में से कोई एक प्रधान रस तथा अन्य रसो का भी यथायोग्य समावेश, 5 प्रकृति-वर्णशोन की विविधता, 6 भाषा-शैली की उदाचता तथा 7 रचना का विशिष्ट उद्देश्य । प्राय सभी काव्यशास्त्राचार्यों ने उपयुक्त लक्षणों को किचित्‌ हेर-फेर के साथ स्वीकार किया है। यदि उपयुक्त सात लक्षणों मे कुछ सशोधन करना आवश्यक माना जाए तो १हले और तीसरे लक्षणों को एक लक्षण मे ही समाहित करना भी सम्भव हो सकता है--प्रर्यात्‌ सर्गबद्ध प्रसिद्ध कधानक का सयोजन । ] रामायण को सगवद्धता--रामायण” मे सात काण्ड हैं--वालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अर्ण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड तथा उत्तरकाण्ड इन सभी काण्डों मे अनेक सर्ग है। वाल्मीकि ने एक घटना को एक सर्ग में बाँधकर रामायण की प्रमुख कथा मे कोई व्याघात नही पहुँचने दिया है । वाल्मीकीय रामायण की सर्गंवद्धता से हिन्दी के 'पृथ्वीराजरासो' तथा “रामचन्द्रिका' नामक महाकाव्य प्रभावित जान प्रढ्ते है । साहित्यदपंणकार ने आठ से प्रधिक धर्मों की आवश्यकता पर बल दिया है परन्तु सर्गो के प्राठ से श्रधिक होने पर ही कोई काव्य महाकाव्य नही हो जाता । जिस प्रकार हिन्दी का 'रामचरितमानस” सात काण्डो-सप्त प्रवन्ध सुभग सोपाना” होने पर भी एक सफल महाकाव्य है, उसी प्रकार वाल्मीकि रामायण भी सर्गेबद्धता की दृष्टि प्रे एक सफल महाकाव्य है । आवचायें विश्वनाथ की यह उक्ति--सर्गबद्धों महाकाव्यमु' वाल्मीकि रामायण के कपर पूरी तरह से चरितार्य होती है । 2 उदात्त नायक-रामायण के नायक श्री रामचन्द्र नाट्यशास्त्रीय दृष्टिकोण से घीरोदात्तनायक हैं। धीरोदात्तनायक के लक्षण इस प्रकार हैं--- महाससत्वोषतिग्रम्मीर॒ क्षमावानविकत्यन । स्थिरो निगूढाहकारो धीरोदात्त दृढब्रत ॥। “दशरूपक प्रस्तुत लक्षण के झआाघार पर घीरोदात्त नायक के ग्रुण इस प्रकार हैं- । परम प्रतापशणील, 2 श्रत्यन्त गम्भीर, 3 क्षमाशीक्, 4 निरहकारी, 5 समचित्त, 6 स्वाभिमानी तथा 7 सत्यसध । ाल्मीकि रामायण! के प्रारम्भ मे राम को सद्गुणों के केन्द्र के रूप मे खोजा गया है। राम चन्द्रवत्‌ प्रियदर्शन हैं, समुद्रवत्‌ गम्भीर है, कालाग्नितुल्प विकराल हैं, विष्णु-तुल्य पराक्रमी हैं, पृथ्वी के समान क्षमाशील हैं । प्रधिक क्या कहे, राम सर्वेगुण-सम्पन्न उदात्त नायक हैं । उदाच नायक राम के साथ लक्ष्मण जैसे वीर और त्यागी भाई का भी झ्ांदर्श चरित्र है। भरत वितृष्णा की साक्षात्‌ मूति हैं। सीता प्रथम श्रेणी की पतिब्रता महिला हैं, जो रावण के अपार वेभवपूर्ण राज्य को घ्॒णा से देसकर राक्षस सस्कृति का अनुगमत न करके अ्ग्नि-परीक्षा मे खरी उतरती हैं । हतुमान एक परम पौराणिक साहित्य !09 प्रतापी एवं निष्काम वीर हैं। रामायण का प्रतिनायक रावण वेभव और प्रचण्डता की मूर्ति के रूप मे दिखलाई पढ़ता है, यथा-- भ्रपश्यत्‌ लकाधिपति हनुमान भतितेजसम्‌ । झावेष्टित मेरशिखरे सत्ोयमिवतोयदम्‌ ॥ झत वाल्मीकी रामायण मे प्रादश पात्रों का निरूपण है। 3 प्रसिद्ध फयानक--'रामायन सत कोटि अ्रपारा' चक्ति यह सिद्ध करती है कि रामकथा एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा है। राम की कथा भनेक कवियों के हाथो में जाने से उज्ज्वलता की ओर उत्तरोत्तर बढती चली गई है| राम-जन्म से लेकर राम के राज्यामिषेक तक की वृहृद्‌ु कथा रामायण की मूल कथा है। इस मूलकथा रूपी घारा मे झनेऊक छोटो-छोटी कथाएँ लघुघाराशो की भाँति पाकर मिलती हैं। रामायण का उत्तरकाण्ड भवान्तर कथाओं से परिपूर्ण हैं। रावण की दिग्विजय की कथा सविस्तार वर्णन एक अ्रवान्तर कथा ही है । सक्षेपत्त यदी पर्याप्त होगा कि रामायण की कथा वैदिककाल से ही प्रचलित थी तथा उसे महाकाव्य का रूप देने का श्रेय वाल्मीकि को प्राप्त हुआ । 4 रसो का समावेश--करभ्ी रामायण मे वीररस की प्रधानता रही होगी । परन्तु झाघुनिक वाल्मीकि रामायण मे वीर रस का प्राघान्य स्पष्ट नही है। रामायण मे शु गार और शान्त रसो का समावेश तो है, परन्तु उनकी प्रधानता दिखलाई नही पडी । यदि गहराई से देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि वाल्मीकि रामायण भे कझण रस की प्रधानता है। राम के चरित्र का मूलोदय करुणाजनित प्रसंग से ही होता है । सीता की प्राप्ति तक राम य्रुद्ध करते हुए भी करुणा के ही श्रवतार बने रहते हैं । वाल्मीकि के राम रावण पर विजय पाकर भी करुणा की मूर्ति बने रहते हैं। राम का परिवार करुणा का घर जान पडता है। भरत रामायण की मूल चेतना कझण रस से पगी हुई है। भवभूति का यह कथन--एको रस करुणोव ।' वाल्मीकि रामायण के ऊपर घचरितार्थ होता है। फिर भी वाल्मीकि रामायण में ऋ गार, हास्य, रौद्, वीर, भयानक, दीभत्स, श्रद्भुत, शान्त, वात्सल्य तथा भक्ति रसो को श्रनेक्‌ स्थानों पर देखा जा सकता है । 5 प्रकृति वर्जन की विविधघता-आचार्य रामचन्द्र शु जल ने महाफाव्य को एक वनस्थली की उपप्ता दी है। 'रामायर' मे वनस्थली के झनेक मव्य रूप दर्शनीय है। नैमिपारण्प तथा इण्डकारण्य की प्राकृतिक सुषमा का मनौहारी वन देखते ही बनता है | सीता का श्रपहरण होने पर दण्डकारण्य की कमल, केला, भ्रनार जैसी वनस्पतियों को देखकर राम के हुदय की वियोगकालीन रति उद्दीप्त हो जाती है । राम पाकृतिक तत्त्वों के दशेत भौर चिन्तन मात्र से विरह-विद्धल हो उठते है । प्रकृति का ऐसा उद्दाम उद्दीपन-स्वहृप प्रकृति-वर्शन अन्यत्र दुर्लभ ही है। वाल्मीकि के हृदय मे प्रकृति के प्रति श्रनूठी रागात्मकता का परिचय वर्षा-ऋतु के बेन में भो मिलता है। प्रकृति की भीपणता को व्यक्त करने मे भी कवि को प्र भफलता मिलो है। उस वनवासी कवि के हृदय मे प्रकृति के के करु-करा को भ्रवलोकने 0 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास की सहृदयता विद्यमान हे | वाल्मीकि ने योद्धाप्रो के स्वरूप के चित्रण में भी सूर्य, चन्द्र ज्वलन्त अग्नि जैसे तेजस्वी एवं सुन्दर तत्त्वो को सयोजित किया है। प्रत वाल्मीकि ने प्रकृति वो झआलम्वन, उद्दीपन झालकारिक तथा सवेदनात्मक रूप मे प्रस्तुत करके प्रकृति-बर्णन के कौशल को प्रकट कर दिया है । 6 भाषा शेली को उदात्तता-वाल्मीफि की रामायण में लौकिक सस्कृत का पारिनि-पूव रूप दिखलाई पडता है । फिर भी वाल्मीकि वी भापा मे लाक्षणिकता तथा पात्नानुकूनता की कोई कमी दिखलाई नहीं पडती | वाल्मीकि की सस्कृत सरलता, स्पष्टता, रोचकता जैसे गुणो से विभूषित जान पडती है | वाल्मीकि ने मुख्णत श्रनुष्टुप छन्‍्द का ही प्रयोग किया है। फिर भी सर्गान्त में कुछ भ्रन्‍्य छन्दो की छंटा भी देखने योग्य है। वाल्मीकि के अनुष्ठुप छन्द में एक विशेष प्रवाह प्रथवा लग ह । पाठक इस छन्‍्द की गेयता से भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहता । झादि कवि के काव्य मे तत्कालीन भाषा की दृष्टि से उदात्तता का अ्रभाव नहीं सटकता है | 7 रचना का विशिष्ट उद्देश्य--प्रयोजनादुते मन्दोषपि न प्रवर्तते ।--- भ्र्यात्‌ उद्देश्य के बिना तो मूर्ख भी कार्ये प्रारम्भ नही करता तो विद्वानों की तो बात ही क्‍या है। वाल्मीकि की रचना का उद्देश्य कार्यों का यशोगान न होकर सम्पूर्ण विश्व के सामने विभिन्न आदशों_ को प्रस्तुत करता है| राम के चरित्र की उज्ज्वलता के प्रतिपादन के साथ-साथ कवि ने भ्नेकानेक चरित्रो की झ्ादर्शता को चित्रित किया है | हनुमान को अत्यन्त थीर सिद्ध करते समय युद्धकाण्ड के उस प्रसग को कितना माभिक वना दिया है, जिसमे विभीषण छुद्ध जामवन्त के पास पहुँचकर उनसे समस्त सेना की मूच्छित स्थिति का वर्णोन करता है । जामबन्त हनुमान की सकुशलता के विपय में पूछेकर एक कृतूहल उत्पन्न कर देते है। उस कौतूहल से विभिपण बहुत प्रभावित एव चकित होता है भ्नौर वह यह भी पूछ लेता है कि माननीय जामवन्त ने राम भौर लक्ष्मण की कुशनता न पूछुकर सर्वप्रथम हनुमान की कुशलता ही क्‍यों पूछी ” जामवन्त यही उत्तर दे पाते है कि यदि हनुमानजी के प्राण सकट प्रे है तो समस्त जीवित राम दल मृतप्राय हो चुका है और यदि हनुमान सकुशल हैं तो समस्त राम दल के मूच्छित और आहत होने पर भी कोई विशेष हानि नही हुई है । वस्तुत वाल्मीकि जैसे कवियों की ऐसी घारणाएँ वीरो की कमठता तथा नेतृत्व की सफलता को सूचित करके किसी राष्ट्र की उन्नति की झोर ले जाने मे पूर्वतं सहायक सिद्ध होतो है। वाल्मीकि ने राम के पक्षधरो के माध्यम से झाये संस्कृति का जीवन्त चित्र चित्रित कर दिया है । रावण के ऊपर राम क्री विजय राक्षस सस्कृति के ऊपर प्रार्य सस्कृति की विजय है। राम का अद्भुत शारीरिक गठन आये वीरो की बलिण्ठता का ही द्योतक है। वाल्मीकि रामायण मे नास्तिकता वे ऊपर श्रास्तिफता की विजय प्रदर्शित करके बंदिकफ धर्म की उपादेयतता को भी स्पष्ट कर दिया गया है । भरत वाल्मीकि रामायण का प्रणयन महान्‌ झादर्शो को लेकर हुप्ता है । पौराणिक साहित्य ]] बाल्मीकोय रामायण में विचित्र शापों आशीर्वादों तथा अनेक घटनाम्रो की विचित्रताओं को देखते हुए उसे पौराणिक महाकाव्य कहता ही उचित है । 'रामायरा/_ राम से सम्बद्ध का ही चरित्र काव्य है। किसी चरितु कांब्य में जितनी भी विशेपताएँ होती हैं, वे सभी वाल्मीकि रामायरा मे प्राप्त होती है| चरित्‌ काव्य की मुख्यत र्म्ति विशेषताएँ हैं!--) प्रवन्ध काव्य और धर्म कथा का समन्वय, 2 पौराणिक कथा-न्नोत, 3 कथानकीय रूढियाँ--पूव॑जन्म की कथा, झ्राकाशवाणी शाप, रूप-परिवतेन इत्यादि, 4 अलौकिक तत्त्वों का समावश, 5 रोमाँचक झौर साहसिक घटनाओों का अभ्रतिरेक, 6 जीवन-दर्शन एवं प्रकृति-वश्शन की गहराइयाँ, 7 प्रश्नोत्तरास्मक, 8 प्रवन्ध-हंढियाँ--मगलाचरण, सज्जन-प्रशसा तथा दुष्ट- निन्‍्दा भ्रांदि, 9 छन्द-योजना | महाभारत 'महाभारत' शब्द का श्र है--महागुद्ध । कौरवों तथा पाण्डवों के राज्य- विभाजन के प्रश्न को लेकर उत्तरी भारत की शक्तियाँ परस्पर टकरा गई । उन शक्तियों के ठकराव के घोर परिणाम दो रूपो मे सामने आए--प्रथम तो भारत की शक्ति का क्लास के रूप मे भौर दूसरे रूप मे भारत पर विदेशी प्राक्रमशों का श्रीगणेश । महाभारत से प्रथम परिणाम पर ही विशेष बल दिया गया है । महाभारत एक परिचय--महाभारत श्रठारह पर्वो मे विभक्त एक बृहद्‌ ग्रल्थ है । कृष्ण ढ पायन वेदव्यास ने महाभारत की रचना की । परन्तु, झाज जो महाभारत उपलब्ध होता है, वह अनेक व्यासो की रचना है। 'व्यास' एक उपाधिसूचक नाम है। कृष्ण द्वपायन वेदव्यास ने जिस काव्य की रचना की, उसका नाम 'जय काव्य था। महाभारत के झ्रादि पद मे इसकी स्पष्ट सूचना है-- तारायण नमस्क्ृत्य तर चेष्र नरोत्तमम्‌ । देवी सरस्वत्ती चेव ततो जयमुदीरयेत्‌ ॥ _ बर्शित “जय काव्य भे भ्राठ हजार भ्राठ सौ श्लोक थे । इन श्लोको के विषय में यह ऊहा गया है कि “जय प्रन्थ के श्लोको के मर्मज्ञ वेद व्यास के श्रतिरिक्त शुकदेव और मजप 'भी रहे है-- अष्टो एलोकसहस्रारिश भ्रष्टो शलोकशतानि च | भ्रह वेदिम शुको वेज्ि सजयोवेत्ति वा न वा ॥ कालान्तर मे “जय ग्रन्थ का विस्तार करके उसे 'भारत' नाम दिया । तदनन्तर “भारत' में ध्ननेक उपाल्यातों एव झार्यानों को जोड़कर उसे 'महाभारत' रूप प्रदान किया गया-- चतुवशितिसाइल्ली चक्तू भारतसद्दिताम्‌ । उपाल्यान॑विना तावत्‌ भारत प्रोच्यते बुधे ॥ डॉ उदयभानुसिह छुलसो कान्य-मीमासा, पू 428 पाचस्पति गैरीजा सह्हृत्त जाहित्य का इतिहास, पृ 229 | 2 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास महाभारत के लेखन के विषय में एक किवदन्ती यह है कि एक बार व्यासजी ने अपने हृदय मे महाभारत से सम्बद्ध घटनाओो का चिन्तन करते-करते मावा तिरेकता का प्रनुभव किया | उनके हृदय से काव्य-घारा फूटना चाहती थी, परन्तु सुयोग्य लेखक के प्रभाव मे वे उसे लिपिवद्ध नही कर पा रहे थे । दैवयोग से उनकी मेट गणेशजी से हुई । व्यासजी ने अपनी आपत्ति गरोशजी के सम्मुख रखी । गरोेशजी महाभारत लिखने के लिए तो तयार हो गए, परन्तु उन्होंने एक शर्त यह लगा दी कि यदि व्यासजी घारा प्रवाह नही वोत पाएँगे तो वे प्रन्य्न को लिपिबद्ध नही करेंगे। चतुर वेदव्यास ने भी गणोशनी से कहा कि झाप भी झर्थ जाने विना श्लोको को नही लिखेंगे । प्नुवन्ध हो जाने पर जय” ग्रन्थ की रचना हुई। प्रस्तुत किवदन्ती के माध्यम से महाभारत की महिमा की झोर ही इगित किया गया है| सहाभारत का रचना-काल (500 ई पृ ) महाभारत के रचना-काल के विषय मे विद्वानों मे भ्रनेक मतभेद है । महाभारत की तिथि का निर्धारण करते समय प्रन्त साक्ष्य को तर्क की कसौटी पर कसकर श्रागे वढा जा सकता है | श्री राय चौधरी ज॑से इतिहासविदों ने महाभारत की रचना-तिथि निर्धारित करते समय विभिन्न प्रमाणो का सद्दारा लिया है। फिर भी हमे महाभारत का रचना-काल निर्धारित करते समय इस तथ्य को दृष्टि में रखना होगा कि 'महामारत' किसी एक कवि की देन न होकर भ्रनेक व्यास्तों की देव है । प्रत उसका रचना-काल पूर्व सीमा तथा भ्रपर सीमा की अपेक्षा पर ही आघ,रित हांगा | यहाँ हम कुछ विद्वानो के निष्कर्पो को श्ाघारभूत मानकर महाभारत की तिधि का निर्धारण करने का वंज्ञानिक प्रयास कर रहे है । श्री राय चौधरी ने वेदिक साहित्य मे वर्श्ित गुर-परम्परा को प्राघार मानकर महाभारत का रचना-काल निर्घारित किया है। श्री राय चौधरी ने महाभारत की रचना-तिथि ई पू मध्यम नवी शती निर्धारित की है| श्री चौधरी के मत का सार इस प्रकार है-- । गौतम बुद्ध के समकालीन व्यक्तियों मे श्राश्वलायन श्रोर शाखायन ग्रुह्म- सूत्रों के रचयिता थे । इस कारण उनका समय 500 ई पू सिद्ध हुम्ना । 2 गृह्मसूत्र के रचयिता शाॉँखायन और शाँक्षायन भ्रारण्यक के रचयिता गुणारुप शॉखायन सम्भवत एक ही व्यक्ति है। यह गुणाल््य शाखायन कहोल कौषीतकि का शिष्य था | इस कारण इसका समय भी लगभग 500 ई पू सिद्ध हुआ | 3 यदि ये दोनो ग्रन्थकार एक ही व्यक्ति नही भी थे तो कम-से-कम गुणाल्य तो प्रवश्य छठी शत्ती ई पू से पहले के नही हो सकते, क्योकि उन्होने भ्रपने भाारण्यक मे लौहित्य भौर पौष्कर भादि का उल्लेख किया है, जो बुद्ध के समकालीन थे । 4 शाखायन झारण्यक से पता चलता है कि गुणालर्य का गुरु कहोल कौषीतकि स्वय उद्दालक आदणि का शिष्य था। यह उद्दालक राजा जनमेजय के पुरोहित तुरकापषेय से झ्राठ-नी पीढी पीछे हुआ-ऐसा शतपथ ब्राह्मण की । एगाध्रवबो प्लाइएण9 ण॑ एछ05, | 8008, ए 27-29 पौराणिक साहित्य ]3 तालिका से मालूम हीता है । इस प्रकार परीक्षित् बुद्ध के समय से केवल नौ पीढी ठहरता है । भरत महाभारत युद्ध का समय नवी शती ई पू मध्य होना चाहिए । श्री राम चौधरी ने शॉखायन तथा भ्राश्वलायन शब्दों को गुरु-परम्परा के झाधार पर प्रस्तुत करके महाभारत के युद्ध के समय को निर्धारित करने का प्रयास किया है। दुद्ध से नौ पीढ़ी पूर्व का समय निर्धारित करते समय 300 वर्ष का अनुमानित समय ले लिया गया है। श्री 'शॉखायन' नाम व्यक्तिवाचक न होकर उपाधिवाचक है । ऋग्वेद की शाद्धाश्रों मे भी शॉखायन शाखा का उल्लेख है । अत महाभारतकालीन ऋषियों की परम्परा का वर्णन करते समय त्तथा उनसे चेदिक ऋषियो की परम्परा का तालमेल करते समय यही समस्या श्ाती है कि ये ऋषि एक ने होकर पनेक हुए है। भ्रत ऐतिहासिक भ्राघार पर महाभारत के युद्ध का समय निर्धारित करना ,असम्भवप्राय है। महाभारत का काल निर्धारित करने के लिए भाषा-विज्ञान का सहारा लिया जा सकता है । भाषा-विज्ञान के श्ावार पर पुछ तथ्य इस प्रकार प्रस्तुत किए जा सकते हैं--- ] आएवलायन-गुहा सू से मारता तथा महाभारत” का नाम पृथकत लिया गया है । सूत्र युग मे ब्राह्मणवाद का बोलवाला हो चुका था। इसी ब्राह्मणवाद का विरोध करने के लिए ईसा पूर्व छठी शताब्दी मे बुद्ध तथा महावीर ने बौद्ध एव जेत धर्मो का प्रवर्तेत किया । यद्यपि सूत्र-युग बहुत पीछे तक प्रवर्तित रहा, परन्तु उतका उद्गम एवं किचित्‌ विकास ईसा पूर्व छठी शताब्दी में ही हो चुका था । सूत्री शैली के निर्माण एवं विकास मे कुछ शताब्दियो का लगना साधारण चीज है। अत महाभारत का रचना-काल कम-से-कम 700 ई पू मानता चाहिए । 2 ब्ाह्मण प्रन्‍्थो मे कुद वश की परम्परा का उल्लेख है । ऐतरेय ब्राह्मण में राजा जनमेजय तक का उल्लेख भमि्तत्ता है । ब्राह्मण ग्रल्थो का रचना-काल ईसा पूर्व 500 तक माना जाता है। यदि ब्राह्मण अ्न्‍्यो में कालान्तर मे भी प्रक्षिप्तीकरण चलता रहा तो भी दंदिक साहित्य की भ्रपर सीमा के निर्धारण मे 000 ईंपू तक ही हट सकते हैं। भ्रत महाभारत का युद्ध ।000 ई पू से भी पहले हो चुका था| “जय” काव्य के प्रणेता महर्षि कृष्ण हैँ पायन पाण्डवो के द्दी समकालीन थे | क्योकि उनके पुत्र शुकदेव ने अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को उपदेश दिया था। भ्रत कृष्ण द्वैपायन ने महाभारत की रचना का बीज )000 ई पे भी पहले दो दिया था | 3 ईसा पूरे छठी शताब्दीमे महाभारत का अनुवाद जावा, धालि आदि होपो की भाषाओो मे हो चुका था । रक्त हीपो की कवि भाषा में महाभारत का अनुवाद एक भाषा वैज्ञानिक महत्त्व रखता है। महाभारत के कई पर्व श्राज भी उक्त द्वीपी मे सुरक्षित है। यहाँ यह विचारणीय है कि कोई ग्रन्थ पहले लोक विश्वुत होता है तथा काजान्तर मे उसे अन्य भाषाप्रो में अनूदित किया जाता है। प्राचीनकाल से रा>भ्सार के साथतो की बड़ी कमी थी। झत किसी प्रत्थ के विश्व-विश्वुत होने ]]4 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्क्रतिक इतिहास में शताब्दियों का लग जाना साधारण वात है। झ्त महाभारत का रचना-काल स्वयभेव 700 ई पू निश्चित किया जा सकता है । 4 व्याकरण के सम्रादू आचाय॑ पारिनि ने अ्रपनी 'भ्रष्टाध्यायी में महाभारत ग्रन्थ का उल्लेख क्रिया है। उन्होंने “महाभारत' शब्द का श्रथे महायुद्ध बतलाया है। केवल इतना ही नही, भ्रपितु युधिष्ठिर, भीम तथा विदुर श्रादि को चरितनायकों के रूप में याद किया है! आचाये पारिनि का स्थितिकाल पाँचवीं शती ई पू सुनिश्चित है।अत महामारत की रचता पारिनि से पूर्व ही हो चुकी थी । 5 ससकृत के प्रथम नाटककार भास के 'दृतवाक्य', 'उसुमग', “मध्यम व्यायीग” झ्रादि नाटक महाभारत की कथा पर आधारित है। जब महाभारत को लोकप्रियता प्राप्त हो गई होगी, तभी कवियों ने उसे साहित्य का विषय बनाना उचित समझा होगा। भास का समय ई प्‌ चौथी शनाब्दी ज्ञक माना जाता है! प्रत महाभारत की रचना उनसे कई सौ वर्ष पूर्व हो चुकी होगी । महाभारत के रचना-काल को निर्धारित करने मे ज्योत्तिपाचार्यों ने भी विलक्षण कार्य किया है। चौथी-पाँचवी शताब्दी के प्रसिद्ध ज्योतिष्याचार्य वराहमिहिर ते महाभारत युद्ध का समय 30] वर्ष ई पू माना है। उनकी यह मान्यता है कि महामारत का महासहार किसी विशिष्ट ग्रह-दशा का परिणाम है । वे ऐसी गह-दशा का समय चुनते-छाँटते हुए स्वयं से लगभग 3600 वर्ष दूर पहुँच गए हैं परन्तु उनकी मान्यता को बीसवी शताब्दी के दो विश्व युद्धो-9]4 का तथा 939 का ने निर्मल सिद्ध कर दिया है क्योकि उक्त दोनो विश्व युद्धो के समय कोई विशेष ग्रह-दशा नही थी । महाभारत के युद्ध से भी बढकर उक्त दोनों महायुद्धों मे मारकाट हुईं । फिर यह भी उल्लेखनीय है कि प्राचीनकाल मे आझ्राधुनिक युग की अपेक्षा ज़नसस्या बहुत कम थी। झकबरकालीन भारत की जनसस्या केवल सोलह करोड मानी गई है । भ्रत महाभारतकालीन भारत की जनसख्या भौर भी कम रही होगी । इसलिए प्रत्यक्षतावादी सिद्धान्त के श्राधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि महाभारत मे सैनिको के हताहत होने की जिस सख्या का वर्णन हुआ है, वह नितान्त अतिशयो क्तिपूर्ण है। इसके प्रतिरिक्त वराहुमिहिर की मान्‍्यना पौराणिक प्रमाणों से भी मेल नही खाती । पुराणों मे राजा नन्‍्द तथा परीक्षित के स्थितिकाल मे एक सहल्न वर्ष का भ्रतर माना गया है। राजा सत्द ई प्‌ चौथी शरत्ताब्दो की उपज है | झत परीक्षित का जन्म 400 ई पू में ही हो चुका होगा। लोकमान्य तिलक ने महामारत का काल निर्धारित करते के लिए पौराणिक काल-गराना को महत्त्व दिया है। पौराखिक काल-गणता के प्रनुसार महाभारत का यद्ध 5000 वर्ष ई पू में हो चुका था। भत 'महाभारत' के प्रारम्भिक रूप को उसी युग में रचित मातना चाहिए। तिलकजी ने “गीता रहस्थ' में गीता का काल' 500 ई पू स्वीकार किया है । गीता महाभारत का प्रश है । अत मतल““रत का रचना-काल भी 500 ईंपूदही” “व सकता है । पौराशिक साहित्य 5 दशैनशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित डा रावाकृष्णन्‌ ने गीता के वष्यें-विपय की बौद्ध धर्म के सिद्धान्तो से तुलना की है। गीता के पन्द्रहवें भ्रष्याय में चार प्रकार के प्रश्न का उल्लेख है--'पचाम्यन्त चतुविधम्‌ ।” इसी प्रकार से बौद्ध ग्रन्थ मे चत्तारो भ्रह्मारा' का वर्णन है। बौद्ध दर्शन का प्रभाव महाभारत पर दूसरे रूप में भी पडा है। महाभारत के वनपर्व में 'एडूक्) शब्द का प्रयोग हुआ है | जब बुद्ध की वस्तुओं को गाड़ दिया जाता था तथा वही स्मारक का रूप दे दिया जाता था तो उसे एडक के रूप मे जाना जाता था। भ्रत महाभारत का कलेवर बुद्ध के उदय के पश्चात भी विवर्धित किया गया । भ्रत दौद्धछशेन का प्रभाव गौता एवं महाभारत दोनों पर ही होने के कारण महाभारत का रचना-काल ई पू पाँचवी शी तक माना जा सकता है। भहाभारत के रचना-काल की उत्तरवर्ता सीमा निर्धारित करने लिए कुछ प्रमाण दृष्टव्य हैँं-- ] गुप्तकालीन एक शिलालेख मे “महाभारत” को शतसाहल्ली सहिता के ताम से पुकारा गया है । धत महाभारत का परिवर्डेन 440 ई से पर्याप्प पहले ही हो चुका था । | 3 कुमारिल, बाणभट्ट, शकराचार्य श्रादि दाशनिको भौर साहित्यकारो ने गीता का झादरपूर्वक नाम लिया है। प्रत महाभारत की पूर्ण रचना सातवी शताब्दी से बहुत पहले ही दो, चुकी थी, वह सर्वथा स्पष्ट है । 5 3 कम्बोडिया के एक शिलालेख मे महाभारत का निर्देश है। परत 600 ई के विदेशी शिलालेख के झाधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि महाभारत प्पने विशाल कलेवर के रूप मे 600 ई भे विदेशों मे भी विख्यात हो चुका था । 4 महाभारत के कृष्ण दावानल को निगलने वाले है , दुर्योधन की सभा में विशद्‌ रूप प्रदर्श्त करने वाले हैं। ये सब विचित्र कल्पनाएँ पुराणों के विकसित रूप की देत हैं। भ्रतः महाभारत की रचना का उत्तर-काल निश्चयत पाँचवी शताब्दी तक माना जा सकता है। डॉ काशीप्रसाद जायसवाल ने भी इसी समय का समर्थन किया है । $ प्रसिद्ध इतिहासकार विन्टरनित्स महोदय ने महाभारत के भ्राड्यानो और उपाल्यानों को वेदिक साहित्य से सम्बद्ध किया है तथा महाभारत की सूक्तियो को जैन एद बौद्ध साहित्य से | श्रत वे महाभारत के निर्माण को पन्त्येष्टि 400 ई पृ ही मान बैठे है। उक्त इतिहासकार महाभारत्त की भ्रवत्तारवादी भावना पर विशेष ध्यान नहीं दे पाए। यदि वे श्रीकृष्ण के ईश्वरत्व की श्रोर विशेष दृष्टिपात करते तो यह निश्चित हो जाता कि महाभारत की कल्पनाएँ एवं उसका घर्मशास्त्र पाँचवी शताब्दी तक कौ ही देन है । हि उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि महाभारत की रचना एक युग में नही हुईं है। जगद्गुर शकराचार्य ते वेदाल्तसून भाष्य मे यह स्पष्ट कर दिया ई महाभारत वनपव, 90/68 4 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्क्रतिक इतिहास मे शताब्दियों का लग जाना साधारण वात है। भ्रत महाभारत का रचना-काल स्वयमेव 700 ई पू निश्चित किया जा सकता है । 4 व्याकरण के सख्राट्‌ प्राचार्य पारिनि ने अपनी “भअष्टाध्यायी' में महाभारत ग्रन्थ का उल्लेख क्रिया है। उन्होने 'महाभारत' शब्द का श्रर्थ महायुद्ध बतलाया है | केवल इतना ही नही, श्रपितु युधिष्ठिर, भीम तथा विदुर आदि को चरितनायको के रूप में याद किया है| भाचाय॑ पाशिनि का स्थितिकाल पाँचवीं शी ई पू सुनिश्चित है।भ्रत महामारत की रचना पारिनि से पूर्व ही हो चुकी थी । 5 सस्छृत के प्रथम नाटककार भास के 'दृतवाक्य”, 'उरुमग, “मध्यम व्यायोग” श्रादि नाटम महाभारत की कथा पर आधारित है। जब महाभारत को लोकप्रियता प्राप्त हो गई होगी, तभी कवियो ने उसे साहित्य का विपय बनाना उचित समभा होगा। भास का समय ई पू चौथी शनाव्दी तक माना जाता है । भ्रत महाभारत की रचना उनसे कई सौ वर्ष पूर्व हो चुकी होगी । महामारत के रचना-काल को निर्धारित करने मे ज्यौतिषाचार्यों ने भी विलक्षण कार्य किया है । चौथी-पाँचवी शताब्दी के प्रसिद्ध ज्योतिष्णाचार्य वराहमिहिर ने महाभारत युद्ध का समय 30 वर्ष ई पू माना है। उनकी यह मान्यता है कि महाभारत का महासहार किसी विशिष्ट ग्रह-दशा का परिणाम है | वे ऐसी गह-दशा का समय चुनते-छाँटते हुए स्वयं से लगभग 3600 वर्ष दूर पहुँच गए हैं परन्तु उनकी मान्यता को वीसवी शताब्दी के दो विश्व युद्धो-94 का तथा 939 का ने निर्मुल सिद्ध कर दिया है। क्योकि उक्त दोतो विश्व युद्धों के समय कोई विशेष ग्रह-दशा नही थी | महाभारत के युद्ध से भी बढकर चक्त दोनो महायुद्धों में मारकाट हुई । फिर यह भी उल्लेखनीय है कि प्राचीनकाल मे आ्राघुनिक युग की अपेक्षा ज़नसख्या बहुत कम थी। प्रकबरकालीन भारत की जनसस्या केवल सोलह करोड मानी गई है| भ्रत महामारतकालीन भारत की जनसख्या भौर भी कम रही होगी । इसलिए प्रत्यक्षतावादी सिद्धान्त के भ्राघार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि महाभारत मे सेनिको के हताहत होने की जिस सख्या का वर्णोन हुआ है, वह नितान्त अतिशयोक्तिपूर्णो है। इसके भ्रतिरिक्त वराहुमिहिर की मान्यना पौराणिक प्रमाणो से भी मेल नही खाती । पुराणों मे राजा नन्‍्द तथा परीक्षित के स्थितिकाल में एक सहस्त वर्ष का भतर माना गया है। राजा नत्द ई पू चौथी शताब्दो की उपज है | भरत परीक्षित का जन्म 400 ई पू मे ही हो चुका होगा । लोकमान्य तिलक ने महामारत का काल निर्घारित करने के लिए पौराखिक काल-गझता को महत्त्व दिया है। पौराणिक काल-गणना के प्नुसार महाभारत का युद्ध 5000 वर्ष ई पू में हो चुका था| झ्त “महाभारत' के प्रारम्भिक रूप को उसी युग में रचित मानना चाहिए | तिलकजी ने 'गीता रहस्य में गीता का काल 500 ई पू स्वीकार किया है | गीता महाभारत का अभ्श है । झत रखना-काल भी 500 ई पू ही. 77 सकता है। पौराशिक सारित्य ]5 दर्शेनशास्त्र के प्रकाष्ड पण्डित डॉ राघादृष्णान्‌ ने गीता के वष्यं-विषय पी वौद्ध धर्म के सिद्धान्तो से तुलना की है। गीता के पन्द्रदवें प्रध्याय में चार प्रगार पे भ्रप्त का उल्लेख है--'पचाम्पन्त चतुविधम्‌ ।' इसी प्रकार से बौद ग्रन्प में “चत्तारो अहारा' का वर्णंत है। बौद्ध दर्शन वा प्रभाव महाभारत पर दूसरे रूप में भी पढा है। परह्भारत के बनपवे में 'एडूक” शब्द का प्रयाग हुआ्ला है । जय बुद्ध की वस्तु को ग्राड दिया जाता था तथा बही स्मारक का रूप दे दिया जाता था तो उसे एट्रक के रूप मे जाना जाता था। श्रत महाभारत का कलेव” बुद्ध के उदय के पा्चात्‌ भी विवधित किया गया | अत वौद्धद्धाईन का प्रभाव गीता एवं महाभारत दोनो पर ही होने के कारए महाभारत का रचना-काल ई पू पाँचवी शत्ती तक माना जा मबाता है। सहाभारत के रचना-काल की उत्तरवर्ता सीमा निर्धारित करने लिए कुछ प्रमाण दृष्टव्य है--- ] गुप्तकालीन एक शिनालेख में महाभारत” को शतसाह्स्री सहिता के ताम से पुकारा गया है । भ्रत महाभारत का परिवद्धंन 440 ई से पर्याप्प पहले ही हो चुका था । 2 कुमारिल, बाणभद्ट, शकराचार्य श्रादि दार्शनिको श्रौर साहित्यकार ने गीता का श्रादरपूर्वक नाम लिया है| झ्त महाभारत की पूर्ण रचना सातची शताब्दी से घहुत पहले ही हो, चुकी थी, वह सर्वथा स्पष्ट है । 3 कम्बोडिया के एक शिलालेख मे महाभारत का निर्देश है। भ्त 600 ई के विदेशी शिलालेख के श्राघार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि महाभारत भ्रपने विशाल कलेवर के रूप से 600 ई भे विदेशों से भी विस्यात् हो चुका था । 4 महाभारत के कृष्ण दावानल को निगलने वाले है , दुर्योधन की सभा में विशद्‌ रूप प्रदर्शित करने वाले हैं। ये सब विचित्र कल्पराऐं पुराणों के विकस्तित रूप की देन हैं। भ्रत महाभारत की रचना का उत्तर-काल निश्चयत पांचवी शताब्दी तक माना जा सकता है। डॉ काशीप्रसाद जायसवाल ने भी इसी समय का समर्थन किया है । 3 प्रसिद्ध इतिहासकार विन्टरनित्स महोदय ने महाभारत के भ्राख्यानो और उपास्यानो को वैदिक साहित्य से सम्बद्ध किया है तथा महाभारत की सुक्तियो को जन एव बौद्ध साहित्य से | भ्रत वे महाभारत के निर्माण की प्रन्त्येष्टि 400 ई पु हो मान बेठे है । उक्त इतिहासकार महाभारत की अवतारबादी भावना पर विशेष ध्यान तही दे पएए । यदि वे श्रीकृष्ण के ईएबरत्व की झोर विशेष दृष्टिपात करते तो यह निश्चित हो जाता कि महाभारत की कल्पनाएँ एवं उसका घर्मशास्त्र पाँचवी शताब्दी तक की ही देन है । उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि महाभारत की रचना एक युभ मे नही हुई है । जगद्गुद शकराचार्य ते वेदान्तसूच भाष्य मे यह स्पष्ट कर दिया ] महाभारत वनपदें, 90/68 ]6 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्कृतिक इतिहास है कि वेदाचाय अपान्तरतभा ऋषि ही कलियुग एव ह्वापर युग के सन्धिकाल मे कृष्ण- हँपायन के रूप में प्रकट हुए ।? इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यास एक नहीं अनेक हुए हैं। प्राचीन काल मे कोई व्यास रहे होगे भ्ौर थे बडें प्रतिभाशाली रहे होगे | भ्रत जो व्यक्ति वेद-विस्तारक सिद्ध हुआ उसी को व्यास उपाधि से विभूषित कर दिया गया। कृष्ण द्वं पायन को विष्णु की श्राज्ञा से वेदों का वर्गीकरण करना पडा । भ्रत उसने बेदों को चार सहिताञो के रूप में विभाजित कर दिया | इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वेद पहले विभिन्न मर्न"पियो की शिष्य परम्परा मे विकसित हो रहे थे परन्तु कृष्णद्वपायन वेद-व्यास ने वेदों के सम्यकू विभाजन का कार्य किया । वेदों के एक नईं दिशा मे विस्तारक होने के कारण इन्ही को वेदव्यास कहा गया । महाभारत के प्रनुसार महपि पाराशर तथा सत्यवती के पुत्र वेदव्यास ने ही महाभारत की रचना की | महाभारत का यह प्रसंग भी बडा रोचक है कि चित्रवीर्य तथा विचित्रवीय के पश्चात्‌ वेदव्यास ने वियोग के श्राधार पर राजरानियो से घृतराप्ट्र तथा पाण्डु को उत्पन्न किया । इन्हीं के पुत्र राजनीति-प्रवर विदुर थे। कहने का झभिप्राय यही हुआ कि वेदव्यास महाभारत के युद्ध के समय निश्चयत भ्रतिशय वृद्ध थे। इन्हीं वेदव्यास ने 'जय” काव्य की रचना की। यहाँ यह उल्लेखनीय हैं कि ऋणग्वेद मे शान्तनु तथा देपापि के नाम विद्यमान्‌ हैं । वेदों के विभाजक वेदव्यास ने भ्रपने आश्रयदाता शान्‍्तनु को वेदों मे स्थान दे दिया, यह एक मनोव॑ज्ञानिक सत्य प्रतीत होता है। जब ऋग्वेद मे महाभारत काल से पूर्ग के राजा एव ऋषियों के नाम झा गए है तो ब्राह्मण तथा आरण्यको मे कुरुवश का जयमेजय तक का इतिहास भरा जाना कोई असाधारण चीज नही है । ब्राह्मण प्रन्यो का प्रारम्भिक रचना-काल 2500 वर्ष ई पू भ्रवश्य है । प्रत महाभारत का प्रारम्भिक रूप जय!” काव्य भी 2500 ई प्‌ भ्रवश्य रच दिया गया होगा । यहाँ प्रश्न केवल यही उठता है कि वेदिक सस्कृत के ज्ञाता ग्रेदव्यास ने 'जय' काव्य की रचना लौकिक सस्क्ृत मे ही क्यों की ? इस प्रश्न का उत्तर केवल यही हो सकता है कि वेदव्यास पाण्डवों की विजय से सम्बद्ध 'जय' काव्य को भ्राम जनता की भापा लौकिक सस्कृत मे रचकर वाल्मीकि की रामायण की भाँति अपने काव्य को विश्व-विश्रुत बनाने का स्वप्न देख चुके थे । फिर वैदिक सस्कृत के अनेक शब्द-रूप जनता के लिए प्राय दुर्बोष्य ही रहते होगे, भ्रत जनता की भाषा से सटी हुई लौकिक सस्कृत मे जय काव्य का प्रणयन समर में भा सकता है । जब एक ग्रन्थ कीति को प्राप्त होता है तो उसी को आधार बनाकर अन्य युग-सन्देश भी प्रस्तुत कर दिए जाते हैं। भ्रत शुक्देव, जैशम्पापन, सूत तथा शौनक आदि के योग से जय काव्य भारत” तथा “महाभारत” रूपो मे विकसित हुआ । 500 वर्ष, ई पू में घर्मशास्त्र के प्रमुख आधार महाभारत” को बौद्ध तथा जैन धर्म की प्रतिस्पर्शा मे और भी अधिक विकसित किया गया । हिन्दुओं की समनन्‍्वपवादी प्रवृत्ति जब गौतम बु्ध को ईशायतार घोषित कर चुकी थी तथा पुराणों ]. तथाहि प्रपान्तरतमा माम वैदाचार्य पुराणपि विष्णुनियोगत्‌ कप्तिद्वापरयो सचो कृष्णद्वैपायन सवभूव | --वैदान्तसूत्रभाष्य, 3/3/32 पौराणिक साहित्य 7 एव स्पृतियों का वरावर प्रशयन चल रहा था तब भी उपयुक्त ग्रवमर सम का" ज्यासों ने महामारत के कलेवर मे पर्याप्त वृद्धि को। गुणकाल तक भ्राततेन्‍गातति तभी प्रकार की साहित्यिक कल्पनाओं के उत्पर्ष में पूर्ण महातारत' ग्रग्य देश-विदेग म्‌ विश्वुत हो गया । भ्रत महाभारत की पूरव-सीमा सूत-प्रन्‍्थी तथा पाणिनि के उल्नेषा के प्राधार पर 500 ई पू है। 'जय' काल वी रचनावधि 2500 वर्ष ६ पू ऐँ उपयूं क विवेचन के झाधार पर महाभारत की उत्तर सीमा पचम शताब्दी है । महाभारत का वर्ण्यं-विषय महाभारत मे प्रनेक विपयो का वर्णन है | बही इसमे पभ्र्थपारा बयाम राजनीतिशास्त्र का वन है तो कही इसमे घमश[स्त्र का विवेबप है। महाभारत में प्नेक शास्त्रों के समन्वय का उल्लेख हुआ है-- अथंशास्त्रमिद प्रोक्त घमंशास्त्रमिद महत्‌ । कामशास्त्रमिद प्रोकत व्यासेनमतिबु द्विना ॥ महाभारत घम, श्र्य, काम तथा मोक्ष नामक पुरुषाथ-चतुप्ट्य का उन्‍्द्र कहा गया है। जो तत्व महाभारत मे है, 9े हो विश्व मे है धौर जो तत्त्व महाभारत में नहीं है, वे तत्त्व दुनिया मे कही भी नही है-- धर्म चाथें व कामे च मोक्ष च भरतर्पभ। यदिहास्ति तदन्यत्र यल्तेहाम्ति न तत्‌ ववचित्‌ ॥ महाभारत के सन्दर्भ में उपयुक्त प्रशत्ति उसके वर्ण्य-विस्तार की सूचना देती है। पथार्थंत महाभारत मे निम्नलिफित विषयों का वर्शन हुप्ना है- ] राजनीतिक विवेचन, 2 घाभिक विवेचन, 3 यौद्दिक कथाएँ, 4 दार्शनिकता तथा 5 पौराणिक झाख्याना का वन । राजनीधिक विवेचन--महाभारत-अर्थात्‌ महायुद्ध का झाधार राजनीतिक प्रपच ही कहा जा सकता है। भह्ाभारत का भनुशासन पर्व राजनीतिक विचार- धाराझो को स्पष्ट करता है । राजनीतिविद विदुर धृत्तराष्ट्र को भ्नेक प्रकार से समझाने की चेष्टा करते है । दिदुर कटु सत्य को कहे बना भी नही रहते। 'पृतराष्ट्र' नाम ही भ्रच्छा नही है । जिस व्यक्ति ने राप्ट्र को पकड रखा हो, प्रर्थात्‌ जो ताना- शाही पर उतारू हो, वही घृतराष्ट्र है। इसलिए विदुर धृतराष्ट्र के पक्षपात्‌ की झालोचना करते हैं। धृतराष्ट्र दुर्योधन के वशीभूत दिखलाई पडते हैं। झाचायय विदुर उस व्यक्ति को जीवित रूप मे ही भृत्तक-तुल्य वतलाते हैं, जिसकी प्रशसा चारण अ्रथवा कायर झथवा स्त्रियाँ किया करती हैं-- य प्रशसन्ति कितव थ प्रशसन्ति चारणा । य प्रशसन्ति स्त्रिय स न जीवति मानव ॥॥ विदुर पाण्डव-पक्ष की अपेक्षाकृत अधिक प्रणसा करते जान पते हैं। वे पाण्डवों को नीति के मार्ग पर अग्रसर बतलाते है। अनुशासन पे मे एक आदर्श राज्य का मनोहारी वरंत किया गया है| प्रपने अभ्रधिकार की प्राप्ति के लिए सघ्ष करना न्याथोचित्‌ सिद्र किया गया है । एक राजा के लिए काम, कोध तथा लोन (6 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्कूतिक इनिहास है कि वेंदाचार्य अपान्तरतमा ऋषि ही कलियुग एवं हवापर थ्रुग के सन्धिकाल मे कृष्ण- हं पायन के रूप में प्रकट हुए ।? इससे यह स्पप्ट हो जाता है कि व्यास एक नही अनेक हुए है। प्राचीन काल मे कोई व्यास रहे होंगे और बे बडें प्रतिभाशाली रहे होगे | भ्रत जो व्यक्ति बेद-विस्तारक सिद्ध हुआ उसी को व्यास उपाधि से विभूषित कर दिया गया। कृष्ण ढ पायन को विष्णु की प्राज्ञा से वेदों का वर्गीकरण करना पडा । भ्रत उसने वेदों को चार सहिताओझों के रुप में विभाजित कर दिया । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वेद पहले विभिन्न मनीपियों की शिष्य परम्परा मे विकसित हो रहे थे परन्तु कृष्ण पायन वेद-व्यास ने वेदों के सम्यकू विभाजन का कार्य किया । वेदों के एक नई दिशा मे विस्तारक होने के कारण इन्ही को वेदव्यास कहां गया । महाभारत जे अ्रनुसा: महषि पाराशर तथा सत्यवती के पुत्र वेदव्यास ने ही महाभारत की रचना की । महाभारत का यह प्रसग भी बडा रोचक है कि चित्रवीर्य तथा विचित्रवीय के पश्चात्‌ वेदव्यास ने वियोग के श्राधार पर राजरानियो से घृतराप्ट्र तथा पाण्डु को उत्पन्न किया | इन्हीं के पुत्र राजनीति-प्रवर विदुर थे। कहने का प्रभिप्राय यही हुआ कि वेदव्यास महाभारत के युद्ध के समय मिश्चयत अ्रतिशय इद्ध थे। इन्ही वेदव्यास ने 'जय' काव्य की रचना की | यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद मे शान्तनु तथा देषापि के नाम विद्यमान्‌ हैं! वेदों के विभाजक वेदव्यास ने अपने ग्राश्रयदाता शान्तनु को वेदों में स्थान दे दिया, यह एक मनोव॑ज्ञानिक सत्य प्रतीत होता है। जब ऋग्वेद मे महाभारत काल से पूर्ण के राजा एव ऋषियों के नाम आ गए है तो ब्राह्म॒रा तथा आरण्यको मे कुर्बश का जयमैजय तक का इतिहास भरा जाना कोई असाधारण चीज नही है। ब्राह्मण ग्रन्थो का प्रारम्भिक रचना-काल 2500 वर्ष ई प्‌ भवश्य है। भ्रत महाभारत का प्रारस्भिक रूप “जय! काव्य भी 2500 ई प्‌ भ्रवश्य रच दिया गया होगा । यहाँ प्रश्न केवल यही उठता है कि वैदिक सस्कृत के ज्ञाता गेदव्यास ने 'जय' काव्य की रचना लौकिक सस्क्ृत मे ही क्यों की ? इस प्रश्न का उत्तर केवल यही हो सकता है कि वेदव्यास पाण्डवो की विजय से सम्बद्ध 'जय' काव्य को झ्राम जनता की भाषा लौकिक सस्क्ृत्त मे रचकर वाल्मीकि की रामायण की भाँति प्रपने बाव्य को विश्व-विश्रुत बनाने का स्वप्न देख चुके थे । फिर वैदिक सस्क्ृर के अनेक शब्द-रूप जनता के लिए प्राय दुर्बोध्य ही रहते होगे, भ्रत जनता की भाषा से सटी हुई लौकिक सस्कृत मे जय” काव्य का प्रशयन समझ में भ्रा सकता है । जब एक ग्रन्थ की्ति को प्राप्त होता है तो उसी को प्राधार बताकर अन्य युग-सन्देश भी प्रस्तुत कर दिए जाते है। भ्रत शुकदेव, गैशम्पापन, सूत तथा शौनक झादि के योग से 'जय' काव्य भारत” तथा “महाभारत” रूपो मे विकसित हुआ । 500 वर्ष, ई प्‌ में धंशास्त्र के अमुख श्राघार 'महाभारत” को बौद्ध तथा जैन धर्म की प्रतिस्पर्दा मे और भी अधिक विकसित किया गया। हिन्दुओं की समन्वयवादी प्रवृत्ति जब गौतम बुद्ध को ईशावतार घोषित कर चुकी थी तथा पुराणों ! तथाहि भ्रपान्तरतमा नाम बैदाघार्य पुराणयि विष्णुनियोगत्‌ कलिद्वापरयो सघी कृष्णद्वपायन सवमभूव । --वैदान्तसृत्नभाष्य, 3/3/32 पौराणिक साहित्य 49 दावा करते हैं। महाभारत का युद्ध भीष्म पर्व से शुरू होता है। कौरबो की सेना के पेनापति भीष्म के नाम पर इस पर्व का नाम भीष्म “रा दिया गया है। भीष्म 0 दिन तक प्रधोर पराक्रम प्रदर्शित करते हुए समरागण में शर-शैय्या पर सो णाते हैं) भीष्म के मेतृत्व भे कौरवों की सेता विजय की प्रोर भ्रग्रमर रहनी है । भीष्म वे घायत हो जाने पर कौरवी सेना का स्रेनापतित्व श्ाचाय द्ोण करते है । दोणाचाये के रहते हुए भभिमन्यु जैसा महार॒थी वीरगति को प्राप्त होता है तथा फौरव पक्ष में जयद्रथ नामक महारथी को भी प्राणो ते हाथ धोना पहता हैं! द्रुप्टपद-पुत धृयुम्त पुत्र के पड़्यल्त-सिद्ध वियोग में शस्त्र-त्याग किए हुए झाचाय द्रोण का वध करता है । द्रोस के पश्चात्‌ सेनापतित्व का भार महारथी कर सम्भालता है जो भीन नरेश घटोत्तव का वध करता है तथा भन्तत श्रजुन के बाण-अहारो से हताहन होता है । कर्ण के वध के पश्चात्‌ शल्य सेनापति बनता है तथा कौरवी सेना के महाक्षय के साथ विनाश को प्राप्त होता है । इन सेनापतियो के नेतृत्व में लड़े जाने वाले युद्ध क़रमण द्रोए् पर्व, करों प्वे तथा शल्य पर्व मे प्र्दशत किए गए हैं। गदा पर्व मे दुर्पोधन की पृत्यु दिललाई है। महाभारत के युद्ध का कारण कौरवो और पाण्डवों का विद्वेप मात्र न होकर, अन्य राजाशो का पारस्परिक वैमनस्य भी है तभी तो दुर्षाषन भारी समर्थेत पाकर श्रीकृष्ण से यही कहता है कि सै लड़ाई के बिना सुई की नोक के बराबर भी भूमि नही दूँगा सूच्याग्रभागमपि न दास्पामि बिना युद्ध केशव | बाशेनिकता--महाभारत मे भोक्ष-तत््व का सविस्तार वर्णन है। मुक्ति या मोक्ष के तीन मार्ग प्रसिद्ध है--कर्मपीग, मक्तियोग तथा ज्ञानयोग । इन तीनो ही मार्गों का विशद्‌ विवेचन भीज्मपर्व के प्रसिद्ध भाग 'गीता' नामक ग्रन्थ मे किया गया है। गीता के प्रथम भ्रध्याय से लेकर छठे भ्रध्याय पर्यन्त कर्मंमोग का विवेचना किया गया है। गीता के सातवें अ्रष्याय से लेकर वारहवें अध्याय तक मक्तियोग का वर्सत किया गया है । गीता के तेरहवें भ्रध्याय से भ्रठारहदें भ्रध्याय तक ज्ञानयोग का वर्रोन है। इन भप्रध्यामों में विभिन्न मार्गों का सम्सिश्रण भी है। गीता का कर्मेमांगें नि्न्मम भाषना मे, भ्र्थात्‌ कर्म भावना से कर्म करना सिखलाता है । यथा ,कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फरलेपु कदाचन्‌ । भा कर्सफलहेतुभू मां ते समोउ्स्त्वकर्मशि ॥।. गीता 2/47 अर्थात्‌ ऋष्ण भजुंन से कहते है कि हे भर्जु न | व्यक्ति को कम करने का ही अधिकार है, फल प्राप्ति का नहीं | व्यक्ति को फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए और न ही कर्म करने भे प्रति होनी चाहिए । यीता का भवितियोग ईश्वर मे-भर्थात्‌ सम्पूर्ण विश्व भे परम प्रेम करना सिखताता है। भक्तियोंग में निमुंण भक्ति शौर सगुण भवित को प्रतिपादित किया है। भगवान्‌ श्रीकृष्ण भक्ति को ईएवरत्व-प्रदायिका सिद्ध करते है-- मत्कमेंकन्मत्परमो मदभकत सजूर्वाजत । निर्देर सर्वमृतेपु य स मामेत्ति पाण्डव ॥ >गीता, 8/55 ]8 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सास्कृतिक इतिहास जैसे विकार-शत्रुओ से सदा सतर्क रहने को कहा गया है। विद्र ने राजनीनि के गरभ मे प्रवेश करके यहाँ तक भी कह दिया हैं कि यदि श्रपने भ्रधिकारो की प्राप्ति के निए युद्ध करता हुश्रा योद्धा वीरगति को प्राप्त हो जाता हं तो उसे योगयुक्त योगी की आनन्दमयी सदगति प्राप्त होती है-- द्वाविमों पुरुपौ राजन्‌ ! सूयमण्डलभेदिनौ । परिव्नाडश्च योगयुक्तण्रणंचाभिमुखों हत | निष्करपंत महाभारत मे सदसत्‌ राजनीति वी विस्तार से चर्चा वी गई है । 2 घामिक विवेचन--महाभारत को वमशास्त्र भी कहा गया है। महाभारत में धम का मनोवेज्ञानिक स्वरूप चित्रित किया गया है। 'धम' घारणीय हे, भ्रत वही सर्वेस्व है । अच्छी वातों को श्रवणाधार भी ग्रहण करना चाहिए । जो चीजें हमे कष्टफारक प्रतीत होती है, उह्दे ब्यवहार मे दुसरे व्यक्तियों के साथ भी लागू नहीं करना चाहिए--- श्रूयता धर्मंसर्वस्व श्रुत्वाचाप्यवधायंतामु । आत्मन प्रतिकूलानि परेपा न समाचरेत्‌ ॥ अपने धर्म की रक्षा के लिए कोई भी व्यक्ति त्यायालय की शरण में जा सकते हैं । इस विषय मे एक रोचक प्रसग यह है कि जब पाण्डव श्रपने वनवास के तेरहवें वर्ष की प्रवधि मे राजस्थान के विराटू नगर मे राजा विराट के यहाँ रह रहे थे, तो विराट की सेना के सेनापति कीचक की कुदृष्टि द्रौपदी पर पडी। उसने द्रौपदी को परेशान करना शुरू कर दिया । द्रौपदी न्याय के लिए राजा विराट को सभा में गई । उसने भ्पना पक्ष प्रस्तुत किया, परन्तु राजा ने कीचक को दण्ड देते का वचन तक न दिया । इस पर द्रौपदी कुपित हो गईं । उसके उस समय के वचन घर्शास्त्रीय चेतना को प्रकट करते है-- - न राजा राजावत्‌ किड्चित्‌ समाचरति कीचके । दस्यूनामिव धर्मेस्ते नहि ससदि शोभते ॥-विराद पर्ब॑ 6/3! अर्थात्‌ हे राजन्‌ ! आप कीचक के प्रति राजदण्ड का प्रयोग नही कर पा रहे है| स्त्रियों की लज्जा लूटना नर-पिशाचों का घम है । परन्तु, राजसभा में तो डाकुप्रो को प्रताडित एवं अभिदण्डित करने की शक्ति होती है, भ्त वह यहाँ क्यो नही ? इसी प्रकार से प्राश्नम-व्यवस्था के ऊपर भी धर्मंसगत प्रकाश डालकर घाभिकता को महत्त्व प्रदान किया गया है। महासारत मे धर्म के कोने-कोने को परखने की चेष्टा की गई है । 3 यौद्धिक कथाएँ....महाभारत के विराट पर्व मे ही युद्ध की विशाल भूमिका बन जाती है | कौरवो के पक्ष को सुदुंढ करने के लिए शकुनि, भूरिश्रवा, भगदत्त, शल्य जैसे महान्‌ राजा प्रपनी सेनाएँ लेकर कुरुक्षेत्र के मेदान मे श्राकर शिविर लगा देते हैं । पाण्डवो के पक्ष मे धृष्ट्युम्न, सात्यकि, घटोत्कच तथा विराट अपनी सेनाएँ लेकर प्रस्तुत होते हैं । कौरवो के पक्ष मे ग्यारह श्रक्षीहिणी सेना तथा पाण्डवों के पक्ष में सात प्रक्षौहिणी सेना एकत्र होती है । दोनो ही पक्ष प्रपनी-प्रपनी विजय का पौराशिफ साहित्य 49 दावा करते हैं। महाभारत का युद्ध भीष्म पर्व से शुरू होता है। कौरयो वी सेना के सेनापति भीष्म के नाम पर इस पर्व का नाम भीष्म “रा दिया गया है। भीष्म ।0 दित तक प्रधोर पराक्तम प्रदर्शित करते हुए समरागण में शर-गैय्या पर सो जाते हैं। भीष्म के मेतृत्व मे कौरवों की सेना विजय की भोर अग्रसर रहती है । भीष्म के धायन हो जाने पर कौरवी सेना का सेतापतित्व प्राचार्य द्रोण करते है । द्रोणाचार्य के रहते हुए भभिमन्यु जैसा महारथी वीरगति को प्राप्त होता हैं तथा कौरद पक्ष से जपद्रय नामक भहारथी को भी प्राणों से हाथ धोना पडता है । दुष्टपद-पुत्र घुद्युम्त पुत्र के पड़यस्त्र-सिद्ध वियोग मे शस्त्र-त्याग किए हुए भ्राचाय द्रोश का चध करता है । द्रोण के पश्चात्‌ सेनापतित्व का भार महारवरी कर्रा सम्मालता है जो भीन नरेश घटोत्कच का वध करता है तथा भ्रन्तत भ्रजुन के वाण-प्रहारों से हताहत होता है। कर्ण के चब के पश्चात्‌ शल्य सेनापति बनता है तथा कौरवी सेना के महाक्षय के साथ विनाश को प्राप्त होता है । इन सेनापतियों के नेतृत्व मे लडे जाने वाले युद्ध क्रमश द्रोण पे, कर पे तथा शल्य पथ मे प्रदर्शित किए गए हैं। गदा पर्व में दुर्योधन की भृत्यु दिखलाई है। महाभारत के युद्ध का कारण कौरवो भर पाण्डवो का विद्व प भात्र न होकर, भ्न्य राजाशी का पारस्परिक वैमनस्थ भी है तभी तो दुर्योधन भारी समर्थन पाकर श्रीकृष्ण से यही कहता है कि मैं लडाई के बिना सुई की नोऊक के बराबर भी भूमि नही दूंगा सुच्याग्रभागमपि न दास्यामि बिना युद्ध केशव । वाशेनिकता--महाभारत मे मोक्ष-तत्त्व का सविस्तार वर्णात है! मुक्ति या मोक्ष के तीन मार्ग प्रसिद्ध है-कर्मयोग, भक्तियोग तथा ज्ञानयोग । इन तीनो ही भार्गों का विशद्‌ विवेचन भीष्मपर्व के प्रसिद्ध भाग गीता नामक ग्रन्थ मे किया गया है। गीता के प्रथम भ्रध्याय से लेकर छठे भ्रध्याय पर्यन्त कर्ममोग का विवेचना क्रिया गया है। गीता के सातवें श्रष्याय से लेकर वारहवें अध्याय तक भक्तियोग का वर्शन किया गया है । गीता के तिरहवें भ्रष्याय से अ्ठारहवें प्रष्याय तक ज्ञानयोग का वर्णन है। इन भ्रध्यायों में विभिन्न मार्गों का सम्मिश्रण भी है। गीता का कर्मेभागें निष्काम भाषना से, भर्थात्‌ कर्मे भावना से कर्म करना सिखलाता है । यथा-- कर्मष्येवाधिकारस्ते मा फर्लेघु कदाचन्‌। मा कर्मेफलहेतुभु माँ ते समोहत्त्वकर्मरिी ॥॥._ --मीता 2/47 भर्थात्‌ कृष्ण भजुन से कहते है कि हे अजुन ! व्यक्ति को कम करने का ही अभ्रधिकार है, फल प्राप्ति का नही । व्यवित को फल की इच्छा नही करनी चाहिए और न ही कर्म करने भे भ्रदाचि होनी चाहिए । गीता का भक्तियोग ईइवर भे-अर्थात्‌ सम्पूर्ण विश्व मे परम प्रेम करना सिखाता है। भक्तियोग मे निगु ण भक्ति शोर सग्रुण भकित को प्रतिपादित किया है। भगवान्‌ श्रीकृष्ण भक्ति को ईश्वरत्व-प्रदायिका सिद्ध करते हैं-- मत्कमंझन्मत्परमो मद्मवतन सदख्भवजित | निर्वेर सर्वेभ्वतेपु य स भामेति पाण्डव ॥ >--गीता, 8/55 20 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास गीता मे ससार की झसारता और जीवात्मा तथा ईश्वर की नित्यता का प्रतिपादन करके श्रवरा, मनन, चिन्तन तथा निदिध्यासन को महत्त्व देकर ईश्वरत्व प्राप्ति का मार्ग स्पष्ट किया गया है । यदि एक साधक वेराग्य को ग्रात्मसात्‌ करके ज्ञानयोग की भ्रक्रिया से ईश्वरत्व की श्रोर बढ़ता है तो वह ईश्वर में परम प्रेम रखता हुआ मोक्ष को प्राप्त हो जाता है । सुसार-इक्ष को वैराग्य की तलवार से दृढतापूर्वेक काटने पर ही ज्ञानयोग का सिद्धि-पथ प्राप्त होता है। जब साधक ससारातीत शक्ति झौर शान्ति को प्राप्त कर लेता है तो उसे पुनरागमन के चक्र में मटकना नहीं पडता । यथा न तद्भासयते सूर्यो न शशाद्वी न पावक्र । यद्गत्वा न निवतेन्ते तद्धाम परम मम ॥ . -गीता, 5/6 महाभारत का शान्तिपर्व भी दाशनिक गहराइयी से भरा हुआ है | सामान्यत महाभारत के श्रनेक प्रसगो मे दाशनिकता की स्पष्ट छाया है। पौराणिक्त श्रास्यानो का वर्णशंन- महाभारत शअ्रनेक झआात्यानों एवं उपाख्यानों का केन्द्र है। श्राचाय वाणभट्ट की 'कादम्बरी” मे महाभारत के अनेक प्राख्यानो की झोर सकेत किया गया है। महाभारत के भ्रास्यानो को लेकर अभ्रभेक नाटक एवं काव्यो की रचनाएँ हुई है । महाभारत मे पशु-पक्षियो के भ्रास्यान भी वर्णित हैं । वस्तुत शौनक एवं सौति जैसे ऋषियों ने महाभारत को उपास्यानों का कैन्द्र बना दिया है | महाभारत में मुख्यत एकलव्य की कथा, किरात वेशघारी शकर की कथा, द्रोण की कथा, परशुराम की कथा, भ्रग्नि शौर सूर्य का मनुष्यवत्‌ श्राचरण तथा श्रनेकानेक लौकिक एवं प्रलौकिक भ्रसगो को सग्रहीत किया गया है । महाभारत को महाकाध्य नही कहा जा सकता, क्योकि महाभारत की कथा महाकाव्य के योग्य कथानक को लेकर भागे नही बढती | महाभारत के भीष्म पववे, अनुशासन पे, शान्तिपवे जेसे श्रध्यायो मे तो कथानक श्रपना प्रस्तित्व ही खो बैठता है । इन पर्वो भे कथानक की प्रधानता न होकर दर्शन, राजनीति तथा नीतिशास्त्र की स्पष्ट प्रधानता है। महाभारत के अनेक उपाख्यानो का उसकी सूल्त कथा से तालमेल ही नही बेठ पाता है। यदि उन उपास्यानो का महाभारत के युद्ध से सम्बन्ध भी स्थापित किया जाए तो महाभारत के भ्रठारह पर्वो में से श्रधिकाँश की बुहृदा- कारता उसे महाकाव्य का रूप न देकर विभिन्न शास्त्रों का स्वरूप प्रदाव कर बैठती है । महाभारत को महाकाव्य सिद्ध करने मे दूसरी भापत्ति यह है कि इसके नायक का निर्धारण प्रसस्मवप्राय है । महाभारत के युद्ध मे सर्वाधिक कीति के केन्द्र नि शस्त्र श्रीकृष्ण ही जान पडते हैं परन्तु महाभारत श्रीकृष्ण के चरित्र का पूर्ण प्रकाशन नही है । यदि महाभारत की कथा का नायक यूचिष्ठिर को भाना जाय नो यह कहने में कोई सन्देह नही होना चाहिए कि महाभारत बनाम महायुद्ध का नेता नायकत्व था नेतृत्व के गुणों से परिपूर्णो नही है । महायुद्ध का नायक कोई समरप्रिय व्यक्ति ही हो सकता है, कोई शान्तिप्रिय या भीर व्यक्ति नहीं। युधिष्ठिर के नेतृत्व से दुर्योधन का नेतृत्व भ्रधिक प्रभावशाली है । परन्तु, दुर्योधन महाभारत का तायक पौराणिक साहित्य 2] नही कहा जा सकता, क्योकि उसका स्वतन्त व्यक्तित्व कम है तथा पराश्चित व्यक्तित्व अ्रधिक है । भ्रजुंन भौर भीम पाण्डव-पक्ष के प्नग्नगण्य योद्धा है, परन्तु वे स्वय नायक न होकर कत्तंव्य-भावना से युद्ध करने वाले योद्धा मात्र है। भ्रत महाभारत ग्रन्थ का कोई स्पष्ट नायक नही है । इस विशाल ग्रत्य मे स्थान-स्थान पर प्रनेक नायक उभरे है, परन्तु समग्र ग्रन्थ का कोई नायक निर्धारित नहीं किया जा सकता । महाभारत के प्रनेक प्रसगो को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इस गन मे शात्त रस की प्रधानता है। एक महायुद्ध की विभीषिफा लेखक या कवि को शान्त रस की भ्रोर पभ्रग्रसर कर सकती है, और करती है । रक्त-रजित राज्य को पाफर महाराज युधिष्ठिर शान्ति प्राप्त करने के लिए श्रीकृष्ण झ्ौर भीष्म की शरण मे जाते हैं । महाभारत के प्रणेताश्रो ने शान्तरस का सम्बन्ध युधिष्ठिर, अजू न, भीष्म तथा श्रीकृष्ण जैसे पात्रों से जोडा है | वस्तुत महाभारत एक पुराण-प्रन्य है, एक ऐतिहासिक सामग्री का कोश है, धर्मशास्त्र है, दर्शनशास्त है, कामशास्त्र है, भर्यशास्त्र है। मूलत महाभारत ससार-सघपे मे काम झाने वाले अनेक भावों, विचारों तया वृदान्तों का महाशास्त्र है । पौराणिक साहित्य 2] नही कहा जा सकता, क्योकि उसका स्वतन्त्र व्यक्तित्व कम है तथा पराश्ित व्यक्तित्व प्रधिक है । भ्रजुन भौर भीम पाण्डव-पक्ष के प्रप्रगण्य योद्धा है, परन्तु वे स्वय नायक न होकर कत्तंव्य-मावना से युद्ध करने वाले योद्धा मात्र है। श्रत महाभारत ग्रन्थ का कोई स्पष्ट तायक नहीं है । इस विशाल ग्रन्थ में स्थान-स्थान पर शअ्रनेक नायक उभरे है, परन्तु समग्र ग्रन्थ का कोई नायक निर्धारित नही किया जा सकता । महाभारत के भ्रनेक प्रसगो को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इस गन्व भें शान्त रस की प्रधानता है । एक महायुद्ध की विभीपिका लेसक या कवि को शान्त रस की शोर. श्रग्रस॒र कर सकती है, और करती है। रक्त-रजित राज्य को पाकर महाराज युधिष्ठिर शान्ति प्राप्त करने के लिए श्रीकृष्ण भर भीष्म की शरण मे जाते है। महाभारत के प्रणेताम्रो ने शान्तरस का सम्बन्ध युधिष्ठिर, भ्रजु न, भीष्म तथा श्रीकृष्ण जैसे पात्रों से जोडा है | वस्तुत महाभारत एक पुराख-प्रन्थ है, एक ऐतिहासिक सामग्री का कोश है, धमंशास्त्र है, दर्शनशास्त्र है, कामशास्त्र है, अर्थशास्त्र है। मुलत महाभारत ससार-सधप मे काम श्राने वाले अनेक भावों, विचारों तथा वृत्तान्तो का महाशास्त्र है । ( अऋाधुनिक साहित्य (४000॥ (श्वांपा6) झाघुनिकता एक व्यापक शब्द है। आधुनिकता का भ्र्थ है-वतंमान युग की विचारणा । शिक्षा का नवीनीकरण, केन्द्रीय शक्ति का प्रादुर्भाव, बैज्ञानिकता का अतिरेक, मनोवेज्ञानिकता का बोलवाला, रुढि-विरोध जैसे श्राधुनिक तत्वों का कारण झाधुनिक दृष्टिकोण से सयुक्त युग झ्ाधुनिक युग कहलाता है । आधुनिकता से भ्राघुनिक जन-समाज प्रभावित हुआ है। वर्तमान दृष्टिकोण ने प्राचीन कीतिमानो को भी व्याघात पहुंचाया है, अतएव प्राचीन और भअर्वाचीन के टकराव से सक्रान्ति-काल भी उद्भूत हुआ है| सस्कृत एक प्राचीन भापा के रूप मे प्रसिद्ध रही है। चार सौ ई पू मे पारिनि जैसे व्याकरणाचाय ने 'अप्टाध्यायी' नामक व्याकरण -ग्रन्थ की रचना करके सस्कृृत के स्वरूप को व्यवस्थित किया । उनके उपरान्त भनेक वैयाकरणो ने सस्कृत भाषा की घारा को व्याकरण के सुदृढ तटबन्बो मे सीमिति क्या । ऐतिहासिक काल मे पालि, प्राकृत, अपभ्र श, हिन्दी झादि भाषाओ के प्रादुर्भाव के कारण सस्क्षत साहित्य को धवका भी लगा फिर भी समय-समय पर श्रनेक कीतिकेन्द्र उत्पन्न ही होते रहे, जिन्होने सस्कृत साहित्य की धारा को नित्य और अजज्ष रखा । आधुनिक सस्कृत साहित्य का विकास ]784 ई में सर विलियम जोन्स के प्रयास से कलकत्ता मे 'रायल एशियाटिक सोसाइटी' की स्थापना हुई । इस प्रतिष्ठान के द्वारा सस्कृत साहित्य के विकास को ! दो रूपो मे सहयोग मिला-- प्रथम तो प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थो के प्रकाशन हारा तथा द्वितीय झनुसन्धान कार्य के श्रीगरोश द्वारा । 784 में ही वारेन्‌ हेस्टिर्ज ने सम्कत पण्डितो के प्रयास से घर्मंशासत्र का सकलन कराया तथा स्वय ने उसका श्रग्नेजी में, अनुवाद किया । 79] ई मे जमेन भाषा मे कालिदासकृत अभिज्ञान शाकुन्तल' का अनुवाद हुआ । इसके पश्चात्‌ प्नुवाद-कार्य की धारा ही प्रवाहित हो गई । ]800 ई में कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई तथा सस्कृत-विभाग भी खोला गया । जब 835 ई मे मेकाने का शिक्षा-प्रस्ताव स्वीकृत दो गया तो सस्कृत की रक्षा के लिए भारतीय विद्वानों मे उत्साह उत्पन्न हुआ | 866 ई में झ्राधुनिव साहित्य 23 बनारस से 'काशी विद्या सुधघानिधि' नामक प्रयम मम्कत पत्रिका प्रकाशित हुई । उन्नीतवी शताब्दी में ही मस्कृत के पण्डितों ने प्रग्नेजी साहित्य में प्रभाषित होकर प्रनेक साहित्यिक विघाग्नों का प्रवतन किया | हम यहाँ प्राघुनिक साहित्य वी विभिन्न विघाओ के इनिहास का सक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कर रहे है । महाकाव्य एवं खण्डकाव्य महाकाव्य सस्कृत साहित्य की प्राचीन विधा है। श्रादि ऊबि वाल्मीकि दी रामायण विश्व-साहित्य का प्राचीवतम महाकाव्य है। ग्राधुनिक युग में केरल निवासी रामपाणिवाद ने 'राघवीयम्‌' नामक 20 सर्गो में विभाजित महाकाव्य की रचता की । रामपाणिवाद का समय !707 ई से 78] ई पयन्त हूं । रामपाणि- वाद के पश्चात प्रनेक महाकवि-साहित्यथ के मच पर उतरे, जिनमे से कुछ का उल्लेस निम्न प्रकार है-- 'श्रीरामविजय'--झूपनाथ का, “रामचरितम्‌'--इलय तबुरान (800- 85] ई ), 'वासुदेव चरितम्‌'--पटपल्लि भाष्करन मूत्तत (!805-875ई ), सुरूपाराधवम्‌--इलत्तूर रामस्वामी (824-907 ई) “वालिचरितम्‌-- शकर लाल भाहेश्वर (844-96 ई ), 'सुभद्राहरशम्‌'--रामकुषप्प (847-- 907), रामकुरुण्प का सीता 'स्वयवरभ्‌' नामक एक यमक काव्य भी हैं। परमानन्द भा का कर्णाजु नीयम', दिवाकर कि का 'पाण्डयचरितकाव्यम्‌, भ्रन्नदाचरण तकथूडामणि का “महाप्रस्थानम्‌', हेमचन्द्रराय का 'पाण्डवविजयम्‌' तामक महाकाव्य सहाभारत के कथानक को लेकर रचे गए। रामपाशिवाद का 'विष्णुविलास ', विश्वेश्वर पाण्डेय का 'लक्ष्मीविलासकाव्यम्‌', श्रीकृष्ण भट्ट का ईश्वर विलास ” नामक महाकाव्य विष्णु के चरित्र को प्रस्तुत करते हैं । ** पौराणिक महाकाव्यो के भ्रतिरिक्त जगज्जीवन का 'अजितोदयकाव्यम्‌' सेवाड के राजा भ्रजीतर्तिह से सम्बद्ध है, सीताराम पर्यंणीकर का 'जयवशम्‌' जयपुर के इतिहास से सम्बद्ध काव्य है। रामचरित के भ्रतिरिकत॒ साघुचरित तथा भग्नेजचरित भी लिखे गए। नारायण इलयत का 'रामचरितम्‌' एक प्रसिद्ध खण्डकाव्य है। प्राधुनिक सस्कृत-साहित्य मे सदेशकाव्य', 'चित्रकाव्य' श्लादि की भी रचना हुई। इल सभी काव्यों मे परतन्त्र भारत फो स्वतस्त्र कराने के लिए राम, विष्णु, कृष्ण, तथा शिवजी ज॑से नायको को लेकर भारतीय वीरो तथा समाज को उद्बुद्ध करने का सुन्दर प्रयास किया है। महाकाव्यों भे महाकाव्य के शास्त्रीय लक्षणों पर विशेष ध्यान दिया गया है। काव्य के क्षेत्र मे श्रनुवाद का भी प्रचुर कार्य हुआ है । श्राज जयशकर प्रसाद की 'कामायती' का भी सस्दत-मनुवाद उपलब्ध है । सस्कृत के प्राधुनिक साहित्य मे चम्पू काव्यों को भी रचना हुईं है। श्रनस्ताचाय्य का “चम्पूराधवम्‌' तथा रामपाणिवाद का “भागवत्वम्पू' प्रसिद्ध चम्पू काव्य हैं । 2 रूपक विभिन्न प्रकार के चाटको के प्रचलन हेतु सस्क्ृत-साहित्य घनी है । 'दशरूपक' नामक ग्रन्थ में रूपक के भ्रग्राडित दश भेद बतलाए गए है-- | 24 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास (१) नाटक, (2) प्रहतन, (3) प्रकरण, (4) भाण, (5) व्यायोग, (6) समवकार, (7) डिम, (8) ईहामूग, (9) भ्रक तथा (0) वीथी | 4 ज्ञादक--दृश्य साहित्य की अभिनेय, ललित विशद्‌ विधा को नाटक कहा जाता है। आधुनिक सस्क्ृत साहित्य मे भ्नेक प्रकार के नाठकों की रचना हुईं, जिनका सक्षिप्त परिचय निम्न रूप मे प्रस्तुत किया जा रहा है--- पौराणिक नाठक---आधुनिक नाटक साहित्य मे भी भट्टनारायण शास्त्री ने 96वें पौराणिक नाटकों की रचना करके अग्रणी स्थान प्राप्त किया है। उनके कुछ नाटकों के नाम इस प्रकार हैं-“तिपुरविजयम्‌', "मैथिलीयम्‌”, “चित्रदीपम्‌', 'अमृतमन्यनम्‌', “गृढ़कौशिकम्‌', 'मदालसा” “महिषासुरवधम्‌” इत्यादि | पौराणिक नाठको मे दीनढ्विज का 'शखचूडवधम्‌” नाटक भी ख्याति प्राप्त है। पाँच झको के इस नाटक में पद्मपुराण की कथा का उल्लेख है । शलचूड पाताल या अफ्रीका का राजा था उसने इन्द्र को हराकर स्वर्ग पर--प्र्थात्‌ कैस्पियन सागर के तटवर्ती भू-भाग पर भी झआधिपत्य जमा लिया था। देवों को दु खी देखकर योगिनाथ शकर ने शखचूड द्वारा प्रेषित दानव नामक दूत के माध्यम से शान्ति-सन्देश प्रेषित किया परन्तु शखचूड ने युद्ध करना ही उचित समझा | शखचूड शकर के सम्मुख युद्ध करता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ । इलतूर रामस्वामी के अब रीबचरित” तथा “गाँधार- चरित” नामक दो नाटक हैं। सुन्दरराज शअ्रय्यगार ने पद्मिनी-परिणय” तथा गोदापरिणय' नाटक दो नाटकों की रचना की। वैकट नरपिहाचार्य के 'गजेन्द्रमोक्ष', “राजहसीयम्‌', वासवापाराशयं', 'चित्सूर्पालोक' नामक नाटक हैं। शकरलाल माहेश्वर का वामनविजय' नाटक प्रशसनीय है । इस नाठक में वामनावतार की कथा का रोचक निरूपण है । हषेनाथ शर्मा ने 'उपाहरणम्‌' नाटरू में कथा श्रीनिवासाचार्य ने 'उषापरिणयम्‌' नाठक में श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का उषा से मिलन प्रदर्शित किया है | यहाँ यह विवेच्य है कि उषा देत्यराज बाणाधत्षुर की पुत्री थी । मुवनेश्वरदत्त ने 'प्रल्लादचरितम्‌ नामक नाटक भी रचना की। प्रह्नाद देत्येन्द्र हिरण्यक्श्यप का पुत्र था। प्रन्नाद की रक्षा विष्णु ने की । पुराणों मे विष्णु को ईश्वर माना गया है, इसलिए घूजटीप्रसाद मट्ठाचाययें ने 'भक्तिविजयम्‌' नामक नाठक रचा है। जी वी पद्मनाभाचार्य ने 'ध्रूवचरितम्‌” नामक नाटक की रचना की | इस नाटक मे अग्रेजी के माटको के दृश्यो की भाँति भ्रध्यायों का विभाजन दृश्प्रो मे ही हुआ है । रामचरित से सम्यद्ध नाउठक-रामायश की कथा का आश्रय लेकर निम्न लिखित नाटक रचे गए--! सीताराघवम्‌ रामपारशिवाद, 2 भानन्दरघुनन्दनम्‌ विश्वनाथसिह, 3 रामराज्याभिषेकम्‌-विरारराघव, 4 अभिनवराघवमू--नारायण शास्त्री, 5 जानकीविक्रममू-हरिदास सिद्धान्त वागीश, 6 भ्रभिनवराघचम्‌--पुन्दर वीरराघव, 7 कुशलव विजयम्‌-व्यकट कृष्ण, 8 पौलस्त्यवधम्‌-लक्ष्मण सूरि उपयुक्त नाटकों में 'अभिनवराघवम्‌ नाटक में कथानक की नवीनता देखने को मिलती है । इस नाटक में सीता झ्ौर राम के वियोग का कारण परशुराम का शाप आधुनिक साहित्य 25 वताया गया है तथा शपंणाद्वा सीना के तुल्य वेशभूगा बनाकर राम को प्रतचित करने की चेष्टा करती है । कृष्ण चरित से जुड़े माटक--कृष्ण के चरिन को प्रकट करने वाले प्रमुस नाटक इस प्रकार हैं--! रुविमणीपरिणयम्‌---विश्वेशवर पाण्डेय, 2 प्रदुम्तविज्यम्‌ कर दीक्षित, 3 इक्मिणी स्वयवर--प्रश्वति तिझ्नाल, 4 मुकुन्दम गरेरय-- नारायण शझात्त्ी, 5 कशवधघम्‌-हरिदास सिद्धान्त बागीग, 6 _ राधामाबवम्‌-- विक्रमदेव शर्मा, 7 जरासस्ववबम्‌-कुट्टन तम्बुरान, 8 गोव्धेनविलासम्‌--जी थी पदुमनाभाचाय । 'गोवर्बनविलासम्‌” नाटक का दृश्य-विभाजन पाश्चात्य शिल्य फी परिचायक है ) शिवकथा से सम्बद्ध नादकू-शिवफ्था को सूचित करने वाले पमु ताट८ इस प्रकार हैं--) विध्मेशनन्मोदप्रम-गौ पैक़ात्त द्विज 2 पार्वतीपरिणय--शकर लाल माहेश्वर, 3 मन्मपविजयम्‌ --ज्यकटराधवाचाय, 4 राट्विजयम --रामस्वागी शास्त्री, 5 पारवतीपरिणय--इलत्तूर रामस्वामी इत्यादि । इन नाटकों पर कालिदास के महाकाव्य कुपारसम्भव' का थोडा-सा प्रभाव परिलक्षित होता है । फुछ प्रन्य पोराशिक नाटक--नल-दमयन्तो की कथा पर झ्राधारित नाटकों में मन्दिकल रामशास्त्री का “मैमीपरिणय' मजुल नैपध का भन्जुलनैपधम्‌, श्रीमती तम्बुराती का “नैपधम', रामावतार शर्मा का 'घीरन॑पघम!, कासीपदकाचार्य का नलदमयन्तीयम्‌' तथा देवीप्रसाद शुक्र का 'नलचरितम्‌ प्रमृति नाटक प्रसिद्ध है । पाण्डबों के वश की कथा पर आधारित प्रमुख नाटक इस प्रकार है-पाँचालिकाकपेंगम्‌ (काशीवाथ शास्त्री), सत्यवतती शान्तनव एव भीष्मप्रभावम्‌ (कुटटमत्तु कुरुप्प), प्रौपदीविजयम्‌ (कृष्णन थम्पी) । महाभारत की अन्य कथाप्नरो को लेकर भी भ्रतक भाठकों की रचना हुईं। ययाति की कथा से सम्बद्ध वललीमसहाय के दो ताटऋ भर्तिद्ध हैं--मयातितरणाननन्‍्दनम्‌ तथा ययातिशमिष्ठापरिशयम्‌ । सुब्रह्मण्यम शास्ता के 'शाकुल्तलम! नाटक भी प्रसिद्ध है। चित्रकूट की शोभा को भाधार बनाकर विजय राघवाचायें ने 'चित्रकूंट' नाटक की रचना की तथा मेघाव्तानाय ने अक्तिसौन्दयंम्‌र नाटक की रचना की । लक्षण सूरि ने 9] ई मे 'दिल्लीसाम्राज्यम्' नामक नाटक की रचता की जिसमें पचम जॉर्ज द्वारा समायोजित दिल्‍्ली-दरबार की कया है । / ऐतिहासिक नाटक--पचानन तकंग्त्न (866- की भावना के प्रसारार्थ महाराणा प्रताप के पुत्र श्रमरसिह के जीवन को झाधार वेनाकर *ममरमगलम्‌' नामक ऐतिहासिक नाटक की रचना की । हरिदास सिद्धालत वागीश (876--]936 ई ) ने “विराजसरोजिनी,' चगीयप्रत्तापम्‌', मिवाडप्रतापम' तेथा 'शिवाजी चरितम्‌! नामक चार ऐतिहासिक नाटकों की रचना की। मथुरा दीक्षित ने महाराणा प्रताप को लक्ष्य करके “वीर प्रतापम्‌' तथा पृथ्वीराज चौहान से सम्बन्धित 'पृथ्वीराज विजयम्‌! नामक नाटक की रचना की। मूलशकर भाशणिकलाल ने 'छुजपति साम्राज्य, प्रताप विजयमः तथा 'सयोगितास्वयबरम्‌' तीन नाटकों की रचना की । 53000 2086 3 94 ई ) ने राष्ट्रीयता 26 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्कृतिक इतिहास सामाजिक नाटक--एलत्तूर सुन्दरराज अय्यगार (84-905 ई ) ने “रसिक रजनम्‌! तथा 'स्नुषाविजयम्‌' नामक दो साम्राजिक नाटक लिखे । स्नुपाविजयम! ताठक में पारिवारिक कलह का यथार्थवादी निरूपणा है । रगनाथाचार्य ने सामाजिक कुरीतियों के चित्रण के लिए “न्यायसभा' तथा “कुत्सिताकुत्पित” नामक दो ,नाठको की रचना की | 895 ई मे विद्याविनोद ने 'गवंपरिशनि” नामक नाटक की रचना की । इस नाटक में आधुनिक शिक्षा शौर सभ्यता के ऊपर करारा व्यग्य है । वी कृष्णान थम्पी ने 'ललिता', 'प्रतिक्रिया', 'वद्भुज्योत्स्ता' तथा 'घर्मस्थ सूक्ष्मा गति * नामक चार सामाजिक नाटक लिखे । अधिकाँश सामाजिक नाठकों का शिल्प पाशएचात्य नादय शिल्प से प्रभावित रहा है । लाक्षस्थिक नाठफ--लाक्षर्िक नाटको मे प्रतीकात्मकना तथा व्यग्यात्मकता की प्रघानना रहती है| लाक्षरिक नाठको का नायक एवं प्रतिनायक के रूप प्रे धर्म तथा श्रवर्म जंसे अमूर्ते तत्त्व प्रस्तुत किये जा सकते है । सामयिक प्रद्धत्तियों को मकटक रूप में चित्रित करने का सफल माध्यम लाक्षसिक नाठक ही है। प्राघुनिक युग में मुस्यत निम्नलिखित लाक्षरिगिफ नाटकों की रचना हुई--- 4 तत्त्वमुद्राभद्रम्‌ (झननन्‍्ताचार्य), 2 कलिकोलाहलम्‌ (रामानुजाचारय्य), 3 शुद्धतत्वम्‌ (मदहुषीब्यकटाचार्य ), 4 श्रधर्मविधाकम्‌ (अ्रप्पाशास्त्री राशिवडेकर ), 5 अ्रममजननाटकम्‌ (सत्यव्नत शर्मा), 6 मणिमजूण (रामनाथ शास्त्री) इत्यादि । अनूवित नाटक--प्राघुनिक सस्कृत साहित्य मे भ्ग्रेजी तथा कुछ अन्य भाषाओं मे रचित नाटठको के श्रनुलाद मिलते हैं। भ्रनूदित नाटकों मे कुछ नाटकों के नाम इस प्रकार हैं--'ज्लान्तिविलासम्‌' (शैल दीक्षित), शेक्सपीपर के 'कॉमदी श्रॉफ झरतसे' का अनुवाद है। कृष्णामाचार्य ने शेक्सपीयर के "एज यू लाइक दृट! को यथामतम्‌' नाम से तथा 'ए मिड समर नाइटसू ड्रीम' को 'वासन्तिक स्वप्न ' ताम से प्रनूदित किया । रामचन्द्राचाये ने हेमलेट' का पितुझपदेश ” तथा 'एज यू लाइक इट' को “पुरुपदशासप्तकम्‌' के रूप में भ्ननूव्ति किया है। रगाचायें ने शग्रेजी के उपन्यास “विकार श्रॉफ वेकफील्ड” को 'प्रेमराज्यम! नाटक के रूप मे प्रस्तुत किया है । झ्त झनूदित नाटकों मे नामत तथा रूपत कुछ कलात्मक परिवतेन दर्शनीय हैं । 2. प्रहतन--'प्रहसन” रूपक का रोचक रूप है। प्रहदससन मे हास्यात्मकता की प्रधानता रहती है। आधुनिक सस्कृत-साहित्य में रामपादहिवाद का मदनकेतु- चरितम्‌' पहला प्रहसन है। इस प्रहसन मे विष्णुमिन्ननम्‌ नामक सन्यासी को प्रतगलेसा नामक वेश्या के ऊपर श्रनुरक्त दिखलाया गया। मुकन्दराम शास्त्री ने गौरी दिगम्बर' नामक प्रहसन की रचना 902 ईं, मे की । मघुसूदन काव्यतीर्थ के 'पण्डितचरित” प्रहसनों मे पण्डितो की भ्रहआर प्रद्धत्ति को हास्यात्मक रूप प्रदान किया गया है । वटुकनाथ शर्मा के 'पाण्डित्यताण्डव” प्रहसन मे पण्डित-समूह पर कटाक्ष किया गया है । इन प्रहसनो के अतिरिक्त अनेकानेक प्रहसनों की रचना भी झाधुनिक युग की देन है । 3 प्रकरण--लूपक के भेद प्रकरण” में घीरप्रशान्त नायक को लेकर प्रणय-गाथा को प्रस्तुत किया जाता है। आधुनिक युग मे रामाबुजाचाय॑ का प्राघुनिक साहित्य 27 पात्मवब्तीपरिणय ” चन्द्रकान्त तर्कालकार का 'कौमुदी सुवारक' तथा नरसिहाचार्य का 'वासवीपाराशरीयम्‌' नामक तोन प्रकरणों की सचना हुईं । को 4 भास--भाए रूपक में विद्वान विट स्वानुभूत या पराचुश्रत बूतंचनि्ति का वर्णन करता है । उन्नीसवी तथा तीमदी गताब्दियों मे कम में कम दो दणार भाणों की रचना हुईं । घनश्याम के अदनसजीवनी”' भाण मे काम-दहत कौ कवा का रोचक वर्शान है। पश्वीत तिझनाल का 'धे गार सुधाकर एज तम्बुरान का 'रससदनभाणा' तम्बियार का “रततरत्वाकर', भाष्करन नम्बूदरी का शट ग।र तिनका प्रभूति भाण झाधुनिक युग की रचना है । 5 व्यायोय--इतिहास या पुराण की कथावस्तु कौ लेकर एक श्रह् में पुरुष पात्रों की प्रधानता करके व्यायोग की रचना होती है। पद्मनाभ का भृजपुरविणय' शकर द्वारा त्रिपुरासुरो के विनाश को कथा को लेकर लिखा गया व्यायोग है । नर्रमहाचार्म ने 'गजेन्द्रव्यायोग' नाम से पौराशिक कया के आयार पर व्यायोग लिखा है। कुडगल्लूर कु जि कुट्टन ने दो व्यायोग लिखे है-'किराताजु तीपम्‌' तथा सुभद्राहरणम्‌ । 'किराताजु तीयम्‌' व्यायोग मे किरात तथा श्र॒र्गुत तामक पुरुष पात्रों की प्रवानता है। 6 समवकार--छपक के भेद समवकार मे देव-दानवो से सम्बद्ध कंयावम्तु को लेकर कपट तथा पुरुषार्थ का अद्भुत सम्मिश्रण रहता है। रामनुजाचाये का 'लक्ष्मीकल्याशम्‌! एक सफल समवका: है । गे डिस-०डिम' में अलौकिक पात्रों को सुयोजित करे चार पको मे रूपक प्रस्तुत किया जाता है। इसमे प्रधान रस रौद् होता है तथा अन्य रस अग रमो के रुप मे रहते हैं । रामानुजाचाय का 'दक्षमलरक्षणम्‌! एक सफल छिम है। इसमे शाकर के शिष्य वीरभद्र का कोप प्रदर्शित किया गया है । 8 ईहामंग -ईहामृग मे प्रतिनायक के माध्यम से देवाँगना के भ्रपहरण की कथा चार भ्रको मे प्रस्तुत की जाती है। रामानुजाचाय का “नहुपाभिल्ाप ' एक रोचक ईहामृग है । इस ईहामृग मे इन्द्राणी शची के अपहरण या प्राप्ति की कथा का सुन्दर चित्रण है 9 कक “करण रस की प्रधानता से युक्त एक अक का रूपक श्रक कहलाता है । रामानुजाचाये का 'अन्यायराज्यत्रष्वसनम्‌! तथा वीरराघवाचायें का 'मोजराजीकम्‌' नामक भ्रक उल्लेखतीय है । राजा भोज के भन्‍त्री मुज ने भोज को मारते कां कपट किया था। 'अक!' मार्मिक रूपक होता है । 30 दोयी -श्ू गार रस की प्रधानता से युक्त अक की रचना “वीथी' ताम से जानी जाती है । रामपाणिवाद ते 'चन्द्रकावीथी' तथा 'लीलावती” नाम दो बीथयी रूपको की रचना की । रामानुजाचाये की 'मुनित्रयविजय ' तथा दामोदरन नम्बंदरी की 'मन्दारमालिका' वीशी प्रसिद्ध हैं. । ख गार रस की प्रधानता से सयुक्त कल्पित तथा जन-प्रचलित्त कथावस्तु को पैकर नाटक के तत्वों की समायोजना के साथ नाटिका की रचता की जाती है। 28 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्कृतिक इतिहास विश्वेश्वर पाडेण्य की 'नवमालिका”, सौठी भद्रादि रामशास्त्री की 'मुक्तावली' तथा भ्रम्बिकादत्त व्यास की 'ललितनाटिका' प्रशसनीय हैं । एकाँकी श्रग्नेजी साहित्य के “बन एक्ट प्ले" को एकाँकी नाम दिया गया है। सस्क्ृत साहित्य के लिए शुकाँकी एक नई विद्या है। रामपाणिवाद ने “दौर्भाग्य मजरी सामक एकाँकी की रचना की | प्रभाकराचायें ने “अ्रमरकाहली' नामक एकॉँकी की नए शिल्प के आधार पर रचना की । राजराजवर्म कोइतम्बुरान ने “गीर्वाण विजय” नामक एकाँकी की रचना की ।'गीर्वाण विजय” एकॉँकी मे सस्कृत भाषा की दुर्देशा को दूर करने के सुन्दर प्रयास प्रदर्शित किए गए हैं। गीतनादय या छाया नाटक गीतनादय में गीतो की प्रधानता रहती है। इन गीतो के माध्यम से विवेच्य-विषय को सुस्पष्ट किया जाता है | शकक्‍तन तम्बुरान मे एक शतक गीतनादूयों की रचना की । उनके प्रसिद्ध गीतनादय इस प्रकार हैं---सीतास्वयवरम्‌, वालिवधम नलचरितम्र, सगरोपार्यान, भ्रजमिलमोक्ष, यज्ञरक्षा, भ्रहिल्यामोक्ष, जरासन्ध पराजय इत्यादि । भ्रशवत्ति तिख्माल के प्रम्बरीषचरितम्‌ तथा पौण्डूकवधम्‌ नामक छायानाटक प्रसिद्ध हैं | उन्नीसवी शताब्दी में अ्नेकानेक छायानाटको की रचना हुई है । 3 गद्य काब्य गद्य-काव्य का श्रीगणेश झ्राधुनिक युग मे ही हुआ है । गद्य-काव्य प्रवृत्ति के प्राधार पर तीन रूपो मे रचा गया है--राष्ट्रीयता की भावना से झोत-श्रोत गद्य- काव्य, प्राश्नयदाताओ्रो की प्रशसा से युक्त-काव्य तथा देवी-देवताओं की स्तुति से सम्बद्ध गद्य-काव्य । () राष्ट्रोयता की भावना से श्रोत-प्रोत गद्य-काध्य--चिन्तामरि रामचन्द्र शर्मा की 'राष्ट्रीयोपनिषद” नामक गद्य-काव्य रचना मे उपनिषदो की शैली के प्राधार पर पाँच बल्लियाँ हैं। इस रचना मे राष्ट्र-भक्ति की प्रधानता है ! (2) भ्ाश्यवाताप्नों की प्रशसा से युक्त गद्य-काव्य--प्रश्वति तिरूताल ने “वबजिमहाराजस्वत ' गद्य-काज्य मे महाराजा वजि का स्तवन किया है। राजराजवर्म कोइतम्बुरान की कृति 'बष्ठिपू्तिदण्डक' मे श्रीमुल तिरुनाल की प्रशस्ति है। नीलकठ शर्मा की रचना 'घोपपुरमहाराज्ञीस्तव ” मे माट भूपाल राजधानी की प्रशप्ता चित्रित हुई है । (3) देवी-देवताझों को स्तुति से सम्बद्ध गद्य-काव्य--शिव-स्तुति से सम्बद्ध पाच्यूमूत्तत की खुट्यम' तथा श्नज्ञात लेखक की 'शिवताण्डवदण्डकम्‌' नामक गद्य- काव्य रचनाएँ प्रसिद्ध हैं। पावंती की स्तुति को सुचित करने वाली गद्य-काव्य कृतियाँ इस प्रकार हैं--'ललिताम्बिकादण्डक' नामक दो रचनाएँ केरलवर्म कोइतम्बुरान तथा रविवर्म कोइतम्बुरान ने लिखी हैं, रगाजाय॑ ने 'पादुकासहस्ावतार' तथा भ्रश्वति तिझूनाल ने ददशावतार दण्डक” नामक रचनाएँ भवतारो की स्तुति को भ्राधुनिक साहित्य 29 लक्ष्य करके प्रस्तुत की हैं। राजराजवर्म कोइतम्बुरान ने देवी की स्तुति मे 'देवीदष्डक' तथा रघुराजसिंह जुदेव ने विभिन्न देवी-देवतामो की स्तुति का संग्रह धाध्यशतकम्‌' नाम से निकाला । इलत्तूर रामस्वामी का “श्रीकृष्ण दण्डवर्म्! ईंशावतार श्रीकृष्ण को स्तृति से सम्बद्ध है । 4 उपन्यास-साहित्य झा विधष्वताथ ने उपन्यौस शब्द का प्रयोग करते हुए लिएा है-- >- “उपन्यास प्रसादनम्‌ू--साहित्य दर्षण' श्रर्यात्‌ मनोरजकन्तत्त्वत ही उपन्यास है। सस्क्ृत साहित्य मे उपन्यास एक नवीन साद्ठित्यिक विधा है । उपन्यास के शिल्प पर भ्रग्मेदी-उपच्यास के शिल्प का पूरा प्रभाव परिलक्षित होता है। विभित श्रेणियों के उपन्यासों का विवेचन निम्नलिखित रूप मे क्रिया जा सकता है-- (क) अनूदित उपन्यास---अम्बिकादत्त व्यास का 'शिवराजविजय' नामक उपन्यास सस्कृत का प्रथम उपन्यास है । इस उपन्यास का लेखन-फाल 870 है । यह उपन्यास वगला उपन्यासकार रमेशचन्द्रदत्त की वगला रचना “महाराष्ट्र जीवन प्रभात” का भनुवाद है ) प्रस्तुत उपन्यास मे शिवाजी की वीरता का मनोहारो चित्रण है। इस उपन्यास की शैली के ऊपर वाए/मद्द की कादम्बरी का स्पष्ट प्रभाव है । वगाली उपन्यासकार बकिमचन्द्र के उपन्यासो को निम्नलिखित सस्क्ृत उपन्यासकारों ने झनूदित किया--- ] शैलताताचायें के 'क्षत्रियरमणी' तथा “दुर्गेशनन्दिनी', 2 अ्रप्पाशास्त्री राशिवडेकर के 'दिवीकुमुद्धती , 'इन्दिरा', 'लावण्यमयी', 'कृष्णकान्तस्थ निर्वाणम्‌' तथा 3 हरिचरण भट्टाजायं का 'कपालकुण्डगा' भझ्ादि प्रमुख भनूदित उपन्यास हैं। राजराजवर्म कोइतम्बुरान ने शेक्सपीयर की चासदी 'भ्रोभेलो” को “उद्यातचरितम्‌' उपन्यास का रूप दिया है । तिरुमलाचार्य ले सेव्सपीयर के 'कॉमदी भॉफ भरसे' का 'भारत-विलासम्‌! ताम से तथा रगाचाये ने विकार स्‍्लॉफ वेकफील्ड' का 'प्रेमराज्यम्‌” नाम से श्रनुवाद किया है | ये सब क्ृतियाँ औपन्यासिक है । कुमारताताये ने डोरा स्वामी के तमिल उपन्यास 'मेनका' का भ्नुवाद किया है । हिन्दी के लेखक जगन्नाथ प्रसाद के उपन्यास 'ससारचरितम्‌' का भ्रनन्ताचार्य ने भ्रनुवाद किया तथा मराठी उपन्यासकार नरसिह चितामणि केलकर के बलिदानमु! उपन्यास को वासुदेव प्लात्माराम लाठकर ने झनूदित किया है । (सं) पोराखिक उपन्यास--लक्ष्मण सूरि (859.--]99) ने तीन उपन्यास लिखे हैं-रामायण सग्रह', 'भीष्मविजयम्‌' तथा “महाभारत सप्राम' | शक्ररलाल माहेण्वर ने अनुसूयाम्युदयम्‌', “चन्द्रप्रभाचरितम' तथा 'मलेश्वप्राणप्रिया' प्रमूति उपन्यास लिखे हैं। गोपालशास्त्री का “प्रतिरूपचरितम्‌” तथा गणपतिसुति का 'पूर्णा' नामक पौराशिक उपन्यास है। शेपशायी शास्त्री से अ्रष्टवकरीयम्‌' नामक उपन्यास लिखा, जिसमे राजा जनक के य्रुरु अष्टाचक्र की कया का वर्णन है। श्री निवासाजाये के उपन्यास 'कैरविणी मे शक्तिमत के उपासको की प्राघ्यात्मिक 30 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्कृतिक इतिहास निष्ठाओं को प्रस्तुत किया गया है। इन सभी पौराणिक उपन्यासों मे मौलिकता के लिए भी विशिष्ट स्थान है । (ग) ऐलिहासिफ उपन्यास--इतिहास के क्थानक को लेकर लिखे गए उपन्यास ऐतिहासिक उपन्यास कहे गए है। ऋष्णमाचायं ने वररुचि” तथा “चन्द्रगुप्त नामक दो ऐतिहासिक उपन्यास लिखे हैं। इन दोनो उपन्यासों मे मौयंकालीन वेभव का वर्णान किया गया है। 905ई से नरपसिहाचार्य ने सौदामिनी' नामक उपन्यास लिखा, जिसमे मगध के राजा शुरसेन तथा विद की राजकुमारी के प्रेम का मामिक वर्णात है। 909 ई में 'वीरमती' नामक उपन्यास लिखा गया । इस उपन्यास मे मुसलमाव काल की घटना का वर्णान है ! (घ) श्रन्य उपन्यास---उपेन्द्रनाथ सेन ने तीन सामाजिक उपन्यास लिखे हैं-- मकरन्दिका, कुन्दमाला तथा सरला । इन उपन्यासों मे नारी-जीवन की पीडा का मामिक चित्रण मिलना है! भट्ट श्री नारायण शास्त्री के 'सीमसन्तिनी” उपन्यास में नारी-दुर्दशा का यथार्थवादी चित्रण है । मनुजेन्द्रदत्त के 'सती-छाया! उपन्याय मे प्रेम-प्रपञ्च का मनोहारी वर्णोन है| प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यासकार कृष्णमाचार्य ने सामाजिक समस्याझ्रो के चित्रणार्थ तीन उपन्यासों की रचना की--पतिन्नता,' पाशिग्रहरणाम्‌' तथा 'सुशीला' । कुप्पूस्वामी के 'सुलोचना” उपन्यास को पढकर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की निम्न पक्तियाँ वरबस याद हो उठती है- झबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी । है भ्ाँचल मे दूध भौर आझाँखो मे पानी ॥ --यशोधरा जिदम्बर शास्त्री की 'कमला कुमारी' तथा 'सततीकमला” नामक औपन्यासिक कृतियों में समग्र नारी-जीवन का मुल्याँऊन है । 7906 ई में श्री वलभद्र शर्मा ने 'वियोगिनीवाला' नामक उपन्यास लिखा, जिसमे वर्षा ऋतु को विरहिणी के लिए घोर कष्टकारक सिद्ध किया है । भ्रन्य उपन्यास-कृतियाँ इस प्रकार है-एक रोमानी उपन्यास के रूप मे 'सरला” हरिदास सिद्धान्त बागीश, 'कल्याणी'--नगेन्द्रनाथ सेन, 'विजयिनी परशुराम शर्मा, 'कुमुदिनी' तथा “विलासकारी -ए राजगोपालाचार्य, “कुमुदनी चन्द्र'-मेघावताचार्य, 'कुथुमकलिका-परमेश्वर का, “दरिद्राणा हृदयम्‌' तथा 'दिव्यदृष्टि '-नारायण शास्त्री ल्िस्ते इत्यादि ॥ प्न्‍्य साहित्यिक विधाझो मे पत्र-लेखन, आलोचना, निबन्ध, जीवनी, यात्रा साहित्य तथा शब्दकोश सम्पादन ज॑से विभिन्न कार्यो का श्रीगणेश आधुनिक युग की देन है | *> श्राधुनिक साहित्य की प्रमुख विशेषताएं भाव और शिल्प दोनो की दृष्टि ही से आाघुनिक युग साहित्य की विभिन्न प्रवत्तियाँ रही है जो मुख्यत इस प्रकार है- राष्ट्रीयता की भावना, 2 नारी- उद्धार, 3 नवीन साहित्यिक विधाश्रो का विकास 4 मनोवंज्ञानिक चित्रण की प्रधानता, 5 भाषागत विकास, 6 श्लालकारिकता । भ्राधुनिक साहित्य 43 राष्ट्रीयता की भावना--राष्ट्र-प्न म को राष्ट्रीयता की भावना के नाम से अभिहित किया जाता है। डॉ श्रीघधर भास्कर बणॉकर ने 'विवेकानन्दबिजयम्‌' ताटक में भारत भुमि के प्रति अगाघ भआ्रास्था व्यक्त की है। इस नाटक में भारतवर्ष के मनीषियों के प्रति भी गहरी भक्ति-भावना प्रदर्शि छी गई है । निम्नतितित पक्तियों भे राष्ट्रीयता का दर्शन सहज सम्भव है-- पथोध्या शत्रूणा, त्वमसि मधुरा पावनहूदाँ खलाना वा माया जननि | खजु काशी सुतपसाम्‌ । भ्वन्ती चार्तानामयि विधुतकानची विमनसा विमुक्त हवारावत्यपि दिविपदा त्व ननु पुरी॥ वस्तृत श्राधुनिक साहित्य में बेदो की महिमा के गान द्वारा, भारतीय दर्णन की अद्वितीयता के माध्यम से, भारतीय महापुरुषों के चरित्र की झनुपमता के द्वारा तथा भनेकानेक अतीतकालीन गौरदो के श्राधार पर राष्ट्रीयता की भावना प्रदर्शित की गई है। विवेकानन्द के ज्ञान का समूचे समार ने लोहा माना । इस सन्‍्दर्न में निम्न शब्द प्र क्षणीय है--- "मदद 8 8 एशा ज़ा0 78 छ076 [९६9९१ प्राक्षा था ८ छा068४078 एण ०8७४६ 0० 8४८ [ण 9७७8 (अध्त॑दाह्8 5 ॥6 88.8 (6 57 श००एा वं8 एश्ली। [0 शा ।" ;क्‍ “-विवेकानन्द पिजयमू, पू 97 'मवाडप्रतापम्‌' तथा 'शिवाजी चरितम' झौर नाटको के माध्यम से महापुरुषो के भादशों पे राष्ट्रीयया की भावना घोषित हुई है। “राघवीपम्‌! तथा 'कसवधम' जैसे महाकाब्यों के द्वारा राष्ट्रपं मी महापुरुषों के प्रति अटूट श्रद्धा एव भक्ति का प्रदर्शन राष्ट्रीयता का साक्षात्‌ छ्लोत है। झाधुनिक युग के ऐतिहासिक उपन्यास भी राष्ट्रीय चरित्र को महापुरुषों के चरित्र के ग्राघार पर उज्ज्वल रूप मे देखने को उत्सुक जान पढते है । 2 चारो उद्धार--प्राघुतिक युग मे मानवतावादी दर्शन के प्राघार पर नारी-उड्धार को श्रत्यघिक महत्त्व दिया गया है। हमारे देश के युग पुरुषो-अत्ताप शिवाजी तथा विवेकानन्द झादि ने नारी की देवीवतु प्राराधना की है । वस्तृत महृि भनु का आदर्श शहत्य का यह पिद्धान्त-्यत्र -नार्येस्तु पृज्यन्ते रमन्‍्ते तन्न देवता । भाधुनिक साहित्य में साकार होता प्रत्तीत होता है । कृष्णमाचार्य के दिक्रता' नामक उपन्यास में पुरुष के द्वारा नारी की शोषित स्थिति का यथार्थवादी चित्रण किया गया है। श्राघुनिक यूंग के प्रेम-प्रपच का चित्रण करने के लिए भनुजेन्द्रदत्त का 'सती-छाया' उपन्यास उल्लेखनीय है । 'विवेकानन्द विजयम! नाटक में भारी-ठद्धार का एक रोचक प्रसा है कलकत्ता विश्वविद्यालय के परिसर मे नरेन्द्र बनाम विवेकानन्द, मुस्लिम छात्र रहमात तथा भ्रप्नज छात्र विलियम नारी चिपयक वार्तालाप मे जुटते है । विलियम तकं-वितके करके कुछ मन्तृष्ट हो जाता है। रहमान शेफालिका नामक यूवती के ऊपर ध्यग्य बाणो की दृष्टि करता है। नरेन्द्र 32 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास रहमान का गला पकड लेता है । नरेन्द्र अनेतिक विवाह या वलपूर्वक किए गए या किए जाने वाले विवाह की भत्संता करता है । वलशाली नरेन्द्र के सामने रहमान कम्पायमान हो जाता है | शेफालिका नरेद्र को दिव्य मूर्ति मानकर भ्रपने उद्गार व्यक्त करती है-- त्रातु नारीजनमिह खले पीड़्यमान प्रसह्य । सम्प्राप्त कि धघृतनरतनु कोष्प्यय देव एवं । यत्‌ सच्छील विहरति मनोमन्दिरेध्स्य प्रसन्न । मत्सामर्थ्य सस्‍्फुरति भुजयोरनेत्रयोदिव्यतेज ॥॥ तेजस्वी नरेन्द्र विघवा-सघवा, कन्या-व॒द्दा, शिक्षिता-प्रशिक्षिता त्रमी को प्रतिष्ठित जननी के रूप मे सिद्ध करता है | शेफालिका के वंधव्य के विषय में सोच कर भरेन्द्र भाव-विभोर हो उठता है. हा हन्त हन्त बाल्ये एवं वयसि वेधव्यवज्ञाधात एव प्राया प्रशिक्षिता निरक्षरा वालविधवा गृहे ग्रहे भवेयु प्रस्मत्समाजे । हा परमात्मन्‌ | ततस्तत । श्रत श्राघुनिक साहित्य में नारी-उद्धार की भावना को प्रबल महत्त्व दिया गया है । 3 नवीन साहित्यिक विधाश्नो का विकास--आधुनिक युग मे निबन्ध साहित्य प्रबलता को प्राप्त कर रहा है। निवन्धो को 'देखकर “गद्य कवीना निकष वदन्ति' सूक्ति को चरितार्थ पाया जा रहा है । जीवनी साहित्य नामक गद्यविघा के विकास से महापुरुषों का जीवन-चरित्र सरल गद्य मे जन-समाज तक पहुंचाया जा रहा है। भेधाव्रताचायें का 'महथि विरजानन्द चरितम्‌' एक जीवनी ही है, जिसमे विरजानन्दजी की विद्वता तथा कर्मेनिष्ठा पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है! लघुकथा या कहानी. के. विकास से साहित्य की मनोरजक॒ता को वल मिला है । कहानी मे उपदेशात्मकता का भी सहज पुट सम्भव है। भ्रप्पाशास्त्री राशिवडेकर का 'कथाकल्पद्ू,म' नामक महानी सग्रह कद्दानियो की रोचक्रता तथा श्रभावोत्यादकता के लिए प्रशसनीय हैं । भाषा-विज्ञान के क्षेत्र-में निवनन्‍्धी का विकास प्रश्नेजी हिन्दी तथा स॒सस्‍्कृत का तुलनात्मक अध्ययन करने में सद्वायक्र मिद्ध हो रहा है। शब्द-बोध के लिए कोर्पे- ग्रल्यों की रचना भी प्रशसनीय है |'प्रेत उपन्यास, एकाकी, ध्वनिरूपक, यात्रा-वृत्त, कहानी, निवन्ध, आलोचना जैसी नवसाहित्यिक विधाझो के विकास से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राधुनिक सस्कृत में गत्यात्मकतता का सहज गुण विद्यमान है। यही झ्राघुनिक प्रवृत्ति है 47 4 सनोवैज्ञानिक चित्रण को प्रधानता--ग्राधुनिक युग मे 'रसात्मकम्‌ वाक्य काञ्यम्‌-प्र्थात्‌ सरस वाक्‍्प्य ही काव्य है, को मनोवेज्ञानिक रूप प्रदान किया गया हैं। उन्नीसवी शताब्दी मे फ्रॉइड तथा युग जैसे मनोवैज्ञानिको के उदय से चेतन, झवचेवन तथा अचेतन मन की गहराइयो को स्पष्ट करने के लिए बथेष्ठ प्रयास किए गए हैं। रामापारिवाद के दौर्भाग्यमजरी' नामक एकाकी में स्वाभाविक मनोविज्ञान का स्वरूप देखने योग्य है-- अकारण दक्षिणमशक्षि कम्पते तथव वामेतर बाहुरप्यहो । झाधुनिक साहित्य 33 अत. रिलेतत्फलमत्र लम्यते। भूपा न जायेत निभित्तमीदृशम्‌ ॥ प्र्धातु नायिका सोचती है--अकारण ही दक्षिण श्रांख धौर भुजा फडकती हैं इसलिए झाज तिश्चित रूप से दुर्भाग्य रूपी फल प्राप्त होना है । इस प्रकार के निमित्त या सूचक चिह्न मिथ्या नहीं हुआ करते। वस्तुत दुर्भाग्य की सावार प्रतिमा दौर्भाग्यमजरी नामक नायिका का यह चित्रण उसके मन की चित्ता, त्ास, विवाद, करुणा भ्रादि को मनोवैज्ञानिक स्तर प्रदान करता है । हि शिवगोविन्द त्रिपाठी के “श्रीगान्धिगौरवम्‌' महाऊाब्य में ज्ञानिक चित्रण का एक सरप्त प्रसग है । जब गाँधीजी बम्बई से श्रफ्रीका के लिए पोत था जलयान मे यात्रा कर रहें थे तो देवयोग से तूफान तेजी से चलने लगा तथा उसके प्रभाव से जलयान खतरे मे पड गया । उस समय हिन्दू धर्म के झ्तुयायी राम, कृष्णा, शिव, विष्णु, ईश्वर झ्रादि नामो को लेकर, जैन लोग वर्धभान का नाम लेकर, वौद्ध पझहुँत्‌ सोचकर मुसलमान खुदा को पुकार कर तथा ईसाई गॉड को ध्यान मे लाकर अनेक प्रकार से प्रार्थना करते लगे । यथा हे राम | हे पा ) हरे मुरारे ! हे भ्रलल | हे देवा! खुदा | पुकारे ! है गॉड'” ईशो।! शिवदेव ! शभहंन्‌! कृपाकठाक्ष मयि घेहि धीमनू उपयुक्त छन्द मे भरापत्प्स्‍स्त समाज का मनोवैज्ञानिक चित्रण देखते ही बनता है । झ्राधघुनिक युग के उपन्यासों मे नारी की दुर्देशा का मनोवैज्ञानिक चित्रण सहज सराहनीय है | जिस प्रकार हिन्दी साहित्य का इतिहास प्रवृत्तियों के श्राधार पर लिखा जा चुका है, उस प्रकार सस्कृत का प्रदृत्तिगतत इतिहास अभी तक दुर्लभ है । वस्तुत« मनोवेज्ञानिक उपन्यास नाम से भ्रवः एक झौपन्यासिक धारा विकसित हो चली है । इस उपन्यास रूप की शैली मनोविश्लेपणात्मक श्रथवा श्रात्मकथात्मक होती है। प्राज नारी की सम नारी की समस्या का ही नही भ्रपितु समस्त सामाजिक समस्याप्रो का चित्रण मनोवज्ञानिक भ्राधार पर. किया जा सकता है। सस्कृत के ताटको मे भनीवेज्ञानिकता का पुट बंहुलना के साथ दुष्टव्य है। “विवेकानन्दविजयम्‌' नाटक मे व्यक्ति की मनोदशा-प्र म, घुणुर तथा विरक्ति का मनोदेज्ञानिक चित्रण किया गया है | सुप्त सन मे स्थित मनोविकारों का चित्रण मनोवैज्ञानिक स्तर पर ही सम्मव है, भ्रत भ्राघुनिक साहित्य मनोगैज्ञानिक गहदराइयो के चित्रण की धोर उन्सुख हुआ है । 5 भाषागत विकास- झाधुनिक सस्कृत साहित्य का भाषागत विकास श्रनेक रूपो से हुआ है । मथार्थत आधुनिक युग मे श्ग्ने जी का सर्वाधिक प्रचार है | भग्ने जी से पूर्वे भ्रवी-फारसी ने भी भारतीय जन-समाज की भाषा पर बहुत कुछ प्रभाव डाला । कई भाषाओ्रों के शब्दों का सस्कृतिकरण करने की आवश्यकता आधनिक साहित्यकारो को प्रतीत हुईं | श्रतएव साहित्यकारो ने प्रगतिशील युग के झप्तेक शब्दों का सस्कूतीकरण करके सस्कृत भाषा को झाघुनिक बनाया है। प्रसिद्ध लेखक प्रस्विकादत्त व्यास ने 'शिवराजविजय ” उपल्यास मे अनेक शब्दो को सस्कृत रूप ]34 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्कृतिक इतिहास दिया है। अफजलखाँ नाप्क मुसलमान सेनानी को 'भअ्रफजलखा ताम सस्क्ृत ब्याकरण के झाधार पर ही दिया है। शिवगोविन्द त्रिपाठी मे श्रीगान्धिगौरवम्‌' काव्य मे झनेक श्रग्न जी-फारसी शब्दों को सस्कृत का रूप प्रदान किया है। उन्होने तूफान को तूरंफाण', स्टेशन को 'स्थेइशन', अस्पताल या होस्पीटल को 'भ्रस्वस्थपाल ' रूप प्रदान किया है। विवेच्च काव्य में अग्नेजी के शब्दों का प्रयोग करके सम्कृत भाषा को शब्द ग्रहए करने की प्रद्त्ति से युक्त कर दिया गया है। भ्रग्र जी के कुछ शब्दों का प्रयोग द्वप्टव्य है. इन्डियन श्रोपिनियन, कोर्ट इत्यादि । इसी प्रकार सस्कृत के प्रनेक साहित्यकारों ने सस्कृत भाषा को नवीन या झाधृनिक बनाने मे भाषागत विकास का परिचय दिया है । 6 प्रालकारिकृता--गप्रात्मगौरव नामक वृत्ति वाणी के क्षेत्र मे भी स्पष्टत देखी जानी है। साहित्यकार अ्रपने मन्तव्य को ऊपर करने के लिए क्‍ग्रालक्ारिकता का झ्ाघार अवश्य लेता है । डा श्रीधर भास्कर वहोंकर के विजेकानन्दविजयम्‌ नाटक में प्लालक्रारिक प्रयोग का स्वाभाविक स्वरूप स्पष्ट हुप्रा है। उपमा अ्रलकार का प्रयोग व्यापक स्तर पर करता हुआ कवि यहाँ तक कह जाता है कि हमारे देश के राजा शासन को तृण-तुल्य मानते ये, घन को विय-तूल्य समझते थे, भोतिक सुख को दुख के समान मानते ये, भोगो को सर्पो के समान समभते थे । यथा-- तृणप्राय राज्य, विषभिवधन, सौरबमसुख मता भोगा भोगा इव, तव सुर्त राजभिरपि । औगान्धिगौरवम्‌” काव्य मे प्राय सभी झलकारो का प्रयोग किया गया है । कवि ने पुनरुक्ति प्रकाश भ्रलकार का प्रयोग अनेक बार किया है । यधा--- मार स्मार गौतम वुद्धदेश” 'नजैके नवैके' इत्यादि । कवि ने भर्थान्तरन्यास भ्रल॒कार के भ्रयोग मे महाकबि कालिदास के समान दक्षता प्रदर्शित की है । जव गांधीजी भ्रफ्ीका से भारत लौटे तो वे बम्बई मे कवि राजचन्द्र से मिले । कवि राजचन्द्र मे शताषधानीन्ब- शतप्रतिशत स्मरण शक्ति थी । जब गाँघीजी ने राजचन्द्र की परीक्षा हेतु कुछ विचित्र वाक्य कहे तो कवि राजचन्द्र ने उन सब वाक्यो को क्रमबद्ध रूप मे सुना दिया । इसी तथ्य को कवि ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है-- शतावधानीचय जिधृक्षुणा, श्रीगान्धिना शब्दमय स्वभाण्डकम्‌ । रिक्तीकृत पूरितवान्‌ स॒उत्तररमेंघाविभिविश्वमिद न रिच्यते ॥ प्रम्बिकादत्त व्यास ने 'शिवराजविजय' उपन्यास में आचाय॑ वास्शभट्ट की गद्य शैली की छाया को ग्रहण करके अपने उपन्यास को शैलीगत स्तर पर उदात्त बना दिया है । शिवाजी के व्यक्तित्व के निर्पण मे लेखक ने विरोधाभास भजकार का तुफान खडा कर दिया है। लेखक ने उल्लेख भ्रलकार का प्रयोग भी भश्रसीमित रूप में कर दिया है। श्लेष अलकार का प्रयोग करके प्राचीन परम्परा को यथावत्‌ रखने में भी भ्रम्बिकादत्त व्यास जैसे लेज्नको ने पूर्व योगदान दिया है। अग्रे जी काव्य-शास्त्र से ग्राए हुए ध्वन्यथेव्यजक अलकार का प्रयोग भी नाना रूपों मे किया है। पक्षियों की ध्वनि तथा जल-अवाह के कलरव के रूप मे घ्वन्यर्थ-व्यजक झलकार का युक्तिसगत आधुनिक साहित्य 35 । ग्रहाकाब्य प्रयोग किया गया है। वमुप्रहराज (790-860) का 'यदुस्घुनावीयम्‌ महाका श्लेष भ्रलकार के चमत्कार से परिपूर्ण है । प्राधुनिक साहित्य के नाटको मे श्रप्न जी के उपन्यागों का शिल्प भी भ्रपनाया गया है । पदमनाभाचार्य के नाटकों में श्रको के स्थान पर दृश्यों का प्रयोग क्रिया गया है । कई नाटको मे प्रस्तावचना को भी हटा दिया गया है| कुछ उपन्यासों मे मानवतादादी दर्शन का आधार लेकर शभ्राघुनिक समस्याओ्रों के खितण के साथ- साथ वेदेशिक शिल्प को पूरी तरह से प्पना लिया गया है। अत रचना चमत्कार को अनेक रूपो मे ग्रहण करके आधुनिक साहित्य पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया गया है । उपयुक्त सक्षिप्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि आधुनिक साहित्य मे प्राचीन भौर भ्र्वाचीन अ्रद्धत्तियों का प्रभूतपूर्व सम्वय है। हमारे देश का साहित्यकार भ्रपनी सस्कृति को पाश्चात्य सस्क्ृति की चकाचौध से भी नही भुला सका है। रामापारिवाद के 'कृष्ण चरित” नामक काव्य मे गोपियाँ वन के वृक्षों से कृष्ण का पता पूछती हुई प्रेम की प्रगाढता का सुन्दर परिचय देती है-- अशोकवृक्ष त्वब्रहि सशोकमारा नो उद्चोव । किमम्बुजाक्षो दृष्टोज्च समीक्षितश्वेदास्याहि ।। ककणुकाचीकेयूर बुण्डलहारानइगेपु । सकलयन्‌ कोश्य्यारक्तपकजनेत्नों दृष्टों नु॥ आधुनिक साहित्य मे छन्द-विधान पद्च के क्षेत्र मे विस्तृत होता जा रहा है। यहाँ तक कि गद्य-काव्य भी साहित्यिक विवा के रूप मे विकसित होकर ग्रपना भ्रलग प्रस्तित्व बना चुका है। गय के क्षेत्र मे भ्राशात्तीत प्रगति हुई है । यदि भाधुनिक साहित्य को 'गद्य-काल' नाम से श्रभिहित किया जाय तो प्रदत्तिगत रूप मे किसी को कोई भ्रापत्ति नही हो सकेगी । वस्तुत भ्ाधुनिक सस्कृत-साहित्य विभिन्न माषाओझो के साहित्य की भाँति विविध प्रवृत्तियों को प्रपनाता हुआ सतत्‌ प्रवाहिनी धारा के समान शभ्रग्रसर हो रहा है । (295890४[ (080७8) र) शास्त्रीय साहित्य प्राचीन काल मे कला, विज्ञान श्र सामाजिक विज्ञान को शास्त्रीय साहित्य के श्रन्तर्गत रखने की परम्परा रही है। हम कला के श्रन्तगंत व्याकरण तथा झलकार शास्त्र को गिन सकते हैं । विज्ञान के भ्रन्तगंत भायुवेंद, गणित तथा ज्योतिप को गिना जाता है तथा सामाजिक विज्ञान के भ्रन्तर्गत दशनशास्त्र, धर्मे- शास्त्र, भ्रृशास्त्र तथा तन्‍त्र जैसे विषयो को गिना जाता है । व्याकरण शब्द-रचता तथा वाक्य-रचना के झ्राधार माषा को शासित करती है, इसलिए व्याकरण को एक शास्त्र माना गया है। व्याकरण का पहला प्रामारिक अन्थ पाणिनि द्वारा रचित “भष्ठटाध्यायी” है। आचार्य पतजलि का “महाभाष्य', आझाचायें कात्यायन का वातिक' तथा भाचायें भत्‌ हरि का वाक्यपदीय' व्याकरण- शास्त्र के प्रमुख ग्रन्थ हैं । काव्य का साहित्य को शासित करने के लिए झ्लकारशास्त्र की रचना हुई । झ्राचाये भरत का 'ताद्यशास्त्र' अलकारशास्त्र का जनक माना जाता है | अलकार- शास्त्र मे छ सम्प्रदाय प्रसिद्ध रहे हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं-रस-सम्प्रदाय, ध्वनि- सम्प्रदाय. अलकार-सम्प्रदाय, वक्रोक्ति सम्प्रदाय, रीति-सम्प्रदाय तथा भ्ौचित्य- सम्प्रदाय । रस-सम्प्रदाय मे रस को काव्य की प्रात्मा मानकर काव्य को रसात्मक बनाने पर जोर दिया, ध्वनि-सम्प्रदाय मे ध्वनि को काव्य का प्राण मानकर ध्वन्त काव्य को उत्तम काव्य कहा गया, झ्लकार-सम्प्रदाय मे काब्य का मूल तत्त्व भ्रलकार सिद्ध किया गया, वक्तोक्ति सम्प्रदाय में वार्विदर्घता को काव्य का सर्वेस्व माना गया, रौति-सम्प्रदाय मे विशिष्द पद-रचना को काव्य की श्रात्मा घोषित किया गया, ओौचित्य सम्प्रदाय मे समस्त काव्य-तत्वो के उचित प्रयोग को कथाशास्त्र के रूप में प्रस्तुत किया गया | प्राचीन काल के वैज्ञानिक साहित्य को भी शास्त्रीय साहित्य माना गया है । ऋमबद्ध ज्ञान के रूप मे भायुवेद, गणित तथा ज्योतिष को शास्त्र कहा गया । प्राचीन भारत का भ्रायुर्वेद चरक जैसे विद्वानों के विचार भन्धन के कारण शास्त्रीय रूप शास्त्रीय साहित्य 37 प्राप्त कर सका । वराहुमिहिर तथा लोकमान्य तिलक जैसे झ्राचार्यी ने ज्योतिष फो तया श्रीधराचार्य एव झाचार्य भास्करण के कारण गतित को शास्त्रीय रुप प्राप्त हुप्रा । सामाजिक विज्ञान के रूप मे दरोनशास्त्र सहज ज्ञान वी समीक्षा के श्राधार पर समाज को भ्रकृति झौर निवृत्ति के माध्यम से शासित करता है। इसी प्रकार घर्माचरण के भाघार पर धर्मशास्त्र, राजनीतिक विवेचन के गाघार पर श्र्थ॑शास्त्र तथा गूढ साधना के झ्राधार पर तन्‍्त्र ने समाज शासिन रखा है।अत्त ये सव सामाजिक विज्ञान हैं । प्राचीन भारत क। शास्त्रीय साहित्य सलकृत भाषा में सूजित हुआ्ना, इसलिए संस्कृत साहित्य के इतिहास में शास्त्रीय साहित्य को स्थान देकर सस्क्ृत इतिहास सस्कृत साहित्य के इतिहास में शास्त्रीय साहित्य को स्थान देकर संस्कृत के इतिहास को साहित्यिक विधाप्रो तक हो परिसीमित नही रखा यया है । यहाँ हम शास्मीय साहित्य का सक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत कर रहे हैं । दाशेनिक साहित्य (ए्रो०0०फालय ॥/(:४४ए०८) शास्त्रीय साहित्य मे दाशेनिक साहित्य का विशिष्ट स्थान है। भारतीय चाइूमय मे प्रारम्भिक काल से ही दर्शनशास्त्र की प्रधानता रही है । सृष्टि मे जितना भी रहस्य है तथा ससार का एक सुनिश्चित प्रवाह विश्िश्न विचारको को जिस-जिस रूप मे प्रतीत हुआ है, वही दर्शनशास्त्र का विषम बना है। “दृश' घातु में ह्युट' भ्रत्यय के योग से दर्शन शब्द निष्पन्न हुआ है । 'दर्शन' का भरे है--विशिष्ट दृष्टि या सहज ज्ञान । भरत दर्शनशास्त्र की परिभाषा यही हो सकती है--सहदज ज्ञान की समीक्षा ही दर्शन है । सहज ज्ञान की समीक्षा का प्राघार प्रत्यक्ष जगत्त ही है। प्रत्यक्ष का क्षेत्र प्रतीति तक पहुँचता है | सुख-दु खात्मक जगत को जीवन के साथ जोडने के लिए समय-समय पर अनेक परिकल्पनाएँ हुई है । ऐसी सभी विचारषाराप्रो को दुख मुक्ति से जोडा गया है। इसीलिए मनुस्मृति में यथार्थ ज्ञात को सभी कर्मो के भ्रपच से छूटने का कारण बताया गया है तथा दर्शन के श्रभाव से ससार से भटकना पडता है यही सिद्ध किया है | इसी रहस्य को झ्राधारभूत बनाकर दर्शनशास्त्र का विविधमुखी विकास हुआ | प्राचीन यूग में वैदिक साहित्य को ईश्वर की वाणी के रूप मे प्रसिद्ध किया गया । वेदिक युगीन सत्य को भ्रागे चलकर भचेक भाडम्बरो से परिपूर्ण कर दिया गया । अ्रतएव बेदो के प्रति झनास्था का भाव जाग्रत हुआ । वैसे तो भारस्मिक युग का व्यक्ति रोटी, कपड़ा शौर सकान को लेकर ही सम्यता की भर बढा होगा | भ्रत भौतिकवादी दर्शन भ्राध्यात्मवादी दर्शन से कही प्रधिक भाचोन रहा होगा, यह तथ्य मर्नोवैज्ञानिक सत्य है। भौतिकवादी एवं वेदवादी दर्णनी का पर्याव्त इन्द्र भी काल की घारा की देन है। ] सम्यक्‌ ज्ञान सम्पक्त कमप्रिन बद़यते । दशनेन विहीनस्तु ससार प्रतिपथते ॥| --भनुस्मृतति 38 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास भारतीय दर्शन की व्यापकता प्राचीन तथा श्रर्वाचीन, हिन्दू तथा भ्रहिन्दू, श्रास्तिक तथा नास्तिक--- जितने प्रकार के भारतीय है, सवो के दाशंनिक विचारों को भारतीय दशंन” कहते हैं। कुछ लोग भारतीय दर्शन को 'हिन्दू दर्शन! का पर्याय मानते हैं, किन्तु यदि हि हू” शब्द का भ्रथे वैदिक धर्मावलम्बी हो तो भारतीय दर्शन का श्रर्थ केवल हिन्दुओं का दर्शन समभना अनुचित होगा । इस सम्बन्ध में हम माधघवाचार्य के 'सर्वेदर्शन-सग्रह” का उल्लेव कर सकते हैं । माघावाचार्य स्वय वेदानुयायी हिन्दू थे। उन्होने उपयुक्त भ्रन्थ में चार्वाक, वौद्ध तथा जेन मतो को भी दर्शन मे स्थान दिया है | इन मतो के प्रवत्तंक वैदिक घर्मानुयायी हिन्दू नहीं थे। फिर भी, इन मतो को भारतीय दशन मे वही स्थान प्राप्त है जो वेदिक हिन्दुओ के द्वारा प्रवरतित दर्शनो को है । भारतीय दर्गन की दृष्टि व्यापक है। यद्यपि भारतीय दर्शन की अनेक शाखाएँ हैं तथा उनमे मतभेद भी है, फिर भी, वे एक-दूसरे की उपेक्षा नही करती हैं। सभी शाखाएँ एक-दूसरे के विचारों को समभने का प्रयत्न करती हे | वे विचारों की युक्ति-पुर्वंक समीक्षा करती हैं, गौर तभी किसी सिद्धान्त पर पहुंचती हैं। इसी उदार मनोवृत्ति का फल है कि भारतीय दर्शन मे विचार-विमर्श के लिए एक विशेष प्रणाली की उत्पत्ति हुई । इस प्रणाली के अनुसार पहले पूर्वंपक्ष होता है, तब खण्डन होता है तथा श्रन्त मे उत्तर पक्ष या सिद्धान्त होता है। पु्रपक्ष में विरोधी मत की व्याख्या होती है। उसके बाद उसका खण्डन या निराकरण होता है। भनन्‍्त मे उत्तर-पक्ष झाता है जिसमे दाशंनिक श्रपने सिद्दान्तों का प्रतिपादन करता है । इसी उदार दृष्टि के कारण भारतीय दर्शन की प्राय प्रत्येक शाख्रा अत्यन्त समृद्ध है । उदाहरण के लिए हम वेदान्त का उल्लेख कर सकते हैं। वेदान्त में चार्वाक, बौद्ध, जेन, साँरय, मीमाँसा, न्याय, वेशपिक झादि सभी मतों पर विचाए किया गया है। यह रीति केवल वेदान्त में ही नही, किन्तु अन्य दर्शनों में भी पार्ड जाती है । वस्तुत भारत का प्रत्येक दर्शन ज्ञान का एक-एक भण्डार है । यही कारण है कि जिन विद्वानों को केवल भारतीय दर्शन का ज्ञान भली-भॉति प्राप्त है वे वडी सुगमता से पाश्चात्य दर्शन की जटिल समस्याओं का भी समाघान कर लेते हैं । भारतीय दर्शन की उदार-दृष्टि ही उसकी प्राचीन समृद्धि तथा उन्नति का बारण है । भारतीय दर्शन बदि अपने प्राचीन गौरव को पुन प्राप्त करना चाहता है तथा उसे सुदृढ बनाना चाहता है तो उद्ते प्राच्य तथा पाश्चात्य, श्रार्य तथा प्नायें यहूदी तथा अरबी, चीनी तथा जापानी--सभी दार्शनिक मतों का पूरुों विवेचन करना चाहिए | अपनी ही विचार-परम्परा मे सीमित रह जाने से उसकी पुण्ठटि और वृद्धि नही हो सकती 7? ] डॉ सत्तीशचन्द्र चट्टीपाध्याय एव डॉ घीरेद्भ मोहन दत्त भारतीय दर्शन पू -2 शास्त्रीय साहित्य 39 भारतीय दर्शन की शाखाएँ प्राचीन वर्गोकरण के अनुसार भारतीय दर्शन दो भागों मे वाँटे गए है-- ] झास्तिक दर्शन, एव 2 तास्तिक दर्शन । #' बेदवादी दर्शन को प्रास्तिक दर्शन के रूप में जाना जाता हैं। “नास्तिकीवेद निन्‍्दक '--प्र्यात्‌ वेद की निल्‍्दा करने वाले को नास्तिक कहते हे | प्रत बेंद की प्रशसा करने वाले को भ्राश्तिक कहते है, यह स्वयमेव स्पष्ट हो जाता है। वेद की प्रषसा का केवल यही प्रर्य है कि वेदिक साहित्य का प्रमाण रूप मे मानकर महज ज्ञान की समीक्षा करने वाले दर्शनो को प्राह्तिक दर्शन कहा जाता है । यदि ईश्वरवाद को श्रास्तिकता माना जाएगा तो कई पश्रास्तिक दर्शन भी नास्तिक सिद्ध हो जाएँगे प्रतएव भ्रास्तिकता वेदंवाद का ही दूमरा नाम है । भारतीय दर्शन मे छ दर्शवो-- साँख्य, योग, न्याय, वेशेषिक, सीमाँसा तथा वेदान्त को श्रास्तिक दशेन के रूप में जाना जाता है। ध्रास्तिक दर्शन पड्दर्शन के झूप मे भी प्रमिद्ध है । झास्तिक दर्षात का अर्थ ईश्वरवादी नही है। इन दर्शनों मे सभी ईश्वर को मही मानते हैं । इन्हे भ्रास्तिक इसलिए कहा जाता है कि ये सभी वेद को मानते हैं। मीर्मासा भौर सौंख्य ईश्वर को नही मानते फिर भी वे आास्तिक कहे जाते है, क्योकि वे देद को मानते हैं। इन छह प्राम्तिक दर्शनो के झतिरिक्त और भी कई भास्तिक दर्शन हैं। यथा--शैव दर्शन, पारिनीय दर्शन रसेश्वर दर्शन (भायुरेद), इत्यादि । इन दर्शनी का उल्लेख भाधवाचार्य ने 'सर्व दर्शन-सग्रह' मे किया है । नास्तिक दर्शन तीन हैं--चार्वाक, बौद्ध तथा जैन । ये नास्तिक इसलिए कहे जाते है कि मे वेदों को नहीं मानते। झाधुनिक भारतीय साहित्य में झस्तिक का ध्र्थ “ईशवरवादी' है तथा नास्तिक का अर्थ “प्रतीश्वरवादी' है । किन्तु प्राचीन दार्शनिक साहित्य के भनुसार श्रास्तिक का पभ्रर्थ 'वेदानुधायी” तथा नास्तिक का भर्थ वेदविरोधी' है। प्राचीन दार्शनिक साहित्य के अनुसार इन दोनों शब्दो मे से प्रत्येक का एक दूसरा भी श्र है। इस दूसरे भ्र्थ के भ्रनुसार भास्तिक परलोक में विश्वास रखने वाले को तथा वास्तिक परलोक नहीं भानने वाले को कहते है। ऊपर के वर्गीकरण के श्रनुसार मीमाँसा, वेदान्त, साँख्य, योग, स्याय तथा वशेषिक को झास्तिक दर्शन इसलिए कहा गया है कि ये वेदो को मानते हैं । भारतीय दर्शनों का वर्गीकरण यदि परलोक में विश्वास के भ्रनुसार किया जाए तो जैन तथा बौद्ध दर्शन भी भास्तिक दर्शन कहे जाएँगे, क्योकि वे भी परलोक को भानते हैं । पद्दर्शन को दोनो ही भ्रथों में झ्रास्तिक कह सकते है। भ्र्थात्‌ वे वेंद को मानने के कारण भी भास्तिक है। चार्चाक दर्शन दोनो सें से किसी भी प्र में ग्रास्तिक नही कहा जा सकता । बह न तो वेद को मानता, न परलोक को मानता है श्रत दोनों हो श्रथों में नास्तिक है ।* झास्तिक तथा नास्तिक की भिन्नता समभने के लिए यह जानना आवश्यक है कि भारतीय विचार-परम्परा में वेद का कया स्थान है । वेद भारत का शझ्रादि १ झॉ सत्तीशचद्ग घट्टीपा्याय एव डॉ धीरेद्र मोहन दत्त वही, पृ 2-3 38 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्कृतिक इतिहास भारतीय दर्शन की व्यापकता प्राचीन तथा श्रर्वाचीन, हिन्दू तथा भ्रहिन्दु, आस्तिक तथा नास्तिक-- जितने प्रकार के भारतीय है, सवो के दाशनिक विचारों को भारतीय दर्शन” कहते है । कुछ लोग भारतीय दणन को 'हिन्दू दर्शन! का पर्याय मानते है, किन्तु यदि 'हिदु! शब्द का प्रय॑ वैदिक धर्मावलम्बी हो तो भारतीय दर्शन का श्रथ ऊेवल हिन्दुओं का दर्शन समझना अनुचित होगा । इस सम्बन्ध में हम माधवाचार्य के 'सर्वेदर्शन-सग्रह' का उल्लेव कर सकते है | मापावाचार्य स्वय बेदानुयायी हिन्दू थे। उन्होने उपयुक्त ग्रन्थ मे चार्वाक, बौद्ध तथा जन मतो को भी दशन मे स्थान दिया है | इन मतो के प्रवत्तक वैदिक घर्मानुयायी हिन्दू नहीं थे। फिर भी, इन मतो को भारतीय दर्शन मे वही स्थान प्राप्त है जो वेदिक हिन्दुशों फरे द्वारा प्रवरतित दर्शनों को है । भारतीय दर्शन की दृष्टि व्यापक है। यद्यपि भारतीय दर्शन की अनेक शाखाएँ हैं तथा उनमे मतभेद भी है फिर भी, वे एक-दूसरे की उपेक्षा नही करती हैं। सभी शाखाएँ एक-दूसरे के विचारों को समभने का प्रयत्न करती हे | वे विचारों की युक्ति-पूंंक समीक्षा करती है, सौर तभी किसी सिद्धान्त पर पहुँचती है। इसी उदार मनोवृत्ति का फल है कि भारतीय दर्शन भे विचार-विमर्श के लिए एक विशेष प्रणाली की उत्पत्ति हुईं। इस प्रणाली के अनुसार पहले पूर्वपक्ष होता है, तब खण्डन होता है तथा श्रन्त मे उत्तर पक्ष या सिद्धान्त होता है। पृवपक्ष में विरोधी मत की व्याख्या होती है। उसके वाद उसका खण्डन या निराकरण होता है। अन्त मे उत्तर-पक्ष श्लाता है जिसमे दाशेनिक श्रपने सिद्धान्तो का प्रतिपादन करता है । इसी उदार दृष्टि के कारण भारतीय दर्शन की प्राय प्रत्येक शाखा भ्रत्पन्त समृद्ध हे । उदाहरण के लिए हम वेदान्त का उल्लेख कर सकते हैं। वेदान्त में चार्वाक, बौद्ध, जन, साँख्य, मीमाँसा, न्याय, वेशेषिक आदि सभी मतो पर विचार किया गया है। यह रीति केवल वेदान्त मे ही नही, किस्तु अ्रन्य दर्शोनो मे भी पाई जाती है । वस्तुत भारत का प्रत्येक दर्शन ज्ञान का एक-एक भण्डार है। यही कारण है कि जिन विद्वानों को केवल भारतीय दर्शन का ज्ञान भली-भाँति प्राप्त है वे बड़ी सुगमता से पाश्चात्य दर्शन की जटिल समस्याझो का मी समाधान कर लेते है । भारतीय दर्शन की उदार-दृष्टि ही उसकी प्राघीन रुमृद्धि तथा उन्नति का बारण है | भारतीय दर्शन यदि ग्रपने प्राचीन गौरव को पुन॒ प्राप्त करना चाहता हैं तथा उसे सुदृढ बनाना चाहता है तो उसे प्राच्य तथा पाश्चात्य, आय तथा श्ननायें यहदी तथा भ्ररबी, चीनी तथा जापानी--सभी दार्शनिक मतों का पूर्णो विवेचन करना चाहिए | अपनी ही विचार-परम्परा मे सीमित रह जाने से उसकी पुष्टि और वृद्धि नही द्दो सकती ।* ] डॉ सतौशचन्द्र चट्टोपाष्याय एवं डॉ धोरेद्र मोहन दत्त भारतीय दशन प्रृ [-2 शास्नीय साहित्य 39 भारतीय दर्शन की शाखाएँ प्राचीन वर्गीकरण के अनुसार भारतीय दर्शन दो भागों मे बाँटे गए हैं-- ) आस्तिक दर्शन, एव 2 नाल्लिक दर्शन | ४ वेदवादी दर्शन को श्रास्तिक दर्शन के रूप में जाना जाता है । “नास्तिकीवेंद निन्‍्दक “अर्थात्‌ वेद की निन्‍्दरा करने वाले झो नाल्तिक ऊहते है। भरत बेद की प्रणसा करने वाले को प्राघ्तिक कहते हैं, यह स्वयमेव स्पप्ट हो जाता है। वेद की प्रशमा का केवल यही श्र है कि वेदिक साहित्य का प्रमाण रूप मे मानकर सहज ज्ञान की ममीक्षा करन वाले दर्शनो को प्राम्तिक दर्शन कहा जाता है । यदि ईश्वर्वाद को झास्तिकता माना जाएगा तो कई त्रास्तिक दर्शन भी नात्तिक सिद्ध हो जाएँगे भ्तएव आ्राम्तिऊता वेदवाद का ही दूसरा नाम है । भारतीय दर्शन में छ दर्शनो--- साँस्य, योग, न्याय, वेशेपिक, मीमाँसा तथा वेदान्त को आस्तिक दर्शन के रूप ये जाना जाता है। श्ास्तिक दर्शन पड्दर्शन के रूप मे भी प्रसभिदड है। ५ प्रास्तिक दर्शन का झर्थ ईश्वरवादी नही है। इन दर्शनों में सभी ईश्वर को नही मानते हैं । इन्हें भ्रास्तिक इसलिए कहा जाता है किये सभी वेद को मानते हैं। मीमासा भौर साँह्य ईश्वर को नहीं मानते फिर भी वे प्राध्तिक कह्टे जाते है, क्योकि वे वेद को मानते हैं। इन छह प्राम्तिक दर्शनों के भ्रतिरिक्त और भी कई भास्तिक दर्शन हैं । यथा--शैव दर्शन, पाणिनीय दर्शन रसेश्वर दर्षन (झायुवंद), इत्यादि । इन दर्शनों का उल्लेख भाषवाचार्य में 'सर्व वर्शन-सग्रह' में किया है । नास्तिक दर्शन तीन हैं---चार्बाक, बौद्ध तथा जैन । थे नास्तिक इसलिए कहे जाते हैं कि ये वेदों को नहीं मानते। भझ्ाधुनिक भारतीय साहित्य में श्रास्तिक का श्वर्य 'ईंबबरवादी' है तथा नास्तिक का भ्रर्थ 'प्रनीश्वरदादी' है । किन्तु प्राचीन दार्शनिक साहित्य के भ्रनुसार भ्रास्तिक का भश्रर्थ 'वेदानुयायी! तथा नास्तिक का पर्थ बेंदविरोधी' है । प्राचीन दार्शनिक साहित्य के अ्रनुसार इन दोनो शब्दो में से प्रत्येक का एक दूसरा भी प्र्थ है। इस दूसरे भरथे के भ्रनुस्तार आस्तिक परलोक में विश्वास रखने वाले को तथा नास्तिक परलोक नही मानने वाले को कहते है। ऊपर के वर्गीकरण के धनुसार भीमाँसा, वेंदान्त, साँश्य, योग, न्याय तथा वेशेपिक को आत्तिक दर्शन इसलिए कहा गया है कि ये वेदों को मानते है। भारतीय दर्शनों का घर्गीकरण यदि परलोक में विश्वास के अनुसार किया जाए तो जैन तथा बौद्ध दर्शन भी झास्तिक दर्शन कह्दे जाएँगे, क्योकि वे भी परलोक को मानते है | पद्दर्शन को दोनों ही भ्रथों में भ्रास्तिक कह सकते हैं। भ्र्थात्‌ वे बेद को मानने के कारण भी भास्तिक हैं । चार्वाक दर्शन दोनो में से किसी भी श्रर्थ में भ्रास्तिक नही कहा जा सकता | वह ने तो बेद को मानता, न परलोक को सानता है अभ्रत दोनो ही श्नयाँ में नास्तिक है ॥? भ्राध्तिक तया नास्तिक की भिन्नता समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि भारतीय विचार-परम्परा में वेद का क्या स्थान है। वेद भारत का श्रादि ] डॉ सतोशषन्द्र घट्टोपाष्याय एव डॉ चीरेड् मोहन दत्त चही, पृ 2-3 40 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास साहित्य है। वेद के वाद की जो भारतीय विचारधारा चली वह वेद से बहुत झधिक प्रभावित हुई है । दार्शनिक विचारधारा पर तो इसका अत्यधिक प्रभाव पडा है। भारतीय दर्शन पर वेद का प्रभाव दो प्रकारों से पडा है। हम ऊपर कह आए है कि कुछ दर्शन गेद को मानते हैं तथा कुछ बेद को नही मानते । वेद को मानने वाले छह दर्शन 'पडदर्रन' के नाम से प्रसिद्ध है। इनमे मीमाँसा और वेदान्त तो वेदिक सस्कृति की ही देन हैं । वेद मे दो विचारधाराएँ थी। एक का सम्बन्ध कर्म से था तथा दूसरे का ज्ञान से । ये क्रमश बेदिक कर्म-काण्ड तथा वेदिक ज्ञान- काण्ड के नाम से विदित है। मीमाँसा मे कर्मे-काण्ड का युक्तिपूर्वक प्रतिपादन हुमा है । वेदान्त मे ज्ञान-काण्ड का पूरा विवेचन किया गया है भौर इस तरह वेदान्त जैसे एक विशाल दर्शन की सृष्टि हुई है | चूंकि मीमाँसा भौर वेदान्त मे वेदिक विचारों की मीर्मासा हुई है इसलिए दोनो को कमी-कमी मीमाँसा कहते हैं। भेद के लिए मीमांसा को पूर्व-मीर्मांसा या कर्म-मीमाँसा तथा वेदान्त को उत्तर-मीमाँसा या ज्ञान मी्मासा कहते हैं ।! साँख्य, योग, त्याय तथा वेशेषिक दर्शनो की उत्तत्ति बेदिक विचारो से नही हुई है । इनकी उत्पत्ति लौकिक विचारों से हुईं है किन्तु इस कथन से यह नहीं समभता चाहिए कि ये वेद-विरोधी थे । इनके सिद्धान्तो मे तथा वैदिक विचारों में पारस्परिक विरोध नही था । वैदिक सस्कृति के विरुद्ध जो प्रतिक्रियाएँ हुई थी उनसे चार्वाक, बौद्ध तथा जैन-दर्शनो की उत्पत्ति हुई । ये वेद को प्रमाण नही भानते थे--ये वेद-विरोधी थे । उपयु कत विचारो का सक्षेप नीचे लिखे ढंग से किया जा सकता है-- ] भारतीय दर्शन हि मम अल वरोधी दर्शन | बवैेदानुकूल दर्शन (चार्वाक, बौद्ध तथा जेन) वैदिक विचारो से उत्पन्न लौकिक विचारो से उत्पन्न आओ (साख्य, योग, है तथा वैशेषिक ) करमें-काण्ड पर आधारित ज्ञान-काण्ड पर प्राघारित (मीर्मासा ) (वेदान्त ) 2 हा दर्शन नास्तिक आस्तिक (प्रपरलोकवादी ) 5 (परलोकवादी ) चार्वाक बौद्ध, जैन तथा सभी वेदानुकूल दर्शन , 2 डॉ उतीशचन्द्र चट्टोपाध्याय एवं डॉ घीरेन्न मोहन दत्त वही, पृष्ठ 2-3 शास्त्रीय साहित्य 4 है अब हम सर्वेप्रथम ग्रास्तिक दर्शन अभ्थवा पदड़ुदन का और तत्पश्चात नास्तिक दर्शनों का सिहावलोकन करेंगे । * साँल्य दर्शन साँरुय दर्शन द्वेतवादी है। साँब्य को प्राचीनतम देन मात्रा जाता है 'साँढ्यों शब्द गणना एवं ज्ञान का वाचक है। अत जिस दर्शन में निविध दुर देहिक, दैविक तथा भौतिक के निवारण के लिए श्राठ सिद्धियो, नौ ऋः््धियो प क्लेशो की गणना ज्ञानमाग के स्तर पर की गई है, वही साँख्य दर्शन के रूप अभिधेय है । सॉल्य दशेन को उत्पत्ति (700 ई प्‌ ) पौराणिक कपिल) ने साँह्यसूत्र' नामक ग्रन्थ की रचना करके साँख्य दए का प्ाविर्भाव किया । प्रस्तुत द्शेन की उत्पत्ति सहज ज्ञान की समीक्षा भ्राधार पर 'सत्कायेवाद' को लेकर हुई । कपिल ने जीवात्मा को 'पुझंष' के रूप तथा प्रकृति को 'प्रघान! के रूप मे प्रस्तुत करके साँस्य को द्ेतचादी दर्शन के रूप प्रस्तुत किया । साँस्याकार का कोई प्रत्य प्रल्थ मौलिक रूप मे उपलब्ध नहीं है परन्तु आधुनिक 'सौख्यसूत्र' को कपिल के विचारो का भाधारभूत ग्रन्थ मान साँस्य के उद्गम को स्वीकार किया गया है। पुरुष और प्रधान को स्वीकार व्‌ साद्य ईएवर के विषय मे कोई सकेत नही कर पाता । कपिल ने अपने दर्शन ३ जनता को जो दिशाबोध दिया, वही साँस्य दर्शन का उदगभ माना जाता है । साँख्यकार ने प्रकृति श्रोर पुरुष के सयोग से महत्त्व को भ्रदभुत मा: 'महतत्त्व' को बुद्धि-तत्त्व के रूप मे जाना जा सकता है । इसी बुद्धि तत्त्व के सतोग झश से सत्वप्रधान भ्रदकार का जन्म साना तथा तम प्रधान भ्रश से तमो अहकार का | सत्वप्रधान अहकार से पच॒ कर्मेन्द्रिय, पच शानेन्द्रिय तथा प्रभयेन्द्रिय की उत्पत्ति स्वीकार की गईं है। तमोमय प्रहकार से पचमहाभू+, आकाश, वायु, भरिन, जल तथा पृथ्वी के गुण या तस्मात्रा स्वरूप क्रमश स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध को उद्भूत माना । पच तस्वो से निभित सृष्टि के प्र कारण के रूप से पचतस्मात्राओं को महत्त्व दिया गया । साँह्यकार ने सभी तथा दोषो का विश्लेपण तक॑ प्रणाली को अपनाकर किया जिससे उसे ज्ञान दर्शन के रूप मे आविभूत दर्शन स्वीक्षार किया गया । साँख्य दर्शन का विकास साँ्य दर्शव के विकास का श्रेय कपिल की शिड्य-परम्परा मे हुआ । 6८ पूर्व मे रचित 'साख्यसुत्र! को प्राधार बनाकर विभिन्न ऋषियों ने साँख्य को * १ भागवत्त, 3|2] |32 तया रामचरितमानस, वालकाण्ड च्वपु भुद भनू भ्रद शतरूपा । जिनते भई नर सृष्ठि श्नूपा ॥ देवहूति पुति तासु कुमारी | जो मुनि कर्म के प्रिय भारी ॥ झादिदेव प्रभुद दीन दवाला । जठिर घरेड़ जेहि कपिल कृपाला साँव्य शास्त जिन प्रकट वद्ाना। तत्त्व विचार निषुण भगवाना ॥ 2 ज्वाध्याय गुप्त साज्नाज्य का इतिहास, भाग-2, पृ 06 42 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉँस्क्ृतिक इतिहास झपने प्रन्थो मे स्थान दिया । 600 ई पू से 600 ई तक साँख्य का विकास साहित्यकार और दर्शन के ग्रन्थों के रूप मे होता रहा है। ऋग्वेद का 'नासकीय' सृक्त कपिल के विचारों को स्पष्ट करने वाला माना गया है। इस सूक्त में सृष्टि की भ्रनिर्वंचनीयता का सकेत करके सतृतत्त्व को भ्रवश्य स्वीकार किया है। अत कपिल का 'सत्कायेवाद' ऋग्वेद मे भी प्रतिविम्बित है। उपनिपद्‌ साहित्य मे जो साँस्थ-तत्त्व विकीर्ण है, उन्ही को घ्यात से रखकर कपिल की शिष्य परम्परा मे झाधुनिक साँस्यसूत्र' का प्रणयन हुआ है। यही ग्रन्थ गीता जैसे दार्शनिक ग्रन्थ को किसी न किसी रूप में प्रकाशित करने वाला रहा है। इसके प्तिरिक्त विन्ध्यवासी, ईश्वर कृष्ण, गौडवाद, माठराचार्य प्रमुति दार्शनिको न साँख्य दर्शन के विकास में योगदान दिया, जिनका यहाँ सक्षिप्त विवेचन किया जा रहा हैं । पचम शत्ती ई पू में महाभारत तथा गीता नामक ग्रन्थ प्रसिद्ध हो चुके थे । गीता में 'साँख्य' शब्द का प्रयोग ही नही हुआ अपितु साँच्य के सिद्धान्तो को भी अनेक रूपो मे स्पष्ट किया गया है। “गीता' मे साँछय झौर योग को तत्त्वत एक ही कहा गया है। जो व्यक्ति साँर्य झौर योग को तत्त्वत पृथक्‌ भानता है, वह उक्त दर्शनो के रहस्य से परिचित नही है ।! गीता मे 'साँख्य' के ज्ञान- मांगे का विस्तृत रूप मे प्रतिपादन हुआ है । सॉल्य सूत्र मे प्रोक्त कर्मसिद्धि के तत्त्व-अधिष्ठान, कर्त्ता, करण, चेष्टाएँ तथा देव को “गीता” मे स्थाव दिया गया है।* साँख्य मे सभी कार्यो को प्रकृति सिद्ध माना गया है । गीता मे भी यही स्पष्ट किया गया है कि जो व्यक्ति अपने आपको कार्य का कर्ता मानता है, वह अरहकार से लिप्त होने के कारण विसृढ़ है-- प्रकृते क्रियमाणानि गुण कर्मारिय सर्वेश । अहकारविमूढात्मा कर्त्ताहमिति मन्यते ॥॥ “गीता! के दूसरे भ्रष्याय मे दु खो से मुक्ति के रूप मे साँस्य सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया है। भझात्मा की पझ्रविनश्वरता तथा प्रकृति के ग्रुण-तसतू, रज तथा तम के स्वाभाविक उदय एवं विकास को समभने से व्यक्ति को यथार्थ ज्ञान होता है तथा व्यक्ति उसी ज्ञान के भ्राधार पर दुख विमुक्त होता है 4 “गीता” मे सम्पूर्ण ज्ञानमार्ग का उद्भव एवं उद्गम ज्ोत 'साँल्य' को ही कहा है ।? 'गीवा' भे साँख्य के स्वभाववाद का भी अनुपालन किया गया है प्नत साँखु्य दर्शन के प्रभाव को ग्रहरणा करके उसे एक भास्तिकवादी दर्शन सिद्ध करने में गीता का महत्त्वपुर्णं योगदान है । १. साँड्ययोगो पृथरवाला प्रवदन्ति न पण्डिता । एक साँब्य च योग चर य पश्यति स पश्यति ॥--गौता, 2/4 5 2 बही 84 3 वही 3|27 4. वही 2/2-7 5 गीता 3/3 शास्त्रीय साहित्य 443 442 ई के गुप्तफालीन शिलालेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'महामारत' को एक लाख बलोको के बृहदाकार ग्रन्य का श्रेय पचम शताब्दी के मध्य दक प्राप्त हो चुका था । इसलिए यदि यह कह दिया जाव कि साँल्‍्य दर्शन को कपिल के पश्चात चौथी शताब्दी तक विकसित रखने का श्रेय गीता को ही रहा है तो कोई भ्रत्युक्ति ने होगी । फिर भी गीता के माध्यम से साँस्य को कीति का विकास हुप्रा, उसके तात्विक विवेचन पर न तो पृूथकत प्रकाश डाला गया श्रौर न ही श्रलग से साँस्य का विचारक ही हुमा । त्तीसरी शी मे कोई विन्ष्यवासी नामक विचारक हुए, जिन्होने साँख्य दर्शन से सम्बद्ध कोई ग्रन्थ अत्रश्य लिखा होगा, परन्तु सम्प्रति उनका कोई ग्रल्य उपलब्ध नही है । बौद्ध भिक्षु परमार्थ ने विन्ध्यवासी या उद्रिल के विषय मे यहाँ तक कह डाला है कि उन्होंने बौद् भाचायें दसुबन्बु के ग्रुरु वुद्धमित्र को अयोध्या में शास्त्रार्थ करके पराजित किया था । भरत विन्ष्यवासी मे बौद्धों के झअसत्फायंवाद का खण्डन करके साँख्य के सत्कायंवाद का ही मण्डन किया। इस प्रकार विन्ध्यवासी ने साँरय के विकास मे योगदान भ्रवश्य दिया । चौथी शताब्दी मे बौद्धाचार्य बसुबन्धु ने साँस्य का सण्डन करके बौद्ध मत का झृण्डन किया था| ईश्वर कृष्ण ने भाचायें वसुबन्धु के मव का खण्डन करने के लिए 'सास्यकारिका! नामक ग्रन्थ की रचना की । इस ग्रन्थ मे केवल 78 कारिकाएँ हैं। साँल्मकारिका को साँल्यदर्शन को उच्चतम कृति माना जाता है। झाचायें ईश्वर कृष्ण ने महर्षि कपिल द्वारा प्रतिपादिनपच्चीस तत्वो को वैज्ञानिक, आधार देकर साँस्य दर्शन का विकास किया। 'साँल्यसूत्र' मे जिगुरामग्री माया को एक तत्व के रूप _भे शिना गया । उस माया या प्रकृति से महत्तत्त्व की उत्पत्ति हुईं। महत्‌ से अहकार का जल्म हुआ । इस प्रकार अहकार तक तीन तत्व गिनाते गए | श्रहकार से पचतन्मात्राएँ--शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध को उद्भूत बताया तथा उनसे पचमहाभूतो को उत्पन्न बताया गया । श्ँख, कान, नाक, रसना, तथा त्वचा को ज्ञानेन्द्रिय तथा हाथ पैर, बाक्‌, उपस्थ एवं वायु को कर्मेंन्द्रिय सिद्ध करके मन को उभयेन्द्रिय सिद्ध कर दिया गया । उपयुक्त चौवीस तत्वों मे 'पुरुष' को जोडकर तत्व-सर्या पच्चीस माती गईं । ईश्वर कृष्ण ने भी इसी सस्या को बरकरार रखा । उन्होने मूल प्रकृति को 'प्रधान' के रूप मे रखा । कपिल की भाँति ही ईश्वरकृष्ण ने भी प्रधान को निविकार कह | सहतत्वादि को प्रकृति के सात घविकारो-महतत्व, प्रहकार, शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध के रूप मे प्रस्तुत किया । सोलह विकारो के रूप मे ग्यारह इन्द्रियो त्तता पचमहाभूतो को प्रस्तुत किया । पच्चीसवें तत्व के रूप में पुछप को रखा । ईश्वरक्षण्ण ने प्रधान को झनेक गुणों से विभुषित सिद्ध किया । साँदयकारिका मे भ्रघान के स्वरूप को घिकसित करने के लिए झग्रलिखित ललण प्रतिपादित किए है । प्रधान को अनादि तत्व सिद्ध करके, उसे 'स्वतोव्यक्त' सिद्ध कर दिया है चूंकि प्रधान एक भमर तत्व है, झत उसे “नित्य” सिद्ध किया गया है । प्रवान सूल प्रकृति के रूप मे एक ही है, झत उसका तीसरा लक्षण 'एक' ण गया है । प्रधान को निरपेक्ष या स्वतन्त्र तत्व सिद्ध करके “निराश्रय/ सिद्ध 44 श्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्क्ृतिक इतिहास किया गया है । विधर्मी प्रववचहीन प्रधान को निरवयर्वा भी कहा गया है । प्रधान को स्वतन्त्र सिद्ध करके 'स्वतन्त्र” लक्षण भी दिया गया है। मूल प्रकृति सर्देच अदृश्य रहती है, भ्रतएव उसे '्रव्यक्त' कहा गया है। सतु, रज तथा तम नाम त्रिभुण से युक्त होने के कारण प्रधान को “तिग्रुणमयी” कहा गया है । सृष्टि रचना के रूप मे प्रधान को 'प्रसव्घमिणी' कहा गया है। प्रकृतिबद्ध जीवो को मोक्ष दिलाने में भी प्रघान का विशेष हाथ रहता है, ग्रत उसे 'पुरुष' की सहायिका' भी बताया गया है ईश्वर कृष्ण ने कपिल द्वारा प्रतिपादित “पुरुष” के स्वरूप को भी स्पष्ट किया । उन्होने पुरुष को साक्षी” के रूप मे जीव के भोगो का साक्षी कहा है | विशुद्ध पुएष की निलिप्तता सिद्ध करके उसे भोगास्वाद के रूप मे “'मध्यस्थ” कहा है। पुरुष को दुष्टा', अकर्त्तार, चेतन”, 'गुणातीत”, “विवेकशील”, “पप्रसवर्धर्मी' तथा 'प्रव्यक्त' सिद्ध किया गया है। ईश्वरक्ृष्ण ने सभी जीवो को युगपत्‌ चेष्टा न करने के भ्राधार पर पुरुष बहुत का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है । पुरुष का झबन्‍्ण्त््व सिद्ध करते समय ईरबर कृष्ण ने साँख्य को ज्ञानमार्ग की कसौटी पर कस दिया है | हम निम्नलिखित उदाहरण को वेदान्तवादियो के लिए भी एक महान्‌ प्रेरणा का स्लोत मान सकते हैं-- तस्मान्न बध्यते नापि मुच्यते नापि ससरति कश्चित्‌ । ससरति बद्धयते भुच्यते च नानाञ्रया प्रकृति ॥ ईश्वर कृष्ण ने सत्कायंवाद को स्पष्ट करने के लिए भी सास्यिकारिका मे बहुत कुछ कह दिया है । 'साँस्पकारिका' मे सत्कायंवाद का स्वरूप असदकरण, उपादान ग्रहरा, सर्वर्भवा-भाव, शक्तस्य शक्यकरण तथा कारणभाव नामक पाँच कारणों को प्रस्तुत किया है।? साँख्यकारिका” मे योगदर्शन मे प्रसिद्ध भ्रविद्या, अस्मिता, राग, हप एव अभिनिवेश नामक पाँच तत्त्वों को तम, मोह, महामोह, तामित्न तथा भ्रन्धतामिस्र के नाम से पुकारा है। 'साँल्यसूत्र” के सभी तत्त्वों की गाना का कार्य साँस्यकारिका मे हुभ्ा है । 'साँल्यकारिका' के सुप्रसिद्ध भाष्यकारो के रूप मे प्राचायं माठर तथा झाचारय॑ गौडपाद उल्लेखनीय हैं | ये दोनो ही भाचाये छठी शताब्दी की उपज है। आचार्य माठर की 'माठरबृत्ति! साँस्यदर्शन की विलक्षण कूति है। झाचार्य गौडपाद ने भी साख्यदर्शन के विकास मे प्रशसनीय योगदान दिया है । आाचाये कपिल के दो ग्रन्यो--साँरपषडाध्यायी तथा “तत्त्वसम्रास” को मिलाकर दी '“साँल्यसूत्र' बना है । इन दोनो ही ग्रत्यों के अनेक व्याल्याकार हुए है । साँख्य पडाध्यायी व्याख्याकार - साँख्य षडाध्यायी के व्याख्याकारों में प्रनिरुद्ध, महादेव तथा विज्ञानसिक्षु उल्लेखनीय है । डॉ गार्ष ने प्निरुद्ध का स्थितिकाल पन्द्रहवी शताब्दी स्वीकार १ अतदकरणादुपादानागृहणात सर्वे्वम्भवाभावानू ॥ शक्तसा शक्‍्यकारणातू कारपभावाज्च सत्कायेम्‌ ॥ ---साँल्यकारिका, 9« शास्त्रीय साहित्य 45 किया है परन्तु अव यह मत अ्रप्रामारिशिक माता जाता है, क्योंकि 300 ई में होने वाले महादेव वेदाँती ने झनिरुद्ध के झअनिरुद्धवृत्ति! नामक ग्रन्थ को आधार बनाकर 'सांख्यसूत्र' के ऊपर 'वृत्तिसार' लिखा | दर्शनशास्त्र के विभिन्न विद्वानों ने विज्ञान भिक्षु का स्थितिकाल 550 ई स्वीकार किया है| सस्कृतत साहित्य के इतिहासकार कीथ ने इस समय-सीमा को एक शताब्दी श्रागे वढाकर विज्ञान भिक्षु का समय 650 ई माना है | पी के गोडे ने श्रनेक बिह्ानो के मतो की मीसासा करके यही सिद्ध किया है कि विज्ञान भिक्षु !55-580 ई के बोच रहे होगे । शास्त्री साँल्यदर्शन के इतिहास मे 'साँस्यपडाध्यायी' के प्रमुख व्यास्याकारों का क्रम इस प्रकार रखा है-- अनिःष्द्ध ]00 ई के लगभग महादेव 300 ई के लगभग विज्ञानभिक्षु ]400 ई के लगभग स्वामी दयानन्द ने झ्ाचार्य भागुरि को तत्वसमास के व्याख्याकार झाचार्य कपिल के 'तत्वसमाससूत्र” पर भी भ्रनेक विद्वानों ने व्याल्याएँ लिखी । चौरूस्वा सस्कृत सीरीज, वाराणसी ने 98 ई में 'तत्त्वसमाससूत्र' से सम्बद्ध व्यास्याह्रो को प्रकाशित किया है । उक्त सकलन मे व्यास्या-क्रम इस प्रकार रहा है-- महादेव सर्वोपकारिणी टीका भी. सास्यसूत को जर्फेकारस्सातिी ई। 4430 भय लम कील +५. (300 ६ ) भावागणोश तत्वयाथारध्यंदीपन (!400 ६ ) मिषानन्द सौाँख्यतत्त्वविवेचन (।700 ३ ) केशव साल्यतत्त्व प्रदीपिका (700 ई ) ९ साँख्यदर्शन को विकसित करने मे वेंदान्तविद्‌ जगदगुद शकराचार्य का भी योगदान है | जगदगुरु ने साँस्थ” शब्द को केवज़ गणना का वाचक न मानकर ज्ञान का भी वाचक माना हैं। 'जुयमगला' नामक ग्रन्थ को शकराचार्य कृत माना जाता है। प्राचायं कपिल के 'साँख्यसूत्र” को भ्राघार बनाकर जो तत्त्व-मीमाँसा हुई, उससे साँख्य दर्शन का तो विकास हुआ।, परन्तु भ्रन्‍्य दर्शनो को विकसित होने की प्रमुल्य प्रेरणाएँ भी मिल्री । साँख्य की पदार्थ मीमाँसा को प्राय सभी दर्शनों ने कि हेर फेर से झ्पनाया दै। साँख्य का ज्ञानमा्गं विश्व के सभी दार्शनिको के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा है । ह कपिल का साँस्यसूत्र हे इस समय जो 'सॉस्यसूत्र” उपलब्ध है, उसी को कपिल की कृति मान लिया गया है। इस प्रन्य मेछ अध्याय है। इस ग्रन्थ मे पदार्थ विवेचन को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। यहाँ हम 'साँख्यसत्र” के तत्त्व विवेचन मे केस ूः चन को सक्षेपत प्रस्तुत कर 46 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं साँस्कृतिक इतिहास मूल प्रकृति को 'प्रधान! नाम दिया गया है | यह पद्धति अनादि होने के कारण किसी की विकृति नहीं है। सत्तत, रज तथा तम नामक निगुण की साम्यावस्था को प्रकृति कहा गया है । प्रकृति का सत्त्वगुण सुख्तात्मक, रजोगुण दु खात्मक तथा तमोगुर मोहात्मक माना गया हे । प्रकृति को स्वयसिद्ध तथा अनादि मानकर तत्त्व-विचेचन को ग्रनवस्था दोप से शुन्य कर दिया गया है | 'साँख्यसूत्र' मे दूसरा तत्त्व 'पुरुष' है । इसी को जीवात्मा के नाम से जाता जा सकता है | पुरुष चेतन है जड नही । पुरुष सृष्टि के पदार्थों का भिन्न-भिन्न रूपो मे उपभोग करने के लिए है । पुरुष के सन्दर्भ मे यह भो स्पष्ट कर दिया गया है कि वह भोगो का भोग करने के कारण भोक्ता है इसीलिए पुरुष को सुख-दुख का भागी माना गया है । पुरुष ज्ञान के भ्रभाव मे समार मे ससरण करता है! जब उसे यथार्थ ज्ञान हो जाता है तो वह यही अनुभव करता है कि प्रकृति ही ससरण रही है, वह तो नित्य मुक्त है । साँरय मे सृष्टि के निर्माण को सत्फायंवाद' के ऊपर आधारित किया है । प्रकृति सत्‌ तत्त्व है, क्योकि अ्सत्‌ तत्त्व से सतू तत्त्व का निर्माण असम्भव है । अनादि कालीन प्रकृति की साम्यावस्था मे पुरुष के सयोग से विकार उत्पन्न होता है । पहले महत्त्व उत्पन्न होता है तथा तदनन्तर प्रहकार ) अरहकार के सत्‌ तत्त्व से पच् कर्मेन्द्रिय तथा पच ज्ञानेन्द्रिय एव एक उमयेन्द्रिय, श्रर्थात्‌ मन की उत्पत्ति होती है । अहकार के तमप्रधान तत्त्व से शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध नामक पच तन्‍्मात्राश्रो की उसत्ति होती है। पत्र तन्मात्राओ से पचमहाभृत आविशूत होते हैं। इस प्रकार से सृष्टि-रचना मे 9कूति चौबीस रूपो मे तथा पुरुष एक चेतन तत्त्व के रूप मे समुक्त होकर योगदान करते हैं । - साँख्य दर्शन मे निर्वाण या मोक्ष की प्राप्ति का झाघार ज्ञान माना गया है। 'ज्ञानान्ऋते न मुक्ति '--भर्थात्‌ ज्ञान के बिना मोक्ष नही मिलता । इसी प्रकार से 'समाधिसुषुध्तिमोक्षेपु ब्रह्मरूपता'-भर्थात्‌ समाधि, सुपुष्ति एव मोक्ष मे ब्रह्माकारता का भप्रनुभव होता है। निर्वाण को आनन्द का घाम/माना गया है । झर्वाचीन साँख्य मे ईश्वर का अस्तित्व भी स्वीकार किया गया हैं, जो हम निर्वाण के सन्दर्भ मे राष्ट कर चुके हैं। कपिल का 'साँख्यसूत्र” विभिन्न दर्शनों का प्रेरशा-स्रोत रहा है। साँख्य की तत्त्व विवेचन प्रशाली की वैज्ञानिकता का दर्शन- जगत्‌ मे अत्यंधिक आदर हुआा है । योग दर्शेत पतजलि का 'योगसुत्र,' योग दर्शन का प्रामाणिक गनन्‍्थ है| द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व के इस ग्रन्थ मे चित्त की वृत्तियों के निरोध से सम्बद्ध सहज ज्ञान की समीक्षात्मक विद्या को योग दर्शन कहा गया है । योग दर्शन ज्ञाननिष्ठा स्वरूप योग की परम्परा वैदिक युग से 'ही चली श्रा रही है । ईएबर ने सूर्य नामक ऋषि को योग का रहस्य समभाया था । सूर्य ने उसी यौगिक शास्त्रीय साहित्य !47 रहस्य को प्रपने पुत्र मनु को समझाया । मनु ने योग-तत्त्व का वर्णन प्रपने पुश्न इक्ष्वाकु के सम्मुख किया ।! बीच में योग विद्या का विलोप-सा हो गया था । परन्तु प्रनेक राजधियो ने योग के रहस्य को यथासमय समभा । उसी रहस्थबूर्ण योग तत्त्व को भगवान श्रीकृष्ण ने अजु न के सम्मुख प्रस्तुत किया | 500 ई पु मे गीता ने योग दर्शन को साँसुय दर्शन के साथ सम्पृक्त करके उसकी ध्राचीनता सिर्ध कर दी | उपतनिपदो मे योगविद्या का सुन्दर निदर्शन है। श्वेताश्वतरोपनिषद्‌ मे योग के चमत्कारों का सुन्दर वशँन हुआ है । पुराणों मे शकर को प्लादि देव कहने के साथ- साथ उन्हे घोगिराज भी सिद्ध किया है । ऐसा प्रतीत होता है कि शकर ने ज्ञानमार्ग का अवतेत किया था। शिवपुराण मे शकर का देवताशो के विरुद्ध रोमांचक संघर्ष प्रस्तुम किप्रा गया है। कहा जाता है कि शंकर के भाइम्बर विहीन योगमार्ग पे श्रार्य एवं भ्रनायें प्रत्यधिक प्रभावित हुए थे । देववश की भोगवागिता के विरोध मे शकर का योगमार्गे प्रसिद्धि को प्राप्त होता चला गया । देव झौर देवेतर जातियो मे समन्वय स्थापित करने के लिए प्रयाग मे एक समा आयोजित की गई | शकर के श्वसुर दक्ष की सभापत्ति बनाया गया । सभापत्ति के स्वागत मे शकर ने दो शब्द त्तक न कहे । शकर ने समन्‍्यय न होने की स्थिति देखकर सभा से वहिगेमत किया। शकर के प्ननुयागी नन्दकेश्वर ने देव सस्कृति के पक्षघरों को दण्ड देने का उस समय प्रण॒ भी कर डाला, जबकि भृगु, पूषा भादि ने शकर का उपहास किया | कालान्तर भेशकर के विरोध हेतु उनके हरिद्वार स्थित प्राश्वत्त के पाम ही कनछलल नामक स्थान पर देवयज्ञ सुम्पादित किया गया । उस यज्ञ मे दक्ष की पुत्री तथा शकर की पत्नी सती ने शकर का अपमान समझकर यज्ञ की ज्वाला में प्लात्मदाह कर डाला । शकर ने वीरभद्र नेहृत्व मे ज्ञानपार्गी राजाप्रो को एकत्रित करके देवगज्ञ का विध्चस करा दिया । इस घटना से यह स्पष्ट हो जाता है कि शंकर तिश्ववत योगवादी थे | योग, साँरुय, वेदान्त प्रादि सभी दर्शन ज्ञानमार्ग के पोषक एव अनुगामी हैं । नाथ सम्प्रदाय के भक्त भी शकर को ध्रादिनाथ मानते हैं। शकर को समाधि-सिद्ध व्यक्ति के रूप मे पुराणों में श्रनेक वार याद कियागया है। प्रत भाडम्बरों का विरोध करने के लिए एक वेज्ञानिक मार्ग की झ्ावश्यकता पडी । भ्रतएवं योग दर्शन का विकास उसी परम्परा मे हुभ्ा । बेंद, भारण्यक, उपनिषद्‌ तथा गीता मे जो योग-तत्त्व विकीणों है, उसी को सग्रहीत करके झाचार्य पतजलि ने थोगसूत्र' को दार्शनिक स्तर पर प्रस्तुत किया । ई पू द्वितीय शत्ती मे पतजलि ने योग के भ्राठ भ्गो को भ्ाधार भानकर समस्त विभूतियो के प्रति वैराग्य रखकर कैवल्य को प्राप्त करने के लिए योग-तत््व को वेज्ञानिक रूप में प्रस्तुत किया । योग दर्शन का विकास ईमा पूर्व छठी शताब्दी में गौतम बुद्ध के भ्रण्टाँग योग का उदय यह सिद्ध करता है कि वैज्ञानिक साधना का पक्षघर योगदर्शन प्राचीनकाल से ही विकासमान 3 शोता, 4! 48 प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्कृतिक इतिहास था | सॉँस्प दर्शन के प्रव्तंक कपिल भी योगविद्या के जानकार थे । योग से सम्बद्ध प्राचीन ग्रल्यो से वेदिक कालीन झगिरा का 'थोग-प्रदीप' प्रसिद्ध रहा है। पौराणिक युग त्ेता मे रावण का दलन करने वाले श्रीरामचन्द्र के श्वसुर सीरध्वज जनक ने योग-प्रभा' नामक ग्रन्य की रचना की । पौराणिक कश्यप ने “योग-रत्नाकर' नामक ग्रल्थ की रचना करके योगदर्शन का विकास किया । सूर्यवश के राजा रघु के समकालीन कौत्स ने 'योग-विलास”' नामक योग-तत्त्व से सम्बद्ध ग्रन्य की रचना की । शकर के भ्रनुयायी मह॒वि मरीचि ने 'योगसिद्धान्त' की रचना की । आदि प्राय मनु के पिता सूर्य ने 'योग-मार्तण्ड' नामक ग्रन्थ लिखा। झाचाय॑ सजय का "प्रदर्शन योग' ग्रन्थ भी योगशास्त्र का प्रमुख ग्रन्य रहा है । परन्तु खेद का वियय तो यह है कि उपयुक्त सभी योगशास्त्रीय ग्रल्य उल्लेख के रूप मे योगशास्त्र के इतिहास की परम्परा के पोपक हैं । प्राज उनके तिद्धान्त 'महाभारत', गीता, 'पुराणसहिता' झादि मे बिखरे हुए मिलते है! पतजलि का योगसूत्र ईसा पूर्व दूधरी शताब्दी मे महर्षि पतजलि ने योग-सत्व को सूत्रबद्ध करके योगसूच्र” नामक प्रामाणिक ग्रन्य की रचना की । योगसूत्र' ग्रन्य॒को चार भागों मे बाँटा गया है । ये चार भाग इस प्रकार हैं--। समाधिपाद, 2 साधनपाद, 3 विभूतिपाद तथा 4 कैवल्यपाद। - समाधिपाद मे योग को परिभाषित करके योग के रहस्य की ओर झागे बढा गया है। चित्त की वृत्तियों को निरोध करने का नाम योग बताया गया है | जिस समय पुरुष या द्रष्टा ्रपने स्वरूप में भ्रवस्थित हो जाता है तो उसे स्वरूपाकारता की ही प्रतीति होनी है ।2 परन्तु समाधि तोड देने पर व्यक्नि को अबृत्ति के अनुरूप अपना स्वरूप पतीत होने लगता है ।8 समाधिपाद मे योगमार्ग पर चलने के लिए आवश्यक श्रद्धा को जगाने का भी उपक्रम है । प्रत्यक्ष, अनुमान तथ